नारदजी बोले - [हे ब्रह्मन्!] हमने गणेश तथा स्कन्दकी सत्कथासे समन्वित गृहस्थ शिवजीके आनन्दप्रद उत्तम चरित्रका श्रवण किया। विहार करते हुए शिवजीने जिस प्रकार दुष्टोंका वध किया, अब आप उस श्रेष्ठ एवं उत्तम चरित्रका अत्यन्त प्रेमपूर्वक वर्णन कीजिये 1-2 ॥ पराक्रमशाली भगवान् शंकरने एक ही बाणसे एक
साथ दैत्योंके तीनों पुरोंको किस प्रकार जलाया ? ॥ 3 ॥ आप मायासे निरन्तर विहार करनेवाले भगवान् शंकरके इस सम्पूर्ण चरित्रका वर्णन कीजिये, जो देवताओं तथा ऋषियोंको सुख देनेवाला है ॥ 4 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे ऋषिश्रेष्ठ! पूर्वकालमें व्यासजीने महर्षि सनत्कुमारसे यही बात पूछी थी, तब सनत्कुमारजीने उनसे जैसा कहा था, वही बात मैं आपसे कह रहा हूँ ॥ 5 ॥
सनत्कुमार बोले- हे महाविद्वान् व्यासजी ! आप शंकरके उस चरित्रको सुनिये, जिस प्रकार विश्वका संहार करनेवाले उन शिवने एक ही बाणसे त्रिपुरको भस्म किया था। हे मुनीश्वर ! शिवजीके पुत्र कार्तिकेयके द्वारा तारकासुरका वध कर दिये जानेपर उसके तीनों पुत्र दैत्य घोर तप करने लगे ॥ 6-7 ॥
उनमें तारकाक्ष ज्येष्ठ, विद्युन्माली मध्यम तथा कमलाक्ष कनिष्ठ था। वे सभी समान पराक्रमवाले, जितेन्द्रिय, महाबलवान्, कार्यमें तत्पर, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महावीर एवं देवताओंके द्रोही थे ॥ 8-9 ॥
तीनों दैत्य सम्पूर्ण मनोहर भोगोंको त्यागकर मेरुकी | गुफामें जाकर अत्यन्त अद्भुत तप करने लगे ॥ 10 ॥तारकासुरके वे तीनों पुत्र वसन्त ऋतुमें उत्सवसहित गीत वाद्यको ध्वनि तथा समस्त कामनाएँ त्यागकर तप करने लगे ॥ 11 ॥
ग्रीष्म ऋतु सूर्यके तेजको जीतकर अपने चारों और अग्नि जलाकर तथा उसके मध्यमें स्थित होकर वे सिद्धिके लिये आदरपूर्वक हव्यकी आहुति देने लगे ।। 12 ।।
उस समय वे महान् गर्मीसे सन्तप्त होकर मूच्छित हो जाते थे और वर्षाकालमें निर्भीक होकर सिरपर वृष्टिको सह लेते थे। शरत्कालमें उत्पन्न हुए मनोहर, स्निग्ध, स्थिर, उत्तम फल मूलादि पदार्थोंका तथा उत्तम प्रकारके पेय पदार्थोंका भूखोंके लिये दानकर स्वयं भूखे रह जाते थे, वे संयमपूर्वक भूख-प्यासको जीतकर पत्थरके समान हो गये थे । ll 13-15 ॥
वे महात्मा हेमन्त ऋतुमें पहाड़ोंका आश्रय लेकर बड़ी धीरताके साथ स्थित हो, निराधार हो चारों दिशाओंमें निवास करने लगे। तुषारसे आच्छादित शरीरवाले वे सब निरन्तर जलसे भीगे हुए रेशमी वस्त्र धारणकर शिशिर ऋतु में जलके बीचमें खड़े होकर विषादरहित होकर क्रमशः अपने तपको बढ़ाने लगे। इस प्रकार ब्रह्माजीको उद्देश्य करके उस [तारकासुर] के वे तीनों श्रेष्ठ पुत्र तप कर रहे थे ll 16-18 ॥
वे श्रेष्ठ दानव परम नियममें स्थित रहकर कठोर तप करके तपस्याके द्वारा अपने शरीरको सुखाने लगे ॥ 19 ॥
सौ वर्षतक एक पैरके सहारे पृथ्वीपर खड़े | होकर उन अति बलवान् दैत्योंने तप किया। वे दारुण तथा दुरात्मा दैत्य हजार वर्षपर्यन्त वायुका भक्षणकर महान् कष्टसे युक्त हो तप करते रहे ॥ 20-21 ॥
वे एक हजार वर्षतक पृथ्वीपर सिरके बल खड़े रहे और सी वर्षतक दोनों भुजाओंको ऊपर उठाकर खड़े रहे। इस प्रकार दुराग्रहमें तत्पर होकर उन्होंने बहुत क्लेश प्राप्त किया, वे दैत्य आलस्यको छोड़कर | दिन-रात तप करने लगे ।। 22-23 ।।
हे महामुने! इस प्रकार धर्मपूर्वक तप करते हुए | तथा ब्रह्माजीमें मन लगाये हुए उन तारकपुत्रोंका बहुत समय बीत गया, ऐसा मेरा विचार है। उसके बादसुरासुरके महान् गुरु तथा महायशस्वी ब्रह्माजी उनके तपसे सन्तुष्ट हो गये और उन्हें वर देनेके लिये प्रकट हुए ।। 24-25 ।।
उस समय सभी प्राणियोंके पितामह ब्रह्माजी मुनियों, देवगणों तथा असुरोंके साथ वहाँ जाकर सान्त्वना देते हुए उन सभीसे यह वचन कहने लगे- ॥ 26 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे महादैत्यो! मैं तुमलोगोंके तपसे प्रसन्न हो गया हूँ। मैं तुमलोगोंको सब कुछ दूँगा, जो तुमलोगोंका अभीष्ट वर हो, उसे कहो ll 27 ll
हे देवशत्रुओ! मैं सबकी तपस्याका फलदाता और सर्वदा सबका रचयिता हूँ, अतः बताओ कि तुमलोगोंने अत्यन्त कठिन तप किस उद्देश्यसे किया है ? ।। 28 ।।
सनत्कुमार बोले – उनकी यह बात सुनकर उन सबने हाथ जोड़कर पितामहको प्रणाम करके फिर धीरे-धीरे अपने मनकी बात कही ॥ 29 ॥
दैत्य बोले- हे देवेश ! यदि आप प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं, तो हमें सब प्राणियोंमें सभीसे अवध्यत्व प्रदान कीजिये ॥ 30 ॥
हे जगन्नाथ! आप हमें स्थिर कर दें और हमें जरा, रोग एवं मृत्यु आदि कभी भी प्राप्त न हों। हम सभी अजर-अमर हो जायँ ऐसा हमारा विचार है। हमलोग तीनों लोकोंमें अन्य सभी प्राणियोंको मार सकें। पर्याप्त लक्ष्मीसे, उत्तम पुरोंसे, अन्य विपुल भोगोंसे, स्थानोंसे अथवा ऐश्वर्यसे हमें क्या प्रयोजन! हे ब्रह्मन् यदि पाँच ही दिनोंमें प्राणी मृत्युके द्वारा ग्रसित हो जाता है-यह निश्चित ही है, तब तो | उसका सब कुछ व्यर्थ हो जाता है, इसमें संशय नहीं है ll 31-34 ll
सनत्कुमार बोले- उन तपस्वी दैत्योंकी यह बात सुनकर ब्रह्माने गिरिपर शयन करनेवाले अपने स्वामी भगवान् शंकरका स्मरण करके कहा- ॥ 35 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे असुरो ! पूर्ण अमरत्व किसीको नहीं मिल सकता, इसलिये इस वरका आग्रह मत करो और अन्य वर माँग लो, जो तुमलोगोंको अच्छा लगे ॥ 36 ॥हे असुरो! इस भूतलपर जहाँ भी जो कोई भी प्राणी जनमा है, वह अवश्य मरेगा, कालके भी काल भगवान् शंकर तथा श्रीहरिके अतिरिक्त इस जगत्में कोई भी प्राणी अजर-अमर नहीं हो सकता; क्योंकि वे दोनों धर्म, अधर्मसे परे हैं तथा व्यक्त और अव्यक्त हैं ।। 37-38 ।।
यदि जगत्को पीड़ा पहुँचानेके लिये तप किया जाय, तो उसका फल नष्ट समझना चाहिये। अतः उत्तम उद्देश्यके लिये किया गया तप सफल होता है ॥ 39 ॥
हे अनघ! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धिसे विचार करके जिस मृत्युका अतिक्रमण दुर्लभ एवं दुःसाध्य है और देवता तथा असुर भी ऐसा नहीं कर सके, ऐसी मृत्युके अतिरिक्त अन्य वर माँगो तुमलोग सत्त्वगुणका आश्रय लेकर अपने मरणका हेतुभूत कोई वर माँगो तथा उस हेतुसे अपनी-अपनी रक्षाका उपाय अलग-अलग रूपसे करो, जिससे तुम्हारी मृत्यु न हो ll 40-41 ।।
सनत्कुमार बोले- ब्रह्माका वचन सुनकर वे एक मुहूर्ततक ध्यानमें स्थित रहे, इसके बाद विचारकर लोकपितामह ब्रह्मासे कहने लगे-ll 42 ।।
दैत्य बोले- हे भगवन्। हमलोग यद्यपि पराक्रमशील है, किंतु हमारे पास कोई ऐसा स्थान नहीं है, जिसमें शत्रु प्रवेश न कर सके और वहाँ हम सुखसे निवास कर सकें। अतः आप ऐसे तीन नगरोंका निर्माण कराकर हमें प्रदान कीजिये, जो परम अद्भुत, सभी सम्पत्तियोंसे परिपूर्ण और देवताओंके लिये सर्वथा अनतिक्रमणीय हों ।। 43-44 ll
हे लोकेश हे जगद्गुरो। इस प्रकार हमलोग आपकी कृपासे इन तीनों पुरोंमें स्थित होकर इस | पृथ्वीपर विचरण करेंगे। तत्पश्चात् तारकाक्ष बोला जो देवगणोंसे भी अभेद्य हो, इस प्रकारका मेरा सुवर्णमय पुर विश्वकर्मा बनायें कमलाक्षने चाँदीके अति विशाल पुरकी तथा विद्युन्मालीने प्रसन्न होकर वज्रके समान लोहेके पुरकी याचना की ॥ 45-47 ॥
हे ब्रह्मन्। जब मध्याह्नकालमें अभिजित मुहूर्त हो, चन्द्रमा पुष्य नक्षत्रपर हो और आकाशमें नीले बादलोंपर स्थित होकर ये तीनों पुर क्रमश: एकके ऊपर एक रहते हुए लोगोंकी दृष्टिसे ओझल रहें।फिर जब पुष्कर और आवर्त नामक कालमेघ वर्षा कर रहे हों, उस समय एक हजार वर्षके उपरान्त हमलोग परस्पर मिलेंगे और ये तीनों पुर भी उसी समय एक स्थानपर स्थित हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है। हमलोगोंद्वारा धर्मका अतिक्रमण हो जानेपर कोई देवता, जिसमें सभी देवोंका निवास हो, वह सम्पूर्ण युद्धसामग्रीसे युक्त होकर असम्भव रथपर बैठकर एक ही असम्भाव्य बाणसे हमारे नगरोंका भेदन करे। शिवजी तो किसीसे द्वेष नहीं करते। वे सदा हमलोगोंक बन्द्य पूज्य तथा अभिवादनके योग्य हैं, तो फिर वे हमलोगोंके पुरोंको कैसे जला सकते हैं, वैसा कोई दूसरा पृथ्वीपर दुर्लभ है-उन दैत्योंने अपने मनमें यही विचारकर ऐसा वर माँगा ॥ 48-53 ॥
सनत्कुमार बोले - [ हे व्यासजी!] उनका यह वचन सुनकर सृष्टि करनेवाले लोकपितामह ब्रह्माने शिवजीका स्मरण करते हुए उनसे कहा ऐसा ही होगा ॥ 54 ll
उसके बाद उन्होंने मयको आज्ञा दी कि है मय तुम सोने, चाँदी और लोहेके तीन नगरोंका निर्माण कर दो। उनके समक्ष मयको यह आज्ञा प्रदानकर ब्रह्माजी उन तारकपुत्रोंके देखते-देखते अपने धाम स्वर्गलोकको चले गये । ll 55-56 ।।
तदनन्तर धैर्यशाली मयने बड़े प्रयत्नके साथ तारकाक्षके लिये सोनेका, कमलाक्षके लिये चाँदीका तथा विद्युन्मालीके लिये लोहेका पुर बनाया और तीन प्रकारका दुर्ग भी बनाया, उन्हें क्रमसे स्वर्गमें, आकाशमें तथा भूलोकमें जानना चाहिये। उन असुरोंको तीनों पुर देकर मयने स्वयं भी उनके हितकी इच्छासे उस पुरीमें प्रवेश किया ।। 57-59॥
इस प्रकार तीनों पुरोंको प्राप्तकर महाबली तथा पराक्रमशाली वे तारकासुरके पुत्र उनमें प्रविष्ट हुए और सभी प्रकारके सुखोंका भोग करने लगे ॥ 60 ॥ कल्पवृक्षोंसे व्याप्त हाथी-घोड़ोंसे युक्त, नाना प्रकारकी अट्टालिकाओं तथा मणियोंसे परिपूर्ण वे नगर सूर्यमण्डलके समान देदीप्यमान, चारों ओर मुखवाले, चन्द्रमाके समान तथा पद्मराग मणियोंसे जटित विमानोंसे शोभित थे ।। 61-62 ॥उन पुरोंमें कैलास पर्वतके शिखरके समान ऊँचे ऊँचे मनोहर महल तथा गोपुर बने हुए थे। दिव्य देवांगनाओं, गन्धव, सिद्धों तथा चारणोंसे वह पुर पूर्ण रूपसे भरा हुआ था। उनमें प्रत्येक घरमें शिवालय तथा अग्निहोत्रकुण्ड बने हुए थे। शास्त्रवेत्ता एवं शिवभक्त ब्राह्मण उन पुरोंमें सदा निवास करते थे ।। 63-64 ।।
बावली, कुएँ, तालाब, छोटे सरोवर और स्वर्गीय गुणोंवाले उद्यान एवं वन्य वृक्षों, कमलयुक्त नदियों और बड़ी-बड़ी सरिताओंसे वे पुर शोभित हो रहे थे। सभी ऋतुओंमें फल-फूल देनेवाले अनेक प्रकारके वृक्षोंसे वे पुर मनोहर प्रतीत हो रहे थे । ll 65-66 ॥
वे झुण्ड-के-झुण्ड मदमत्त हाथियों, सुन्दर-सुन्दर घोड़ों, विविध आकारवाले रथों एवं शिविकाओंसे अलंकृत थे। उनमें समयानुसार अलग-अलग क्रीडास्थल बने हुए थे और बेदाध्ययनको विविध पाठशालाएँ भी पृथक्-पृथक् बनी हुई थीं । ll 67-68 ।।
पापीजन तो मन एवं वाणीके द्वारा उन नगरोंकी ओर देख भी नहीं सकते थे; शुभ आचरण करनेवाले पुण्यशाली महात्मा ही उन्हें देख सकते थे ॥ 69 ॥
वहाँका उत्तम स्थल सर्वत्र अधर्मसे रहित तथा पतिसेवापरायण पतिव्रताओंके द्वारा पवित्र कर दिया। गया था। उनमें महाभाग्यवान् बलवान् दैत्य अपनी स्त्रियों, पुर्जे और श्रुति स्मृतिके रहस्यको जाननेवाले तथा अपने धर्ममें निरत ब्राह्मणोंके साथ निवास करते थे ।। 70-71 ।।
वे पुर चौड़ी छातीवाले, ऊँचे कंधोंवाले, साम एवं विग्रहके ज्ञाता, समय- समयपर शान्ति तथा कोप करनेवाले, कुबड़े तथा बौने, नीले कमलके समान काले-काले घुँघराले बालवाले, मयके द्वारा रक्षित तथा शिक्षित किये गये और युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले बोद्धाओंसे परिपूर्ण थे। बड़े-बड़े युद्धों में निरत रहनेवाले, ब्रह्मा तथा सदाशिवके पूजनके प्रभावसे विशुद्ध पराक्रमवाले, सूर्य-वायु-इन्द्रके सदृश देवगणोंका मर्दन करनेवाले तथा अत्यन्त शक्तिशाली बीर उन पुरोंमें निवास करते थे । ll 72-74 llवेदों, शास्त्रों और पुराणोंमें जिन-जिन धर्मोंका वर्णन किया गया है, वे सभी धर्म तथा शिवजीके प्रिय देवता वहाँ चारों ओर व्याप्त थे। इस प्रकार वर प्राप्त किये हुए वे तारकपुत्र दैत्य शिवभक्त मयदानवका आश्रय लेकर वहाँ निवास करने लगे। उन नगरोंमें प्रवेश करके वे सदा शिवभक्तिनिरत होकर सम्पूर्ण त्रिलोकीको बाधित करके विशाल राज्यका उपभोग करने लगे ॥ 75 – 77॥
हे मुने! इस प्रकार अपने इच्छानुसार सुखपूर्वक उत्तम राज्य करते हुए उन पुण्यकर्मा राक्षसोंका वहाँ निवास करते हुए बहुत लम्बा काल व्यतीत हो गया ॥ 78 ॥