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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 3 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 3

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त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना

शिवजी बोले- हे देवताओ! इस समय यह त्रिपुराध्यक्ष पुण्यवान् है, जिसमें पुण्य हो, उसे विद्वानोंको कभी नहीं मारना चाहिये। हे देवताओ! मैं देवताओंके समस्त बड़े कष्टोंको जानता हूँ। वे दैत्य प्रबल हैं, देवता तथा असुर कोई भी उन्हें मारनेमें समर्थ नहीं है ll 1-2 ॥

दानव मयसहित वे सभी तारकपुत्र पुण्यवान् हैं, त्रिपुरमें रहनेवाले उन सभीका वध दुःसाध्य है ॥ 3 ॥ युद्धमें अजेय होते हुए भी मैं जान-बूझकर किस प्रकार मित्रद्रोहका आचरण करूँ क्योंकि स्वयम्भूने पहले कहा है कि मित्रद्रोह करनेमें महान् पाप होता है ॥ 4 ॥

ब्रह्महत्यारा, सुरापान करनेवाला, स्वर्णकी चोरी करने वाला तथा व्रतभंग करनेवाला-इन सभीके लिये शास्त्रकारोंने प्रायश्चित्त बताया है, किंतु कृतघ्नके लिये कोई प्रायश्चित्त-विधान नहीं है। हे देवताओ! धर्मके ज्ञाता आपलोग ही धर्मपूर्वक विचार करें कि वे दैत्य मेरे भक्त हैं, तब मैं उनका वध किस प्रकार कर सकता हूँ? हे देवताओ! जबतक वे मुझमें भक्ति रखते हैं, तबतक मैं उन्हें नहीं मार सकता तथापि आपलोग विष्णुसे इस कारणको बताइये ll 5-7 ॥

सनत्कुमार बोले- हे मुने! उनका यह वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवताओंने सर्वप्रथम इस बातको ब्रह्माजीसे कहा। तदनन्तर ब्रह्माजीको आगेकर इन्द्रसहित सभी देवता शोभासम्पन्न वैकुण्ठधामको शीघ्र गये ।। 8-9 ll

वहाँ जाकर आश्चर्यचकित उन देवताओंने विष्णुको देखकर उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर परम भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की, उसके अनन्तर सर्वसमर्थ उन विष्णु पूर्वकीत अपने दुःखका समस्त कारण शीघ्र निवेदित किया। तब त्रिपुरवासियोंके द्वारा दिये गये देवगणोंके दुःखको सुनकर तथा उनके व्रतको जानकर विष्णुने यह वचन कहा- ॥ 10-12 ॥विष्णु बोले- यह बात सत्य है कि जहाँ सनातनधर्म विद्यमान होता है, वहाँ दुःख उसी प्रकार नहीं होता, जिस प्रकार सूर्यके दिखायी देनेपर अन्धकार नहीं रहता है ॥ 13 ॥

सनत्कुमार बोले- इस बातको सुनकर दुःखित तथा मुरझाये हुए मुखकमलवाले देवता विष्णुसे पुनः कहने लगे - ॥ 14 ॥

देवगण बोले- अब क्या करना चाहिये, यह दुःख किस प्रकारसे दूर हो, हमलोग कैसे सुखी रहें तथा किस प्रकारसे निवास करें। इस त्रिपुरके जीवित रहते धर्माचरण किस प्रकार हो सकेंगे, ये त्रिपुरवासी तो निश्चय ही देवताओंको हैं । 15-16 ॥ दुःख देनेवाले [ हे विष्णो!] आप या तो त्रिपुरका वध कीजिये, अन्यथा देवताओंको ही अकालमें मार डालिये ॥ 17 ॥

सनत्कुमार बोले- तब इस प्रकार कहकर वे देवता बारंबार बड़े दुखी हुए और न तो विष्णुके पाससे उन्हें जाते बना और न तो रुकते ही बना। तब विष्णुने उन देवताओंको इस प्रकारसे हीन तथा विनययुक्त देखकर अपने मनमें विचार किया कि देवताओंकी सहायता करनेवाला मैं इन देवताओंके कार्यके लिये कौन-सा उपाय करूँ, तारका-सुरके वे पुत्र भी तो शिवजीके भक्त ही हैं ॥ 18-20 ॥

ऐसा सोचकर उसी समय सर्वसमर्थ उन विष्णुने देवताओंके कार्यके लिये अक्षय यज्ञोंका स्मरण किया ॥ 21 ॥

उन विष्णुके स्मरणमात्रसे वे यज्ञ उसी क्षण शीघ्रता-पूर्वक वहाँ आ गये, जहाँ लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम विद्यमान थे। उसके बाद उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम करके यज्ञपति पुराणपुरुष श्रीहरिकी स्तुति की। तब सनातन भगवान् विष्णुने भी उन सनातन यज्ञोंको देखकर पुनः इन्द्रसहित देवताओंकी ओर देखकर उनसे कहा- ॥ 22-24 ॥

विष्णु बोले- हे देवगण! आपलोग त्रिपुरोंके विनाश एवं तीनों लोकोंके कल्याणके निमित्त इन यज्ञोंद्वारा सदा परमेश्वरका यजन कीजिये ॥ 25 ॥सनत्कुमार बोले- देवाधिदेव बुद्धिमान् विष्णुका वचन सुनकर वे देवता प्रेमपूर्वक यज्ञेशको प्रणाम करके | उनकी स्तुति करने लगे। हे मुने। इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् सम्पूर्ण विधियोंके ज्ञाता के देवता यज्ञोक विधान से यज्ञपुरुषका यजन करने लगे ।। 26-27 ॥

तब उस यज्ञकुण्डसे शूल, शक्ति और गदा हाथमें धारण किये महाकाय हजारों भूतसमुदाय उत्पन्न हुए ॥ 28 ॥ उन देवताओंने हाथमें शूल शक्ति-गदा-दण्ड धनुष तथा शिलाका आयुध धारण किये हुए, इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकारके अस्त्र धारण किये हुए, नाना प्रकारके वेष धारण किये हुए, कालाग्नि रुद्रके समान तथा कालसूर्यके समान प्रतीत होनेवाले उन हजारों भूत-समुदायोंको देखा अपने आगे खड़े उन भूतोंको देखकर और उन्हें प्रणामकर रुद्रकी आज्ञाका पालन करनेवाले यज्ञपति श्रीमान् विष्णु उनसे कहने लगे- ॥ 29-31 ॥

विष्णुजी बोले- हे भूतगणो! तुम मेरी बात सुनो। तुमलोग महाबलवान् हो, अतः देवकार्यके लिये तत्पर हो शीघ्र त्रिपुरको जाओ। हे भूतगणो! वहाँ जाकर दैत्योंके तीनों पुरोंको तोड़-फोड़कर तथा जलाकर पुन: लौट आना, इसके बाद अपने कल्याणके लिये जहाँ इच्छा हो, वहाँ चले जाना ॥ 32-33 ॥

सनत्कुमार बोले- तब भगवान् विष्णुकी वह बात सुनकर वे भूतगण उन देवाधिदेवको प्रणामकर दैत्योंके त्रिपुरकी ओर चल दिये। वहाँ जाकर त्रिपुरमें प्रवेश करते ही वे त्रिपुरके अधिपतिके तेजमें उसी प्रकार शीघ्र भस्म हो गये, जैसे अग्निमें पतिंगे भस्म हो जाते हैं। उनमें जो कोई शेष बचे, वे भाग गये और वहाँसे निकलकर व्याकुल हो शीघ्र विष्णुके समीप चले आये ॥ 34-36 ॥

तब पुरुषोत्तम भगवान् हरि उनको देखकर तथा वह सारा वृत्तान्त सुनकर और इन्द्रसहित सभी देवताओंको दुखी जानकर सन्तप्तचित्त हो गये और सोचने लगे कि इस समय कौन-सा कार्य करना | चाहिये। उन दैत्योंके तीनों पुरोंको बलपूर्वक नष्ट करके मैं देवताओंका कार्य किस प्रकार करूँ - वे इसी चिन्तासे व्याकुल हो उठे । ll 37-39 ॥धर्मात्माओंका अभिचारसे भी नाश नहीं होता, इसमें संशय नहीं है-ऐसा श्रुतिके आचारको प्रमाणित करनेवाले शंकरजीने स्वयं कहा है। हे श्रेष्ठ देवताओ! त्रिपुरमें रहनेवाले वे सभी दैत्य बड़े धर्मनिष्ठ हैं, इसलिये सर्वथा अवध्य हैं, यह बात असत्य नहीं है। वे महान् पाप करके भी रुद्रकी अर्चना करते हैं, | इसलिये सभी प्रकारके पापोंसे वैसे ही मुक्त हो जाते हैं, जैसे पद्मपत्र जलसे पृथक् रहता है। हे देवताओ! रुद्रकी अर्चनासे सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और पृथ्वीके अनेक प्रकारके भोग एवं सम्पत्तियाँ वशीभूत हो जाती हैं। अतः लिंगार्चनपरायण ये दैत्य इस लोकमें अनेक प्रकारकी सम्पत्तिका भोग कर रहे हैं और परलोकमें भी उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा। फिर भी मैं अपनी मायासे उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न डालकर देवताओंकी कार्यसिद्धिके निमित्त क्षणभरमें त्रिपुरका संहार करूँगा - इस प्रकार विचार करनेके पश्चात् वे भगवान् पुरुषोत्तम उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये तत्पर हो गये ॥ 40 - 46 ॥

जबतक उनमें वेदके धर्म हैं, जबतक वे शंकरकी अर्चना करते हैं और जबतक वे पवित्र कृत्य करते हैं, तबतक उनका नाश नहीं हो सकता। इसलिये अब ऐसा उपाय करना चाहिये कि वहाँसे | वेदधर्म चला जाय, तब वे दैत्य लिंगार्चन त्याग देंगे, इसमें सन्देह नहीं - ऐसा निश्चय करके विष्णुजीने उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये श्रुतिखण्डनरूप उपाय किया। इसके बाद त्रैलोक्यरक्षणके लिये शिवके द्वारा आदिष्ट देवसहायक उन विष्णुने शिवकी आज्ञासे देवताओंसे कहा- ॥ 47-50 ॥

विष्णुजी बोले – हे देवो! [इस समय] आप सभी लोग निश्चित रूपसे अपने घरको चले जायँ, मैं अपनी बुद्धिके अनुसार देवताओंका कार्य अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है। मैं बड़े यत्नसे उन्हें रुद्रसे अवश्य विमुख करूँगा और तब शिवजी अपनी शक्तिसे रहित जानकर उन्हें भस्म कर देंगे ॥ 51-52॥

सनत्कुमार बोले- हे मुने! तब वे देवगण विष्णुकी आज्ञाको सिरपर धारणकर कुछ निश्चिन्त हुए और फिर ब्रह्माके द्वारा आश्वासित होनेपर प्रसन्नहो अपने-अपने स्थानोंको चले गये। इसके बाद विष्णुने देवताओंके लिये जो उत्तम उपाय किया, उसे आप भलीभाँति सुनिये, वह सभी पापोंका नाश करनेवाला है ॥ 53-54॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य