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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 12 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 12

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त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना

सनत्कुमार बोले- शिवजीको प्रसन्न देखकर उनकी कृपाके प्रभावसे भस्म होनेसे बचा हुआ मयदानव अति प्रसन्न होकर वहाँ आया। उसने सदाशिव एवं अन्य देवताओंको भी प्रेमपूर्वक हाथ | जोड़कर सिर झुकाकर प्रणाम किया और उसके बाद शिवजीको पुनः प्रणाम किया। तदनन्तर उठकर शिवजीकी ओर देखकर भक्तिसे पूर्ण मनवाला वह श्रेष्ठ दानव मय प्रेमपूर्वक गद्गद वाणीसे उनकी स्तुति करने लगा ॥ 1-3 ॥

मय बोला- हे देवदेव! हे महादेव! हे भक्तवत्सल! हे शंकर! आप कल्पवृक्षस्वरूप हैं तथा सभी पक्षोंसे रहित हैं ॥ 4 ॥

हे प्रकाशरूप! आपको नमस्कार है। हे विश्वरूप! आपको नमस्कार है, आप पवित्रात्माको बार-बार नमस्कार है। आप पवित्र करनेवालेको बार-बार
नमस्कार है ll 5 ll विचित्र रूपवाले, नित्य तथा रूपसे अतीत आपको नमस्कार है। दिव्यरूप, दिव्य एवं अत्यन्त दिव्य आकृतिवाले आपको नमस्कार है। प्रणतजनोंकी सभी प्रकारकी विपत्तियोंको दूर करनेवाले तथा सबका कल्याण चाहनेवाले आपको नमस्कार है। त्रिलोकीके कर्ता, भर्ता तथा हर्ता आपको बार-बार नमस्कार है। हे शिवाकान्त ! हे शिवेश्वर! भक्तोंको भक्तिसे प्राप्त होनेवाले, कृपा करनेवाले तथा तपस्याका उत्तम फल देनेवाले आपको प्रणाम है ॥ 6-8 ॥हे स्तुतिप्रिय हे परमेश्वर। मैं स्तुति करना नहीं जानता हूँ। हे सर्वेश। आप प्रसन्न हो जाइये और मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये ॥ 9 ॥

सनत्कुमार बोले- हे द्विजश्रेष्ठ मयद्वारा की गयी स्तुतिको सुनकर शंकरजी प्रसन्न हुए और आदरपूर्वक मयसे कहने लगे-॥ 10 ॥

शिवजी बोले- हे दानवश्रेष्ठ मय मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, वर माँगो, मैं तुम्हारा जो भी मनोवांछित वर होगा, उसे प्रदान करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 11 ॥

सनत्कुमार बोले- शिवका कल्याणकारी वचन सुनकर दानवश्रेष्ठ मय हाथ जोड़कर सिर झुकाकर शिवको नमस्कारकर कहने लगा-॥ 12 ॥

मय बोला- हे देवदेव! हे महादेव! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और यदि मैं वर पानेके योग्य हूँ, तो मुझे अपनी शाश्वती भक्ति प्रदान कीजिये ॥ 13 ॥

हे परमेश्वर ! आप अपने भक्तोंके प्रति सर्वदा सख्यभाव तथा दीनोंके प्रति सदा दयाभाव रखिये और अन्य खल जीवोंकी उपेक्षा कीजिये। हे महेश्वर ! मुझमें कभी भी असुरभाव न रहे। हे नाथ! मैं सदा निर्भय एवं आपके शुभ भजनमें मग्न रहूँ ।। 14-15 ।।

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार मयदानव के प्रार्थना करनेपर भक्तवत्सल परमेश्वर भगवान् शंकर प्रसन्न होकर मयसे कहने लगे- ॥ 16 ॥

महेश्वर बोले- हे दानवश्रेष्ठ। तुम धन्य हो, तुम मेरे विकाररहित भक्त हो, इस समय जो भी तुम्हारे अभीष्ट वर हैं, उन सबको मैंने तुम्हें दे दिया। तुम मेरी आज्ञासे अपने परिवारसहित स्वर्गलोकसे भी मनोहर वितललोकको जाओ और भक्तियुक्त तथा निर्भय होकर वहाँ रहो मेरी आज्ञासे तुम्हारे चित्तमें कभी भी असुरभाव उत्पन्न नहीं होगा ।। 17- 19 ॥

सनत्कुमार बोले- [ हे व्यास!] उसके बाद शिवजीकी आज्ञा शिरोधार्यकर उनको तथा देवताओंको भी प्रणामकर वह वितललोकको चला गया। इसी बीच वे मुण्डी भी वहाँ आ गये और ब्रह्मा, विष्णु आदि उन सभी देवताओंको प्रणामकर कहने लगे-हे देवताओ ! हमलोग कहाँ जायें तथा क्या करें, आपकी आज्ञा माननेवाले हम सभीको शीघ्रतासे आज्ञा दीजिये ।। 20-22 ॥हे हरे! हे विधे! हे देवो! हमलोगोंने दुष्कर्म किया है, जो कि शिवजीमें भक्ति रखनेवाले दानवोंकी शिवभक्तिको विनष्ट किया। [इस पापके फलस्वरूप ] करोड़ों कल्पोंतक नरकमें हमलोगोंका वास होगा। शिवभक्तोंका विरोध करनेवाले हमलोगोंका उद्धार निश्चितरूपसे नहीं होगा, किंतु हमलोगोंने आपलोगोंकी इच्छासे ही यह दुष्कर्म किया है। अतः कृपापूर्वक आपलोग उसकी शान्तिका मार्ग बतायें, हम आपलोगोंक शरणागत हैं ।। 23–25 ॥

सनत्कुमार बोले- उनका वह वचन सुनकर विष्णु, ब्रह्मादि देवता अपने आगे हाथ जोड़कर खड़े उन मुण्डियोंसे कहने लगे - ॥ 26 ॥

विष्णु आदि [ देवता] बोले- हे मुण्डियो! तुमलोग किसी प्रकारका भय मत करो, यह सारा उत्तम चरित्र शिवजीकी आज्ञासे हुआ है। तुमलोगोंको दुःख देनेवाली दुर्गति कदापि न होगी; क्योंकि तुमलोग शिवजीके दास हो और देवताओं एवं ऋषियोंके हितकारी हो । ll 27-28 ॥

शंकरजी देवगणों एवं ऋषियोंके हितकर्ता हैं और देवताओं तथा ऋषियोंका हित करनेवाले लोग उन्हें प्रिय हैं, अतः देवताओं तथा ऋषियोंका हित करनेवाले मनुष्योंकी कदापि दुर्गति नहीं होती । इसके विपरीत मतको स्वीकार करनेवाले मनुष्योंकी कलियुगमें दुर्गति होगी, हम यह सत्य कहते हैं, इसमें सन्देह नहीं है । ll 29-30 ॥

हे मुण्डियो ! तुमलोग मेरी आज्ञासे धैर्य धारणकर गुप्तरूपसे कलियुगके आनेतक मरुस्थलमें निवास करो। कलियुगके आनेपर तुमलोग अपना मत स्थापित करना; क्योंकि कलियुगमें लोग मोहमें पड़कर तुमलोगोंका मत स्वीकार कर लेंगे ।। 31-32 ॥

हे मुनीश्वर ! उन सुरेश्वरोंके द्वारा इस प्रकारकी आज्ञा प्राप्तकर वे मुण्डी उन्हें प्रणामकर यथानिर्दिष्ट अपने आश्रमको चले गये। इसके अनन्तर [हे व्यास!] त्रिपुरवासियोंको भस्म करनेके बाद कृतकृत्य हुए वे महायोगी भगवान् रुद्र ब्रह्मा आदिके द्वारा पूजित हुए । l 33-34 ।।इस प्रकार देवताओंका महान् कार्य सम्पन्नकर वे प्रभु अपने गणों, देवी पार्वती तथा पुत्रोंसहित अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर परिवारसहित महादेव शंकरके अन्तर्धान हो जानेपर धनुष-बाण, रथ आदिसहित समस्त सामग्री विलुप्त हो गयी ।। 35-36 ॥

इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु, सभी देवता, मुनि, गन्धर्व, किन्नर, नाग, सर्प, अप्सराएँ तथा मनुष्य प्रसन्न हो गये और प्रसन्नतापूर्वक शिवजीका यशोगान करते हुए अपने-अपने स्थानोंको चले गये एवं अपने-अपने स्थानोंपर पहुँचकर परम शान्तिको प्राप्त हुए ।। 37-38 ॥

[हे वेदव्यास!] इस प्रकार मैंने आपसे त्रिपुरके वधको सूचित करनेवाले, महालीलासे परिपूर्ण तथा उत्कृष्ट सम्पूर्ण शिव चरित्रका वर्णन कर दिया, जो धन्य, यशको फैलानेवाला, आयुकी वृद्धि करनेवाला, धन-धान्यको बढ़ानेवाला, स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैँ ।। 39-40 ।।

जो इस उत्तम वृत्तान्तको सदा पढ़ता है तथा सुनता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण सुखोंको भोगकर अन्तमें मुक्ति प्राप्त करता है ॥ 41 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य