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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 1 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 1

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तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन

नारदजी बोले - [हे ब्रह्मन्!] हमने गणेश तथा स्कन्दकी सत्कथासे समन्वित गृहस्थ शिवजीके आनन्दप्रद उत्तम चरित्रका श्रवण किया। विहार करते हुए शिवजीने जिस प्रकार दुष्टोंका वध किया, अब आप उस श्रेष्ठ एवं उत्तम चरित्रका अत्यन्त प्रेमपूर्वक वर्णन कीजिये 1-2 ॥ पराक्रमशाली भगवान् शंकरने एक ही बाणसे एक

साथ दैत्योंके तीनों पुरोंको किस प्रकार जलाया ? ॥ 3 ॥ आप मायासे निरन्तर विहार करनेवाले भगवान् शंकरके इस सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन कीजिये, जो देवताओं तथा ऋषियोंको सुख देनेवाला है ॥ 4 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे ऋषिश्रेष्ठ! पूर्वकालमें व्यासजीने महर्षि सनत्कुमारसे यही बात पूछी थी, तब सनत्कुमारजीने उनसे जैसा कहा था, वही बात मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ 5 ॥

सनत्कुमार बोले- हे महाविद्वान् व्यासजी ! आप शंकरके उस चरित्रको सुनिये, जिस प्रकार विश्वका संहार करनेवाले उन शिवने एक ही बाणसे त्रिपुरको भस्म किया था। हे मुनीश्वर ! शिवजीके पुत्र कार्तिकेयके द्वारा तारकासुरका वध कर दिये जानेपर उसके तीनों पुत्र दैत्य घोर तप करने लगे ॥ 6-7 ॥

उनमें तारकाक्ष ज्येष्ठ, विद्युन्माली मध्यम तथा कमलाक्ष कनिष्ठ था। वे सभी समान पराक्रमवाले, जितेन्द्रिय, महाबलवान्, कार्यमें तत्पर, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महावीर एवं देवताओंके द्रोही थे ॥ 8-9 ॥

तीनों दैत्य सम्पूर्ण मनोहर भोगोंको त्यागकर मेरुकी | गुफामें जाकर अत्यन्त अद्भुत तप करने लगे ॥ 10 ॥तारकासुरके वे तीनों पुत्र वसन्त ऋतुमें उत्सवसहित गीत वाद्यको ध्वनि तथा समस्त कामनाएँ त्यागकर तप करने लगे ॥ 11 ॥

ग्रीष्म ऋतु सूर्यके तेजको जीतकर अपने चारों और अग्नि जलाकर तथा उसके मध्यमें स्थित होकर वे सिद्धिके लिये आदरपूर्वक हव्यकी आहुति देने लगे ।। 12 ।।

उस समय वे महान् गर्मीसे सन्तप्त होकर मूच्छित हो जाते थे और वर्षाकालमें निर्भीक होकर सिरपर वृष्टिको सह लेते थे। शरत्कालमें उत्पन्न हुए मनोहर, स्निग्ध, स्थिर, उत्तम फल मूलादि पदार्थोंका तथा उत्तम प्रकारके पेय पदार्थोंका भूखोंके लिये दानकर स्वयं भूखे रह जाते थे, वे संयमपूर्वक भूख-प्यासको जीतकर पत्थरके समान हो गये थे । ll 13-15 ॥

वे महात्मा हेमन्त ऋतुमें पहाड़ोंका आश्रय लेकर बड़ी धीरताके साथ स्थित हो, निराधार हो चारों दिशाओंमें निवास करने लगे। तुषारसे आच्छादित शरीरवाले वे सब निरन्तर जलसे भीगे हुए रेशमी वस्त्र धारणकर शिशिर ऋतु में जलके बीचमें खड़े होकर विषादरहित होकर क्रमशः अपने तपको बढ़ाने लगे। इस प्रकार ब्रह्माजीको उद्देश्य करके उस [तारकासुर] के वे तीनों श्रेष्ठ पुत्र तप कर रहे थे ll 16-18 ॥

वे श्रेष्ठ दानव परम नियममें स्थित रहकर कठोर तप करके तपस्याके द्वारा अपने शरीरको सुखाने लगे ॥ 19 ॥

सौ वर्षतक एक पैरके सहारे पृथ्वीपर खड़े | होकर उन अति बलवान् दैत्योंने तप किया। वे दारुण तथा दुरात्मा दैत्य हजार वर्षपर्यन्त वायुका भक्षणकर महान् कष्टसे युक्त हो तप करते रहे ॥ 20-21 ॥

वे एक हजार वर्षतक पृथ्वीपर सिरके बल खड़े रहे और सी वर्षतक दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर खड़े रहे। इस प्रकार दुराग्रहमें तत्पर होकर उन्होंने बहुत क्लेश प्राप्त किया, वे दैत्य आलस्यको छोड़कर | दिन-रात तप करने लगे ।। 22-23 ।।

हे महामुने! इस प्रकार धर्मपूर्वक तप करते हुए | तथा ब्रह्माजीमें मन लगाये हुए उन तारकपुत्रोंका बहुत समय बीत गया, ऐसा मेरा विचार है। उसके बादसुरासुरके महान् गुरु तथा महायशस्वी ब्रह्माजी उनके तपसे सन्तुष्ट हो गये और उन्हें वर देनेके लिये प्रकट हुए ।। 24-25 ।।

उस समय सभी प्राणियोंके पितामह ब्रह्माजी मुनियों, देवगणों तथा असुरोंके साथ वहाँ जाकर सान्त्वना देते हुए उन सभीसे यह वचन कहने लगे- ॥ 26 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे महादैत्यो! मैं तुमलोगोंके तपसे प्रसन्न हो गया हूँ। मैं तुमलोगोंको सब कुछ दूँगा, जो तुमलोगोंका अभीष्ट वर हो, उसे कहो ll 27 ll

हे देवशत्रुओ! मैं सबकी तपस्याका फलदाता और सर्वदा सबका रचयिता हूँ, अतः बताओ कि तुमलोगोंने अत्यन्त कठिन तप किस उद्देश्यसे किया है ? ।। 28 ।।

सनत्कुमार बोले – उनकी यह बात सुनकर उन सबने हाथ जोड़कर पितामहको प्रणाम करके फिर धीरे-धीरे अपने मनकी बात कही ॥ 29 ॥

दैत्य बोले- हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो हमें सब प्राणियोंमें सभीसे अवध्यत्व प्रदान कीजिये ॥ 30 ॥

हे जगन्नाथ! आप हमें स्थिर कर दें और हमें जरा, रोग एवं मृत्यु आदि कभी भी प्राप्त न हों। हम सभी अजर-अमर हो जायँ ऐसा हमारा विचार है। हमलोग तीनों लोकोंमें अन्य सभी प्राणियोंको मार सकें। पर्याप्त लक्ष्मीसे, उत्तम पुरोंसे, अन्य विपुल भोगोंसे, स्थानोंसे अथवा ऐश्वर्यसे हमें क्या प्रयोजन! हे ब्रह्मन् यदि पाँच ही दिनोंमें प्राणी मृत्युके द्वारा ग्रसित हो जाता है-यह निश्चित ही है, तब तो | उसका सब कुछ व्यर्थ हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ll 31-34 ll

सनत्कुमार बोले- उन तपस्वी दैत्योंकी यह बात सुनकर ब्रह्माने गिरिपर शयन करनेवाले अपने स्वामी भगवान् शंकरका स्मरण करके कहा- ॥ 35 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे असुरो ! पूर्ण अमरत्व किसीको नहीं मिल सकता, इसलिये इस वरका आग्रह मत करो और अन्य वर माँग लो, जो तुमलोगोंको अच्छा लगे ॥ 36 ॥हे असुरो! इस भूतलपर जहाँ भी जो कोई भी प्राणी जनमा है, वह अवश्य मरेगा, कालके भी काल भगवान् शंकर तथा श्रीहरिके अतिरिक्त इस जगत्में कोई भी प्राणी अजर-अमर नहीं हो सकता; क्योंकि वे दोनों धर्म, अधर्मसे परे हैं तथा व्यक्त और अव्यक्त हैं ।। 37-38 ।।

यदि जगत्को पीड़ा पहुँचानेके लिये तप किया जाय, तो उसका फल नष्ट समझना चाहिये। अतः उत्तम उद्देश्यके लिये किया गया तप सफल होता है ॥ 39 ॥

हे अनघ! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करके जिस मृत्युका अतिक्रमण दुर्लभ एवं दुःसाध्य है और देवता तथा असुर भी ऐसा नहीं कर सके, ऐसी मृत्युके अतिरिक्त अन्य वर माँगो तुमलोग सत्त्वगुणका आश्रय लेकर अपने मरणका हेतुभूत कोई वर माँगो तथा उस हेतुसे अपनी-अपनी रक्षाका उपाय अलग-अलग रूपसे करो, जिससे तुम्हारी मृत्यु न हो ll 40-41 ।।

सनत्कुमार बोले- ब्रह्माका वचन सुनकर वे एक मुहूर्ततक ध्यानमें स्थित रहे, इसके बाद विचारकर लोकपितामह ब्रह्मासे कहने लगे-ll 42 ।।

दैत्य बोले- हे भगवन्। हमलोग यद्यपि पराक्रमशील है, किंतु हमारे पास कोई ऐसा स्थान नहीं है, जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सके और वहाँ हम सुखसे निवास कर सकें। अतः आप ऐसे तीन नगरोंका निर्माण कराकर हमें प्रदान कीजिये, जो परम अद्भुत, सभी सम्पत्तियोंसे परिपूर्ण और देवताओंके लिये सर्वथा अनतिक्रमणीय हों ।। 43-44 ll

हे लोकेश हे जगद्गुरो। इस प्रकार हमलोग आपकी कृपासे इन तीनों पुरोंमें स्थित होकर इस | पृथ्वीपर विचरण करेंगे। तत्पश्चात् तारकाक्ष बोला जो देवगणोंसे भी अभेद्य हो, इस प्रकारका मेरा सुवर्णमय पुर विश्वकर्मा बनायें कमलाक्षने चाँदीके अति विशाल पुरकी तथा विद्युन्मालीने प्रसन्न होकर वज्रके समान लोहेके पुरकी याचना की ॥ 45-47 ॥

हे ब्रह्मन्। जब मध्याह्नकालमें अभिजित मुहूर्त हो, चन्द्रमा पुष्य नक्षत्रपर हो और आकाशमें नीले बादलोंपर स्थित होकर ये तीनों पुर क्रमश: एकके ऊपर एक रहते हुए लोगोंकी दृष्टिसे ओझल रहें।फिर जब पुष्कर और आवर्त नामक कालमेघ वर्षा कर रहे हों, उस समय एक हजार वर्षके उपरान्त हमलोग परस्पर मिलेंगे और ये तीनों पुर भी उसी समय एक स्थानपर स्थित हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है। हमलोगोंद्वारा धर्मका अतिक्रमण हो जानेपर कोई देवता, जिसमें सभी देवोंका निवास हो, वह सम्पूर्ण युद्धसामग्रीसे युक्त होकर असम्भव रथपर बैठकर एक ही असम्भाव्य बाणसे हमारे नगरोंका भेदन करे। शिवजी तो किसीसे द्वेष नहीं करते। वे सदा हमलोगोंक बन्द्य पूज्य तथा अभिवादनके योग्य हैं, तो फिर वे हमलोगोंके पुरोंको कैसे जला सकते हैं, वैसा कोई दूसरा पृथ्वीपर दुर्लभ है-उन दैत्योंने अपने मनमें यही विचारकर ऐसा वर माँगा ॥ 48-53 ॥

सनत्कुमार बोले - [ हे व्यासजी!] उनका यह वचन सुनकर सृष्टि करनेवाले लोकपितामह ब्रह्माने शिवजीका स्मरण करते हुए उनसे कहा ऐसा ही होगा ॥ 54 ll

उसके बाद उन्होंने मयको आज्ञा दी कि है मय तुम सोने, चाँदी और लोहेके तीन नगरोंका निर्माण कर दो। उनके समक्ष मयको यह आज्ञा प्रदानकर ब्रह्माजी उन तारकपुत्रोंके देखते-देखते अपने धाम स्वर्गलोकको चले गये । ll 55-56 ।।

तदनन्तर धैर्यशाली मयने बड़े प्रयत्नके साथ तारकाक्षके लिये सोनेका, कमलाक्षके लिये चाँदीका तथा विद्युन्मालीके लिये लोहेका पुर बनाया और तीन प्रकारका दुर्ग भी बनाया, उन्हें क्रमसे स्वर्गमें, आकाशमें तथा भूलोकमें जानना चाहिये। उन असुरोंको तीनों पुर देकर मयने स्वयं भी उनके हितकी इच्छासे उस पुरीमें प्रवेश किया ।। 57-59॥

इस प्रकार तीनों पुरोंको प्राप्तकर महाबली तथा पराक्रमशाली वे तारकासुरके पुत्र उनमें प्रविष्ट हुए और सभी प्रकारके सुखोंका भोग करने लगे ॥ 60 ॥ कल्पवृक्षोंसे व्याप्त हाथी-घोड़ोंसे युक्त, नाना प्रकारकी अट्टालिकाओं तथा मणियोंसे परिपूर्ण वे नगर सूर्यमण्डलके समान देदीप्यमान, चारों ओर मुखवाले, चन्द्रमाके समान तथा पद्मराग मणियोंसे जटित विमानोंसे शोभित थे ।। 61-62 ॥उन पुरोंमें कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे ऊँचे मनोहर महल तथा गोपुर बने हुए थे। दिव्य देवांगनाओं, गन्धव, सिद्धों तथा चारणोंसे वह पुर पूर्ण रूपसे भरा हुआ था। उनमें प्रत्येक घरमें शिवालय तथा अग्निहोत्रकुण्ड बने हुए थे। शास्त्रवेत्ता एवं शिवभक्त ब्राह्मण उन पुरोंमें सदा निवास करते थे ।। 63-64 ।।

बावली, कुएँ, तालाब, छोटे सरोवर और स्वर्गीय गुणोंवाले उद्यान एवं वन्य वृक्षों, कमलयुक्त नदियों और बड़ी-बड़ी सरिताओंसे वे पुर शोभित हो रहे थे। सभी ऋतुओंमें फल-फूल देनेवाले अनेक प्रकारके वृक्षोंसे वे पुर मनोहर प्रतीत हो रहे थे । ll 65-66 ॥

वे झुण्ड-के-झुण्ड मदमत्त हाथियों, सुन्दर-सुन्दर घोड़ों, विविध आकारवाले रथों एवं शिविकाओंसे अलंकृत थे। उनमें समयानुसार अलग-अलग क्रीडास्थल बने हुए थे और बेदाध्ययनको विविध पाठशालाएँ भी पृथक्-पृथक् बनी हुई थीं । ll 67-68 ।।

पापीजन तो मन एवं वाणीके द्वारा उन नगरोंकी ओर देख भी नहीं सकते थे; शुभ आचरण करनेवाले पुण्यशाली महात्मा ही उन्हें देख सकते थे ॥ 69 ॥

वहाँका उत्तम स्थल सर्वत्र अधर्मसे रहित तथा पतिसेवापरायण पतिव्रताओंके द्वारा पवित्र कर दिया। गया था। उनमें महाभाग्यवान् बलवान् दैत्य अपनी स्त्रियों, पुर्जे और श्रुति स्मृतिके रहस्यको जाननेवाले तथा अपने धर्ममें निरत ब्राह्मणोंके साथ निवास करते थे ।। 70-71 ।।

वे पुर चौड़ी छातीवाले, ऊँचे कंधोंवाले, साम एवं विग्रहके ज्ञाता, समय- समयपर शान्ति तथा कोप करनेवाले, कुबड़े तथा बौने, नीले कमलके समान काले-काले घुँघराले बालवाले, मयके द्वारा रक्षित तथा शिक्षित किये गये और युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले बोद्धाओंसे परिपूर्ण थे। बड़े-बड़े युद्धों में निरत रहनेवाले, ब्रह्मा तथा सदाशिवके पूजनके प्रभावसे विशुद्ध पराक्रमवाले, सूर्य-वायु-इन्द्रके सदृश देवगणोंका मर्दन करनेवाले तथा अत्यन्त शक्तिशाली बीर उन पुरोंमें निवास करते थे । ll 72-74 llवेदों, शास्त्रों और पुराणोंमें जिन-जिन धर्मोंका वर्णन किया गया है, वे सभी धर्म तथा शिवजीके प्रिय देवता वहाँ चारों ओर व्याप्त थे। इस प्रकार वर प्राप्त किये हुए वे तारकपुत्र दैत्य शिवभक्त मयदानवका आश्रय लेकर वहाँ निवास करने लगे। उन नगरोंमें प्रवेश करके वे सदा शिवभक्तिनिरत होकर सम्पूर्ण त्रिलोकीको बाधित करके विशाल राज्यका उपभोग करने लगे ॥ 75 – 77॥

हे मुने! इस प्रकार अपने इच्छानुसार सुखपूर्वक उत्तम राज्य करते हुए उन पुण्यकर्मा राक्षसोंका वहाँ निवास करते हुए बहुत लम्बा काल व्यतीत हो गया ॥ 78 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य