नारदजी बोले - हे विधे! जब [ दक्षको सम्बोधित कर] शिवप्रिया सतीने मौन धारण कर लिया, तब वहाँ क्या चरित्र हुआ, मुझसे उसे आदरपूर्वक कहिये ॥ 1 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे नारद! मौन होकर सतीदेवी अपने पतिका सादर स्मरण करके और शान्तचित्त होकर सहसा उत्तर दिशामें भूमिपर बैठ गयीं ॥ 2 ॥उन्होंने विधिपूर्वक जलका आचमन करके वस्त्र ओढ़ लिया और पवित्रभावसे आँखें मूंदकर पतिका चिन्तन करके वे योगमार्गमें प्रविष्ट हो गयीं ॥ 3 ॥
गौर मुखवाली शंकरकी प्राणप्रिया सती [प्राणायाम द्वारा] प्राण और अपान वायुको समान करके उदान | वायुको यत्नपूर्वक नाभिचक्रसे ऊपर उठाकर बुद्धिपूर्वक हृदयमें स्थापित करनेके पश्चात् उस हृदयस्थित वायुको कण्ठमार्गसे भ्रुकुटियोंके बीचमें ले गयीं ॥ 4-5 ॥
इस प्रकार दक्षपर कुपित हो सहसा अपने शरीरको | त्यागने की इच्छासे सतीने योगमार्गसे शरीरके दग्ध हो जानेपर पवित्र वायुमय रूप धारण किया। तदनन्तर अपने पतिके चरणका चिन्तन करती हुई सतीने अन्य सब वस्तुओंका ध्यान भुला दिया। उनका चित्त योगमार्गमें स्थित हो गया था, इसलिये वहाँ उन्हें [पतिके चरणोंके अतिरिक्त ] और कुछ दिखायी नहीं दिया ॥ 6-7 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! उनका निष्पाप शरीर [यज्ञाग्निमें ] गिरा और उनकी इच्छा अनुसार अग्निसे जलकर उसी क्षण भस्म हो गया ॥ 8 ॥
उस समय [ वहाँ आये हुए] देवता आदिने जब यह घटना देखी, तब वे बड़े जोरसे हाहाकार करने लगे। उनका वह अद्भुत, विचित्र एवं भयंकर हाहाकार आकाशमें और पृथिवीतलपर सर्वत्र व्याप्त हो गया ॥ 9 ॥
[ लोग कह रहे थे] हाय! भगवान् शंकरकी परम प्रेयसी तथा देवतास्वरूपिणी सतीदेवीने किस दुष्टके दुर्व्यवहारसे कुपित होकर अपने प्राण त्याग दिये ! ॥ 10 ॥ अहो! चराचर जिनकी प्रजा है और जो ब्रह्माजीके पुत्र हैं, ऐसे इन दक्षकी बड़ी भारी दुष्टता तो देखो ! ॥ 11 ॥ अहो, शिवप्रिया मनस्विनी सतीदेवी, जो सदा ही सज्जनोंके लिये मानयोग्य थीं, आज इतनी दुःखित हो गयीं ॥ 12 ॥ वास्तवमें उन दक्षका हृदय बड़ा ही असहिष्णु है। वे ब्राह्मणद्रोही हैं, इसलिये सारे संसारमें उन्हें महान् अपयश प्राप्त होगा ॥ 13 ॥
इन शम्भुद्रोही दक्षने प्राणत्याग करनेको उद्यत अपनी पुत्रीको रोकातक नहीं। इस अपराधके कारण इन्हें महान् नरक भोगना पड़ेगा ॥ 14 ॥सतीके प्राणत्यागको देखकर जिस समय लोग ऐसा कह रहे थे, उसी समय शिवजीके पार्षद शीघ्र ही क्रोधपूर्वक अस्त्र-शस्त्र लेकर उठ खड़े हुए ।। 15 ।।
[ यज्ञमण्डपके] द्वारपर खड़े हुए वे भगवान् शंकरके समस्त साठ हजार महाबली पार्षद शंकरजीके प्रभावसे कुपित हो उठे थे ॥ 16 ॥
हमें धिक्कार है, धिक्कार है-ऐसा कहते हुए शंकरके सभी वीर गणाधिप बारम्बार उच्च स्वरसे हाहाकार करने लगे ॥ 17 ॥
शिवगणोंके महान् हाहाकारसे सभी दिशाएँ व्याप्त हो गयीं। सभी देवता, मुनिगण तथा जो भी अन्य लोग वहाँ उपस्थित थे, वे भयभीत हो गये ॥ 18 ॥
क्रुद्ध हुए उन समस्त रुद्रगणोंने आपसमें विचार | विमर्श करके वाद्योंसे प्रलय मचाते हुए [लड़नेके लिये] शस्त्रास्त्र उठा लिये ॥ 19 ॥
हे देवर्षे कितने ही पार्षद तो वहाँ शोकसे ऐसे व्याकुल हो गये कि वे अत्यन्त तीखे प्राणनाशक शस्त्रोंद्वारा अपने ही मस्तक और मुख आदि अंगोंपर आघात करने लगे ॥ 20 ॥
इस प्रकार बीस हजार पार्षद उस समय दक्षकन्या सतीके साथ ही नष्ट हो गये, वह एक अद्भुत-सी बात हुई ॥ 21 ॥
महात्मा शंकरके जो गण नष्ट होनेसे बच गये, वे क्रोधयुक्त होकर दक्षको मारनेके लिये हथियार उठाकर खड़े हो गये ॥ 22 ॥
हे मुने! आक्रमणकारी उन पार्षदोंका वेग देखकर भगवान् भृगुने हमें विघ्न डालनेवालोंका नाश करनेवाले [ अपहता असुरा रक्षाः सि वेदिषदः ] इस यजुर्मन्त्रसे दक्षिणाग्निमें आहुति दी 23 ॥ भृगुके आहुति देते ही कुण्ड ऋभु नामक हजारों महान् देवता, जो बड़े प्रबल वीर थे, वहाँ प्रकट हो गये ।। 24 ।।
हे मुनीश्वर हाथमें जलती हुई लकड़ियोंको आयुधके रूपमें धारण करनेवाले उन सभीके साथ प्रमथगणोंका अत्यन्त विकट युद्ध हुआ, जो सुननेवालोंके भी रोंगटे खड़े कर देनेवाला था ॥ 25 ॥उन ब्रह्मतेजसे सम्पन्न महावीर ऋभुओंके द्वारा सभी ओरसे मारे जाते हुए प्रमथगण बिना अधिक प्रयासके ही भाग खड़े हुए। इस प्रकार उन देवताओंने उन शिवगणोंको तुरंत मार भगाया। यह अद्भुत-सी घटना भगवान् शिवकी इच्छारूपी महाशक्तिसे ही हुई थी ।। 26-27 ।।
उसे देखकर ऋषि, इन्द्र आदि देवता, मरुद्गण, विश्वेदेव, दोनों अश्विनीकुमार और लोकपाल चुप ही रहे ॥ 28 ॥
कुछ लोग सब ओरसे वहाँ भगवान् विष्णु प्रार्थना करते थे और उद्विग्न हो बारम्बार विघ्ननिवारणके लिये आपसमें मन्त्रणा करने लगे ॥ 29 ॥
प्रमथगणोंके नाश होने और भगाये जानेसे जो परिणाम होनेवाला था, उसका भलीभाँति विचार | करके उत्तम बुद्धिवाले विष्णु आदि देवता अत्यन्त उद्विग्न हो उठे ॥ 30 ॥
हे मुने! दुरात्मा, शंकरद्रोही तथा ब्रह्मबन्धु (पतित ब्राह्मण) दक्षके यज्ञमें उस समय इस प्रकारका विघ्न उपस्थित हो गया ॥ 31 ॥