ब्रह्माजी बोले- हे नारद! जब देवता तथा ऋषिगण बड़े उत्साहके साथ दक्षके यहमें जा रहे थे, उसी समय दक्षकन्या देवी सती गन्धमादन पर्वतपर चंदोवेसे युक्त धारागृहमें सखियोंसे घिरी हुई अनेक प्रकारकी क्रीडाएँ कर रही थीं ॥ 1-2 ll
प्रसन्नतापूर्वक क्रीडामें लगी हुई देवी सतीने उस समय चन्द्रमाके साथ दक्षयज्ञमें जाती हुई रोहिणीको देखा और शीघ्र ही उससे पुछवाया। उन्हें देखकर सतीजी अपनी हितकारिणी प्राण-प्यारी सौभाग्यशालिनी प्रिय तथा श्रेष्ठ सखी विजयासे बोलीं- ॥ 3-4 ॥
सती बोलीं- हे सखियोंमें श्रेष्ठ! हे मेरी प्राणप्रिये! हे विजये! जल्दी जाकर पूछो कि ये चन्द्रदेव रोहिणीके साथ कहाँ जा रहे हैं ? ॥5॥ब्रह्माजी बोले- सतीके इस प्रकार कहने पर विजयाने तुरंत उनके पास जाकर यथोचित रूपसे उन चन्द्रमासे पूछा कि आप कहाँ जा रहे हैं ? ॥ 6 ॥
विजयाकी बात सुनकर चन्द्रदेवने अपनी यात्राका उद्देश्य आदरपूर्वक बताया और उन्होंने दक्षके यहाँ होनेवाले यज्ञमहोत्सवका सारा वृत्तान्त कहा ॥ 7 ॥
वह सब सुनकर विजया बड़ी उतावलीके साथ देवीजीके पास आयी और चन्द्रमाने जो कहा था, वह सब सतीसे कह दिया। उसे सुनकर सती कालिका | देवीको बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने-विचारनेपर भी [ अपने यहाँ सूचना न मिलनेका] कारण न समझ पानेपर वे मनमें सोचने लगीं ॥ 8-9 ॥
दक्ष मेरे पिता हैं, वीरिणी मेरी माता हैं और मैं उनको प्रिय कन्या हूँ, परंतु उन्होंने यज्ञमें मुझे नहीं बुलाया। वे कैसे भूल गये और निमन्त्रण क्यों नहीं भेजा ? मैं इसका कारण आदरपूर्वक शंकरजीसे पूछूं-ऐसा विचारकर सतीने शंकरजीके पास जानेका निश्चय किया ।। 10-11 ।।
इसके अनन्तर दक्षपुत्री देवी सती अपनी प्रिय सखी विजयाको वहीं बैठाकर शिवजीके पास शीघ्र गर्यो। उन्होंने शिवजीको सभाके मध्य में अनेक गण नन्दी आदि महावीरों तथा प्रमुख यूथपतियोंके साथ बैठे हुए देखा। वे अपने पति सदाशिव ईशानको देखकर उस कारणको पूछनेके लिये शीघ्र उनके पास पहुँच गर्यो ll 12 - 14 ॥
शिवजीने बड़े प्रेमसे प्रिया सतीको अपनी गोदमें बैठाया और बड़े आदरके साथ उन्हें अपने वचनोंसे प्रसन्न किया। इसके बाद महालीला करनेवाले तथा सज्जनोंको सुख देनेवाले सर्वेश्वर शंकर जो गणोंके मध्यमें विराजमान थे, सतीसे शीघ्र कहने लगे ॥ 15-16 ॥
शिवजी बोले- तुम इस सभाके मध्यमें आश्चर्य चकित होकर क्यों आयी हो ? हे सुन्दर कटिप्रदेशवाली ! तुम इसका कारण प्रेमपूर्वक शीघ्र बताओ ॥ 17 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर शिवजीने जब सतीसे इस प्रकार कहा, तो वे शिवा हाथ जोड़कर प्रणाम करके प्रभुसे कहने लगीं - ॥ 18 ॥सती बोलीं- [ हे प्रभो!] मैंने सुना है कि मेरे | पिताजीके यहाँ कोई बहुत बड़ा यज्ञ हो रहा है। उसमें महान् उत्सव होगा और वहाँ देवता तथा ऋषि | एकत्रित हुए हैं। हे देवदेवेश्वर पिताजी के उस महान यज्ञमें जाना आपको अच्छा क्यों नहीं लगा, हे प्रभो [जो भी कारण हो] वह सब बताइये ॥ 19-20 ॥
महादेव सुहृदोंका यह धर्म है कि सुहदोंके साथ अच्छी संगति करके रहें। मित्रलोग प्रेमको बढ़ानेवाली इस प्रकारकी संगतिको करते रहते हैं॥ 21 ॥
इसलिये हे प्रभो! हे स्वामिन्! आप मेरी प्रार्थनासे मेरे साथ पिताजीके यज्ञमण्डपमें अवश्य चलिये 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- सतीके इस वचनको सुनकर दक्षके वाग्बाणोंसे बिंधे हुए हृदयवाले देव महेश्वर मधुर वचन कहने लगे- ॥ 23 ॥
महेश्वर बोले- हे देवि! तुम्हारे पिता दक्ष मेरे विशेष द्रोही हो गये हैं। जो प्रमुख देवता, ऋषि तथा अन्य लोग अभिमानी, मूढ़ और ज्ञानशून्य हैं, वे ही तुम्हारे पिताके यज्ञमें गये हुए हैं ।। 24-25 ।।
हे देवि! जो लोग बिना बुलाये दूसरेके घर जाते हैं, वे वहाँ अनादर ही पाते हैं, जो मृत्युसे भी बढ़कर होता है। चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हो, बिना बुलाये दूसरेके घर जानेपर लघुता ही प्राप्त होगी और फिर दूसरेकी बात ही क्या! ऐसी यात्रा अनर्थका कारण बन जाती है । ll 26-27 ।।
इसलिये तुमको और मुझको तो विशेष रूपसे | दक्षके यज्ञमें नहीं जाना चाहिये; हे प्रिये! यह मैंने सत्य कहा है। मनुष्य अपने शत्रुओंके वाणसे घायल होकर उतना व्यथित नहीं होता जितना अपने सम्बन्धियोंके निन्दायुक्त वचनोंसे दुखी होता है ।। 28-29 ॥
हे प्रिये। सज्जनोंमें रहनेवाले विद्या आदि छः गुण जब दुष्ट मनुष्यों में आ जाते हैं, तो उनकी स्मृति नष्ट हो जाती है और वे मानी होकर तेजस्वियोंकी ओर नहीं देखते हैं ॥ 30 ॥
ब्रह्माजी बोले- महात्मा महेश्वरके इस प्रकार | कहनेपर सती वाक्यवेत्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् शंकरसे | रोषपूर्वक कहने लगीं-॥ 31 ॥सती बोली- हे राम! हे अखिलेश्वर! जिनके जानेसे यज्ञ सफल होता है. उन्हों आपको मेरे दुष्ट पिताने आमन्त्रित नहीं किया है ॥ 32 ॥
है भव! उस दुरात्मा दक्षके तथा यहाँ आये हुए सम्पूर्ण दुरात्मा देवताओं तथा ऋषियोंके मनोभावको मैं जानना चाहती हूँ। अतः हे प्रभो! मैं आज ही अपने पिताके यज्ञमें जा रही हूँ। हे नाथ! हे महेश्वर! आप मुझे वहाँ जानेको आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ 33-34 ॥
ब्रह्माजी बोले- उन देवीके इस प्रकार कहनेपर सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सृष्टिकर्ता एवं कल्याणस्वरूप साक्षात् भगवान् रुद्र सतोसे कहने लगे- ll 35 ॥
शिवजी बोले- हे देवि ! यदि इस प्रकार तुम्हारी रुचि वहाँ अवश्य जानेकी है, तो हे सुव्रते! मेरी आज्ञा से तुम महाराजाओंके योग्य उपचार करके, बहुतसे गुणोंसे सम्पन्न हो, इस सजे हुए नन्दी वृषभपर सवार होकर शीघ्र अपने पिताके यज्ञमें जाओ ।। 36-37 ll
तुम इस विभूषित वृषभपर आरूढ़ होओ। तब रुद्रके इस प्रकार आदेश देनेपर सुन्दर आभूषणोंसे अलंकृत तथा सब साधनोंसे युक्त हो देवी सती पिताके घरकी ओर चलीं ॥ 38 ॥
परमात्मा शिवजीने उन्हें सुन्दर वस्त्र, आभूषण, परम उज्ज्वल छत्र, चामर आदि महाराजोचित उपचार दिये। भगवान् शिवजीकी आज्ञासे साठ हजार रुद्रगण भी बड़ी प्रसन्नता और महान् उत्साहके साथ कौतूहलपूर्वक [सतीके साथ ] गये॥ 39-40 ।।
उस समय वहाँ यज्ञमें सभी ओर महान् उत्सव हो रहा था। वामदेवके गणोंने शिवप्रिया सतीका भी उत्सव मनाया। महावीर तथा शिवप्रिय वे गण कौतूहलपूर्ण कार्य करने तथा सती और शिवके यशको गाने लगे और बलपूर्वक उछल कूद करने लगे ॥ 41-42 ॥
जगदम्बाके यात्राकालमें सब प्रकारसे महान् शोभा हो रही थी। उस समय जो सुखद [ जय-जयकार आदि] शब्द उत्पन्न हुआ, उससे तीनों लोक गूंज उठे ॥ 43 ॥