ब्रह्माजी बोले- उसके बाद तारकासुरसे पीड़ित वे समस्त देवता मुझ प्रजापतिको भलीभाँति प्रणामकर परम भक्तिसे स्तुति करने लगे ॥ 1 ॥ देवताओंकी यथार्थ एवं हृदयग्राही सरस स्तुति सुनकर अत्यन्त प्रसन्न होकर मैंने उन देवताओंसे कहा- ॥ 2 ॥
हे देवताओ! आपलोगोंका स्वागत है। आपलोगोंक अधिकार निर्विघ्न तो हैं? आप सब यहाँ किस निमित्त आये हैं, मुझसे कहिये। मेरी यह बात सुनकर तारकासुरसे पीड़ित वे सभी देवता मुझे प्रणाम करके विनयी हो दीनतापूर्वक मुझसे कहने लगे- ॥ 3-4 ॥ देवता बोले- हे लोकेश ! आपके वरदानसे अभिमानमें भरे हुए तारक असुरने हठपूर्वक हमलोगों को अपने स्थानोंसे वंचितकर उन्हें बलपूर्वक स्वयं ग्रहण कर लिया है। हमलोगोंके समक्ष जो दुःख उपस्थित हुआ है, क्या आप उसे नहीं जानते हैं? हमलोग आपकी शरणमें आये हैं, उस दुःखका शीघ्र निवारण कीजिये 5-6॥ हमलोग जहाँ कहीं भी जाते हैं, वह असुर रात दिन हमलोगोंको पीड़ित करता है। हम जहाँ भी भागकर जाते हैं, वहाँ तारकको ही देखते हैं ॥ 7 ॥हे सर्वेश्वर हमलोगोंके समक्ष तारकासुरसे जैसा भय उपस्थित हो गया है, वह दुःख सहा नहीं जा रहा है। हमलोग उसी पीड़ासे अत्यन्त व्याकुल हैं॥ 8 ॥ अग्नि, यम, वरुण, निर्ऋति, वायु एवं अन्य समस्त दिक्पाल उसके वशमें हो गये हैं। सभी देवता | अपने समस्त परिकरोंसहित मनुष्यधर्मा हो गये हैं और उसकी सेवा करते हैं। वे किसी प्रकार भी स्वतन्त्र नहीं हैं ।। 9-10 ॥
इस प्रकार उससे पीड़ित होकर सभी देवता सदा उसके वशवर्ती हो गये हैं और उसकी इच्छाके अनुसार कार्य करते हैं तथा उसके अनुजीवी हो गये हैं ॥ 11 ॥ उस महाबली तारकने जितनी भी सुन्दर स्त्रियाँ हैं तथा अप्सराएँ हैं, उन सबको ग्रहण कर लिया है ॥ 12 ॥ अब यज्ञ-याग सम्पन्न नहीं होते, तपस्वी लोग तपस्या भी नहीं कर पाते। लोकोंमें दान, धर्म आदि कुछ भी नहीं हो रहा है। उसका सेनापति दानव क्रौंच अत्यन्त पापी है। वह पाताललोकमें जाकर प्रजाओंको निरन्तर पीड़ित करता है। हे जगद्धाता! उस निष्करुण तथा पापी तारकने हमारे सम्पूर्ण त्रिलोकको बलपूर्वक अपने वशमें कर लिया है। अब आप ही जो स्थान बतायें, वहाँ हमलोग जायें। हे लोकनाथ! उस देवशत्रुने हमलोगोंको अपने-अपने स्थानोंसे हटा दिया है। अब आप ही हमलोगोंके शरणदाता हैं। आप ही हमारे शासक, रक्षक तथा पोषक हैं। हम सभी लोग तारक नामक अग्निमें दग्ध होकर बहुत व्याकुल हो रहे हैं । ll 13-17 ॥
जिस प्रकार सन्निपात नामक विकारमें बलवान् औषधियाँ भी निष्फल हो जाती हैं, उसी प्रकार उसने हमारे सभी कठोर उपायोंको निष्फल कर दिया है ॥ 18 ॥
भगवान् विष्णुके जिस सुदर्शन नामक चक्रसे हमलोगोंको विजयकी आशा थी, वह उसके कण्ठमें पुष्पके समान लगकर कुण्ठित हो गया है ।। 19 ।। ब्रह्माजी बोले- हे मुने! देवताओंके इस वचनको सुनकर मैं सभी देवताओंसे समयोचित बात कहने लगा- ॥ 20 ॥ब्रह्माजी बोले- हे देवगणो। मेरे वरदानके कारण ही वह तारक नामक दैत्य बलवान् हुआ है। अतः मेरे द्वारा उसका वध उचित नहीं है। जिसके द्वारा वह वृद्धिको प्राप्त हुआ है, उसीसे उसका वध उचित नहीं है। विषवृक्षको भी बढ़ाकर उसे स्वयं काटना अनुचित है ॥ 21-22 ।।
शिवजी ही आपलोगोंका सारा कार्य कर सकनेयोग्य हैं, किंतु वे स्वयं कुछ नहीं करेंगे, प्रेरणा करनेपर वे इसका प्रतीकार करनेमें समर्थ हैं ॥ 23 ॥ तारकासुर स्वयं अपने पापसे नष्ट होगा। मैं जैसा उपदेश करता है, वैसा आपलोग करें ॥ 24 ॥
मेरे वरके प्रभावसे न मैं, न विष्णु, न शंकर, न दूसरा कोई और न सभी देवता ही तारकका वध कर सकते हैं, यह मैं सत्य कह रहा हूँ। हे देवताओ। यदि शिवजीके वीर्यसे कोई पुत्र उत्पन्न हो, तो वही तारक दैत्यका वध कर सकता है, दूसरा नहीं ॥ 25-26 ।।
हे श्रेष्ठ देवताओ! मैं जो उपाय बता रहा है, उसे आपलोग कीजिये, वह उपाय महादेवजीकी कृपासे अवश्य सिद्ध होगा। पूर्वकालमें जिन दक्षकन्या सतीने [दक्षके यज्ञमें] अपने शरीरका त्याग किया था, वे ही [इस समय ] मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुई हैं, यह बात आपलोगोंको ज्ञात ही है । 27-28 ॥ हे देवगणो! महादेवजी उनका पाणिग्रहण अवश्य करेंगे, तथापि आपलोग भी उसका उपाय करें ॥ 29 ॥ आपलोग यत्नपूर्वक ऐसा उपाय कीजिये कि मेनाकी पुत्री पार्वतीमें शिवजीके वीर्यका आधान हो ॥ 30 ॥
ऊवरिता शंकरको च्युतवीर्य करनेमें वे ही समर्थ हैं, कोई अन्य स्त्री समर्थ नहीं है ॥ 31 ll
पूर्ण यौवनवाली वे गिरिराजपुत्री इस समय हिमालयपर तपस्या करते हुए शंकरकी नित्य सेवा करती हैं ॥ 32 ॥
अपने पिता हिमवान्के कहनेसे वे काली शिवा अपनी दो सखियोंके साथ ध्यानपरायण परमेश्वर शिवकी हठपूर्वक सेवा कर रही हैं। सेवामें तत्पर उन त्रैलोक्य सुन्दरीको सामने देखकर ध्यानमग्न महेश्वर मनसे भी विचलित नहीं होते ।। 33-34 ॥हे देवताओ वे चन्द्रशेखर जिस प्रकार कालीको भारूपमें स्वीकार करें. आपलोग शीघ्र ही वैसा प्रयत्न करें। मैं भी उस दैत्यके स्थानपर जाकर उस तारकको दुराग्रहसे रोकूंगा। हे देवताओ अब आपलोग अपने स्थानको जाइये। देवताओंसे इस प्रकार कहकर मैं शीघ्र ही तारक नामक असुरके पास जाकर उसे प्रेमपूर्वक बुलाकर कहने लगा- ॥ 35-37 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे तारक!] तुम तेजोंके सारस्वरूप इस स्वर्गका राज्य कर रहे हो। जिसके लिये तुमने उत्तम तपस्या की थी, उससे भी अधिककी इच्छा रखते हो ॥ 38 ॥
मैंने [तुम्हें] इससे छोटा ही वर दिया था, मैंने तुम्हें स्वर्गका राज्य नहीं दिया था, इसलिये तुम स्वर्गका राज्य छोड़कर पृथिवीपर राज्य करो ॥ 39 ॥ हे असुरश्रेष्ठ! इसमें तुम किसी प्रकार विचार मत करो, वहाँ भी बहुत-से देवताओंके योग्य कार्य हैं ॥ 40 ॥ सभीका ईश्वर मैं इस प्रकार उस असुरसे कहकर और उसे समझाकर शिवासहित शिवका ध्यान करके वहीं अन्तर्धान हो गया। उसके बाद तारक भी स्वर्गको छोड़कर पृथिवीपर आ गया और वह शोणित नामक नगरमें रहकर राज्य करने लगा। सभी देवगण भी मेरा वचन सुनकर मुझे सादर प्रणाम करके समाहितचित्त हो इन्द्रके साथ इन्द्रपुरीको गये । ll 41-43 ।।
वहाँ जाकर मिल करके आपसमें विचार करके उन सब देवताओंने इन्द्रसे प्रेमपूर्वक कहा- 44 ॥ देवता बोले- हे इन्द्र जिस प्रकार भगवान् शंकर सकाम होकर शिवाकी अभिलाषा करें, ब्रह्माजीके द्वारा बताया हुआ वह सारा प्रयत्न आपको करना चाहिये ।। 45 ।।
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार इन्द्रसे सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदित करके वे देवता प्रसन्नतापूर्वक सब और अपने-अपने स्थानको चले गये॥ 46 ॥