सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी! जो घोरदान तथा महादान कहे गये हैं, उन्हें सदा सत्पात्रको ही देना चाहिये, ये आत्माका उद्धार करते हैं ॥ 1 ॥ हे द्विजोत्तम! सुवर्णदान, गोदान, भूमिदान – इनको ग्रहण करनेवाला पवित्र रहता है तथा ये दान लेनेवाले और दान देनेवाले दोनोंका उद्धार करनेवाले हैं ॥ 2 ॥सुवर्णदान, गोदान एवं भूमिदान -इन उत्तम दानोंको करके मनुष्य पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 3 ॥
तुलादान, गोदान, पृथ्वीदान तथा विद्यादान ये प्रशस्त दान कहे गये हैं। इनमें दो दान तो समान हैं, किंतु सरस्वतीदान सबसे बढ़कर है ॥ 4 ॥ नित्य दुही जानेवाली गौएँ, छत्र, वस्त्र, जूता एवं अन्न-पान - ये वस्तुएँ याचकोंको देते रहना चाहिये ॥ 5 ॥ संकल्प किया गया जो द्रव्य ब्राह्मणों तथा अपीड़ित याचकों को दिया जाता है, उससे दान करनेवाला मनस्वी होता है। सुवर्ण, तिल, हाथी, कन्या, दासी, गृह, रथ, मणि तथा कपिला गाय-ये दस महादान हैं॥ 6-7 ॥
ज्ञानी ब्राह्मण इन महादानोंको ग्रहणकर शीघ्र ही दान करनेवालोंको तथा स्वयं अपनेको तार देता है, इसमें संशय नहीं जो मनुष्य शुद्धचित्तसे सुवर्ण दान करते हैं, उन्हें देवतालोग चारों ओरसे सब कुछ देते हैं- ऐसा मैंने सुना है ॥ 8-9 ॥
अग्नि सर्वदेवमय हैं और सुवर्ण अग्निस्वरूप है, अतः सुवर्णका दान करनेसे मानो सभी देवताओंको दान दे दिया गया। पृथ्वीदान अत्यन्त श्रेष्ठ तथा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है, उसमें भी सुवर्णमयी भूमिका दान विशेष उत्तम है, जिसे पूर्वकालमें राजा पृथुने किया था ॥ 10-11 ॥
जो लोग सुवर्णसे युक्त पृथ्वीका दान होते हुए अपनी आँखोंसे देखते हैं, वे सभी पापोंसे सर्वथा मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त करते हैं ॥ 12 ॥
हे मुने! अब मैं सर्वश्रेष्ठ दानका वर्णन करता हूँ, जिससे प्राणी यमराजके अति दुःखदायी असिपत्रवनको नहीं देखते हैं ॥ 13 ll
न्यायपूर्वक अर्जित किये गये धनसे खरीदे गये वनका विधिपूर्वक शुद्धचित्त होकर तथा धनकी कृपणतासे रहित होकर दान करना चाहिये ll 14 ॥
प्रस्थ परिमाणमात्र तिलके द्वारा सभी गुणोंसे | सम्पन्न गाय तथा सभी लक्षणोंसे युक्त दिव्य सोनेका बछड़ा बनाये और कुंकुम मिश्रित शुभ अक्षतोंसे अष्टदल कमल बनाकर उसमें भक्तिपूर्वक रुद्र आदि | सभी देवताओंकी पूजा करे। इस प्रकार पूजा सम्पन्नकर अपने सामर्थ्यके अनुसार रत्न, सुवर्ण एवं सभीआभूषणोंसे अलंकृत उस धेनुको ब्राह्मणको दान दे। उसके बाद रातमें भोजन करे और विस्तारपूर्वक दीपका | दान करे। कार्तिकीपूर्णिमाको प्रयत्नपूर्वक इसे करना चाहिये ।। 15- 18 ॥
इस प्रकार जो मनुष्य अपनी शक्तिभर शास्त्रोक्त विधि- विधानसे भलीभाँति यह दान करता है, वह यममार्गकी भयावहतासे त्रस्त नहीं होता और भीषण नरकोंको नहीं देखता ॥ 19 ॥
हे व्यासजी ! वह सभी तरहके पापोंको करके भी इस परम दानके प्रभावसे अपने बन्धु बान्धव एवं मित्रोंके साथ चौदह इन्द्रोंके कालतक स्वर्गमें आनन्द करता है ॥ 20 ॥
हे व्यासजी ! इस लोकमें विधानके साथ गौका दान सर्वश्रेष्ठ दान कहा गया है। अन्य कोई भी दान उसके समान नहीं बताया गया है ॥ 21 ॥
हे व्यासजी ! जो बछड़ेसहित सोनेकी सींगवाली, चाँदीके खुरवाली तथा काँसेकी दोहनीयुक्त सभी लक्षणोंसे सम्पन्न कपिला गौका दान करता है, वह गाय उन- उन गुणोंसे युक्त होकर इस लोक और परलोकमें कामधेनु बनकर उस दाताके पास उपस्थित होती है ।। 22-23 ॥
जो मनुष्य अक्षय फलको प्राप्त करना चाहता है, वह इस लोकमें जो जो अत्यन्त अभीष्ट पदार्थ है तथा वह यदि घरमें हो तो उसे गुणवान् ब्राह्मणको प्रदान करे ॥ 24 ॥
तुलापुरुषका दान सभी दानोंमें श्रेष्ठ दान है। यदि मनुष्य अपने कल्याणकी कामना करता हो तो तुलादान [ अवश्य] करे। इसे करके मनुष्य वध बन्धनके कारण उत्पन्न होनेवाले पापोंसे छुटकारा पाता है। तुलादान अतिशय पुण्यकारक और सभी तरहके पापोंको नष्ट करनेवाला है । ll 25-26 ॥
सभी तरहके पापोंको करनेके बाद भी जो तुलादान करता है, वह सभी पापोंसे छुटकारा पाकर निस्सन्देह स्वर्गको जाता है ॥ 27 ॥
जो पाप दिनमें, रातमें, दोनों सन्ध्याओंमें, दोपहरमें, रात्रिके अन्तिम भागमें, तीनों कालों, शरीर, मन एवं वाणीसे किया गया रहता है, उसे तुलापुरुष नष्ट कर देता है ॥ 28 ॥मैंने बाल्यावस्थामें, युवावस्थामें, वृद्धावस्थामें ज्ञान पूर्वक या अज्ञानपूर्वक जो भी पाप किया है, मेरे द्वारा किये गये उन समस्त पापोंको तुलापुरुष महादेवजी शीघ्र नष्ट करें ॥ 29 ॥
अपने परिमाणके तुल्य जो भी द्रव्य तुलामें रखकर मैंने सत्पात्रको समर्पण किया है, उसीके साथ मेरे द्वारा किया गया तथा न किया गया सम्पूर्ण पाप पुण्यरूप हो जाय ॥ 30 ॥
सनत्कुमार बोले-अपने हितकी कामना करनेवाला मनुष्य इस प्रकारसे उच्चारणकर उस धनको ब्राह्मणोंको प्रदान करे। यह धन किसी एक व्यक्तिको प्रदान न करे, ऐसा करनेसे उद्धार नहीं होता ॥ 31 ॥
हे व्यासजी जो मनुष्य इस प्रकार उत्तम तुलापुरुष दान करता है, वह सभी पापोंको नष्टकर चौदह इन्द्रोंके कालतक स्वर्गलोकमें वास करता है ॥ 32 ॥