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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 20 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 20

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दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना

व्यासजी बोले- हे सनत्कुमार! हे सर्वज्ञ! आपने अद्भुत कथा सुनायी, जिसमें महाप्रभु शंकरकी पवित्र लीला है। हे महामुने! अब मेरे ऊपर कृपा करके प्रेमपूर्वक यह बताइये कि [ श्रीशंकरजीके भ्रूमध्यसे प्रकट] उस पुरुषके द्वारा मुक्त किया गया राहु कहाँ गया ? ॥ 1-2 ॥

सूतजी बोले- अमित बुद्धिवाले व्यासजीका वचन सुनकर ब्रह्माके पुत्र महामुनि सनत्कुमार प्रसन्नचित होकर कहने लगे-॥3॥

सनत्कुमार बोले- वह राहु उस पुरुषके द्वारा वर्वर स्थानपर मुक्त कर दिया गया, इसलिये वह वर्वर नामसे पृथ्वीपर विख्यात हुआ ॥ 4 ॥

तब [उस पुरुषके द्वारा इस प्रकार छुटकारा प्राप्त करनेपर] वह अपना नया जन्म मानता हुआ फिर गर्वरहित हो शनैः-शनैः जलन्धरके नगरमें पहुँचा ll 5 ll हे व्यास! उसने वहाँ जाकर दैत्येन्द्र जलन्धरसे शंकरकी सारी चेष्टाका वर्णन विस्तारपूर्वक किया ॥ 6 ॥


उसे सुनकर दैत्यराजोंमें श्रेष्ठ बलवान् सिन्धुपुत्र जलन्धर क्रोधसे व्याकुल हो उठा ॥ 7 ॥ तय क्रोधके वशीभूत चिरवाले उस देवेन्द्र समस्त दैत्योंको युद्धके लिये उद्यत होनेका आदेश दिया ॥ 8 ॥

जलन्धर बोला- कालनेमि आदि एवं शुम्भ निशुम्भ आदि सभी वरदाय अपनी अपनी सेनाओंसे युक्त होकर [युद्धके लिये ] निकलें ॥ 9 ll

वीरकुलमें उत्पन्न एक करोड़ कम्बुवंशीय. दबंद, कालक, कालकेय, मौर्य तथा धौम्रगण भी शीघ्र चलें ॥ 10 ॥

महाप्रतापी सिन्धुपुत्र वह दैत्यपति इस प्रकार आज्ञा देकर करोड़ों दैत्योंको साथ लेकर शीघ्र ही 'चल पड़ा ॥ 11 ॥शुक्र एवं कटे हुए सिरवाला राहु उसके आगे आगे चलने लगे। उसी समय जलन्धरका मुकुट वेगसे खिसककर पृथ्वीपर गिर पड़ा और समस्त आकाशमण्डल वर्षाकालके समान मेघोंसे आच्छन्न हो गया तथा मृत्युसूचक बहुत से भयानक अपशकुन होने लगे ।। 12-13 ।।

तब उसकी इस प्रकारकी युद्धकी तैयारी देखकर इन्द्रसहित वे देवता छिपकर शिवजीके निवासस्थान कैलास पर्वतपर गये। वहाँ जाकर इन्द्रसहित सभी देवता शिवजीको देखकर उन्हें प्रणामकर कंधा झुकाये हुए हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे- ॥ 14-15 ॥

देवता बोले- हे देवदेव! महादेव! हे करुणाकर! हे शंकर! आपको प्रणाम है। हे महेशान! हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये। हे प्रभो इन्द्रसहित हमलोग जलन्धरद्वारा किये गये उपद्रवसे अत्यन्त व्याकुल हो गये हैं और अपना-अपना स्थान छोड़कर पृथ्वीपर स्थित हैं ।। 16-17 ।।

हे प्रभो! हे स्वामिन्! आप देवताओंकी इस विपत्तिको कैसे नहीं जानते ? अतः आप हमलोगोंकी रक्षाके लिये जलन्धरका वध कीजिये ॥ 18 ॥

हे नाथ! आपने जो पूर्वसमयमें हमलोगों की रक्षाके लिये विष्णुजीको नियुक्त किया था, इस समय वे भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं हैं। अब वे भी उसके अधीन होकर लक्ष्मीके साथ उसके घरमें रहते हैं और हम देवगण भी उसके वशवर्ती होकर वहीं रहते हैं ।। 19-20 ll

हे शम्भो हमलोग छिपकर आपकी शरणमें आये हैं, इस समय वह बलवान् जलन्धर आपसे युद्ध करनेके लिये आ रहा है। अतः हे स्वामिन्! हे सर्व आप शीघ्र ही युद्धमें उस जलन्धरका वध कीजिये और हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ।। 21-22 ॥

सनत्कुमार बोले [हे व्यास!] ऐसा कहकर - | वे सभी देवता प्रभुको प्रणामकर उन महेश्वरके चरण देखते हुए विनम्र हो वहीं स्थित हो गये ॥ 23 ॥

तब देवगणोंका यह वचन सुनकर शिवजी हँसकर विष्णुको शीघ्रतासे बुलाकर यह वचन कहने लगे - ॥ 24 ॥ईश्वर बोले- हे हृषीकेश! हे महाविष्णो! जलन्धरसे सन्त्रस्त हुए ये देवगण अत्यन्त व्याकुल होकर यहाँ मेरी शरणमें आये हुए हैं। हे विष्णो! आपने युद्धमें जलन्धरका वध क्यों नहीं किया और आप स्वयं भी अपना वैकुण्ठ छोड़कर उसके घर चले गये हैं। स्वयं स्वतन्त्र होकर विहार करनेवाले मैंने दुष्टोंके निग्रहके लिये तथा सज्जनोंकी रक्षाके लिये आपको नियुक्त किया था ।। 25-27 ॥

सनत्कुमार बोले- शंकरका यह वचन सुनकर गरुडध्वज विष्णु विनम्र हो सिर झुकाये हुए हाथ जोड़कर कहने लगे- ॥ 28 ॥

विष्णुजी बोले- हे प्रभो! आपके अंशसे प्रकट होने तथा लक्ष्मीजीका भाई होनेके कारण मैंने युद्धमें उसका वध नहीं किया, अब आप ही इस दानवका वध कीजिये ॥ 29 ॥

हे देवेश ! वह महाबली तथा महावीर दानव सभी देवताओं तथा अन्य लोगोंके लिये भी अजेय है, मैं यह सत्य कह रहा हूँ। देवताओं सहित मैंने बहुत समयतक उसके साथ युद्ध किया, परंतु मेरा कोई भी उपाय उस दानवश्रेष्ठपर नहीं चला। उसके पराक्रमसे सन्तुष्ट होकर मैंने उससे कहा- वर माँगो; तब उसने मेरा वचन सुनकर यह उत्तम वरदान माँगा है महाविष्णो! आप देवताओं एवं मेरी भगिनी लक्ष्मीके साथ मेरे घरमें निवास करें और मेरे अधीन रहें, अतः मैं उसके घर चला गया ॥ 30-33 ॥ सनत्कुमार बोले- विष्णुजीका यह वचन सुनकर दयालु तथा भक्तवत्सल वे महेश्वर शंकर अतिप्रसन्न होकर हँसकर कहने लगे- ॥ 34 ॥

महेश्वर बोले- हे विष्णो! हे सुरश्रेष्ठ! आप मेरी बातको आदरपूर्वक सुनिये। मैं महादैत्य जलन्धरका वध करूँगा, इसमें सन्देह नहीं है। उस असुरपतिको | मारा गया समझकर आप भयरहित हो अपने स्थानको जाइये और सभी देवता भी भयमुक्त तथा सन्देहरहित होकर अपने स्थानको जायें । ll 35-36 ॥

सनत्कुमार बोले- महेश्वरका यह वचन सुनकर रमापति विष्णु सन्देहरहित हो देवगणोंके साथ अपने स्थानको चले गये। हे व्यास! इसी बीच वह अतिपराक्रमी तथा बलवान् दैत्यपति युद्धके लिये तत्पर असुरोंके साथ कैलासके समीप पहुँचा और कैलासको घेरकर तीव्र सिंहनाद करता हुआ कालके समान वह महती सेनाके साथ वहीं रुक गया ll 37-39 ॥

उसके बाद दैत्योंक हादसे उत्पन्न महाकोलाहल सुनकर दुष्टोंका संहार करनेवाले तथा महालीला करनेवाले महेश्वर अत्यन्त क्रोधित हो उठे ॥ 40 ॥ तब महालीला करनेवाले कौतुकी महादेवने महाबलवान् नन्दी आदि अपने गणको युद्धके लिये आज्ञा दी ।। 41 ।।

तब शिवजीकी आज्ञासे नन्दी, गजमुख आदि प्रमुख सेनापति तथा सभी गण बड़ी शीघ्रतासे युद्धके लिये तत्पर हो गये। वे सभी महावीर गण युद्धके लिये क्रोधसे दुर्मद हो नाना प्रकारके युद्धसम्बन्धी शब्द करते हुए कैलास पर्वतसे उतरे ।। 42-43 ।।

उसके बाद कैलासकी उपत्यकाओंमें प्रमथगणों और दैत्योंमें अस्त्र-शस्त्रोंसे घोर युद्ध होने लगा ।। 44 ।।

उस समय वीरोंमें हर्ष उत्पन्न करनेवाली भेरी, मृदंग तथा शंखोंकी ध्वनियों और हाथी, घोड़े तथा रथोंके शब्दोंसे नादित हुई पृथ्वी कम्पित हो उठी ॥ 45 ॥

शक्ति, तोमर, बाण, मूसल, प्राश एवं पट्टिशोंसे आकाशमण्डल मोतियोंसे भरा हुआ जैसा लगने लगा ll 46 ॥

मरे हुए हाथी, घोड़े एवं पैदल सेनाओंके द्वारा पृथ्वी इस प्रकार पट गयी, जैसे पूर्व समयमें [इन्द्रके] वज्रसे आहत हुए पर्वतराजोंसे पटी हुई थी ॥ 47 ॥

उस समय प्रमथोंके द्वारा मारे गये दैत्यों एवं दैत्योंके द्वारा मारे गये प्रमथोंके मज्जा, रक्त एवं मांसके कीचड़से पृथ्वी व्याप्त हो गयी, जिससे उसपर चलना असम्भव हो गया। तब शुक्राचार्य प्रमथगणोंके द्वारा युद्धमें मारे गये दैत्योंको मृतसंजीवनी विद्याके प्रभावसे बारंबार जिलाने लगे। उन्हें इस प्रकार जीवित होते देखकर व्याकुल तथा भयभीत सभी गणोंने देवदेव शिवजीसे शुक्राचार्यकी सारी घटना निवेदित की ।। 48-50 ॥यह सुनकर भगवान् रुद्रने अत्यधिक क्रोध किया और दिशाओंको प्रज्वलित करते हुए वे भयंकर तथा अत्यधिक रौद्ररूपवाले हो गये। उस समय रुद्रके मुखसे महाभयंकर कृत्या प्रकट हो गयी। ताह वृक्षके समान उसकी जाँघें थीं। गुफाके समान उसका मुख था और उसके स्तनसे बड़े-बड़े वृक्ष टूट जाते थे। ll 51-52 ॥

हे मुनिसत्तम! महाभयंकर वह कृत्या बड़े वेगसे युद्धभूमिमें आ गयी और महान् असुरोंका भक्षण करती हुई विचरण करने लगी। इसके बाद वह निर्भय होकर शीघ्र ही वहाँ जा पहुँची, जहाँ महान् दैत्योंसे घिरे हुए शुक्राचार्य थे हे मुने! वह अपने तेजसे आकाश एवं पृथ्वीको व्याप्तकर शुक्रको अपने गुह्यदेशमें छिपाकर आकाशमें अन्तर्धान हो गयी ॥ 53-55 ॥

तब युद्धदुर्मद दैत्यसेनाके वीर शुक्राचार्यको तिरोहित देखकर मलिनमुख होकर रणभूमिसे भागने लगे ॥ 56 ॥

शिवगणोंसे भयभीत हुई असुरोंकी सेना वायुके वेगसे बिखरे हुए तृणसमूहकी भाँति भागने लगी ।। 57 ॥

इस प्रकार गणोंके भयसे दैत्योंकी सेनाको छिन्न-भिन्न होते देखकर सेनापति निशुम्भ, शुम्भ एवं कालनेमिको महान् क्रोध हुआ। उन महाबली तीनों सेनापतियोंने वर्षाकालीन मेघके समान बाणोंकी वृष्टि करते हुए गणोंकी सेनाको भगाना प्रारम्भ किया। उन असुरोंके वाण शलभसमूहोंकी भाँति आकाश तथा सभी दिशाओंको व्याप्तकर गणोंकी सेनाको कंपाने लगे । ll 58- 60 ॥

सैकड़ों बाणोंसे बंधे हुए तथा रुधिरकी धारा बहाते हुए शिवगण वसन्त ऋतुमें किंशुकके पुष्पकी भाँति सुशोभित हो रहे थे और उन्हें कुछ भी न हो पा रहा था। इस प्रकार अपनी सेनाको छिन्न भिन्न होते देखकर कुपित हुए गणेश, कार्तिकेय एवं नन्दी आदि महाक्रोधकर बड़ी शीघ्रतासे उन महादैत्योंको रोकने लगे ।। 61-62 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य