सनत्कुमार बोले- शिवजीको प्रसन्न देखकर उनकी कृपाके प्रभावसे भस्म होनेसे बचा हुआ मयदानव अति प्रसन्न होकर वहाँ आया। उसने सदाशिव एवं अन्य देवताओंको भी प्रेमपूर्वक हाथ | जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम किया और उसके बाद शिवजीको पुनः प्रणाम किया। तदनन्तर उठकर शिवजीकी ओर देखकर भक्तिसे पूर्ण मनवाला वह श्रेष्ठ दानव मय प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीसे उनकी स्तुति करने लगा ॥ 1-3 ॥
मय बोला- हे देवदेव! हे महादेव! हे भक्तवत्सल! हे शंकर! आप कल्पवृक्षस्वरूप हैं तथा सभी पक्षोंसे रहित हैं ॥ 4 ॥
हे प्रकाशरूप! आपको नमस्कार है। हे विश्वरूप! आपको नमस्कार है, आप पवित्रात्माको बार-बार नमस्कार है। आप पवित्र करनेवालेको बार-बार
नमस्कार है ll 5 ll विचित्र रूपवाले, नित्य तथा रूपसे अतीत आपको नमस्कार है। दिव्यरूप, दिव्य एवं अत्यन्त दिव्य आकृतिवाले आपको नमस्कार है। प्रणतजनोंकी सभी प्रकारकी विपत्तियोंको दूर करनेवाले तथा सबका कल्याण चाहनेवाले आपको नमस्कार है। त्रिलोकीके कर्ता, भर्ता तथा हर्ता आपको बार-बार नमस्कार है। हे शिवाकान्त ! हे शिवेश्वर! भक्तोंको भक्तिसे प्राप्त होनेवाले, कृपा करनेवाले तथा तपस्याका उत्तम फल देनेवाले आपको प्रणाम है ॥ 6-8 ॥हे स्तुतिप्रिय हे परमेश्वर। मैं स्तुति करना नहीं जानता हूँ। हे सर्वेश। आप प्रसन्न हो जाइये और मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ 9 ॥
सनत्कुमार बोले- हे द्विजश्रेष्ठ मयद्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर शंकरजी प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक मयसे कहने लगे-॥ 10 ॥
शिवजी बोले- हे दानवश्रेष्ठ मय मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हारा जो भी मनोवांछित वर होगा, उसे प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 11 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवका कल्याणकारी वचन सुनकर दानवश्रेष्ठ मय हाथ जोड़कर सिर झुकाकर शिवको नमस्कारकर कहने लगा-॥ 12 ॥
मय बोला- हे देवदेव! हे महादेव! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मैं वर पानेके योग्य हूँ, तो मुझे अपनी शाश्वती भक्ति प्रदान कीजिये ॥ 13 ॥
हे परमेश्वर ! आप अपने भक्तोंके प्रति सर्वदा सख्यभाव तथा दीनोंके प्रति सदा दयाभाव रखिये और अन्य खल जीवोंकी उपेक्षा कीजिये। हे महेश्वर ! मुझमें कभी भी असुरभाव न रहे। हे नाथ! मैं सदा निर्भय एवं आपके शुभ भजनमें मग्न रहूँ ।। 14-15 ।।
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार मयदानव के प्रार्थना करनेपर भक्तवत्सल परमेश्वर भगवान् शंकर प्रसन्न होकर मयसे कहने लगे- ॥ 16 ॥
महेश्वर बोले- हे दानवश्रेष्ठ। तुम धन्य हो, तुम मेरे विकाररहित भक्त हो, इस समय जो भी तुम्हारे अभीष्ट वर हैं, उन सबको मैंने तुम्हें दे दिया। तुम मेरी आज्ञासे अपने परिवारसहित स्वर्गलोकसे भी मनोहर वितललोकको जाओ और भक्तियुक्त तथा निर्भय होकर वहाँ रहो मेरी आज्ञासे तुम्हारे चित्तमें कभी भी असुरभाव उत्पन्न नहीं होगा ।। 17- 19 ॥
सनत्कुमार बोले- [ हे व्यास!] उसके बाद शिवजीकी आज्ञा शिरोधार्यकर उनको तथा देवताओंको भी प्रणामकर वह वितललोकको चला गया। इसी बीच वे मुण्डी भी वहाँ आ गये और ब्रह्मा, विष्णु आदि उन सभी देवताओंको प्रणामकर कहने लगे-हे देवताओ ! हमलोग कहाँ जायें तथा क्या करें, आपकी आज्ञा माननेवाले हम सभीको शीघ्रतासे आज्ञा दीजिये ।। 20-22 ॥हे हरे! हे विधे! हे देवो! हमलोगोंने दुष्कर्म किया है, जो कि शिवजीमें भक्ति रखनेवाले दानवोंकी शिवभक्तिको विनष्ट किया। [इस पापके फलस्वरूप ] करोड़ों कल्पोंतक नरकमें हमलोगोंका वास होगा। शिवभक्तोंका विरोध करनेवाले हमलोगोंका उद्धार निश्चितरूपसे नहीं होगा, किंतु हमलोगोंने आपलोगोंकी इच्छासे ही यह दुष्कर्म किया है। अतः कृपापूर्वक आपलोग उसकी शान्तिका मार्ग बतायें, हम आपलोगोंक शरणागत हैं ।। 23–25 ॥
सनत्कुमार बोले- उनका वह वचन सुनकर विष्णु, ब्रह्मादि देवता अपने आगे हाथ जोड़कर खड़े उन मुण्डियोंसे कहने लगे - ॥ 26 ॥
विष्णु आदि [ देवता] बोले- हे मुण्डियो! तुमलोग किसी प्रकारका भय मत करो, यह सारा उत्तम चरित्र शिवजीकी आज्ञासे हुआ है। तुमलोगोंको दुःख देनेवाली दुर्गति कदापि न होगी; क्योंकि तुमलोग शिवजीके दास हो और देवताओं एवं ऋषियोंके हितकारी हो । ll 27-28 ॥
शंकरजी देवगणों एवं ऋषियोंके हितकर्ता हैं और देवताओं तथा ऋषियोंका हित करनेवाले लोग उन्हें प्रिय हैं, अतः देवताओं तथा ऋषियोंका हित करनेवाले मनुष्योंकी कदापि दुर्गति नहीं होती । इसके विपरीत मतको स्वीकार करनेवाले मनुष्योंकी कलियुगमें दुर्गति होगी, हम यह सत्य कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं है । ll 29-30 ॥
हे मुण्डियो ! तुमलोग मेरी आज्ञासे धैर्य धारणकर गुप्तरूपसे कलियुगके आनेतक मरुस्थलमें निवास करो। कलियुगके आनेपर तुमलोग अपना मत स्थापित करना; क्योंकि कलियुगमें लोग मोहमें पड़कर तुमलोगोंका मत स्वीकार कर लेंगे ।। 31-32 ॥
हे मुनीश्वर ! उन सुरेश्वरोंके द्वारा इस प्रकारकी आज्ञा प्राप्तकर वे मुण्डी उन्हें प्रणामकर यथानिर्दिष्ट अपने आश्रमको चले गये। इसके अनन्तर [हे व्यास!] त्रिपुरवासियोंको भस्म करनेके बाद कृतकृत्य हुए वे महायोगी भगवान् रुद्र ब्रह्मा आदिके द्वारा पूजित हुए । l 33-34 ।।इस प्रकार देवताओंका महान् कार्य सम्पन्नकर वे प्रभु अपने गणों, देवी पार्वती तथा पुत्रोंसहित अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर परिवारसहित महादेव शंकरके अन्तर्धान हो जानेपर धनुष-बाण, रथ आदिसहित समस्त सामग्री विलुप्त हो गयी ।। 35-36 ॥
इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु, सभी देवता, मुनि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, सर्प, अप्सराएँ तथा मनुष्य प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका यशोगान करते हुए अपने-अपने स्थानोंको चले गये एवं अपने-अपने स्थानोंपर पहुँचकर परम शान्तिको प्राप्त हुए ।। 37-38 ॥
[हे वेदव्यास!] इस प्रकार मैंने आपसे त्रिपुरके वधको सूचित करनेवाले, महालीलासे परिपूर्ण तथा उत्कृष्ट सम्पूर्ण शिव चरित्रका वर्णन कर दिया, जो धन्य, यशको फैलानेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला, धन-धान्यको बढ़ानेवाला, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैँ ।। 39-40 ।।
जो इस उत्तम वृत्तान्तको सदा पढ़ता है तथा सुनता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त करता है ॥ 41 ॥