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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 4 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 4

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त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना

सनत्कुमार बोले- उन महातेजस्वी विष्णुने। उनके धर्ममें विघ्न उत्पन्न करनेके लिये अपने ही शरीरद्वारा एक मायामय मुनिरूप पुरुषको उत्पन्न किया ॥ 1 ॥

वह अपना सिर मुड़ाये हुए, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, हाथमें एक गुम्फि (काष्ठ) का पात्र लिये हुए दूसरे हाथमें झाडू लिये तथा उससे पग-पगपर झाड़ू बुहारी करता हुआ, हस्तपरिमाणका वस्त्र अपने मुखपर लपेटे हुए विकल वाणीसे धर्म-धर्म इस प्रकार कह रहा था ॥ 2-3 ॥

वह उन विष्णुको प्रणामकर उनके आगे स्थित हो गया, इसके बाद उसने हाथ जोड़कर पूज्य, अच्युत विष्णुसे यह वचन कहा हे अरिहन् । [ शत्रुनाशक] मैं क्या करूँ? इसके लिये आज्ञा दीजिये। हे देव! मेरे क्या क्या नाम होंगे? हे प्रभो! मेरे स्थानका भी निर्देश कीजिये। इस प्रकार उसका यह शुभ वचन सुनकर भगवान् विष्णु प्रसन्नचित्त होकर यह वचन कहने लगे - ॥ 4-6 ॥

विष्णुजी बोले- मेरे शरीरसे उत्पन्न हे महाप्राज्ञ ! मैंने जिसके लिये तुम्हारा निर्माण किया है, उसे सुनो, मैं कह रहा हूँ। तुम मेरे ही रूप हो, इसमें सन्देह नहीं है ॥7॥

मेरे शरीरसे उत्पन्न हुए तुम मेरा कार्य करनेमें समर्थ हो। तुम मुझसे अभिन्न हो, इसलिये [लोकमें] सदा पूज्य होओगे, इसमें संशय नहीं है ॥ 8 ॥तुम्हारा नाम अरिहन् होगा, तुम्हारे अन्य भी शुभ नाम होंगे। मैं तुम्हारे स्थानको बादमें बताऊँगा, इस समय मेरा प्रस्तुत कार्य आदरसे सुनो ॥ 9 ॥

हे मायावी! तुम सोलह हजार श्लोकोंवाला एक शास्त्र प्रयत्नपूर्वक बनाओ, जो मायामय, श्रुति स्मृतिसे विरुद्ध, वर्णाश्रमधर्मसे रहित, अपभ्रंश शब्दोंसे युक्त और कर्मवादपर आधारित हो, आगे चलकर उसका विस्तार होगा। मैं तुम्हें उस शास्त्रके निर्माणका सामर्थ्य देता हूँ। अनेक प्रकारकी माया भी तुम्हारे अधीन हो जायगी ॥ 10-12 ॥

उन परमात्मा श्रीविष्णुका वचन सुनकर वह मायावी प्रणामकर जनार्दनसे कहने लगा- ॥ 13 ॥ मुण्डी बोला- हे देव! मुझे जो करना हो, उसे शीघ्र बताइये। हे प्रभो! आपकी आज्ञासे सारा कार्य सिद्ध होगा ll 14 ॥

सनत्कुमार बोले- मुण्डीके द्वारा ऐसा कहे जानेपर भगवान्ने उसे मायामय शास्त्र पढ़ाया और बताया कि स्वर्ग-नरककी प्रतीति यहींपर है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 15 ॥

उसके बाद विष्णुने शिवजीके चरणकमलका स्मरण करके उससे पुनः कहा कि तुम त्रिपुरमें रहनेवाले इन समस्त दैत्योंको मोहित करो। तुम उन्हें दीक्षित करो और प्रयत्नपूर्वक इस शास्त्रको पढ़ाओ। हे महामते ! मेरी आज्ञाके कारण तुम्हें [ ऐसा करनेसे] दोष नहीं लगेगा। हे यते ! इसमें सन्देह नहीं कि वहाँ श्रौतस्मार्त धर्म प्रकाश कर रहे हैं, किंतु तुम इस विद्याके द्वारा उन सभीको धर्मसे च्युत करो ll 16-18 ॥

हे मुण्डिन् ! अब तुम उन त्रिपुरवासियोंके विनाशके लिये जाओ और तमोगुणी धर्मको प्रकाशितकर तीनों पुरोंका नाश करो। हे विभो ! उसके बाद वहाँसे मरुस्थलमें जाकर कलियुगके आनेतक वहीं अपने धर्मके साथ निवास करना और उस युगके आ जानेपर तुम शिष्य-प्रशिष्योंके साथ अपने धर्मका प्रचार करना और उसीका व्यवहार करना ॥ 19 - 21 ॥मेरी आज्ञासे तुम्हारे इस धर्मका निश्चित रूपसे विस्तार होगा तथा मेरी आज्ञामें तत्पर होकर तुम मेरी गति प्राप्त करोगे। इस प्रकार देवाधिदेव शंकरकी आज्ञासे सर्वसमर्थ विष्णुने उसे हृदयसे आदेश दिया, इसके बाद विष्णुजी अन्तर्धान हो गये ।। 22-23 ।।

उसके बाद उस मुण्डीने विष्णुकी आज्ञाका पालन करते हुए उस समय अपने रूपके अनुसार चार शिष्योंका निर्माण किया और उन्हें स्वयं मायामय शास्त्र पढ़ाया ॥ 24 ll

जैसा वह स्वयं था, उसी प्रकारके वे चारों शुभ मुण्डी भी थे, वे परमात्मा श्रीविष्णुको नमस्कारकर वहीँपर स्थित हो गये। हे मुने! तब शिवकी आज्ञाका पालन करनेवाले श्रीविष्णुने भी परम प्रसन्न होकर उन चारों शिष्योंसे स्वयं कहा-जैसे तुमलोगोंके गुरु हैं, वैसे ही मेरी आज्ञासे तुमलोग भी बनो तुमलोग धन्य हो और इस लोक में सद्गति प्राप्त करोगे, इसमें सन्देह नहीं है ।। 25-27 ll

इसके बाद वे चारों मुण्डी हाथमें पात्र लिये, नासिकापर वस्त्र बाँधे, मलिन वस्त्र धारण किये हुए, अत्यधिक न बोलते हुए 'धर्म ही लाभ तथा परम तत्त्व है' - ऐसा अति हर्षपूर्वक कहते हुए, वस्त्रके छोटे-छोटे टुकड़ोंसे बनी हुई मार्जनी धारण किये हुए और जीवहिंसाके भयसे धीरे-धीरे चलते हुए विचरण करने लगे। हे मुने! तब वे सभी प्रसन्न होकर देवाधिदेव श्रीविष्णुको नमस्कारकर उनके आगे स्थित हो गये ॥ 28-31 ॥

उसके अनन्तर भगवान् विष्णुने उनका हाथ पकड़कर उन्हें गुरुको अर्पित कर दिया और अत्यन्त प्रेमके साथ विशेषरूपसे उनके नामोंको बताया और कहा-जैसे तुम मेरे हो, उसी प्रकार ये भी मेरे हैं, इसमें संशय नहीं है। तुम्हारा आदिरूप है, इसलिये आदिरूप यह नाम होगा और पूज्य होनेसे तुम पूज्य भी कहे जाओगे ।। 32-334 ll

ऋषि, यति, कीर्य एवं उपाध्याय ये नाम भी तुमलोगोंके प्रसिद्ध होंगे। तुमलोगोंको मेरे भी शुभ नामको ग्रहण करना चाहिये। अरिहन्— यह मेरा नाम ध्यानयोग्य तथा पापनाशक है। अब आपलोगोंको लोककल्याणकारी कार्य करते रहना चाहिये। लोकके अनुकूल आचरण करते हुए तुमलोगोंकी उत्तम गति होगी ।। 34-36 ॥सनत्कुमार बोले- इसके बाद विष्णुको प्रणाम करके वह मायावी अपने शिष्योंके साथ प्रसन्नतापूर्वक शीघ्र ही शिवकी इच्छाके अनुसार कार्य करनेवाले त्रिपुरके पास गया। महामायावी विष्णुद्वारा प्रेरित वह जितेन्द्रिय ऋषि त्रिपुरमें शीघ्र प्रविष्ट होकर मायाचार करने लगा। उसने शिष्योंके सहित नगरके उपवनमें निवासकर बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित करनेवाली माया फैलायी ॥ 37-39 ॥

हे मुने! जब शिवजीके अर्चनके प्रभावके कारण उसकी माया त्रिपुरमें सहसा न चल सकी, तो यति व्याकुल हो उठा। इसके बाद उत्साहहीन तथा चेतनारहित उसने दुखी मनसे विष्णुका स्मरण किया और हृदयसे उनकी स्तुति की। उसके द्वारा स्मरण किये गये विष्णुजीने हृदयमें शंकरजीका ध्यान किया और उनकी आज्ञा प्राप्तकर शीघ्र ही मनसे नारदजीका स्मरण किया ॥ 40-42 ॥

विष्णुजीके स्मरण करते ही नारदजी उपस्थित हुए और उन्हें प्रणामकर तथा उनकी स्तुतिकर हाथ जोड़े हुए वे उनके आगे खड़े हो गये। तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ विष्णुजीने नारदजीसे कहा- आप तो सर्वदा लोकोपकारमें निरत तथा देवताओंका कार्य करनेवाले हैं। हे तात! मैं शिवजीकी आज्ञासे कहता हूँ कि आप शीघ्र ही त्रिपुरमें जायँ, उस पुरके निवासियोंको मोहित करनेके लिये एक ऋषि अपने शिष्योंके साथ वहाँ गये हैं । ll 43-45 ॥

सनत्कुमार बोले- उनका यह वचन सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदजी बड़ी शीघ्रतासे वहाँ गये, जहाँ मायावियोंमें श्रेष्ठ वह ऋषि था । नारदजी भी बड़े मायावी थे, उन्होंने मायावी प्रभु [विष्णु] की आज्ञासे उस पुरमें प्रवेशकर उस मायावीसे दीक्षा ग्रहण कर ली। उसके बाद नारदजीने त्रिपुराधिपतिके पास जाकर उसका कुशल-मंगल आदि पूछकर राजासे सारा वृत्तान्त कहा ॥ 46 – 48 ॥

नारदजी बोले - [ हे राजन्!] धर्मपरायण सभी विद्याओंमें पारंगत और वेदविद्यामें प्रवीण कोई यति आपके नगरमें आया है। हमने बहुत धर्म देखे हैं, परंतु इसके समान नहीं। इसके सनातनधर्मको देखकर हमनेइससे दीक्षा ले ली है। अतः हे दैत्यसत्तम! हे महाराज ! यदि आपकी भी इच्छा उस धर्ममें हो, तो आप भी उस धर्मकी दीक्षा ग्रहण कर लें ।। 49-51 ॥

सनत्कुमार बोले- नारदजीका विशद अर्थगर्भित वचन सुनकर वह दैत्याधिपति बढ़ा विस्मित हो उठा और मोहित होकर मनमें कहने लगा कि जब नारदजीने स्वयं दीक्षा ली है, तो हम भी उससे दीक्षा ग्रहण कर लें-ऐसा सोचकर वह स्वयं वहाँ गया ।। 52-53 ॥

उसके स्वरूपको देखकर उसकी मायासे मोहित दैत्यने उस महात्माको नमस्कार करके यह वचन 'कहा- ॥ 54 ॥

त्रिपुराधिप बोला- पवित्र अन्तःकरणवाले हे ऋषे आप मुझे भी दीक्षा दीजिये, मैं आपका शिष्य बनूँगा, यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है॥ 55 ll दैत्यराजके इस निर्मल वचनको सुनकर उस सनातन ऋषिने प्रयत्नके साथ कहा- हे दैत्यसत्तम! यदि तुम मेरी आज्ञाका सर्वथा पालन करोगे, तभी मैं दीक्षा दे सकता हूँ, अन्यथा करोड़ों यत्न करनेपर भी दीक्षा नहीं दूँगा। इस प्रकार यह वचन सुनकर राजा मायाके अधीन हो गया और हाथ जोड़कर बड़ी शीघ्रता से यतिसे यह वचन कहने लगा- ॥ 56-58 ॥

दैत्यराज बोला- आप जैसी आज्ञा देंगे, मैं वैसा ही करूँगा। उसके विपरीत नहीं करूँगा, मैं आपकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करूँगा, यह सत्य है सत्य है, इसमें संशय नहीं है ॥ 59 ॥

सनत्कुमार बोले- त्रिपुराधिपतिका यह वचन सुनकर उस ऋषिश्रेष्ठने अपने मुखसे वस्त्र हटाकर उससे कहा- हे दैत्येन्द्र आप सभी धर्मो में परम उत्तम इस दीक्षाको ग्रहण कीजिये, जिस दीक्षाके विधानसे तुम कृतार्थ हो जाओगे ।। 60-61 ॥

[सनत्कुमार बोले-] ऐसा कहकर उस मायावीने विधि-विधानके साथ अपने धर्ममें बतायी गयी दीक्षा उस दैत्यराजको शीघ्र ही प्रदान की। हे मुने! अपने सहोदरोंके सहित उस दैत्यराजके दीक्षित हो जानेपर सभी त्रिपुरवासी भी उस धर्ममें दीक्षित हो गये ।। 62-63 ।।हे मुने! उस समय महामायावी उस ऋषिके शिष्यों तथा प्रशिष्योंसे वह सम्पूर्ण त्रिपुर शीघ्र ही व्याप्त हो गया ॥ 64 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य