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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 24 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 24

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दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा

नारदजी बोले - हे ब्रह्मन्! हे विधे! हे प्रजानाथ! हे महाप्राज्ञ! हे कृपाकर! आपने भगवान् शंकर तथा देवी सतीके मंगलकारी यशका श्रवण कराया है ॥ 1 ॥

अब इस समय पुनः प्रेमपूर्वक उनके उत्तम चरित्रका वर्णन कीजिये। उन दम्पती शिवा- शिवने वहाँ रहकर कौन-कौन सा चरित्र किया था ? ॥ 2 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने! आप मुझसे सती और शिवके चरित्रका प्रेमपूर्वक श्रवण कीजिये। वे दोनों दम्पती वहाँ लौकिक गतिका आश्रय ले नित्य-निरन्तर क्रीडा करते थे ॥ 3 ॥हे मुने। तदनन्तर महादेवी सतीको अपने पति शंकरका वियोग प्राप्त हुआ ऐसा कुछ श्रेष्ठ बुद्धिवाले विद्वानोंका कथन है ॥ 4 ॥

परंतु हे मुने! वास्तवमें उन दोनों शक्ति और शक्तिमान्का परस्पर वियोग कैसे हो सकता है; क्योंकि चिन्मय वे दोनों वाणी और अर्थके समान एक-दूसरेसे सदा मिले-जुले हैं ॥ 5 ॥

फिर भी सर्वसमर्थ सती एवं शिव लीलाप्रिय होनेके कारण लोक व्यवहारका अनुसरण करते हुए जो कुछ भी करते हैं, वह सब समीचीन ही है ॥ 6 ॥

दक्षकन्या सतीने जब देखा कि मेरे पतिने मुझे त्याग दिया है, तब वे अपने पिता दक्षके यज्ञमें गयीं। और वहाँ भगवान् शंकरका अनादर देखकर उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया ॥ 7 ॥

ये ही सती पुनः हिमालयके घर पार्वतीके नामसे प्रकट हुईं और कठोर तपस्या करके उन्होंने विवाहके द्वारा पुनः भगवान् शिवको प्राप्त कर लिया ॥ 8 ॥ सूतजी बोले- [हे महर्षियो!] ब्रह्माजीकी इस बातको सुनकर नारदजी ब्रह्माजीसे शिवा और शिवके महान् यशके विषयमें इस प्रकार पूछने लगे- ॥ 9 ॥ नारदजी बोले हे विष्णुशिष्य हे महाभाग ! हे - | विधे! आप मुझे शिवाशिवके लोक- आचारसे सम्बन्ध रखनेवाले उनके चरित्रको विस्तारपूर्वक बताइये ॥ 10 ll

हे तात! भगवान् शंकरजीने प्राणोंसे भी प्यारी अपनी धर्मपत्नी सतीका किसलिये त्याग किया? यह घटना बड़ी विचित्र जान पड़ती है, अतः इसे आप अवश्य कहिये ॥ 11 ॥

आपके पुत्र दक्ष प्रजापतिने यह भगवान् शंकरका अनादर क्यों किया और वहाँ अपने पिताके यज्ञमें जाकर | सतीने अपने शरीरका त्याग क्यों किया ? ॥ 12 ॥

पुनः उसके बाद क्या हुआ ? महेश्वरने क्या किया? ये सब बातें मुझसे कहिये। मैं इस वृत्तान्तको श्रद्धायुक्त होकर सुनना चाहता हूँ ॥ 13 ॥

ब्रह्माजी बोले- मेरे पुत्रोंमें श्रेष्ठ हे महाप्राज्ञ! हे तात! हे नारद! आप महर्षियोंके साथ बड़े प्रेमसे भगवान् चन्द्रमौलिका चरित्र सुनिये श्रीविष्णु आदि देवताओंसे सेवित परब्रह्म परमेश्वरको नमस्कार करके मैं उनके महान् अद्भुत चरित्रका वर्णन करता हूँ ।। 14-15 ॥हे मुने। यह सब शिवकी लीला है। वे प्रभु | अनेक प्रकारकी लीला करनेवाले, स्वतन्त्र और निर्विकार हैं। देवी सती भी वैसी ही हैं। हे मुने! | अन्यथा वैसा कर्म करनेमें कौन समर्थ हो सकता है। परमेश्वर शिव ही परब्रह्म परमात्मा हैं ।। 16-17 ॥

जिनका भजन सदा श्रीपति विष्णु, मैं ब्रह्मा, | समस्त देवतागण, महात्मा, मुनि, सिद्ध तथा सनकादि सदैव करते रहते हैं। शेषजी प्रसन्नतापूर्वक जिनके यशका निरन्तर गान करते रहते हैं, किंतु कभी भी उनका पार नहीं पाते हैं, वे ही शंकर सबके प्रभु तथा ईश्वर हैं ।। 18-19 ।।

यह सब तत्त्वविभ्रम उन्हींकी लीलासे हो रहा है। इसमें किसीका दोष नहीं है; क्योंकि वे सर्वव्यापी ही प्रेरक हैं। एक समयकी बात है तीनों लोकोंमें विचरण करनेवाले, लीलाविशारद भगवान् रुद्र सतीके साथ वृषभपर आरूढ़ हो पृथ्वीपर भ्रमण कर रहे थे । ll 20-21 ।।

सागर और आकाशमें घूमते-घूमते दण्डकारण्य में आकर सत्य प्रतिज्ञावाले वे प्रभु सतीको वहाँकी शोभा दिखाने लगे। वहाँ उन्होंने लक्ष्मणसहित श्रीरामको देखा, जो रावणद्वारा बलपूर्वक हरी गयी अपनी प्रिया पत्नी सीताकी खोज कर रहे थे ।। 22-23 ॥

वे' हा सीते!' इस प्रकार उच्च स्वरसे पुकार रहे थे, जहाँ-तहाँ देख रहे थे और बार-बार रो रहे थे, उनके मनमें विरहका आवेश छा गया था ॥ 24 ll

वे उनकी प्राप्तिकी इच्छा कर रहे थे, मनमें उनकी | दशाका विचार कर रहे थे, वृक्ष आदिसे उनके विषयमें पूछ रहे थे, उनकी बुद्धि नष्ट हो गयी थी, वे लजासे रहित हो गये थे और शोकसे विह्वल थे ॥ 25 ॥

वे सूर्यवंशमें उत्पन्न, वीर, भूपाल, दशरथनन्दर भरताग्रज थे। आनन्दरहित होनेके कारण उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी। उस समय उदारचेता पूर्णकाम भगवान् शंकरने लक्ष्मणके साथ वनमें घूमते हुए माता कैकेयीके वरोंके अधीन उन रामको बड़ी प्रसन्नताके साथ प्रणाम किया और जय-जयकार करके वे दूसरी ओर चल दिये। उन भक्तवत्सल शंकरने उस | वनमें श्रीरामको पुनः दर्शन नहीं दिया ll 26-28 ॥मोहमें डालनेवाली भगवान् शिवकी ऐसी लीलाको | देखकर सतीको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे उनकी मायासे मोहित हो उनसे इस प्रकार कहने लगीं ॥ 29 ॥

सती बोलीं- हे देवदेव! हे परब्रह्म ! हे सर्वेश ! हे परमेश्वर ब्रह्मा, विष्णु आदि सब देवता आपकी ही सेवा सदा करते रहते हैं। आप ही सबके द्वारा प्रणाम करनेयोग्य हैं। सबको आपका ही सर्वदा सेवन और ध्यान करना चाहिये। वेदान्तशास्त्र के द्वारा यत्नपूर्वक जानने योग्य निर्विकार तथा परमप्रभु आप ही हैं ।। 30-31 ॥

हे नाथ! ये दोनों पुरुष कौन हैं, इनकी आकृति विरह व्यथासे व्याकुल दिखायी पड़ रही है। | ये दोनों धनुर्धर वीर वनमें विचरण करते हुए दुःखके भागी और दीन हो रहे हैं। उन दोनोंमें नीलकमलके समान ज्येष्ठ पुरुषको देखकर किस कारणसे आप आनन्दविभोर हो उठे और भक्तकी भाँति अत्यन्त प्रसन्नचित्त हो गये ? ।। 32-33 ।।

हे स्वामिन्! हे शंकर! आप मेरे संशयको दूर कीजिये। हे प्रभो सेव्य [स्वामी] अपने सेवकको प्रणाम करे यह उचित नहीं जान पड़ता ॥ 34 ll

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] कल्याणमयी परमेश्वरी आदिशक्ति सती देवीने शिवकी मायाके वशीभूत होकर जब भगवान् शिवसे इस प्रकार पूछा। तब सतीकी यह बात सुनकर लीला करनेमें प्रवीण परमेश्वर शंकरजी हँसकर सतीसे कहने लगे-॥ 35-36 ।।

परमेश्वर बोले हे देवि हे सति सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक सत्य बात कह रहा हूँ। इसमें किसी प्रकारका छल नहीं है। वरदानके प्रभावसे ही मैंने इन्हें आदरपूर्वक प्रणाम किया है ॥ 37 ॥

हे देवि ! ये दोनों भाई वीरोंद्वारा सम्मानित हैं, | इनके नाम श्रीराम और लक्ष्मण हैं, ये सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं, परम बुद्धिमान् हैं और राजा दशरथके पुत्र हैं॥ 38 ll

इनमें जो गौरवर्णके छोटे भाई हैं, वे शेषके अंश हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। इनमें ज्येष्ठ भाईका नाम श्रीराम है। ये भगवान् विष्णु के पूर्ण अंश तथा उपद्रवरहित हैं। ये साधुपुरुषोंकी रक्षा और हमलोगों के कल्याणके लिये इस पृथिवीपर अवतरित हुए हैं। इतना कहकर सृष्टि करनेवाले भगवान् शम्भु चुप हो गये ।। 39-40 ॥इस प्रकार शिवका वचन सुनकर भी उनके मनको | विश्वास नहीं हुआ; क्योंकि शिवकी माया बलवती है, वही तीनों लोकोंको मोहित किये रहती है ॥ 41 ॥

सतीके मनमें मेरी बातपर विश्वास नहीं हुआ है, ऐसा जानकर लीलाविशारद सनातन प्रभु शम्भु यह वचन कहने लगे- ॥ 42 ॥

शिवजी बोले- हे देवि! मेरी बात सुनो, यदि तुम्हारे मनको [मेरे कथनपर] विश्वास नहीं होता है, तो तुम वहाँ [ जाकर ] अपनी ही बुद्धिसे श्रीरामकी परीक्षा स्वयं कर लो। हे सति। हे प्रिये। जिस प्रकार तुम्हारा भ्रम दूर हो, वैसा ही तुम करो। तुम वहाँ जाकर परीक्षा करो, | तबतक मैं इस वटवृक्षके नीचे बैठा हूँ। ll 43-44 ।।

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] भगवान् शिवकी आज्ञासे ईश्वरी सती वहाँ जाकर सोचने लगीं कि मैं वनचारी रामकी कैसे परीक्षा करूँ। मैं सीताका रूप धारण करके रामके पास चलूँ। यदि राम [साक्षात् ] विष्णु हैं, तो सब कुछ जान लेंगे, अन्यथा वे मुझे नहीं पहचानेंगे ।। 45-46 ll

इस प्रकार विचार करके मोहमें पड़ी हुई वे सती सीताका रूप धारणकर श्रीरामके पास उनकी परीक्षा लेनेके लिये गर्यो सतीको सीताके रूपमें देखकर शिव 1 नामका जप करते हुए रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम सब कुछ जानकर उन्हें प्रणाम करके हँसकर कहने लगे ।। 47-48 ।।

श्रीराम बोले- हे सति! आपको नमस्कार है, आप प्रेमपूर्वक बताइये कि शिवजी कहाँ गये हैं, आप पतिके बिना अकेली ही इस वनमें क्यों आयी हैं ? ।। 49 ।। हे सति ! आपने अपना रूप त्यागकर किसलिये यह रूप धारण किया है? हे देवि! मुझपर कृपा करके इसका कारण बताइये ? ॥ 50 ॥ ब्रह्माजी बोले- रामजीकी यह बात सुनकर सती उस समय आश्चर्यचकित हो गयीं। वे शिवजीको | कही हुई बातका स्मरण करके और उसे सत्य समझकर बहुत लज्जित हुई। श्रीरामको साक्षात् विष्णु जानकर अपना रूप धारण करके मन-ही-मन शिवके चरणोंका चिन्तनकर प्रसन्नचित्त हुई सतीने उनसे इस प्रकार कहा- ॥ 51-52 ॥[हे रघुनन्दन!] स्वतन्त्र परमेश्वर प्रभु शिव मेरे | तथा अपने पार्षदोंके साथ पृथिवीपर भ्रमण करते हुए इस वनमें आये हुए हैं ॥ 53 ॥

यहाँ उन्होंने सीताकी खोजमें लगे हुए, उनके विरहसे युक्त और दुखी चित्तवाले आपको लक्ष्मणसहित देखा। वे आपको प्रणाम करके चले गये और आपकी वैष्णवी महिमाकी प्रशंसा करते हुए अत्यन्त आनन्दके साथ वटवृक्षके नीचे बैठे हैं । 54-55 ॥

वे आपके चतुर्भुज विष्णुरूपको देखे बिना ही आनन्दविभोर हो गये। इस निर्मल रूपको देखते हुए उन्हें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। शम्भुके वचनको सुनकर मेरे मनमें भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी। अतः हे राघव ! मैंने उनकी आज्ञा लेकर आपकी परीक्षा की है ।। 56-57 ॥

हे श्रीराम ! अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप [साक्षात् ] विष्णु हैं। मैंने आपकी सम्पूर्ण प्रभुता देख ली है। अब मेरा संशाय दूर हो गया है, तो भी महामते ! आप मेरी बात सुनें ॥ 58 ॥

मेरे सामने यह सच सच बतायें कि आप उन शिवके वन्दनीय कैसे हो गये? आप मुझे संशयरहित कीजिये और शीघ्र ही मुझे शान्ति प्रदान कीजिये ॥ 59 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] उनकी यह बात सुनकर श्रीरामके नेत्र प्रफुल्लित हो उठे। उन्होंने अपने प्रभु शिवका स्मरण किया। इससे उनके हृदयमें अत्यधिक प्रेम उत्पन्न हो गया हे मुने शिवकी आज्ञा के बिना वे राघव सतीके साथ भगवान् शिवके समीप नहीं गये तथा [मन-ही-मन] उनकी महिमाका वर्णन करके सतीसे कहने लगे ।। 60-61 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य