सूतजी बोले- इसके उपरान्त मैं परमात्मा शिवके नागेश नामक परमश्रेष्ठ ज्योतिर्लिंगकी जिस प्रकार उत्पत्ति हुई, उसे कह रहा हूँ ॥ 1 ॥
पार्वतीके वरदानसे अहंकारमें डूबी हुई दारुका नामक एक राक्षसी थी, उसका पति दारुक भी महाबलवान् था। वह अनेक राक्षसोंको साथ लेकर सत्पुरुषोंको दुःख दिया करता था और यज्ञका ध्वंस तथा लोगोंके धर्मका ध्वंस किया करता था ॥ 2-3 ll
पश्चिम सागरके तटपर उसका एक वन था, जो चारों ओर सोलह योजन विस्तृत तथा सर्वसमृद्धिपूर्ण था। दारुका राक्षसी अपने क्रीडाविलासके निमित्त वहाँ नित्य विचरण करती थी वह वन सुन्दर भूमि, नाना प्रकारके वृक्ष तथा अन्य सभी उपकरणोंसे युक्त था। देवीने उस वनकी देख रेखका भार दारुकाको दिया था, जिसके लिये वह अपने पतिके साथ अपनी इच्छानुसार जाया करती थी । ll 4-6 ॥
वह दारुक राक्षस भी अपनी पत्नी दारुकाके साथ वहाँ निवासकर सभीको भय देने लगा ॥ 7 ॥ उससे पीड़ित हुए वहाँके निवासी महर्षि और्वको शरणमें गये और सिर झुकाकर उन्हें प्रेमपूर्वक नमस्कारकर कहने लगे- ॥ 8 ॥लोग बोले- हे महर्षे! हमको शरण दीजिये, अन्यथा दुष्ट हमलोगोंको मार डालेंगे, आप सब कुछ करनेमें समर्थ हैं; आप तेजसे प्रकाशवान् हैं ॥ 9 ॥ पृथ्वीपर आपके सिवा कोई भी हमलोगोंका शरणदाता ऐसा नहीं है, जिसके पास हमलोग जायें और वहाँ रहकर सुख प्राप्त करें ॥ 10 ॥ [हे महर्षे!] आपको देखते ही सभी राक्षस दूर भाग जाते हैं; क्योंकि आपमें अग्निके समान शिवका तेज प्रज्वलित होता रहता है ॥ 11 ॥
सूतजी बोले- लोगोंके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर शरण देनेवाले मुनिश्रेष्ठ और्वने व्यथित होकर उनकी रक्षाके लिये यह वचन कहा- ॥ 12 ॥
और्व बोले- यदि अत्यन्त बलशाली ये राक्षस पृथ्वीपर प्राणियोंका वध करते रहेंगे, तो वे स्वयं मर जायेंगे। यदि वे इसी प्रकार यज्ञ विध्वंस करते रहेंगे, तो सभी राक्षस स्वयं अपने प्राणोंसे हाथ धो लेंगे, यह मैं सत्य कहता हूँ ll 13-14 ॥
सूतजी बोले- लोगोंको सुख देनेवाले महर्षि और्व उन लोगोंसे इस प्रकार कहकर तथा प्रजाओंको धीरज देकर विविध प्रकारसे तप करने लगे ॥ 15 ॥
इसके बाद वे देवगण शापका कारण जानकर देवशत्रु राक्षसोंके साथ युद्ध करनेका सभी प्रकारसे प्रयत्न करने लगे। उस समय इन्द्रादि समस्त देवगण अनेकविध अस्त्र-शस्त्रोंको धारणकर सभी उपकरणोंके साथ युद्धके लिये वहाँ उपस्थित हुए॥ 16- 17॥
उन्हें देखकर उस वनमें जहाँ जो भी राक्षस निवास कर रहे थे, वे सभी आपसमें मिलकर विचार करने लगे ॥ 18 ॥
राक्षस बोले- अब हमलोग क्या करें, कहीं जायें? [बहुत बड़ा] संकट उपस्थित हो गया। यदि हमलोग युद्ध करें, तो भी मारे जायँगे और यदि युद्ध न करें, तो भी मारे जायँगे, यदि ऐसे ही पड़े रहे, तो हमलोग क्या भोजन करेंगे? यह तो बड़ा दुःखका अवसर उपस्थित हुआ, कौन इस दुःखको दूर करेगा ? ।। 19-20 ॥सूतजी बोले- वहाँपर इस प्रकार ऐसा विचार करके भी उन दारुक आदि राक्षसोंको जब कोई उपाय नहीं सूझा, तब वे बहुत दुखी हुए। तब दारुका राक्षसी इस प्रकारका संकट उपस्थित हुआ जानकर पार्वतीजीके उस वरदानके विषयमें कहने लगी ॥ 21-22 ॥
दारुका बोली- मैंने पूर्वकालमें भवानीकी आराधना की थी, तब उन्होंने वरदान दिया था कि तुम जहाँ जाना चाहो, यहाँ अपने स्वजनों को लेकर वनसहित जा सकती हो। जब मैंने वैसा वरदान प्राप्त किया है, तब तुमलोग दुःख क्यों सह रहे हो? वनको जलके भीतर ले जाकर वहींपर सभी राक्षस सुखपूर्वक रह सकते हैं । ll 23-24 ॥
सूतजी बोले- तब उस राक्षसीका यह वचन सुनकर सभी राक्षस हर्षित हो उठे और निडर हो आपसमें कहने लगे- ॥ 25 ll
यह धन्य है। कृतकृत्य है, इस राज्ञीने हमलोगोंको जीवनदान दिया है। तदुपरान्त वे उस राक्षसीको प्रणामकर आदरपूर्वक कहने लगे-हे देवि! यदि तुममें इस प्रकार जानेकी शक्ति है, तो यहाँसे शीघ्र चलो, अब क्या विचार करती हो? हमलोग जलमें जाकर सुखपूर्वक निवास करेंगे ll 26-27 ll
इसी बीच सभी लोग देवताओंको साथ लेकर उन राक्षसोंसे युद्ध करनेके लिये आये, जिन्होंने उन्हें पहले बहुत दुःख दिया था ll 28 ll
देवगणोंसे पीड़ित उन राक्षसोंके साथ पार्वतीके बलका आश्रय लेकर 'तुम्हारी जय हो, तुम्हारी जय हो' इस प्रकार देवीकी स्तुतिकर जलस्थलसे युक्त अपना सारा नगर उठाकर पंखयुक्त हिमालयपर्वतके समान उड़ती हुई वह शिवभक्त राक्षसी समुद्रके मध्यमें चली गयी और अपने सम्पूर्ण परिवारोंके साथ निर्भय हो प्रसन्नताके साथ वहाँ रहने लगी। ll 29-31॥
इस प्रकार वे विलासी राक्षस समुद्रके मध्यमें स्थित होकर सुखी हो गये और निर्भय होकर नगरमें विहार करने लगे। और्व मुनिके शापके भयसे वे कभी पृथ्वीपर नहीं आते थे, अपितु जलमें ही भ्रमण करते रहे ।। 32-33 ।।वे नावोंपर बैठे मनुष्योंको नगरमें लाकर उन्हें वहाँ कारागारमें डाल देते थे और किसी-किसीको मार भी डालते थे। वहाँ स्थित होकर भी वे राक्षस भवानीके वरदानसे निर्भय होकर जैसे-तैसे लोगोंको पीड़ा देते ही रहते थे । ll 34-35 ॥
हे ! जिस प्रकार उन राक्षसोंका भय पूर्वमें पृथ्वीलोक में स्थलपर नित्यप्रति बना रहता था। उसी प्रकार उनके जलमें रहनेपर भी निरन्तर भय बना रहने लगा। किसी समय वह राक्षसी जलमें स्थित अपने नगरसे निकलकर लोगोंको पीड़ा देनेके लिये पृथ्वीपर जानेका मार्ग रोककर स्थित हो गयी ॥ 36-37 ॥
इसी समय वहाँ चारों ओरसे मनुष्योंसे भरी हुई बहुत सी सुन्दर नावें आयीं ॥ 38 ll
मनुष्योंसे भरी उन नावोंको देखकर हर्षसे भरे हुए उन दुष्ट राक्षसोंने शीघ्रतासे जाकर नावपर स्थित लोगोंको वेगपूर्वक पकड़ लिया ।। 39 ।।
उन महाबली राक्षसोंने उन्हें अपने नगरमें लाकर दृढ़ बेड़ियोंसे बाँधकर कारागारमें डाल दिया ॥ 40 ॥
श्रृंखलाओंसे बँधे हुए तथा कारागारमें पड़े हुए उन लोगोंपर राक्षसोंकी बारंबार फटकार भी पड़ती थी, जिसके कारण वे अत्यधिक दुःख पा रहे थे ॥ 41 ॥ उन सभीमें उनका स्वामी जो सुप्रिय नामका वैश्य था, वह शिवजीका श्रेष्ठ भक्त, उत्तम आचरणवाला तथा शाश्वत शिवपरायण था ॥ 42 ॥
वह बिना शिवपूजन किये कभी नहीं रहता था। वह सर्वथा शिवधर्मका पालन करनेवाला और भस्म, रुद्राक्ष धारण करनेवाला था ॥ 43 ॥
यदि वह कभी पूजन नहीं कर पाता, तो उस दिन भोजन भी नहीं करता था। अतः वहाँ भी वह वैश्य शिवपूजन किया करता था ॥ 44 ॥
हे श्रेष्ठ ऋषियो ! उसने कारागारमें रहते हुए भी बहुत से लोगोंको शिवमन्त्र और पार्थिवपूजनकी विधि सिखा दी ।। 45 ।।
तब कारागारमें रहनेवाले अन्य लोग भी अपनी कामनाको पूर्ण करनेवाली शिवकी पूजा विधिपूर्वक करने लगे, जैसा कि उन लोगोंने देखा और सुना था ॥ 46 ॥कुछ लोग उत्तम आसन लगाकर शिवजीका ध्यान करने लगे और कुछ लोग प्रसन्नतासे शिवकी मानसी पूजामें निरत हो गये ॥ 47 ॥
हे मुनीश्वरो ! उस समय उनका स्वामी प्रत्यक्ष ही पार्थिव विधिसे नित्य शिवपूजन किया करता था ।। 48 ।।
जो अन्य लोग शिवपूजनका विधान तथा श्रेष्ठ स्मरण (शास्त्रोक्त ध्यान) नहीं जानते थे, वे 'नमः शिवाय' - इस मन्त्रसे शिवका ध्यान करते हुए रहने लगे। सुप्रिय नामक जो शिवभक्त श्रेष्ठ वैश्य था, वह मनमें [शिवजीका] ध्यान करता हुआ वहाँ शिवपूजा किया करता था ॥ 49-50 ॥
भगवान् शिवजी भी शास्त्रवर्णित रूप धारणकर सभी सामग्री प्रत्यक्ष ग्रहण करते थे। वह वैश्य स्वयं भी इस बातको नहीं जानता था कि शिवजी उसे ग्रहण कर लेते हैं हे मुनीश्वरो इस प्रकार वैश्यको शिवपूजन करते हुए वहाँ निर्विघ्न रूपसे छः महीने बीत गये ॥ 51-52 ॥
हे मुनीश्वरो ! इसके बाद शिवजीका जैसा चरित्र हुआ, उसे आपलोग सावधान मनसे सुनिये ॥ 53 ॥