मुनिगण बोले- हे महाप्राज्ञ ! हमलोग दुर्गाके चरित्रको निरन्तर सुनना चाहते हैं, अतः आप हमलोगोंसे दूसरे अद्भुत [लीला] तत्त्वका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥समस्त अर्कोको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ हे सूतजी! आपके निकलती हुई अमृतके समान अनेक कथाओंको सुनते हुए हमलोगों का मन तृप्त नहीं होता है ॥ 2 ॥
सूतजी बोले - [पूर्वकालमें] रुरुके दुर्गम नामसे विख्यात महाबली पुत्रने ब्रह्मदेवके वरदानसे चारों वेदोंको प्राप्त किया। वह देवगणोंसे भी अजेय बल प्राप्तकर पृथ्वीतलपर बहुत उपद्रव करने लगा, जिससे स्वर्गमें देवता भी काँप उठे। उस समय वेदोंके नष्ट हो जानेसे सारी क्रियाएँ नष्ट हो गयीं और देवताओं सहित ब्राह्मण दुराचारी हो गये ॥ 3-5 ॥
उस समय न तो कहीं दान किया जाता था, न उग्र तपस्या की जाती थी, न यज्ञ होता था और न हवन ही होता था, उससे पृथ्वीपर सौ वर्षको अनावृष्टि हुई ॥ 6 ॥
तीनों लोकोंमें हाहाकार होने लगा। सभी लोग भूख प्याससे पीड़ित होकर अत्यन्त दुखी हो गये। सभी नदियाँ, समुद्र, बावली, कूप, सरोवर जलविहीन हो गये और वृक्ष तथा लताएँ सूख गयीं ॥ 7-8 ॥ तब दीन चित्तवाली प्रजाओंकी महान् विपत्ति देखकर देवता योगमाया महेश्वरीके शरणमें गये ॥ 9 ॥ देवगण बोले हे महामाये! आप अपनी समस्त प्रजाओंकी रक्षा करें और अपने क्रोधको दूर करें, अन्यथा सभी लोक अवश्य नष्ट हो जायँगे ॥ 10 ॥
हे कृपासिन्धो है दीनबन्धो जिस प्रकार आपने दैत्य शुम्भ महाबलशाली निशुम्भ, धूम्राक्ष, चण्ड, मुण्ड, महाबली रक्तबीज, मधु कैटभ तथा महिषासुरका वध किया था; उसी प्रकार शीघ्र इसका भी वध कीजिये ll 11-12 ॥
बालकोंसे तो अपराध पद-पदपर होता है, केवल माताके अतिरिक्त लोक में उसे कौन सह सकता है! ।। 13 ।।
हे देवि! जब जब देवगणों और ब्राह्मणोंको दुःख हुआ, तब-तब आपने अवतार लेकर उन लोगोंको सुखी बनाया है ॥ 14 ll
उन देवताओंके इस दीन वचनको सुनकर कृपामयी भगवतीने उस समय अनन्त नेत्रोंवाला अपना स्वरूप दिखाया। वे प्रसन्न मुखकमलवाली थीं और चारों हाथोंमें धनुष, बाण, कमल तथा नाना प्रकारके फल- मूल धारण की हुई थीं । ll 15-16 ॥ तदनन्तर प्रजाओंको दुखी देखकर करुणाभरे नेत्रोंवाली वे व्याकुल होकर लगातार नौ दिन एवं नौ रात्रितक रोती रहीं। उस समय वे नेत्रोंसे हजारों जलधाराएँ बहाने लगीं, उन धाराओंसे सभी लोक तथा समस्त औषधियाँ तृप्त हो गयीं ॥। 17-18 ॥ समुद्र एवं नदियाँ अगाध जलसे परिपूर्ण हो गय और पृथ्वीतलपर शाक तथा फल- मूल उगने लगे ॥ 19 ॥ भगवती शुद्ध हृदयवाले महात्मा पुरुषोंको अपने हाथोंमें रखे हुए फल बाँटने लगीं। उन्होंने गौओंके लिये सुस्वादु तृण और दूसरे प्राणियोंके लिये यथायोग्य भोग्य वस्तुओंको प्रस्तुत किया ॥ 20 ॥
इस प्रकार ब्राह्मण देवता और मनुष्यों सहित सभी सन्तुष्ट हो गये, तब उन देवीने कहा- अब मैं आपलोगोंका कौन-सा कार्य करूँ ? ॥ 21 ॥ तब सभी देवताओंने मिलकर [हे देवि !] आपने सभी लोगोंको सन्तुष्ट कर दिया, अब कृपाकर दुर्गमद्वारा हरण किये गये वेदोंको हमें उपलब्ध कराइये 22 ॥ तब देवीने 'ऐसा ही होगा' कहकर पुनः उनसे कहा कि अब आपलोग अपने घर जाइये, मैं शीघ्र ही आपलोगोंको वेद प्रदान करूँगी ॥ 23 ॥
इसके बाद प्रसन्न हुए देवतालोग जगत्को उत्पन्न करनेवाली तथा विकसित नीलकमलके समान नेत्रोंवाली देवीको प्रणामकर अपने- अपने स्थानको चले गये ॥ 24 ॥
तब स्वर्ग, भूलोक तथा अन्तरिक्षमें कोलाहल मच गया, उसे सुनकर दुर्गमने चारों ओरसे [अमरावती ] पुरीको घेर लिया ॥ 25 ॥
इसके बाद शिवा-पार्वती देवताओंकी रक्षा के लिये पुरीके चारों ओर तेजोमय मण्डलका निर्माणकर स्वयं उस [ घेरे] से बाहर आ गयीं। तब देवी और दैत्य दोनोंके बीच संग्राम छिड़ गया। दोनों पोंसे कवयोंको काटनेवाले तीक्ष्ण बाणकी वर्षा होने लगी ।। 26-27 ॥
इसी बीच उनके शरीरसे काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला, धूम्रा, त्रिपुरसुन्दरी तथा मातंगी-ये मनोहर रूपवाली दस महाविद्याएँ शस्त्रयुक्त हो प्रकट हो गयीं ॥ 28-29 ॥उसके बाद दिव्य मूर्तिवाली असंख्य मातृकाएँ प्रकट हुईं, वे सब चन्द्रलेखाको धारण किये थीं तथा विद्युत्के समान कान्तिवाली थीं तब मातृगणक साथ उस दुर्गमका भयंकर संग्राम होने लगा, उन देवियोंने रुरुपुत्र दुर्गमकी सौ अक्षौहिणी सेना नष्ट कर दी ।। 30-31 ॥
तब उन्होंने अपने त्रिशूलकी धारसे उस दैत्यपर प्रहार किया और वह उखड़े हुए मूलवाले वृक्षके समान पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ 32 ॥
इस प्रकार दुर्गम नामक असुरको मारकर उससे चारों वेदोंको लेकर ईश्वरीने देवताओंको दे दिया ll 33 ॥
देवता बोले- हे अम्बिके! हमलोगोंके लिये आपने अनन्त नेत्रोंवाला स्वरूप धारण किया, अतः मुनिलोग आपको 'शताक्षी' कहेंगे। आपने अपनी देहसे उत्पन्न शाकोंद्वारा लोकोंका भरण [- पोषण] किया, अतः आपका 'शाकम्भरी'- यह नाम विख्यात होगा। हे शिवे आपने दुर्गम नामक महादैत्यका वध किया है, इसलिये मानव आप कल्याणमयी भगवतीको 'दुर्गा' कहेंगे ।। 34-36 ॥
हे योगनिद्रे ! आपको नमस्कार है। हे महाबले ! आपको नमस्कार है। हे ज्ञानप्रदे! आपको नमस्कार है। आप विश्वमाताको बार बार नमस्कार है ॥ 37 ॥
'जिन परमेश्वरीका ज्ञान 'तत्त्वमसि' आदि वाक्योंसे होता है, उन अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायिकाको बार- बार नमस्कार है ॥ 38 ॥
हे मातः! आपके प्रभावको न जाननेवाले हमलोग वाणी, मन और शरीरसे दुष्प्राप्य तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्निरूपी तीन नेत्रोंवाली आपकी स्तुति नहीं कर सकते हैं ॥ 39 ॥
हम जैसे देवगणोंको देखकर सुरेश्वरी माता शताक्षीके बिना कौन इस प्रकारकी दया कर सकता है ॥ 40 ll
अब आप इस प्रकारका यत्न करें कि बाधाओंसे निरन्तर त्रिलोकी पराभूत न हो सके और हमारे शत्रुओंका नाश हो 41 ॥देवी बोलीं- [हे देवगणो!] जिस प्रकार अपने बछड़ोंको देखकर गायें शीघ्रतासे व्यग्र हो दौड़ती हैं, उसी प्रकार मैं भी आपलोगोंको देखकर व्यग्र होकर दौड़ पड़ती हूँ ॥ 42 ॥
मैं आपलोगोंको सन्तानके समान देखती रहती हूँ, किंतु जब नहीं देख पाती तो मेरा एक-एक क्षण युगके समान बीतता है। मैं आपलोगोंके लिये अपने प्राणोंको भी न्योछावर कर सकती हूँ ॥ 43 ॥
आपलोगोंकी विपत्तियों को दूर करनेवाली मेरे रहते आप भक्तोंको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये ॥ 44 ॥
जिस प्रकार मैंने पूर्व समयमें दैत्योंका वध किया था, उसी प्रकार [आगे भी] असुरोंका वध करूँगी, इसमें संशय नहीं करना चाहिये, यह मैं सत्य सत्य कहती हूँ ।। 45 ।।
जब दूसरे शुम्भ एवं निशुम्भ नामक दैत्य उत्पन्न होंगे, तब यशोमयी मैं नन्दभार्या यशोदाके गर्भसे योनिज रूप ग्रहणकर गोपोंके गोकुलमें अवतरित होऊँगी और उन दोनोंका वध करूँगी, तब लोग मुझे 'नन्दजा' कहेंगे ।। 46-47 ।।
मैं भ्रमरका रूप धारणकर अरुण नामक दैत्यका वध करूँगी। अतः मानव लोकमें मुझे 'भ्रामरी' इस - नामसे पुकारेंगे। पुनः जब मैं भीम [भयंकर] रूप धारणकर राक्षसोंका भक्षण करूंगी, तब मेरा 'भीमादेवी' - यह नाम विख्यात होगा ।। 48-49 ll
इस प्रकार जब जब पृथ्वीपर दैत्योंके द्वारा बाधा उत्पन्न होगी, तब-तब मैं अवतार लेकर निस्सन्देह कल्याण करूँगी ॥ 50 ॥
जो देवी शताक्षी कही गयी हैं, वे ही शाकम्भरी हैं और वे ही दुर्गा भी कहलाती हैं, इन तीनों नामोंद्वारा एक ही सत्ताका प्रतिपादन होता है ॥ 51 ll
भूलोकमें शताक्षीके समान कोई दयालु देवता नहीं है, जिन्होंने प्रजाओंको सन्तप्त देखकर निरन्तर नौ दिनोंतक रुदन किया ॥ 52 ॥