सूतजी बोले- अत्यन्त बुद्धिमान् ब्रह्माका यह वचन सुनकर द्विजश्रेष्ठ नारद विस्मित होकर प्रसन्नतापूर्वक उनसे पूछने लगे ॥ 1 ॥
नारदजी बोले [हे ब्रह्मन्!] भगवान् विष्णु शिवजीको छोड़कर [अन्य] देवताओंके साथ दक्षके यज्ञमें किस कारणसे गये, जहाँ उनका तिरस्कार ही हुआ, इसे बताइये। क्या वे प्रलयकारी पराक्रमवाले शंकरको नहीं जानते थे, उन्होंने अज्ञानीकी भाँति शिवगणोंके साथ युद्ध क्यों किया ? ।। 2-3 ।। हे करुणानिधे! यह मुझे बहुत बड़ा सन्देह है, आप उसे दूर कीजिये और प्रभो! मनमें उत्साह पैदा करनेवाले शिवचरित्रको भी कहिये ll 4 ll
ब्रह्माजी बोले- हे द्विजवर्य! आप प्रेमपूर्वक शिवचरित्रका श्रवण कीजिये, जो पूछनेवालों तथा कहनेवालोंके सभी सन्देहोंको दूर करता है ॥ 5 ॥ पूर्वकालमें दधीचि मुनिने राजा क्षुबकी सहायता करनेवाले श्रीहरिको शाप दे दिया था, इसलिये भ्रष्ट ज्ञानवाले वे विष्णु देवताओंके साथ
दक्षके यज्ञमें चले गये ॥ 6 ॥
नारदजी बोले - [हे ब्रह्मन्!] मुनियोंमें श्रेष्ठ दधीचिने भगवान् विष्णुको शाप क्यों दिया ? क्षुवकी सहायता करनेवाले विष्णुने उनका कौन सा अपकार किया था ॥ 7 ब्रह्माजी बोले- क्षुव नामसे प्रसिद्ध एक महा तेजस्वी राजा उत्पन्न हुए थे। वे महाप्रभावशाली
मुनीश्वर दधीचिके मित्र थे। पूर्वकालमें लम्बे समयसे तपके प्रसंगको लेकर क्षुव और दधीचिमें महान् अनर्थकारी विवाद आरम्भ हो गया, जो तीनों लोकोंमें विख्यात हो गया ॥ 8-9 ॥
उस विवादमें वेदविद शिवभक्त दधोचिने कहा कि तीनों वर्णोंमें ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं, इसमें सन्देह, नहीं ॥ 10 ॥
महामुनि दधीचिकी यह बात सुनकर धनके मदसे | विमोहित राजा वने इस प्रकार प्रतिवाद किया ॥ 11 ॥क्षुव बोले- राजा [इन्द्र आदि) आठ लोकपालोंके स्वरूपको धारण करता है तथा समस्त वर्णों और आश्रमोंका स्वामी एवं प्रभु है, इसलिये राजा ही सबसे श्रेष्ठ है। राजाकी श्रेष्ठता प्रतिपादन करनेवाली श्रुति भी कहती है कि राजा सर्वदेवमय है। इसलिये हे मुने! जो सबसे बड़ा देवता है, वह मैं ही हूँ ।। 12-13 ।।
अतः हे च्यवनपुत्र! राजा ब्राह्मणसे श्रेष्ठ होता है, आप [इस सम्बन्धमें] विचार करें और मेरा अनादर न करें, मैं आपके लिये सर्वथा पूजनीय हूँ ॥ 14 ॥
ब्रह्माजी बोले- उन क्षुवका श्रुतियों और स्मृतियोंके विरुद्ध यह मत सुनकर मुनिश्रेष्ठ दधीचि अत्यन्त कुपित हो उठे ॥ 15 ॥
तब हे मुने! आत्मगौरवके कारण कुपित हुए महातेजस्वी दधीथिने वके मस्तकपर [अपनी] बायीं मुट्ठीसे प्रहार किया ॥ 16 ॥ तत्पश्चात् [दधीचिके द्वारा] ताड़ित किये गये ब्रह्माण्डाधिपति दुष्ट क्षुव अत्यन्त कुपित हो गरज उठे
और उन्होंने वज्रसे दधीचिका सिर काट डाला ॥ 17 ॥
उस वज्रसे आहत हो दधीचि पृथिवीपर गिर पड़े। क्षुवके द्वारा काटे गये भार्गववंशधर दधीचिने [गिरते समय] शुक्राचार्यका स्मरण किया ॥ 18 ॥ तब योगी शुक्राचार्यने आकर ध्रुवके द्वारा दधीचिके काटे गये शरीरको तुरंत जोड़ दिया।॥ 19 ॥ दधीचिकी देहको पूर्वकी भाँति ठीक करके शिवभक्तशिरोमणि तथा मृत्युंजयविद्या प्रवर्तक
शुक्राचार्य उनसे कहने लगे- ॥ 20 ॥ शुक्र बोले- हे तात! दधीचि! मैं सर्वेश्वर प्रभु शंकरका पूजन करके श्रेष्ठ वैदिक महामृत्युंजय मन्त्र का आपको उपदेश देता हूँ ॥ 21 ॥
[त्र्यम्बकं यजामहे'] हम त्रिलोकीके पिता, तीन नेत्रवाले, तीनों मण्डलों (सूर्य, सोम तथा अग्नि) के पिता तथा तीनों गुणों (सत्त्व, रज तथा तम) - के स्वामी महेश्वरका पूजन करते हैं ॥ 22 ॥जो त्रितत्त्व (आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व और शिवतत्त्व), त्रिवहि (आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि) तथा पृथिवी, जल, तेज-इन तीनों भूतोंके एवं जो त्रिदिव (स्वर्ग), त्रिबाहु तथा ब्रह्मा, विष्णु और शिव-इन तीनों देवताओंके महान् ईश्वर महादेवजी हैं। 'सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्' [महामृत्युंजयमन्त्रका यह द्वितीय चरण है] जैसे फूलोंमें उत्तम गन्ध होती है, उसी प्रकार वे भगवान् शिव सम्पूर्ण भूतोंमें तीनों गुणोंमें समस्त कृत्योंमें, इन्द्रियोंमें, अन्यान्य देवोंमें और गणोंमें उनके प्रकाशक: सारभूत आत्माके रूपमें व्याप्त हैं। अतएव सुगन्धयुक्त एवं सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर हैं ।। 23-25 ll
हे द्विजोत्तम! जिन महापुरुषसे प्रकृतिकी पुष्टि होती है। हे सुव्रत! महत् तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त विकल्पके जो स्वरूप हैं। हे महामुने! जो विष्णु पितामह, मुनिगणों एवं इन्द्रियोंसहित समस्त देवताओं की पुष्टिका वर्धन करते हैं, इसलिये वे पुष्टिवर्धन हैं ॥ 26-27 ll
वे देव रुद्र अमृतस्वरूप हैं जो पुण्यकर्मसे, तपस्यासे, स्वाध्यायसे, योगसे अथवा ध्यानसे उनकी आराधना करता है, उसे वे प्राप्त हो जाते हैं॥ 28 ॥
जिस प्रकार ककड़ीका पौधा अपने फलसे स्वयं ही लताको बन्धनमें बाँधे रखता है और पक जानेपर स्वयं ही उसे बन्धनसे मुक्त कर देता है, ठीक उसी प्रकार बन्धमोक्षकारी प्रभु सदाशिव अपने सत्यसे जगत्के समस्त प्राणियोंको मृत्युके पाशरूप सूक्ष्म बन्धनसे छुड़ा देते हैं ॥ 29 ॥
यह मृतसंजीवनी मन्त्र है, जो मेरे मतसे सर्वोत्तम है। हे दधीचि! आप मेरे द्वारा दिये गये इस मन्त्रका शिवध्यानपरायण होकर नियमसे जप कीजिये ॥ 30 जप और हवन भी इसी मन्त्रसे करें और इसी मन्त्रसे अभिमन्त्रितकर दिन और रातमें जल भी पीजिये तथा शिव-विग्रहके पास स्थित हो उन्हींका ध्यान करते रहिये, इससे कभी भी मृत्युका भय नहीं रहता ।। 31 ।।
सब न्यास आदि करके विधिवत् शिवकी पूजा करके व्यग्रतारहित हो भक्तवत्सल सदाशिवका ध्यान करें ।। 32 ।।अब मैं सदाशिवके ध्यानको बता रहा हूँ, जिसके अनुसार उनका ध्यान करके मन्त्रजप करना चाहिये। इस प्रकार [जप करनेसे] बुद्धिमान् पुरुष भगवान् शिवके प्रभावसे उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता है ।। 33 ।।
[ ध्यानमन्त्रका अर्थ इस प्रकार है] अपने दो करकमलोंमें स्थित दोनों कुम्भोंसे जलको निकालकर ऊपरवाले दोनों हाथोंसे सिरपर अभिषेक करते हुए कुम्भसहित अपने अन्य दोनों हाथोंको अपनी गोदमें धारण करते हुए, शेष दो हाथोंसे अक्षमाला तथा मृगमुद्रा धारण करनेवाले, कमलके आसनपर विराजमान, सिरपर स्थित चन्द्रमासे टपकते हुए अमृतकणसे भीगे हुए शरीरवाले तथा तीन नेत्रवाले पार्वतीसहित महामृत्युंजय भगवान्का मैं ध्यान करता हूँ ॥ 34 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे तात! मुनिश्रेष्ठ दधीचिको इस प्रकार उपदेश देकर शुक्राचार्य भगवान् शंकरका स्मरण करते हुए अपने स्थानको चले गये॥ 35 ॥
उनकी बात सुनकर महामुनि दधीचि बड़े प्रेमसे शिवजीका स्मरण करते हुए तपस्याके लिये वनमें गये || 36 ||
वहाँ जाकर वे विधिपूर्वक महामृत्युंजय नामक उस मन्त्रका जप करते हुए और प्रेमपूर्वक शिवका चिन्तन करते हुए तपस्या करने लगे ॥ 37 ॥
दीर्घकालतक उस महामृत्युंजय मन्त्रका जप करके तपस्याद्वारा शंकरकी आराधना करके उन्होंने शिवको प्रसन्न कर लिया ॥ 38 ॥
हे महामुने। तब उस जपसे प्रसन्नचित्त हुए भक्तवत्सल शिव उनके सामने प्रेमपूर्वक प्रकट हो गये ।। 39 ।।
अपने प्रभु शम्भुका [ साक्षात् ] दर्शन करके वे मुनीश्वर आनन्दित हो गये और उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़ भक्तिभावसे स्तवन करने लगे ॥ 40 ॥
हे तात हे मुने। उसके बाद मुनिके प्रेमसे आनन्दित उन शिवने अत्यन्त प्रसन्नचित्तसे दधीचिसे कहा- वर माँगो शिवका वह वचनसुनकर भक्तश्रेष्ठ दधीचि दोनों हाथ जोड़कर नतमस्तक हो भक्तवत्सल शंकरसे कहने लगे ॥ 41-42 ।।
दधीचि बोले- हे देवदेव हे महादेव मुझे तीन वर दीजिये, मेरी हड्डी वज्र हो जाय, कोई भी मेरा वध न कर सके और मैं सर्वथा अदीन रहूँ ।। 43 ।।
ब्रह्माजी बोले- उनके कहे हुए वचनको सुनकर प्रसन्न हुए परमेश्वरने 'तथास्तु' कहा और उन दधीचिको तीनों वर दे दिये। शिवजीसे तीन वर पाकर वेदमार्गमें प्रतिष्ठित महामुनि आनन्दमग्न हो गये और शीघ्र ही राजा क्षुवके स्थानपर गये ।। 44-45 ।।
उग्र स्वभाववाले महादेवजीसे अवध्यता, अस्थिके वज्रमय होने और अदीनताका वर पाकर दधीचिने राजेन्द्र ध्रुवके मस्तकपर पादमूलसे प्रहार किया ।। 46 ।। तब विष्णुकी महिमासे गर्वित राजा क्षुवने भी क्रोधित होकर दधीचिकी छातीपर बसे प्रहार किया ।। 47 ।।
वह वज्र परमेश्वर शिवके प्रभावसे महात्मा दधीचिका [ कुछ भी] अनिष्ट न कर सका, इससे ब्रह्मपुत्र शुको आश्चर्य हुआ। मुनीश्वर दधीचिकी अवध्यता, अदीनता तथा वज्रसे बढ़कर प्रभाव देखकर ब्रह्मकुमार क्षुवके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ।। 48-49 ।।
वे शरणागतपालक नरेश मृत्युंजयके सेवक दधीचिसे पराजित होकर शीघ्र ही वनमें जाकर इन्द्रके छोटे भाई मुकुन्द हरिकी आराधना करने लगे ॥ 50 ll
उनकी पूजासे सन्तुष्ट होकर गरुडध्वज भगवान् मधुसूदनने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की ॥ 51 ll
उस दिव्य दृष्टिसे गरुडध्वज जनार्दन देवका दर्शन करके और उन्हें प्रणाम करके भुवने प्रिय वचनोंके द्वारा उनकी स्तुति की ॥ 52 ॥
इस प्रकार इन्द्र आदिसे स्तुत उन अजेय ईश्वर देवका पूजन और स्तवन करके वे [राजा क्षुव] भक्तिभावसे उनकी ओर देखकर मस्तक झुकाकर | प्रणाम करके उन जनार्दनसे कहने लगे-॥ 53 ॥राजा बोले- हे भगवन्! दधीचि नामसे प्रसिद्ध एक ब्राह्मण हैं, जो धर्मके ज्ञाता तथा विनम्र स्वभाववाले हैं, वे पहले मेरे मित्र थे ॥ 54 ॥
वे निर्विकार मृत्युंजय महादेवकी आराधना करके उन्हीं शिवजी के प्रभावसे सबके द्वारा सदाके लिये अवध्य हो गये हैं ॥ 55 ॥
[ एक दिन] उन महातपस्वी दधीचिने भरी सभामें अपने बायें पैरसे मेरे मस्तकपर बड़े वेगसे अवहेलनापूर्वक प्रहार किया और बड़े गर्वसे मुझसे कहा- मैं किसीसे नहीं डरता हे हरे! वे मृत्युंजयसे उत्तम वर पाकर अनुपम गर्वसे भर गये हैं ।। 56-57 ॥
ब्रह्माजी बोले- [ हे नारद!] महात्मा दधीचिकी अवध्यताको जानकर श्रीहरिने महेश्वरके अतुलित प्रभावका स्मरण किया। इस प्रकार स्मरण करके विष्णु ब्रह्मपुत्र वसे शीघ्र बोले- राजेन्द्र ब्राह्मणोंको कहीं भी थोड़ा-सा भी भय नहीं है । ll 58-59 ॥
हे भूपते विशेष रूपसे रुद्रभक्तोंके लिये तो भय है ही नहीं यदि मैं आपकी ओरसे कुछ करूँ तो ब्राह्मण दधीचिको दुःख होगा और वह मुझ जैसे देवताके लिये भी शापका कारण बन जायगा ॥ 60 ॥
हे राजेन्द्र दधीचिके शापसे दक्षके यहमें सुरेश्वर शिवके द्वारा मेरा विनाश होगा और फिर उत्थान भी होगा ॥ 61 ॥
हे राजेन्द्र ! दधीचिके शापके कारण ही सभी देवताओं, मेरे तथा ब्रह्माके उपस्थित रहनेपर भी दक्षका यज्ञ सफल नहीं होगा। हे महाराज! मैं आपके लिये दधीचिको जीतनेका प्रयास करूँगा ॥ 62 ॥
विष्णुका यह वचन सुनकर राजा क्षुवने कहा- ऐसा ही हो। इस प्रकार कहकर वे उस कार्यके लिये मन-ही-मन उत्सुक हो प्रसन्नतापूर्वक वहीं ठहर गये ॥ 63 ॥