व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ! आपने अद्भुत कथा सुनायी, जिसमें महाप्रभु शंकरकी पवित्र लीला है। हे महामुने! अब मेरे ऊपर कृपा करके प्रेमपूर्वक यह बताइये कि [ श्रीशंकरजीके भ्रूमध्यसे प्रकट] उस पुरुषके द्वारा मुक्त किया गया राहु कहाँ गया ? ॥ 1-2 ॥
सूतजी बोले- अमित बुद्धिवाले व्यासजीका वचन सुनकर ब्रह्माके पुत्र महामुनि सनत्कुमार प्रसन्नचित होकर कहने लगे-॥3॥
सनत्कुमार बोले- वह राहु उस पुरुषके द्वारा वर्वर स्थानपर मुक्त कर दिया गया, इसलिये वह वर्वर नामसे पृथ्वीपर विख्यात हुआ ॥ 4 ॥
तब [उस पुरुषके द्वारा इस प्रकार छुटकारा प्राप्त करनेपर] वह अपना नया जन्म मानता हुआ फिर गर्वरहित हो शनैः-शनैः जलन्धरके नगरमें पहुँचा ll 5 ll हे व्यास! उसने वहाँ जाकर दैत्येन्द्र जलन्धरसे शंकरकी सारी चेष्टाका वर्णन विस्तारपूर्वक किया ॥ 6 ॥
उसे सुनकर दैत्यराजोंमें श्रेष्ठ बलवान् सिन्धुपुत्र जलन्धर क्रोधसे व्याकुल हो उठा ॥ 7 ॥ तय क्रोधके वशीभूत चिरवाले उस देवेन्द्र समस्त दैत्योंको युद्धके लिये उद्यत होनेका आदेश दिया ॥ 8 ॥
जलन्धर बोला- कालनेमि आदि एवं शुम्भ निशुम्भ आदि सभी वरदाय अपनी अपनी सेनाओंसे युक्त होकर [युद्धके लिये ] निकलें ॥ 9 ll
वीरकुलमें उत्पन्न एक करोड़ कम्बुवंशीय. दबंद, कालक, कालकेय, मौर्य तथा धौम्रगण भी शीघ्र चलें ॥ 10 ॥
महाप्रतापी सिन्धुपुत्र वह दैत्यपति इस प्रकार आज्ञा देकर करोड़ों दैत्योंको साथ लेकर शीघ्र ही 'चल पड़ा ॥ 11 ॥शुक्र एवं कटे हुए सिरवाला राहु उसके आगे आगे चलने लगे। उसी समय जलन्धरका मुकुट वेगसे खिसककर पृथ्वीपर गिर पड़ा और समस्त आकाशमण्डल वर्षाकालके समान मेघोंसे आच्छन्न हो गया तथा मृत्युसूचक बहुत से भयानक अपशकुन होने लगे ।। 12-13 ।।
तब उसकी इस प्रकारकी युद्धकी तैयारी देखकर इन्द्रसहित वे देवता छिपकर शिवजीके निवासस्थान कैलास पर्वतपर गये। वहाँ जाकर इन्द्रसहित सभी देवता शिवजीको देखकर उन्हें प्रणामकर कंधा झुकाये हुए हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- ॥ 14-15 ॥
देवता बोले- हे देवदेव! महादेव! हे करुणाकर! हे शंकर! आपको प्रणाम है। हे महेशान! हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये। हे प्रभो इन्द्रसहित हमलोग जलन्धरद्वारा किये गये उपद्रवसे अत्यन्त व्याकुल हो गये हैं और अपना-अपना स्थान छोड़कर पृथ्वीपर स्थित हैं ।। 16-17 ।।
हे प्रभो! हे स्वामिन्! आप देवताओंकी इस विपत्तिको कैसे नहीं जानते ? अतः आप हमलोगोंकी रक्षाके लिये जलन्धरका वध कीजिये ॥ 18 ॥
हे नाथ! आपने जो पूर्वसमयमें हमलोगों की रक्षाके लिये विष्णुजीको नियुक्त किया था, इस समय वे भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं। अब वे भी उसके अधीन होकर लक्ष्मीके साथ उसके घरमें रहते हैं और हम देवगण भी उसके वशवर्ती होकर वहीं रहते हैं ।। 19-20 ll
हे शम्भो हमलोग छिपकर आपकी शरणमें आये हैं, इस समय वह बलवान् जलन्धर आपसे युद्ध करनेके लिये आ रहा है। अतः हे स्वामिन्! हे सर्व आप शीघ्र ही युद्धमें उस जलन्धरका वध कीजिये और हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ।। 21-22 ॥
सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] ऐसा कहकर - | वे सभी देवता प्रभुको प्रणामकर उन महेश्वरके चरण देखते हुए विनम्र हो वहीं स्थित हो गये ॥ 23 ॥
तब देवगणोंका यह वचन सुनकर शिवजी हँसकर विष्णुको शीघ्रतासे बुलाकर यह वचन कहने लगे - ॥ 24 ॥ईश्वर बोले- हे हृषीकेश! हे महाविष्णो! जलन्धरसे सन्त्रस्त हुए ये देवगण अत्यन्त व्याकुल होकर यहाँ मेरी शरणमें आये हुए हैं। हे विष्णो! आपने युद्धमें जलन्धरका वध क्यों नहीं किया और आप स्वयं भी अपना वैकुण्ठ छोड़कर उसके घर चले गये हैं। स्वयं स्वतन्त्र होकर विहार करनेवाले मैंने दुष्टोंके निग्रहके लिये तथा सज्जनोंकी रक्षाके लिये आपको नियुक्त किया था ।। 25-27 ॥
सनत्कुमार बोले- शंकरका यह वचन सुनकर गरुडध्वज विष्णु विनम्र हो सिर झुकाये हुए हाथ जोड़कर कहने लगे- ॥ 28 ॥
विष्णुजी बोले- हे प्रभो! आपके अंशसे प्रकट होने तथा लक्ष्मीजीका भाई होनेके कारण मैंने युद्धमें उसका वध नहीं किया, अब आप ही इस दानवका वध कीजिये ॥ 29 ॥
हे देवेश ! वह महाबली तथा महावीर दानव सभी देवताओं तथा अन्य लोगोंके लिये भी अजेय है, मैं यह सत्य कह रहा हूँ। देवताओं सहित मैंने बहुत समयतक उसके साथ युद्ध किया, परंतु मेरा कोई भी उपाय उस दानवश्रेष्ठपर नहीं चला। उसके पराक्रमसे सन्तुष्ट होकर मैंने उससे कहा- वर माँगो; तब उसने मेरा वचन सुनकर यह उत्तम वरदान माँगा है महाविष्णो! आप देवताओं एवं मेरी भगिनी लक्ष्मीके साथ मेरे घरमें निवास करें और मेरे अधीन रहें, अतः मैं उसके घर चला गया ॥ 30-33 ॥ सनत्कुमार बोले- विष्णुजीका यह वचन सुनकर दयालु तथा भक्तवत्सल वे महेश्वर शंकर अतिप्रसन्न होकर हँसकर कहने लगे- ॥ 34 ॥
महेश्वर बोले- हे विष्णो! हे सुरश्रेष्ठ! आप मेरी बातको आदरपूर्वक सुनिये। मैं महादैत्य जलन्धरका वध करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है। उस असुरपतिको | मारा गया समझकर आप भयरहित हो अपने स्थानको जाइये और सभी देवता भी भयमुक्त तथा सन्देहरहित होकर अपने स्थानको जायें । ll 35-36 ॥
सनत्कुमार बोले- महेश्वरका यह वचन सुनकर रमापति विष्णु सन्देहरहित हो देवगणोंके साथ अपने स्थानको चले गये। हे व्यास! इसी बीच वह अतिपराक्रमी तथा बलवान् दैत्यपति युद्धके लिये तत्पर असुरोंके साथ कैलासके समीप पहुँचा और कैलासको घेरकर तीव्र सिंहनाद करता हुआ कालके समान वह महती सेनाके साथ वहीं रुक गया ll 37-39 ॥
उसके बाद दैत्योंक हादसे उत्पन्न महाकोलाहल सुनकर दुष्टोंका संहार करनेवाले तथा महालीला करनेवाले महेश्वर अत्यन्त क्रोधित हो उठे ॥ 40 ॥ तब महालीला करनेवाले कौतुकी महादेवने महाबलवान् नन्दी आदि अपने गणको युद्धके लिये आज्ञा दी ।। 41 ।।
तब शिवजीकी आज्ञासे नन्दी, गजमुख आदि प्रमुख सेनापति तथा सभी गण बड़ी शीघ्रतासे युद्धके लिये तत्पर हो गये। वे सभी महावीर गण युद्धके लिये क्रोधसे दुर्मद हो नाना प्रकारके युद्धसम्बन्धी शब्द करते हुए कैलास पर्वतसे उतरे ।। 42-43 ।।
उसके बाद कैलासकी उपत्यकाओंमें प्रमथगणों और दैत्योंमें अस्त्र-शस्त्रोंसे घोर युद्ध होने लगा ।। 44 ।।
उस समय वीरोंमें हर्ष उत्पन्न करनेवाली भेरी, मृदंग तथा शंखोंकी ध्वनियों और हाथी, घोड़े तथा रथोंके शब्दोंसे नादित हुई पृथ्वी कम्पित हो उठी ॥ 45 ॥
शक्ति, तोमर, बाण, मूसल, प्राश एवं पट्टिशोंसे आकाशमण्डल मोतियोंसे भरा हुआ जैसा लगने लगा ll 46 ॥
मरे हुए हाथी, घोड़े एवं पैदल सेनाओंके द्वारा पृथ्वी इस प्रकार पट गयी, जैसे पूर्व समयमें [इन्द्रके] वज्रसे आहत हुए पर्वतराजोंसे पटी हुई थी ॥ 47 ॥
उस समय प्रमथोंके द्वारा मारे गये दैत्यों एवं दैत्योंके द्वारा मारे गये प्रमथोंके मज्जा, रक्त एवं मांसके कीचड़से पृथ्वी व्याप्त हो गयी, जिससे उसपर चलना असम्भव हो गया। तब शुक्राचार्य प्रमथगणोंके द्वारा युद्धमें मारे गये दैत्योंको मृतसंजीवनी विद्याके प्रभावसे बारंबार जिलाने लगे। उन्हें इस प्रकार जीवित होते देखकर व्याकुल तथा भयभीत सभी गणोंने देवदेव शिवजीसे शुक्राचार्यकी सारी घटना निवेदित की ।। 48-50 ॥यह सुनकर भगवान् रुद्रने अत्यधिक क्रोध किया और दिशाओंको प्रज्वलित करते हुए वे भयंकर तथा अत्यधिक रौद्ररूपवाले हो गये। उस समय रुद्रके मुखसे महाभयंकर कृत्या प्रकट हो गयी। ताह वृक्षके समान उसकी जाँघें थीं। गुफाके समान उसका मुख था और उसके स्तनसे बड़े-बड़े वृक्ष टूट जाते थे। ll 51-52 ॥
हे मुनिसत्तम! महाभयंकर वह कृत्या बड़े वेगसे युद्धभूमिमें आ गयी और महान् असुरोंका भक्षण करती हुई विचरण करने लगी। इसके बाद वह निर्भय होकर शीघ्र ही वहाँ जा पहुँची, जहाँ महान् दैत्योंसे घिरे हुए शुक्राचार्य थे हे मुने! वह अपने तेजसे आकाश एवं पृथ्वीको व्याप्तकर शुक्रको अपने गुह्यदेशमें छिपाकर आकाशमें अन्तर्धान हो गयी ॥ 53-55 ॥
तब युद्धदुर्मद दैत्यसेनाके वीर शुक्राचार्यको तिरोहित देखकर मलिनमुख होकर रणभूमिसे भागने लगे ॥ 56 ॥
शिवगणोंसे भयभीत हुई असुरोंकी सेना वायुके वेगसे बिखरे हुए तृणसमूहकी भाँति भागने लगी ।। 57 ॥
इस प्रकार गणोंके भयसे दैत्योंकी सेनाको छिन्न-भिन्न होते देखकर सेनापति निशुम्भ, शुम्भ एवं कालनेमिको महान् क्रोध हुआ। उन महाबली तीनों सेनापतियोंने वर्षाकालीन मेघके समान बाणोंकी वृष्टि करते हुए गणोंकी सेनाको भगाना प्रारम्भ किया। उन असुरोंके वाण शलभसमूहोंकी भाँति आकाश तथा सभी दिशाओंको व्याप्तकर गणोंकी सेनाको कंपाने लगे । ll 58- 60 ॥
सैकड़ों बाणोंसे बंधे हुए तथा रुधिरकी धारा बहाते हुए शिवगण वसन्त ऋतुमें किंशुकके पुष्पकी भाँति सुशोभित हो रहे थे और उन्हें कुछ भी न हो पा रहा था। इस प्रकार अपनी सेनाको छिन्न भिन्न होते देखकर कुपित हुए गणेश, कार्तिकेय एवं नन्दी आदि महाक्रोधकर बड़ी शीघ्रतासे उन महादैत्योंको रोकने लगे ।। 61-62 ॥