शिवजी बोले- हे देवताओ! इस समय यह त्रिपुराध्यक्ष पुण्यवान् है, जिसमें पुण्य हो, उसे विद्वानोंको कभी नहीं मारना चाहिये। हे देवताओ! मैं देवताओंके समस्त बड़े कष्टोंको जानता हूँ। वे दैत्य प्रबल हैं, देवता तथा असुर कोई भी उन्हें मारनेमें समर्थ नहीं है ll 1-2 ॥
दानव मयसहित वे सभी तारकपुत्र पुण्यवान् हैं, त्रिपुरमें रहनेवाले उन सभीका वध दुःसाध्य है ॥ 3 ॥ युद्धमें अजेय होते हुए भी मैं जान-बूझकर किस प्रकार मित्रद्रोहका आचरण करूँ क्योंकि स्वयम्भूने पहले कहा है कि मित्रद्रोह करनेमें महान् पाप होता है ॥ 4 ॥
ब्रह्महत्यारा, सुरापान करनेवाला, स्वर्णकी चोरी करने वाला तथा व्रतभंग करनेवाला-इन सभीके लिये शास्त्रकारोंने प्रायश्चित्त बताया है, किंतु कृतघ्नके लिये कोई प्रायश्चित्त-विधान नहीं है। हे देवताओ! धर्मके ज्ञाता आपलोग ही धर्मपूर्वक विचार करें कि वे दैत्य मेरे भक्त हैं, तब मैं उनका वध किस प्रकार कर सकता हूँ? हे देवताओ! जबतक वे मुझमें भक्ति रखते हैं, तबतक मैं उन्हें नहीं मार सकता तथापि आपलोग विष्णुसे इस कारणको बताइये ll 5-7 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने! उनका यह वचन सुनकर इन्द्र आदि सभी देवताओंने सर्वप्रथम इस बातको ब्रह्माजीसे कहा। तदनन्तर ब्रह्माजीको आगेकर इन्द्रसहित सभी देवता शोभासम्पन्न वैकुण्ठधामको शीघ्र गये ।। 8-9 ll
वहाँ जाकर आश्चर्यचकित उन देवताओंने विष्णुको देखकर उन्हें प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर परम भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति की, उसके अनन्तर सर्वसमर्थ उन विष्णु पूर्वकीत अपने दुःखका समस्त कारण शीघ्र निवेदित किया। तब त्रिपुरवासियोंके द्वारा दिये गये देवगणोंके दुःखको सुनकर तथा उनके व्रतको जानकर विष्णुने यह वचन कहा- ॥ 10-12 ॥विष्णु बोले- यह बात सत्य है कि जहाँ सनातनधर्म विद्यमान होता है, वहाँ दुःख उसी प्रकार नहीं होता, जिस प्रकार सूर्यके दिखायी देनेपर अन्धकार नहीं रहता है ॥ 13 ॥
सनत्कुमार बोले- इस बातको सुनकर दुःखित तथा मुरझाये हुए मुखकमलवाले देवता विष्णुसे पुनः कहने लगे - ॥ 14 ॥
देवगण बोले- अब क्या करना चाहिये, यह दुःख किस प्रकारसे दूर हो, हमलोग कैसे सुखी रहें तथा किस प्रकारसे निवास करें। इस त्रिपुरके जीवित रहते धर्माचरण किस प्रकार हो सकेंगे, ये त्रिपुरवासी तो निश्चय ही देवताओंको हैं । 15-16 ॥ दुःख देनेवाले [ हे विष्णो!] आप या तो त्रिपुरका वध कीजिये, अन्यथा देवताओंको ही अकालमें मार डालिये ॥ 17 ॥
सनत्कुमार बोले- तब इस प्रकार कहकर वे देवता बारंबार बड़े दुखी हुए और न तो विष्णुके पाससे उन्हें जाते बना और न तो रुकते ही बना। तब विष्णुने उन देवताओंको इस प्रकारसे हीन तथा विनययुक्त देखकर अपने मनमें विचार किया कि देवताओंकी सहायता करनेवाला मैं इन देवताओंके कार्यके लिये कौन-सा उपाय करूँ, तारका-सुरके वे पुत्र भी तो शिवजीके भक्त ही हैं ॥ 18-20 ॥
ऐसा सोचकर उसी समय सर्वसमर्थ उन विष्णुने देवताओंके कार्यके लिये अक्षय यज्ञोंका स्मरण किया ॥ 21 ॥
उन विष्णुके स्मरणमात्रसे वे यज्ञ उसी क्षण शीघ्रता-पूर्वक वहाँ आ गये, जहाँ लक्ष्मीपति पुरुषोत्तम विद्यमान थे। उसके बाद उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम करके यज्ञपति पुराणपुरुष श्रीहरिकी स्तुति की। तब सनातन भगवान् विष्णुने भी उन सनातन यज्ञोंको देखकर पुनः इन्द्रसहित देवताओंकी ओर देखकर उनसे कहा- ॥ 22-24 ॥
विष्णु बोले- हे देवगण! आपलोग त्रिपुरोंके विनाश एवं तीनों लोकोंके कल्याणके निमित्त इन यज्ञोंद्वारा सदा परमेश्वरका यजन कीजिये ॥ 25 ॥सनत्कुमार बोले- देवाधिदेव बुद्धिमान् विष्णुका वचन सुनकर वे देवता प्रेमपूर्वक यज्ञेशको प्रणाम करके | उनकी स्तुति करने लगे। हे मुने। इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् सम्पूर्ण विधियोंके ज्ञाता के देवता यज्ञोक विधान से यज्ञपुरुषका यजन करने लगे ।। 26-27 ॥
तब उस यज्ञकुण्डसे शूल, शक्ति और गदा हाथमें धारण किये महाकाय हजारों भूतसमुदाय उत्पन्न हुए ॥ 28 ॥ उन देवताओंने हाथमें शूल शक्ति-गदा-दण्ड धनुष तथा शिलाका आयुध धारण किये हुए, इसके अतिरिक्त और भी अनेक प्रकारके अस्त्र धारण किये हुए, नाना प्रकारके वेष धारण किये हुए, कालाग्नि रुद्रके समान तथा कालसूर्यके समान प्रतीत होनेवाले उन हजारों भूत-समुदायोंको देखा अपने आगे खड़े उन भूतोंको देखकर और उन्हें प्रणामकर रुद्रकी आज्ञाका पालन करनेवाले यज्ञपति श्रीमान् विष्णु उनसे कहने लगे- ॥ 29-31 ॥
विष्णुजी बोले- हे भूतगणो! तुम मेरी बात सुनो। तुमलोग महाबलवान् हो, अतः देवकार्यके लिये तत्पर हो शीघ्र त्रिपुरको जाओ। हे भूतगणो! वहाँ जाकर दैत्योंके तीनों पुरोंको तोड़-फोड़कर तथा जलाकर पुन: लौट आना, इसके बाद अपने कल्याणके लिये जहाँ इच्छा हो, वहाँ चले जाना ॥ 32-33 ॥
सनत्कुमार बोले- तब भगवान् विष्णुकी वह बात सुनकर वे भूतगण उन देवाधिदेवको प्रणामकर दैत्योंके त्रिपुरकी ओर चल दिये। वहाँ जाकर त्रिपुरमें प्रवेश करते ही वे त्रिपुरके अधिपतिके तेजमें उसी प्रकार शीघ्र भस्म हो गये, जैसे अग्निमें पतिंगे भस्म हो जाते हैं। उनमें जो कोई शेष बचे, वे भाग गये और वहाँसे निकलकर व्याकुल हो शीघ्र विष्णुके समीप चले आये ॥ 34-36 ॥
तब पुरुषोत्तम भगवान् हरि उनको देखकर तथा वह सारा वृत्तान्त सुनकर और इन्द्रसहित सभी देवताओंको दुखी जानकर सन्तप्तचित्त हो गये और सोचने लगे कि इस समय कौन-सा कार्य करना | चाहिये। उन दैत्योंके तीनों पुरोंको बलपूर्वक नष्ट करके मैं देवताओंका कार्य किस प्रकार करूँ - वे इसी चिन्तासे व्याकुल हो उठे । ll 37-39 ॥धर्मात्माओंका अभिचारसे भी नाश नहीं होता, इसमें संशय नहीं है-ऐसा श्रुतिके आचारको प्रमाणित करनेवाले शंकरजीने स्वयं कहा है। हे श्रेष्ठ देवताओ! त्रिपुरमें रहनेवाले वे सभी दैत्य बड़े धर्मनिष्ठ हैं, इसलिये सर्वथा अवध्य हैं, यह बात असत्य नहीं है। वे महान् पाप करके भी रुद्रकी अर्चना करते हैं, | इसलिये सभी प्रकारके पापोंसे वैसे ही मुक्त हो जाते हैं, जैसे पद्मपत्र जलसे पृथक् रहता है। हे देवताओ! रुद्रकी अर्चनासे सभी कामनाएँ पूर्ण होती हैं और पृथ्वीके अनेक प्रकारके भोग एवं सम्पत्तियाँ वशीभूत हो जाती हैं। अतः लिंगार्चनपरायण ये दैत्य इस लोकमें अनेक प्रकारकी सम्पत्तिका भोग कर रहे हैं और परलोकमें भी उन्हें मोक्ष प्राप्त होगा। फिर भी मैं अपनी मायासे उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न डालकर देवताओंकी कार्यसिद्धिके निमित्त क्षणभरमें त्रिपुरका संहार करूँगा - इस प्रकार विचार करनेके पश्चात् वे भगवान् पुरुषोत्तम उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये तत्पर हो गये ॥ 40 - 46 ॥
जबतक उनमें वेदके धर्म हैं, जबतक वे शंकरकी अर्चना करते हैं और जबतक वे पवित्र कृत्य करते हैं, तबतक उनका नाश नहीं हो सकता। इसलिये अब ऐसा उपाय करना चाहिये कि वहाँसे | वेदधर्म चला जाय, तब वे दैत्य लिंगार्चन त्याग देंगे, इसमें सन्देह नहीं - ऐसा निश्चय करके विष्णुजीने उन दैत्योंके धर्ममें विघ्न करनेके लिये श्रुतिखण्डनरूप उपाय किया। इसके बाद त्रैलोक्यरक्षणके लिये शिवके द्वारा आदिष्ट देवसहायक उन विष्णुने शिवकी आज्ञासे देवताओंसे कहा- ॥ 47-50 ॥
विष्णुजी बोले – हे देवो! [इस समय] आप सभी लोग निश्चित रूपसे अपने घरको चले जायँ, मैं अपनी बुद्धिके अनुसार देवताओंका कार्य अवश्य करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है। मैं बड़े यत्नसे उन्हें रुद्रसे अवश्य विमुख करूँगा और तब शिवजी अपनी शक्तिसे रहित जानकर उन्हें भस्म कर देंगे ॥ 51-52॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने! तब वे देवगण विष्णुकी आज्ञाको सिरपर धारणकर कुछ निश्चिन्त हुए और फिर ब्रह्माके द्वारा आश्वासित होनेपर प्रसन्नहो अपने-अपने स्थानोंको चले गये। इसके बाद विष्णुने देवताओंके लिये जो उत्तम उपाय किया, उसे आप भलीभाँति सुनिये, वह सभी पापोंका नाश करनेवाला है ॥ 53-54॥