सनत्कुमार बोले- उन महातेजस्वी विष्णुने। उनके धर्ममें विघ्न उत्पन्न करनेके लिये अपने ही शरीरद्वारा एक मायामय मुनिरूप पुरुषको उत्पन्न किया ॥ 1 ॥
वह अपना सिर मुड़ाये हुए, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, हाथमें एक गुम्फि (काष्ठ) का पात्र लिये हुए दूसरे हाथमें झाडू लिये तथा उससे पग-पगपर झाड़ू बुहारी करता हुआ, हस्तपरिमाणका वस्त्र अपने मुखपर लपेटे हुए विकल वाणीसे धर्म-धर्म इस प्रकार कह रहा था ॥ 2-3 ॥
वह उन विष्णुको प्रणामकर उनके आगे स्थित हो गया, इसके बाद उसने हाथ जोड़कर पूज्य, अच्युत विष्णुसे यह वचन कहा हे अरिहन् । [ शत्रुनाशक] मैं क्या करूँ? इसके लिये आज्ञा दीजिये। हे देव! मेरे क्या क्या नाम होंगे? हे प्रभो! मेरे स्थानका भी निर्देश कीजिये। इस प्रकार उसका यह शुभ वचन सुनकर भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर यह वचन कहने लगे - ॥ 4-6 ॥
विष्णुजी बोले- मेरे शरीरसे उत्पन्न हे महाप्राज्ञ ! मैंने जिसके लिये तुम्हारा निर्माण किया है, उसे सुनो, मैं कह रहा हूँ। तुम मेरे ही रूप हो, इसमें सन्देह नहीं है ॥7॥
मेरे शरीरसे उत्पन्न हुए तुम मेरा कार्य करनेमें समर्थ हो। तुम मुझसे अभिन्न हो, इसलिये [लोकमें] सदा पूज्य होओगे, इसमें संशय नहीं है ॥ 8 ॥तुम्हारा नाम अरिहन् होगा, तुम्हारे अन्य भी शुभ नाम होंगे। मैं तुम्हारे स्थानको बादमें बताऊँगा, इस समय मेरा प्रस्तुत कार्य आदरसे सुनो ॥ 9 ॥
हे मायावी! तुम सोलह हजार श्लोकोंवाला एक शास्त्र प्रयत्नपूर्वक बनाओ, जो मायामय, श्रुति स्मृतिसे विरुद्ध, वर्णाश्रमधर्मसे रहित, अपभ्रंश शब्दोंसे युक्त और कर्मवादपर आधारित हो, आगे चलकर उसका विस्तार होगा। मैं तुम्हें उस शास्त्रके निर्माणका सामर्थ्य देता हूँ। अनेक प्रकारकी माया भी तुम्हारे अधीन हो जायगी ॥ 10-12 ॥
उन परमात्मा श्रीविष्णुका वचन सुनकर वह मायावी प्रणामकर जनार्दनसे कहने लगा- ॥ 13 ॥ मुण्डी बोला- हे देव! मुझे जो करना हो, उसे शीघ्र बताइये। हे प्रभो! आपकी आज्ञासे सारा कार्य सिद्ध होगा ll 14 ॥
सनत्कुमार बोले- मुण्डीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर भगवान्ने उसे मायामय शास्त्र पढ़ाया और बताया कि स्वर्ग-नरककी प्रतीति यहींपर है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 15 ॥
उसके बाद विष्णुने शिवजीके चरणकमलका स्मरण करके उससे पुनः कहा कि तुम त्रिपुरमें रहनेवाले इन समस्त दैत्योंको मोहित करो। तुम उन्हें दीक्षित करो और प्रयत्नपूर्वक इस शास्त्रको पढ़ाओ। हे महामते ! मेरी आज्ञाके कारण तुम्हें [ ऐसा करनेसे] दोष नहीं लगेगा। हे यते ! इसमें सन्देह नहीं कि वहाँ श्रौतस्मार्त धर्म प्रकाश कर रहे हैं, किंतु तुम इस विद्याके द्वारा उन सभीको धर्मसे च्युत करो ll 16-18 ॥
हे मुण्डिन् ! अब तुम उन त्रिपुरवासियोंके विनाशके लिये जाओ और तमोगुणी धर्मको प्रकाशितकर तीनों पुरोंका नाश करो। हे विभो ! उसके बाद वहाँसे मरुस्थलमें जाकर कलियुगके आनेतक वहीं अपने धर्मके साथ निवास करना और उस युगके आ जानेपर तुम शिष्य-प्रशिष्योंके साथ अपने धर्मका प्रचार करना और उसीका व्यवहार करना ॥ 19 - 21 ॥मेरी आज्ञासे तुम्हारे इस धर्मका निश्चित रूपसे विस्तार होगा तथा मेरी आज्ञामें तत्पर होकर तुम मेरी गति प्राप्त करोगे। इस प्रकार देवाधिदेव शंकरकी आज्ञासे सर्वसमर्थ विष्णुने उसे हृदयसे आदेश दिया, इसके बाद विष्णुजी अन्तर्धान हो गये ।। 22-23 ।।
उसके बाद उस मुण्डीने विष्णुकी आज्ञाका पालन करते हुए उस समय अपने रूपके अनुसार चार शिष्योंका निर्माण किया और उन्हें स्वयं मायामय शास्त्र पढ़ाया ॥ 24 ll
जैसा वह स्वयं था, उसी प्रकारके वे चारों शुभ मुण्डी भी थे, वे परमात्मा श्रीविष्णुको नमस्कारकर वहीँपर स्थित हो गये। हे मुने! तब शिवकी आज्ञाका पालन करनेवाले श्रीविष्णुने भी परम प्रसन्न होकर उन चारों शिष्योंसे स्वयं कहा-जैसे तुमलोगोंके गुरु हैं, वैसे ही मेरी आज्ञासे तुमलोग भी बनो तुमलोग धन्य हो और इस लोक में सद्गति प्राप्त करोगे, इसमें सन्देह नहीं है ।। 25-27 ll
इसके बाद वे चारों मुण्डी हाथमें पात्र लिये, नासिकापर वस्त्र बाँधे, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, अत्यधिक न बोलते हुए 'धर्म ही लाभ तथा परम तत्त्व है' - ऐसा अति हर्षपूर्वक कहते हुए, वस्त्रके छोटे-छोटे टुकड़ोंसे बनी हुई मार्जनी धारण किये हुए और जीवहिंसाके भयसे धीरे-धीरे चलते हुए विचरण करने लगे। हे मुने! तब वे सभी प्रसन्न होकर देवाधिदेव श्रीविष्णुको नमस्कारकर उनके आगे स्थित हो गये ॥ 28-31 ॥
उसके अनन्तर भगवान् विष्णुने उनका हाथ पकड़कर उन्हें गुरुको अर्पित कर दिया और अत्यन्त प्रेमके साथ विशेषरूपसे उनके नामोंको बताया और कहा-जैसे तुम मेरे हो, उसी प्रकार ये भी मेरे हैं, इसमें संशय नहीं है। तुम्हारा आदिरूप है, इसलिये आदिरूप यह नाम होगा और पूज्य होनेसे तुम पूज्य भी कहे जाओगे ।। 32-334 ll
ऋषि, यति, कीर्य एवं उपाध्याय ये नाम भी तुमलोगोंके प्रसिद्ध होंगे। तुमलोगोंको मेरे भी शुभ नामको ग्रहण करना चाहिये। अरिहन्— यह मेरा नाम ध्यानयोग्य तथा पापनाशक है। अब आपलोगोंको लोककल्याणकारी कार्य करते रहना चाहिये। लोकके अनुकूल आचरण करते हुए तुमलोगोंकी उत्तम गति होगी ।। 34-36 ॥सनत्कुमार बोले- इसके बाद विष्णुको प्रणाम करके वह मायावी अपने शिष्योंके साथ प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही शिवकी इच्छाके अनुसार कार्य करनेवाले त्रिपुरके पास गया। महामायावी विष्णुद्वारा प्रेरित वह जितेन्द्रिय ऋषि त्रिपुरमें शीघ्र प्रविष्ट होकर मायाचार करने लगा। उसने शिष्योंके सहित नगरके उपवनमें निवासकर बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित करनेवाली माया फैलायी ॥ 37-39 ॥
हे मुने! जब शिवजीके अर्चनके प्रभावके कारण उसकी माया त्रिपुरमें सहसा न चल सकी, तो यति व्याकुल हो उठा। इसके बाद उत्साहहीन तथा चेतनारहित उसने दुखी मनसे विष्णुका स्मरण किया और हृदयसे उनकी स्तुति की। उसके द्वारा स्मरण किये गये विष्णुजीने हृदयमें शंकरजीका ध्यान किया और उनकी आज्ञा प्राप्तकर शीघ्र ही मनसे नारदजीका स्मरण किया ॥ 40-42 ॥
विष्णुजीके स्मरण करते ही नारदजी उपस्थित हुए और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी स्तुतिकर हाथ जोड़े हुए वे उनके आगे खड़े हो गये। तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विष्णुजीने नारदजीसे कहा- आप तो सर्वदा लोकोपकारमें निरत तथा देवताओंका कार्य करनेवाले हैं। हे तात! मैं शिवजीकी आज्ञासे कहता हूँ कि आप शीघ्र ही त्रिपुरमें जायँ, उस पुरके निवासियोंको मोहित करनेके लिये एक ऋषि अपने शिष्योंके साथ वहाँ गये हैं । ll 43-45 ॥
सनत्कुमार बोले- उनका यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी बड़ी शीघ्रतासे वहाँ गये, जहाँ मायावियोंमें श्रेष्ठ वह ऋषि था । नारदजी भी बड़े मायावी थे, उन्होंने मायावी प्रभु [विष्णु] की आज्ञासे उस पुरमें प्रवेशकर उस मायावीसे दीक्षा ग्रहण कर ली। उसके बाद नारदजीने त्रिपुराधिपतिके पास जाकर उसका कुशल-मंगल आदि पूछकर राजासे सारा वृत्तान्त कहा ॥ 46 – 48 ॥
नारदजी बोले - [ हे राजन्!] धर्मपरायण सभी विद्याओंमें पारंगत और वेदविद्यामें प्रवीण कोई यति आपके नगरमें आया है। हमने बहुत धर्म देखे हैं, परंतु इसके समान नहीं। इसके सनातनधर्मको देखकर हमनेइससे दीक्षा ले ली है। अतः हे दैत्यसत्तम! हे महाराज ! यदि आपकी भी इच्छा उस धर्ममें हो, तो आप भी उस धर्मकी दीक्षा ग्रहण कर लें ।। 49-51 ॥
सनत्कुमार बोले- नारदजीका विशद अर्थगर्भित वचन सुनकर वह दैत्याधिपति बढ़ा विस्मित हो उठा और मोहित होकर मनमें कहने लगा कि जब नारदजीने स्वयं दीक्षा ली है, तो हम भी उससे दीक्षा ग्रहण कर लें-ऐसा सोचकर वह स्वयं वहाँ गया ।। 52-53 ॥
उसके स्वरूपको देखकर उसकी मायासे मोहित दैत्यने उस महात्माको नमस्कार करके यह वचन 'कहा- ॥ 54 ॥
त्रिपुराधिप बोला- पवित्र अन्तःकरणवाले हे ऋषे आप मुझे भी दीक्षा दीजिये, मैं आपका शिष्य बनूँगा, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है॥ 55 ll दैत्यराजके इस निर्मल वचनको सुनकर उस सनातन ऋषिने प्रयत्नके साथ कहा- हे दैत्यसत्तम! यदि तुम मेरी आज्ञाका सर्वथा पालन करोगे, तभी मैं दीक्षा दे सकता हूँ, अन्यथा करोड़ों यत्न करनेपर भी दीक्षा नहीं दूँगा। इस प्रकार यह वचन सुनकर राजा मायाके अधीन हो गया और हाथ जोड़कर बड़ी शीघ्रता से यतिसे यह वचन कहने लगा- ॥ 56-58 ॥
दैत्यराज बोला- आप जैसी आज्ञा देंगे, मैं वैसा ही करूँगा। उसके विपरीत नहीं करूँगा, मैं आपकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करूँगा, यह सत्य है सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ 59 ॥
सनत्कुमार बोले- त्रिपुराधिपतिका यह वचन सुनकर उस ऋषिश्रेष्ठने अपने मुखसे वस्त्र हटाकर उससे कहा- हे दैत्येन्द्र आप सभी धर्मो में परम उत्तम इस दीक्षाको ग्रहण कीजिये, जिस दीक्षाके विधानसे तुम कृतार्थ हो जाओगे ।। 60-61 ॥
[सनत्कुमार बोले-] ऐसा कहकर उस मायावीने विधि-विधानके साथ अपने धर्ममें बतायी गयी दीक्षा उस दैत्यराजको शीघ्र ही प्रदान की। हे मुने! अपने सहोदरोंके सहित उस दैत्यराजके दीक्षित हो जानेपर सभी त्रिपुरवासी भी उस धर्ममें दीक्षित हो गये ।। 62-63 ।।हे मुने! उस समय महामायावी उस ऋषिके शिष्यों तथा प्रशिष्योंसे वह सम्पूर्ण त्रिपुर शीघ्र ही व्याप्त हो गया ॥ 64 ॥