नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्! हे शिवभक्त! हे प्राज्ञ! हे निष्पाप ! आपने शिवा तथा शिवके कल्याणकारी चरित्रका भलीभाँति वर्णन किया और मेरे जन्मको पवित्र कर दिया ॥ 1 ॥
अब आप यह बताइये कि व्रतमें दृढ़ता रखनेवाले दक्षने तप करके देवीसे कौन-सा वर प्राप्त किया तथा वे शिवा किस प्रकार दक्षकन्याके रूपमें | उत्पन्न हुई ? ॥ 2 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तुम इन मुनियोंकि साथ शिवमें भक्ति रखनेके कारण अत्यन्त धन्य हो । उत्तम व्रतवाले दक्षने जिस प्रकार तपस्या की तथा वर प्राप्त किया, उसे सुनो ॥ 3 ॥
मेरी आज्ञा पाकर वे बुद्धिमान् महाराज दक्षप्रजापति उस कार्यकी सिद्धिकी इच्छासे चित्तको समाहितकर देवी जगदम्बाकी उपासनाके लिये गये और क्षीरसागरके उत्तरतटपर रहनेवाली उन जगदम्बिकाको हृदयमें धारण करके उनका प्रत्यक्ष दर्शन करने हेतु तपस्या करने लगे ।। 4-5 ।।
इन्द्रियोंको अपने वशमें करके दृढव्रती उन | दक्षने देवताओंके तीन हजार वर्षपर्यन्त नियमपूर्वक तप किया ॥ 6 ॥
उन जगन्मयी शिवाका ध्यान करते हुए दक्षने कुछ दिन पत्ते खाकर, कुछ दिन जल पीकर, कुछ | दिन निराहार रहकर तथा कुछ दिन वायु पीकर उस समयको व्यतीत किया ॥ 7 ॥इस प्रकार वे सुव्रत दुर्गाके ध्यानमें संलग्न होकर बहुत समयतक तपस्या करते रहे और अनेक नियमोंसे |देवीकी आराधना करते रहे। तब हे मुनिश्रेष्ठ! अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि यमोंसे युक्त होकर जगदम्बाकी पूजा करते हुए उन दक्षके सामने जगदम्बा शिवा प्रत्यक्ष हुई ।। 8-9 ।।
तब दक्ष प्रजापतिने उन जगन्मयी जगदम्बाको अपने सामने प्रत्यक्ष देखकर अपनेको कृत्यकृत्य समझा ॥ 10 ॥
सिंहपर सवार, कृष्णवर्णवाली, सुन्दर मुखवाली, चार भुजाओंवाली, हाथोंमें वर- अभय-नीलकमल तथा खड्ग धारण की हुई, मनोहर लाल नेत्रवाली, बिखरे हुए सुन्दर बालोंसे युक्त, जगत्की जन्मदात्री तथा सुन्दर कान्तिवाली उन कालिकाको प्रणामकर दक्ष प्रजापतिने [अपनी] विचित्र वाणीसे उनकी स्तुति की ॥ 11-12 ॥
दक्ष बोले- हे जगदम्बे! हे महामाये! हे जगदीश्वरि ! हे महेश्वरि आपने कृपा करके मुझे अपने रूपका दर्शन दिया है, आपको मेरा नमस्कार है ॥ 13 ॥ हे भगवति! हे आद्ये! मुझपर प्रसन्न हों, हे शिवरूपिणि! प्रसन्न हों, हे भक्तवरदे! प्रसन्न हों, हे जगन्माये ! आपको नमस्कार है ॥ 14 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! संयत चित्तवाले दक्षने इस प्रकार महेश्वरीकी स्तुति की, तब उनके मनोरथको जानती हुई भी वे दक्षसे कहने लगीं- ॥ 15 ॥ देवी बोलीं- हे दक्ष! मैं आपकी इस भक्तिसे बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है, अतः अपना अभीष्ट वर माँगिये ॥ 16 ॥
ब्रह्माजी बोले- जगन्माताके इस वचनको सुनकर दक्ष प्रजापति अत्यन्त प्रसन्न होकर शिवाको बारंबार प्रणाम करते हुए कहने लगे- ॥ 17 ॥ दक्ष बोले- हे जगदम्ब ! हे महामाये! यदि आप मुझे वर देना चाहती हैं, तो मेरे वचनोंको सुनिये और प्रसन्नतासे मेरा मनोरथ पूर्ण कीजिये ॥ 18 ॥
जो मेरे स्वामी शिव हैं, वे रुद्रनामसे ब्रह्माके पुत्ररूपमें अवतरित हुए हैं, वे परमात्माके पूर्णावतार हैं, परंतु अभीतक आपका अवतार नहीं हुआ है, [आपके अतिरिक्त ] उनकी पत्नी कौन हो सकती है ? अतः हे शिवे ! आप पृथ्वीपर अवतरित होकर उन्हें मोहित करें ॥ 19-20 ॥[हे देवि!] आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी उन्हें मोहित नहीं कर सकती, इसलिये आप इस समय | मेरी कन्याके रूपमें जन्म लेकर शिवपत्नी बनें ॥ 21 ॥
इस प्रकार उत्तम लीला करके आप शिवजीको मोहमें डालें, हे देवि ! मेरा यही वर है, आपके सामने मैंने सत्य कह दिया ॥ 22 ॥
इसमें केवल मेरा ही स्वार्थ नहीं है, अपितु सम्पूर्ण लोकोंका और ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजीका भी स्वार्थ है। इसीलिये ऐसा करनेके लिये ब्रह्माजीने | मुझे प्रेरित किया है ॥ 23 ॥
ब्रह्माजी बोले- दक्षके इस वचनको सुनकर जगदम्बा मनमें उन शिवजीका स्मरण करके हँसकर कहने लगीं ॥ 24 ॥
देवी बोलीं- हे तात! हे प्रजापते! हे दक्ष ! मेरी सत्य बात सुनिये। मैं आपकी भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न होकर सब कुछ प्रदान करनेवाली हूँ। हे दक्ष ! मैं महेश्वरी आपकी पुत्री बनूँगी, इसमें सन्देह नहीं। मैं आपको भक्तिके वशमें हो गयी है। ll 25-26 ।।
हे अनघ ! मैं अत्यन्त कठोर तप करके ऐसा प्रयत्न करूँगी, जिससे शिवजीसे वरको प्राप्तकर उनकी पत्नी बन जाऊँ ll 27 ॥
वे प्रभु सदाशिव ब्रह्मा तथा विष्णु के सेव्य विकाररहित तथा पूर्ण हैं। अतः बिना तपके इस प्रकारकी कार्यसिद्धि नहीं हो सकती है॥ 28 ll
मैं तो प्रत्येक जन्ममें उनकी प्रिय दासी हूँ और अनेक प्रकारके रूप धारण करनेवाले वे सदाशिव मेरे स्वामी हैं ।। 29 ।।
वे वरके प्रभावसे ब्रह्माजीकी भृकुटिसे अवतीर्ण हुए हैं और मैं भी उन्होंकी आज्ञासे ब्रह्माजीके वरदानसे इस लोकमें अवतार लूँगी ॥ 30 ॥
हे तात! अब आप अपने घर जाइये। मैंने अपनी दूतीको सारी बात बता दी है। मैं [ कुछ ही दिनोंमें] आपकी कन्या बनकर शीघ्र ही शिवकी पत्नी बनूँगी ।। 31 ।।
इस प्रकार दक्षप्रजापतिसे श्रेष्ठ वचन कहकर और मनमें शिवकी आज्ञा पाकर वे शिवजीके चरणकमलोंका ध्यान करके पुनः कहने लगीं- ॥ 32 ॥देवी बोलीं- हे प्रजापते ! परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा अपने मनमें सदैव रखना। मैं उस प्रतिज्ञाको तुम्हें सुना देती हूँ, उसे सत्य समझना, असत्य नहीं ॥ 33 ॥ यदि आपने कभी मेरा अनादर किया तो मैं
अपना शरीर त्याग दूँगी, यह सत्य है। मैं सर्वथा स्वतन्त्र हूँ, अतः दूसरा शरीर धारण करूँगी ॥ 34 ॥ हे प्रजापते! मैं प्रत्येक सर्गमें आपकी कन्या बनकर शिवजीकी पत्नी बनूँगी - मैंने यह वरदान आपको दिया ।। 35 ।।
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार दक्ष प्रजापतिसे कहकर वे महेश्वरी उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं ॥ 36 ॥
देवीके अन्तर्धान होनेपर दक्ष भी अपने घर चले गये और यह विचारकर आनन्दित हो गये कि देवी मेरी कन्या बनकर अवतार ग्रहण करेंगी ॥ 37 ॥