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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 2 (सती खण्ड) , अध्याय 18 - Sanhita 2, Khand 2 (सती खण्ड) , Adhyaya 18

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देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह

नारदजी बोले - जब आप भगवान् रुद्रके पास गये, तब क्या चरित्र हुआ, हे तात! कौन सी बात हुई और शिवजीने स्वयं क्या किया ? ॥ 1 ब्रह्माजी बोले- हे नारद! तदनन्तर मैं हिमालय पर्वतके कैलास शिखरपर रहनेवाले परमेश्वर |महादेव शिवजीको लानेके लिये प्रसन्नतापूर्वक उनके समीप गया ॥ 2 ॥वृषभध्वज शिवजी मुझ लोककर्ताको आते हुए | देखकर अपने मनमें सतीकी प्राप्तिके विषयमें बार बार संशय करने लगे ॥ 3 ॥

तत्पश्चात् शिवजी प्रीतिपूर्वक अपनी लीलासे और सतीकी भक्तिसे लोकगतिका आश्रय लेकर सामान्य मनुष्यके समान मुझसे शीघ्र कहने लगे- ॥ 4 ॥ ईश्वर बोले – हे सुरश्रेष्ठ! आपके पुत्र दक्षप्रजापतिने सतीको मुझे प्रदान करनेके विषयमें क्या किया, आप मुझसे कहिये, जिससे कामके कारण मेरा हृदय विदीर्ण न हो जाय ॥ 5 ॥

हे सुरश्रेष्ठ! किसी अन्य प्राणधारिणी कामिनीको छोड़कर केवल सतीकी ओर दौड़ता हुआ यह वियोग मुझे अत्यन्त पीड़ित कर रहा है ॥ 6 ॥

हे ब्रह्मन् ! मैं सदा 'सती-सती' ऐसा कहता हुआ कार्योंको करता हूँ, उस सतीके पास जाकर आप मेरी व्यथाको कहें। वह सती मुझसे अभिन्न है। हे विधे। अतः उसकी प्राप्तिके लिये आप यत्न कीजिये। अथवा सतीकी प्राप्तिके निमित्त उपाय बताइये, जिसे मैं शीघ्र ही करूँ ॥ 7 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे नारद मुने। रुद्रके द्वारा कहे गये लोकाचारयुक्त वचनको सुनकर उन्हें सान्त्वना देते हुए मैं कहने लगा ॥ 8 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे वृषभध्वज ! सतीके लिये मेरे पुत्र दक्षने जो बात कही है, उसे सुनिये और जिस कार्यको आप अपने लिये असाध्य मान रहे हैं, उसे | सिद्ध हुआ समझिये ॥ 9 ॥

[दक्षने मुझसे कहा कि हे ब्रह्मन्!] मैं अपनी पुत्री भगवान् शिवके हाथोंमें ही दूंगा; क्योंकि उन्होंके लिये यह उत्पन्न हुई है। यह कार्य मुझे स्वयं अभीष्ट है, फिर आपके भी कहनेसे इसका महत्त्व और बढ़ गया है ॥ 10 ॥

मेरी पुत्रीने स्वयं इसी उद्देश्यसे भगवान् शिवको पूजा की थी और इस समय शिवजी भी इसी विषयमें पूछ-ताछ कर रहे हैं। इसलिये मुझे अपनी कन्या शिवजीके हाथमें अवश्य देनी है ॥ 11 ॥

हे विधे! वे शंकर शुभ लग्न और सुन्दर मुहूर्तमें मेरे यहाँ पधारें, जिससे में उन्हें भिक्षारूपमें अपनी कन्या प्रदान करूँ ॥ 12 ॥हे वृषभध्वज दक्षने मुझसे ऐसी बात कही है, अतः आप शुभ मुहूर्तमें उनके घर चलिये और सतीको ले आइये ॥ 13 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने! मेरी यह बात सुनकर भक्तवत्सल भगवान् रुद्र लौकिक गतिका आश्रय लेकर हँसते हुए मुझसे कहने लगे- ॥ 14 ॥

रुद्र बोले- जगत्की रचना करनेवाले हे ब्रह्मन् । मैं आपके और नारदके साथ ही दक्षके घर चलूँगा, अतः आप नारदका स्मरण करें और अपने मरीचि आदि मानसपुत्रोंका भी स्मरण करें, हे विधे। मैं अपने गणसहित उन सबके साथ दक्षके घर चलूँगा ॥ 15-16 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] लोकाचारके निर्वाहमें लगे हुए भगवान् शिवजीके इस प्रकार आज्ञा देनेपर मैंने आप नारदका और मरीचि आदि पुत्रोंका स्मरण किया 17

तब मेरे स्मरण करते ही आपके साथ मेरे सभी मानसपुत्र प्रसन्न होकर आदरपूर्वक शीघ्र ही वहाँ उपस्थित हो गये ॥ 18 ॥ भगवान् रुद्रके स्मरण करनेपर शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ वे विष्णु भी अपने सैनिकों तथा कमला लक्ष्मीके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो तुरंत ही वहाँ आ गये ॥ 19 ॥ तदनन्तर चैत्र शुक्लपक्ष त्रयोदशीमें रविवारको पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्रमें उन महेश्वरने [विवाहके लिये] यात्रा की ॥ 20 ॥

ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओं और ऋषियोंके साथ मार्गमें चलते हुए वे शिवजी बहुत | शोभा पा रहे थे ॥ 21 ॥

वहाँ जाते हुए देवताओं, मुनियों तथा आनन्दमग्न मनवाले प्रमथगणोंका मार्गमें महान् उत्सव हो रहा था ॥ 22 ॥

शिवजीको इच्छा गज, वृषभ, व्याघ्र, सर्प, जटा और चन्द्रकला - ये सब उनके लिये यथायोग्य आभूषण बन गये ॥ 23 ॥

तदनन्तर वेगसे चलनेवाले बलीवर्द (बैल) पर आरूढ़ हुए महादेवजी विष्णु आदिको साथ लिये क्षणभरमै प्रसन्नतापूर्वक दक्षके घर जा पहुँचे ॥ 24॥तब हर्षके कारण रोमांचित और विनीत चित्तवाले | दक्ष समस्त आत्मीय जनोंके साथ [भगवान् शिवकी अगवानीके लिये] उनके सामने आये ॥ 25 ॥ दक्षने वहाँ समस्त देवताओंका सत्कार किया।

ये सब लोग सुरश्रेष्ठ शिवजीको बिठाकर उनके पार्श्वभागमें स्वयं भी मुनियोंके साथ यथाक्रम बैट गये ॥ 26 ॥

इसके पश्चात् दक्ष मुनिसहित समस्त देवताओं तथा गणोंको साथ लेकर भगवान् शिवको घरके भीतर ले गये ।। 27 ।।

उस समय दक्षने प्रसन्नचित्त होकर उत्तम आसन देकर स्वयं ही विधिपूर्वक सर्वेश्वर शिवजीका पूजन किया। तत्पश्चात् उन्होंने विष्णुका, मेरा ब्राह्मणोंका, देवताओंका और समस्त शिवगणोंका भी यथोचित विधिसे उत्तम भक्तिभावके साथ पूजन किया ।। 28-29 ।।

इस तरह पूजनीय पुरुषों तथा अन्य लोगोंसहित उनका पूजन करके दक्षने मेरे मानसपुत्र [ मरीचि आदि] मुनियोंके साथ मन्त्रणा की ॥ 30 ॥

इसके बाद मेरे पुत्र दक्षने मुझ पिताको प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक कहा- विभो ! आप ही वैवाहिक कार्य करायें ॥ 31 ॥

तब मैं प्रसन्न मनसे 'बहुत अच्छा'- ऐसा कहकर उठ करके वह समस्त कार्य कराने लगा ॥ 32 ॥

तदनन्तर दक्षने ग्रहोंके बलसे युक्त शुभ लग्न और मुहूर्तमें हर्षपूर्वक शिवजीको अपनी पुत्री सती प्रदान कर दी ॥ 33 ॥

उन शिवजीने भी उस समय हर्षित होकर सुन्दर | शरीरवाली दक्षपुत्रीका वैवाहिक विधिसे पाणिग्रहण किया ।। 34 ।।

उस समय मैंने श्रीहरि विष्णुने, आपने, अन्य मुनियोंने, देवताओंने और प्रमथगणोंने भगवान् |शिवजीको प्रणाम किया और [ अनेक प्रकारको ] स्तुतियोंद्वारा उन्हें सन्तुष्ट किया ॥ 35 ॥ उस समय नाच-गानेके साथ महान् उत्सव
हुआ और समस्त देवता तथा मुनिगण परम आनन्दित
हुए ।। 36 ।।इस प्रकार मेरे पुत्र दक्ष [ शिवजीको] पुत्री प्रदान करके कृतार्थ हो गये। शिवा और शिव प्रसन्न हुए तथा सब कुछ मंगलमय हो गया ॥ 37 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] सतीचरित्रवर्णन, दक्षयज्ञविध्वंसका संक्षिप्त वृत्तान्त तथा सतीका पार्वतीरूपमें हिमालयके यहाँ जन्म लेना
  2. [अध्याय 2] सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् देवी सन्ध्या तथा कामदेवका प्राकट्य
  3. [अध्याय 3] कामदेवको विविध नामों एवं वरोंकी प्राप्ति कामके प्रभावसे ब्रह्मा तथा ऋषिगणोंका मुग्ध होना, धर्मद्वारा स्तुति करनेपर भगवान् शिवका प्राकट्य और ब्रह्मा तथा ऋषियोंको समझाना, ब्रह्मा तथा ऋषियोंसे अग्निष्वात्त आदि पितृगणोंकी उत्पत्ति, ब्रह्माद्वारा कामको शापकी प्राप्ति तथा निवारणका उपाय
  4. [अध्याय 4] कामदेवके विवाहका वर्णन
  5. [अध्याय 5] ब्रह्माकी मानसपुत्री कुमारी सन्ध्याका आख्यान
  6. [अध्याय 6] सन्ध्याद्वारा तपस्या करना, प्रसन्न हो भगवान् शिवका उसे दर्शन देना, सन्ध्याद्वारा की गयी शिवस्तुति, सन्ध्याको अनेक वरोंकी प्राप्ति तथा महर्षि मेधातिथिके यज्ञमें जानेका आदेश प्राप्त होना
  7. [अध्याय 7] महर्षि मेधातिथिकी यज्ञाग्निमें सन्ध्याद्वारा शरीरत्याग, पुनः अरुन्धतीके रूपमें ज्ञाग्नि उत्पत्ति एवं वसिष्ठमुनिके साथ उसका विवाह
  8. [अध्याय 8] कामदेवके सहचर वसन्तके आविर्भावका वर्णन
  9. [अध्याय 9] कामदेवद्वारा भगवान् शिवको विचलित न कर पाना, ब्रह्माजीद्वारा कामदेवके सहायक मारगणोंकी उत्पत्ति; ब्रह्माजीका उन सबको शिवके पास भेजना, उनका वहाँ विफल होना, गणोंसहित कामदेवका वापस अपने आश्रमको लौटना
  10. [अध्याय 10] ब्रह्मा और विष्णुके संवादमें शिवमाहात्म्यका वर्णन
  11. [अध्याय 11] ब्रह्माद्वारा जगदम्बिका शिवाकी स्तुति तथा वरकी प्राप्ति
  12. [अध्याय 12] दक्षप्रजापतिका तपस्याके प्रभावसे शक्तिका दर्शन और उनसे रुद्रमोहनकी प्रार्थना करना
  13. [अध्याय 13] ब्रह्माकी आज्ञासे दक्षद्वारा मैथुनी सृष्टिका आरम्भ, अपने पुत्र हर्यश्वों तथा सबलाश्वोंको निवृत्तिमार्गमें भेजने के कारण दक्षका नारदको शाप देना
  14. [अध्याय 14] दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्षके यहाँ देवी शिवा (सती) - का प्राकट्य, सतीकी बाललीलाका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सतीद्वारा नन्दा व्रतका अनुष्ठान तथा देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  16. [अध्याय 16] ब्रह्मा और विष्णुद्वारा शिवसे विवाहके लिये प्रार्थना करना तथा उनकी इसके लिये स्वीकृति
  17. [अध्याय 17] भगवान् शिवद्वारा सतीको वरप्राप्ति और शिवका ब्रह्माजीको दक्ष प्रजापतिके पास भेजना
  18. [अध्याय 18] देवताओं और मुनियोंसहित भगवान् शिवका दक्षके घर जाना, दक्षद्वारा सबका सत्कार एवं सती तथा शिवका विवाह
  19. [अध्याय 19] शिवका सतीके साथ विवाह, विवाहके समय शम्भुकी मायासे ब्रह्माका मोहित होना और विष्णुद्वारा शिवतत्त्वका निरूपण
  20. [अध्याय 20] ब्रह्माजीका 'रुद्रशिर' नाम पड़नेका कारण, सती एवं शिवका विवाहोत्सव, विवाहके अनन्तर शिव और सतीका वृषभारूढ़ हो कैलासके लिये प्रस्थान
  21. [अध्याय 21] कैलास पर्वत पर भगवान् शिव एवं सतीकी मधुर लीलाएँ
  22. [अध्याय 22] सती और शिवका बिहार- वर्णन
  23. [अध्याय 23] सतीके पूछनेपर शिवद्वारा भक्तिकी महिमा तथा नवधा भक्तिका निरूपण
  24. [अध्याय 24] दण्डकारण्यमें शिवको रामके प्रति मस्तक झुकाते देख सतीका मोह तथा शिवकी आज्ञासे उनके द्वारा रामकी परीक्षा
  25. [अध्याय 25] श्रीशिवके द्वारा गोलोकधाममें श्रीविष्णुका गोपेशके पदपर अभिषेक, श्रीरामद्वारा सतीके मनका सन्देह दूर करना, शिवद्वारा सतीका मानसिक रूपसे परित्याग
  26. [अध्याय 26] सतीके उपाख्यानमें शिवके साथ दक्षका विरोधवर्णन
  27. [अध्याय 27] दक्षप्रजापतिद्वारा महान् यज्ञका प्रारम्भ, यज्ञमें दक्षद्वारा शिवके न बुलाये जानेपर दधीचिद्वारा दक्षकी भर्त्सना करना, दक्षके द्वारा शिव-निन्दा करनेपर दधीचिका वहाँसे प्रस्थान
  28. [अध्याय 28] दक्षयज्ञका समाचार पाकर एवं शिवकी आज्ञा प्राप्तकर देवी सतीका शिवगणोंके साथ पिताके यज्ञमण्डपके लिये प्रस्थान
  29. [अध्याय 29] यज्ञशाला में शिवका भाग न देखकर तथा दक्षद्वारा शिवनिन्दा सुनकर क्रुद्ध हो सतीका दक्ष तथा देवताओंको फटकारना और प्राणत्यागका निश्चय
  30. [अध्याय 30] दक्षयज्ञमें सतीका योगाग्निसे अपने शरीरको भस्म कर देना, भृगुद्वारा यज्ञकुण्डसे ऋभुओंको प्रकट करना, ऋभुओं और शंकरके गणोंका युद्ध, भयभीत गणोंका पलायित होना
  31. [अध्याय 31] यज्ञमण्डपमें आकाशवाणीद्वारा दक्षको फटकारना तथा देवताओंको सावधान करना
  32. [अध्याय 32] सतीके दग्ध होनेका समाचार सुनकर कुपित हुए शिवका अपनी जटासे वीरभद्र और महाकालीको प्रकट करके उन्हें यज्ञ विध्वंस करनेकी आज्ञा देना
  33. [अध्याय 33] गणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ विध्वंसके लिये प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] दक्ष तथा देवताओंका अनेक अपशकुनों एवं उत्पात सूचक लक्षणोंको देखकर भयभीत होना
  35. [अध्याय 35] दक्षद्वारा यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान्‌का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन
  36. [अध्याय 36] युद्धमें शिवगणोंसे पराजित हो देवताओंका पलायन, इन्द्र आदिके पूछनेपर बृहस्पतिका रुद्रदेवकी अजेयता बताना, वीरभद्रका देवताओंको बुद्धके लिये ललकारना, श्रीविष्णु और वीरभद्रकी बातचीत
  37. [अध्याय 37] गणसहित वीरभद्रद्वारा दक्षयज्ञका विध्वंस, दक्षवध, वीरभद्रका वापस कैलास पर्वतपर जाना, प्रसन्न भगवान् शिवद्वारा उसे गणाध्यक्ष पद प्रदान करना
  38. [अध्याय 38] दधीचि मुनि और राजा ध्रुवके विवादका इतिहास, शुक्राचार्यद्वारा दधीचिको महामृत्युंजयमन्त्रका उपदेश, मृत्युंजयमन्त्र के अनुष्ठानसे दधीचिको अवध्यताकी प्राप्ति
  39. [अध्याय 39] श्रीविष्णु और देवताओंसे अपराजित दधीचिद्वारा देवताओंको शाप देना तथा राजा ध्रुवपर अनुग्रह करना
  40. [अध्याय 40] देवताओंसहित ब्रह्माका विष्णुलोकमें जाकर अपना दुःख निवेदन करना, उन सभीको लेकर विष्णुका कैलासगमन तथा भगवान् शिवसे मिलना
  41. [अध्याय 41] देवताओं द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  42. [अध्याय 42] भगवान् शिवका देवता आदिपर अनुग्रह, दक्षयज्ञ मण्डपमें पधारकर दक्षको जीवित करना तथा दक्ष और विष्णु आदिद्वारा शिवकी स्तुति
  43. [अध्याय 43] भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवोंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, देवताओंका अपने-अपने लोकोंको प्रस्थान तथा सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य