व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार! हे विभो ! भाइयों तथा पुरवासियोंसहित उस दैत्यराजके मोहित हो जानेपर क्या हुआ, वह सारा वृत्तान्त कहिये ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- त्रिपुरके वैसा हो जानेपर, उस दैत्यके शिवार्चनका त्याग कर देनेपर और वहाँका सम्पूर्ण स्त्रीधर्म नष्ट हो जानेपर तथा दुराचारके फैल जानेपर लक्ष्मीपति विष्णु कृतार्थ होकर देवताओंके साथ उसके चरित्रको शिवजीसे कहनेके लिये कैलास पहुँचे ।। 2-3 ।।
देवताओंके साथ ब्रह्मासहित उनके पास स्थित होकर उन पुरुषोत्तम रमापति विष्णुने समाधिसे तथा मनसे प्राप्त होनेवाले उन सर्वज्ञ परमेश्वर सदाशिवकी | इष्ट वाणीसे स्तुति की ll 4-5 ll
विष्णुजी बोले -आप महेश्वर, देव, परमात्मा, नारायण, रुद्र, ब्रह्मा तथा परब्रह्मस्वरूपको नमस्कार है। ऐसा कहकर महादेवको दण्डवत् प्रणाम करके शिवमें अपना मन लगाये हुए प्रभु विष्णुने अपने स्वामी उन परमेश्वर शिवका मनसे स्मरण करते हुए जलमें स्थित हो दक्षिणामूर्तिसे उत्पन्न हुए रुद्रमन्त्रका डेढ़ करोड़ जप किया। उस समय सभी देवता भी उन महेश्वरमें अपना मन लगाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 6-9 ॥
देवता बोले- सबमें आत्मरूपसे विराजमान सबके दुःखोंको दूर करनेवाले, रुद्र, नीलकण्ठ, चैतन्यरूप एवं प्रचेता आप शंकरको नमस्कार है ॥ 10 ॥
आप हम सबकी आपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं. तथा हम सबकी गति हैं। हे दैत्यसूदन! आप सर्वदा हमलोगों कन्दनीय है। आप आदि अनादि स्वाभाद अक्षयरूप तथा प्रभु हैं। आप ही जगत्प्रभु तथा साक्षात् प्रकृति एवं पुरुषके भी स्रष्टा हैं ।। 11-12 ॥
आप ही रज, सत्त्व तथा तमोगुणसे युक्त होकर ब्रह्मा विष्णु तथा रुद्रस्वरूप होकर जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। आप इस जगत्में सबको तारनेवाले, सबके स्वामी, अविनाशी, वर देनेवाले, वाणीमय, वाच्य और वाच्य वाचकभावसे रहित भी हैं ।। 13-14 ।।योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ योगिजन मुखिके लिये आप ईशानसे ही याचना करते हैं। आप ही योगियोंके हृदयरूप कमलमें विराजमान हैं ।। 15 ।।
सभी वेद एवं सन्तगण आपको ही तेजोराशि, परात्परस्वरूप और तत्त्वमसि इत्यादि वाक्यसे जाननेयोग्य परब्रह्मस्वरूप कहते हैं ॥ 16 ll
हे विभो। हे शर्व हे सर्वात्मन् काधिपते। हे भव। इस संसारमें जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह आप ही हैं ।॥ 17 ॥
हे जगद्गुरो ! आपको ही दृष्ट, श्रुत, जाननेयोग्य, छोटेसे भी छोटा एवं महानसे भी महान् कहा गया है ॥ 18 ॥ आपके हाथ, चरण, नेत्र, सिर, मुख, कान तथा नासिका सभी दिशाओंमें व्याप्त हैं, अतः मैं आपको सभी ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 19 ॥
हे सर्वव्यापिन्। आप सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अनावृत, विश्वरूप, विरूपाक्षको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 20 ॥
सर्वेश्वर, संसारके अधिष्ठाता, सत्य, कल्याणकारी, सर्वोत्तम, करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 21 ॥
विश्वदेव, आदि-अन्तसे रहित, छत्तीस तत्त्वोंवाले, सबसे महान् और सबको प्रवृत्त करनेवाले आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 22 ॥
प्रकृतिको प्रवृत्त करनेवाले, सबके प्रपितामह, सर्वविग्रह तथा ईश्वर आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता ॥ 23 ॥
जो श्रुतियाँ तथा श्रुतिसिद्धान्तवेत्ता हैं, वे आपको ही वरद, सबका निवासस्थान, स्वयम्भू तथा श्रुतिसारज्ञाता कहते हैं ॥ 24 ॥
आपने इस लोकमें जो अनेक प्रकारकी सृष्टि की है, वह हमलोगोंके दृष्टिपथमें नहीं आ सकती। देवता, असुर, ब्राह्मण, स्थावर, जंगम तथा अन्य जो भी हैं, उनका कर्ता आपको ही कहते हैं॥ 25 ॥
हे शम्भो! हे देववल्लभ! क्षणभरमें असुरोंका वध करके त्रिपुराधिपके द्वारा विनष्ट किये जा रहे हम अनन्यगतिवाले देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ 26 ॥हे परमेश्वर। हे प्रभो! इस समय वे असुर विष्णुजीके द्वारा बताये गये उपायसे आपकी मायाद्वारा मोहित हो रहे हैं और धर्मसे बहिर्मुख हो रहे हैं ॥। 27 ॥
हे भक्तवत्सल ! उन दैत्योंने हमलोगोंके भाग्यसे समस्त धर्मोका त्याग कर दिया है और वेदविरुद्ध धर्मोका आश्रय ले लिया है ॥ 28 ॥
हे शरणप्रद ! आप तो सदासे ही देवताओंका कार्य करनेवाले हैं और इस समय हम आपकी शरणमें आये हुए हैं, आप जैसा चाहें, वैसा करें ॥ 29 ॥
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार महेश्वरकी स्तुतिकर वे देवता दीन हो हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उनके आगे खड़े हो गये ॥ 30 ॥
इस प्रकार इन्द्रादि देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर तथा विष्णुके जपसे प्रसन्न हुए भगवान् सर्वेश्वर बैलपर सवार हो वहाँ गये ॥ 31 ॥
वहाँपर नन्दीश्वरसे उतरकर विष्णुका आलिंगन करके प्रसन्नचित्तवाले प्रभु नन्दीश्वरपर हाथ रखकर सभीकी ओर मनोहर दृष्टिसे देखने लगे ॥ 32 ॥
तत्पश्चात् पार्वतीपति शंकर प्रसन्न होकर कृपादृष्टिसे देवताओं एवं विष्णुजी की ओर देखकर गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ 33 ॥
शिवजी बोले- हे सुरेश्वर ! इस समय मैंने देवताओंका कार्य भलीभाँति जान लिया है तथा महाबुद्धिमान् विष्णु एवं नारदके मायाबलको भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ ॥ 34 ॥
हे देवसत्तम! मैं उन अधर्मी दैत्यों तथा त्रिपुरका विनाश करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 35 ll
किंतु दृढ़ मनवाले वे महादैत्य मेरे भक्त हैं, यद्यपि मायासे मोहित होकर उन्होंने धर्मका त्याग कर दिया है, इसलिये मैं किस प्रकार उनका वध कर सकता हूँ ॥ 36 ॥
जब त्रिपुरमें रहनेवाले सभी दैत्य मेरी भक्तिसे रहित हो गये हैं, तो उनका वध भगवान् विष्णु करेंगे, जिन्होंने बहानेसे दैत्योंको धर्मच्युत किया है ll 37 ॥
हे मुने! इस प्रकार शिवजीके वचनको सुनकर सभी देवता तथा विष्णु अनमने हो गये ॥ 38 ॥अनन्तर देवताओं एवं विष्णुको उदास देखकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माने हाथ जोड़कर शिवजी से कहा- ।। 39 ।।
ब्रह्माजी बोले- [हे प्रभो!] आपको कोई पाप नहीं लगेगा; क्योंकि आप परम योगवेत्ता हैं, आप परमेश्वर, परब्रह्म तथा सर्वदा देवताओं एवं ऋषियोंके रक्षक हैं ।। 40 ।।
आप ही प्रेरणा देनेवाले हैं। आपके ही शासनसे मोहित होकर उन्होंने अपने धर्म तथा आपकी पूजाका त्याग कर दिया है, फिर भी वे दूसरोंके द्वारा अवध्य हैं ।। 41 ।।
अतः हे महादेव! हे देवर्षिप्राणरक्षक! आप सज्जनोंकी रक्षाके लिये इन म्लेच्छजातियोंका वध कीजिये ।। 42 ।।
राजाका कर्तव्य होता है कि धर्मकी रक्षा करे तथा पापियोंका वध करे। आप राजा हैं, इसलिये ब्राह्मण तथा साधुओंको रक्षाके निमित्त स्वयं आपको इस कण्टकका शोधन करना चाहिये। ऐसा करनेसे आपको पाप नहीं लगेगा ॥ 43 ॥
यदि राजा इस प्रकार अपने राज्यकी रक्षा करे, तो उसे इस लोकमें सर्वलोकाधिपत्य तथा परम कल्याण प्राप्त होता है। इस कारण आप स्वयं त्रिपुरका बंधकर इन देवताओंकी रक्षा कीजिये, [प्रभो!] विलम्ब न करें ॥ 44 ॥
हे देवदेवेश ! मुनि, इन्द्र, ईश्वर, यज्ञ, वेद, समस्त शास्त्र तथा मैं और विष्णु-ये सभी आपकी प्रजाएँ हैं। हे प्रभो! आप देवगणोंके सार्वभौम सम्राट्, सर्वेश्वर हैं और विष्णुसे लेकर सारा संसार आपका परिवार है ।। 45-46 ॥
हे अज विष्णु आपके युवराज हैं, मैं आपका पुरोहित हूँ एवं ये इन्द्र आपके राज्यकी देखभाल करनेवाले तथा आपकी आज्ञाके परिपालक हैं ।। 47 ।।
हे सर्वेश! इसी प्रकार अन्य देवता भी आपके शासनमें रहकर सदा अपने-अपने कार्य करते हैं, यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है । ll 48 ।।
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार उन ब्रह्माका वचन सुनकर देवरक्षक भगवान् शंकर प्रसन्नचित्त होकर ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ 49 ॥शिवजी बोले- हे ब्रह्मन् ! यदि मैं वस्तुतः देवराज तथा सबका सम्राट् कहा गया हूँ, फिर भी मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे मैं इस पदको ग्रहण कर सकूँ ॥ 50 ॥
मेरे पास योग्य सारथीसहित महादिव्य रथ नहीं है और संग्राममें विजय दिलानेवाला धनुष-बाण आदि भी नहीं है, जिस रथपर बैठकर, धनुष-बाण लेकर तथा अपना मन लगाकर उन प्रबल दैत्योंका संग्राममें वध कर सकूँ ॥ 51-52॥
सनत्कुमार बोले—तब ब्रह्मा, इन्द्र एवं विष्णुके सहित सभी देवता प्रभुके वचनको सुनकर परम प्रसन्न हो उठे और महेश्वरको प्रणामकर उनसे कहने लगे - ॥ 53 ॥
देवता बोले- हे देवेश ! हे महेश्वर ! हे स्वामिन्! हमलोग आपके रथादि उपकरण बनकर युद्धके लिये तैयार हैं ॥ 54 ॥
इस प्रकार कहकर प्रसन्न हुए वे सभी देवता एकत्रित हो शिवजीकी इच्छा जानकर हाथ जोड़कर अलग-अलग कहने लगे ॥ 55 ॥