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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 6 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 6

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त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति

व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार! हे विभो ! भाइयों तथा पुरवासियोंसहित उस दैत्यराजके मोहित हो जानेपर क्या हुआ, वह सारा वृत्तान्त कहिये ॥ 1 ॥

सनत्कुमार बोले- त्रिपुरके वैसा हो जानेपर, उस दैत्यके शिवार्चनका त्याग कर देनेपर और वहाँका सम्पूर्ण स्त्रीधर्म नष्ट हो जानेपर तथा दुराचारके फैल जानेपर लक्ष्मीपति विष्णु कृतार्थ होकर देवताओंके साथ उसके चरित्रको शिवजीसे कहनेके लिये कैलास पहुँचे ।। 2-3 ।।

देवताओंके साथ ब्रह्मासहित उनके पास स्थित होकर उन पुरुषोत्तम रमापति विष्णुने समाधिसे तथा मनसे प्राप्त होनेवाले उन सर्वज्ञ परमेश्वर सदाशिवकी | इष्ट वाणीसे स्तुति की ll 4-5 ll

विष्णुजी बोले -आप महेश्वर, देव, परमात्मा, नारायण, रुद्र, ब्रह्मा तथा परब्रह्मस्वरूपको नमस्कार है। ऐसा कहकर महादेवको दण्डवत् प्रणाम करके शिवमें अपना मन लगाये हुए प्रभु विष्णुने अपने स्वामी उन परमेश्वर शिवका मनसे स्मरण करते हुए जलमें स्थित हो दक्षिणामूर्तिसे उत्पन्न हुए रुद्रमन्त्रका डेढ़ करोड़ जप किया। उस समय सभी देवता भी उन महेश्वरमें अपना मन लगाकर उनकी स्तुति करने लगे ॥ 6-9 ॥

देवता बोले- सबमें आत्मरूपसे विराजमान सबके दुःखोंको दूर करनेवाले, रुद्र, नीलकण्ठ, चैतन्यरूप एवं प्रचेता आप शंकरको नमस्कार है ॥ 10 ॥

आप हम सबकी आपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं. तथा हम सबकी गति हैं। हे दैत्यसूदन! आप सर्वदा हमलोगों कन्दनीय है। आप आदि अनादि स्वाभाद अक्षयरूप तथा प्रभु हैं। आप ही जगत्प्रभु तथा साक्षात् प्रकृति एवं पुरुषके भी स्रष्टा हैं ।। 11-12 ॥

आप ही रज, सत्त्व तथा तमोगुणसे युक्त होकर ब्रह्मा विष्णु तथा रुद्रस्वरूप होकर जगत्का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं। आप इस जगत्में सबको तारनेवाले, सबके स्वामी, अविनाशी, वर देनेवाले, वाणीमय, वाच्य और वाच्य वाचकभावसे रहित भी हैं ।। 13-14 ।।योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ योगिजन मुखिके लिये आप ईशानसे ही याचना करते हैं। आप ही योगियोंके हृदयरूप कमलमें विराजमान हैं ।। 15 ।।

सभी वेद एवं सन्तगण आपको ही तेजोराशि, परात्परस्वरूप और तत्त्वमसि इत्यादि वाक्यसे जाननेयोग्य परब्रह्मस्वरूप कहते हैं ॥ 16 ll

हे विभो। हे शर्व हे सर्वात्मन् काधिपते। हे भव। इस संसारमें जिसे परमात्मा कहा जाता है, वह आप ही हैं ।॥ 17 ॥

हे जगद्गुरो ! आपको ही दृष्ट, श्रुत, जाननेयोग्य, छोटेसे भी छोटा एवं महानसे भी महान् कहा गया है ॥ 18 ॥ आपके हाथ, चरण, नेत्र, सिर, मुख, कान तथा नासिका सभी दिशाओंमें व्याप्त हैं, अतः मैं आपको सभी ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 19 ॥

हे सर्वव्यापिन्। आप सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अनावृत, विश्वरूप, विरूपाक्षको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 20 ॥

सर्वेश्वर, संसारके अधिष्ठाता, सत्य, कल्याणकारी, सर्वोत्तम, करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशमान आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 21 ॥

विश्वदेव, आदि-अन्तसे रहित, छत्तीस तत्त्वोंवाले, सबसे महान् और सबको प्रवृत्त करनेवाले आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता हूँ ॥ 22 ॥

प्रकृतिको प्रवृत्त करनेवाले, सबके प्रपितामह, सर्वविग्रह तथा ईश्वर आपको मैं सब ओरसे नमस्कार करता ॥ 23 ॥

जो श्रुतियाँ तथा श्रुतिसिद्धान्तवेत्ता हैं, वे आपको ही वरद, सबका निवासस्थान, स्वयम्भू तथा श्रुतिसारज्ञाता कहते हैं ॥ 24 ॥

आपने इस लोकमें जो अनेक प्रकारकी सृष्टि की है, वह हमलोगोंके दृष्टिपथमें नहीं आ सकती। देवता, असुर, ब्राह्मण, स्थावर, जंगम तथा अन्य जो भी हैं, उनका कर्ता आपको ही कहते हैं॥ 25 ॥

हे शम्भो! हे देववल्लभ! क्षणभरमें असुरोंका वध करके त्रिपुराधिपके द्वारा विनष्ट किये जा रहे हम अनन्यगतिवाले देवताओंकी रक्षा कीजिये ॥ 26 ॥हे परमेश्वर। हे प्रभो! इस समय वे असुर विष्णुजीके द्वारा बताये गये उपायसे आपकी मायाद्वारा मोहित हो रहे हैं और धर्मसे बहिर्मुख हो रहे हैं ॥। 27 ॥

हे भक्तवत्सल ! उन दैत्योंने हमलोगोंके भाग्यसे समस्त धर्मोका त्याग कर दिया है और वेदविरुद्ध धर्मोका आश्रय ले लिया है ॥ 28 ॥

हे शरणप्रद ! आप तो सदासे ही देवताओंका कार्य करनेवाले हैं और इस समय हम आपकी शरणमें आये हुए हैं, आप जैसा चाहें, वैसा करें ॥ 29 ॥

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार महेश्वरकी स्तुतिकर वे देवता दीन हो हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर उनके आगे खड़े हो गये ॥ 30 ॥

इस प्रकार इन्द्रादि देवताओंके द्वारा स्तुति किये जानेपर तथा विष्णुके जपसे प्रसन्न हुए भगवान् सर्वेश्वर बैलपर सवार हो वहाँ गये ॥ 31 ॥

वहाँपर नन्दीश्वरसे उतरकर विष्णुका आलिंगन करके प्रसन्नचित्तवाले प्रभु नन्दीश्वरपर हाथ रखकर सभीकी ओर मनोहर दृष्टिसे देखने लगे ॥ 32 ॥

तत्पश्चात् पार्वतीपति शंकर प्रसन्न होकर कृपादृष्टिसे देवताओं एवं विष्णुजी की ओर देखकर गम्भीर वाणीमें कहने लगे- ॥ 33 ॥

शिवजी बोले- हे सुरेश्वर ! इस समय मैंने देवताओंका कार्य भलीभाँति जान लिया है तथा महाबुद्धिमान् विष्णु एवं नारदके मायाबलको भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ ॥ 34 ॥

हे देवसत्तम! मैं उन अधर्मी दैत्यों तथा त्रिपुरका विनाश करूँगा, इसमें संशय नहीं है ॥ 35 ll

किंतु दृढ़ मनवाले वे महादैत्य मेरे भक्त हैं, यद्यपि मायासे मोहित होकर उन्होंने धर्मका त्याग कर दिया है, इसलिये मैं किस प्रकार उनका वध कर सकता हूँ ॥ 36 ॥

जब त्रिपुरमें रहनेवाले सभी दैत्य मेरी भक्तिसे रहित हो गये हैं, तो उनका वध भगवान् विष्णु करेंगे, जिन्होंने बहानेसे दैत्योंको धर्मच्युत किया है ll 37 ॥

हे मुने! इस प्रकार शिवजीके वचनको सुनकर सभी देवता तथा विष्णु अनमने हो गये ॥ 38 ॥अनन्तर देवताओं एवं विष्णुको उदास देखकर सृष्टिकर्ता ब्रह्माने हाथ जोड़कर शिवजी से कहा- ।। 39 ।।

ब्रह्माजी बोले- [हे प्रभो!] आपको कोई पाप नहीं लगेगा; क्योंकि आप परम योगवेत्ता हैं, आप परमेश्वर, परब्रह्म तथा सर्वदा देवताओं एवं ऋषियोंके रक्षक हैं ।। 40 ।।

आप ही प्रेरणा देनेवाले हैं। आपके ही शासनसे मोहित होकर उन्होंने अपने धर्म तथा आपकी पूजाका त्याग कर दिया है, फिर भी वे दूसरोंके द्वारा अवध्य हैं ।। 41 ।।

अतः हे महादेव! हे देवर्षिप्राणरक्षक! आप सज्जनोंकी रक्षाके लिये इन म्लेच्छजातियोंका वध कीजिये ।। 42 ।।

राजाका कर्तव्य होता है कि धर्मकी रक्षा करे तथा पापियोंका वध करे। आप राजा हैं, इसलिये ब्राह्मण तथा साधुओंको रक्षाके निमित्त स्वयं आपको इस कण्टकका शोधन करना चाहिये। ऐसा करनेसे आपको पाप नहीं लगेगा ॥ 43 ॥

यदि राजा इस प्रकार अपने राज्यकी रक्षा करे, तो उसे इस लोकमें सर्वलोकाधिपत्य तथा परम कल्याण प्राप्त होता है। इस कारण आप स्वयं त्रिपुरका बंधकर इन देवताओंकी रक्षा कीजिये, [प्रभो!] विलम्ब न करें ॥ 44 ॥

हे देवदेवेश ! मुनि, इन्द्र, ईश्वर, यज्ञ, वेद, समस्त शास्त्र तथा मैं और विष्णु-ये सभी आपकी प्रजाएँ हैं। हे प्रभो! आप देवगणोंके सार्वभौम सम्राट्, सर्वेश्वर हैं और विष्णुसे लेकर सारा संसार आपका परिवार है ।। 45-46 ॥

हे अज विष्णु आपके युवराज हैं, मैं आपका पुरोहित हूँ एवं ये इन्द्र आपके राज्यकी देखभाल करनेवाले तथा आपकी आज्ञाके परिपालक हैं ।। 47 ।।

हे सर्वेश! इसी प्रकार अन्य देवता भी आपके शासनमें रहकर सदा अपने-अपने कार्य करते हैं, यह सत्य है, सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है । ll 48 ।।

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार उन ब्रह्माका वचन सुनकर देवरक्षक भगवान् शंकर प्रसन्नचित्त होकर ब्रह्मासे कहने लगे- ॥ 49 ॥शिवजी बोले- हे ब्रह्मन् ! यदि मैं वस्तुतः देवराज तथा सबका सम्राट् कहा गया हूँ, फिर भी मेरे पास ऐसा कोई साधन नहीं है, जिससे मैं इस पदको ग्रहण कर सकूँ ॥ 50 ॥

मेरे पास योग्य सारथीसहित महादिव्य रथ नहीं है और संग्राममें विजय दिलानेवाला धनुष-बाण आदि भी नहीं है, जिस रथपर बैठकर, धनुष-बाण लेकर तथा अपना मन लगाकर उन प्रबल दैत्योंका संग्राममें वध कर सकूँ ॥ 51-52॥

सनत्कुमार बोले—तब ब्रह्मा, इन्द्र एवं विष्णुके सहित सभी देवता प्रभुके वचनको सुनकर परम प्रसन्न हो उठे और महेश्वरको प्रणामकर उनसे कहने लगे - ॥ 53 ॥

देवता बोले- हे देवेश ! हे महेश्वर ! हे स्वामिन्! हमलोग आपके रथादि उपकरण बनकर युद्धके लिये तैयार हैं ॥ 54 ॥

इस प्रकार कहकर प्रसन्न हुए वे सभी देवता एकत्रित हो शिवजीकी इच्छा जानकर हाथ जोड़कर अलग-अलग कहने लगे ॥ 55 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य