विष्णु आदि बोले- हे देवदेव! हे महादेव ! लोकाचारका प्रदर्शन करनेवाले हे प्रभो! आपकी कृपासे हमलोग आप परमेश्वर शम्भुको परम ब्रह्म मानते हैं ॥ 1 ॥हे परमेश्वर! हे तात! आप सम्पूर्ण संसारको | मोहनेवाली अपनी उत्कृष्ट तथा दुर्जेय मायासे हमें क्यों मोहित कर रहे हैं? ॥ 2 ॥
आप संसारके योनि एवं बीजभूत प्रकृति तथा पुरुषसे भी परे हैं। आप परब्रह्म हैं एवं मन तथा वाणीके विषयसे परे हैं ॥ 3 ॥
आप ही अपनी इच्छासे इस विश्वका सृजन करते हैं, पालन करते हैं तथा संहार भी करते हैं। जैसे मकड़ी अपने मुंहसे जाला बनाती है तथा उसको पुनः समेट लेती है, उसी प्रकार आप भी अपनी शक्तिके द्वारा अनेक प्रकारकी क्रीड़ाएँ करते रहते हैं ॥ 4 ll
हे ईशान! हे विभो ! आपने ही दयालु होकर | वेदत्रयीकी रक्षाके लिये दक्षरूपी सूत्रके द्वारा यज्ञकी रचना की है ॥ 5 ॥
आपने ही संसारमें उन [वैदिक) मर्यादाओंकी स्थापना की है, जिनपर वेदमार्गपरायण तथा दृढ़ व्रतका पालन करनेवाले ब्राह्मण लोग श्रद्धा करते हैं ॥ 6 ॥
हे विभो ! आप ही मंगलोंके कर्ता हैं, आप ही अपनों और दूसरोंको सुख प्रदान करनेवाले हैं और आप ही अमंगलौका भी हितकारी अथवा अहितकारी या मिश्रित फल देनेवाले हैं ॥ 7 ॥
हे प्रभो! आप ही सदा सब कर्मोंका फल प्रदान करनेवाले हैं। जगत्के समस्त प्राणी पशु कहे गये हैं, उनकी रक्षाके कारण ही आपका नाम पशुपति है ऐसा वेदोंमें कहा गया है ॥ 8 ॥
आपसे भिन्न बुद्धि होनेके कारण ही कर्मपर विश्वास करनेवाले, मर्मभेदी वचन बोलनेवाले, दुरात्मा, दुर्बुद्धि लोग ही ईर्ष्यावश कटुवाक्योंसे दूसरोंको कष्ट पहुँचाते हैं ॥ 9 ॥
हे विभो। दुर्दैवाद्वारा मारे गये उन लोगोंका अथ क्या आपके द्वारा होना चाहिये, हे भगवन्! हे परमेशन! हे परप्रभो! आप कृपा कीजिये ॥ 10 ॥
परम शान्त, रुद्र ब्रह्मको नमस्कार परमात्मा, जटाधारी, स्वयंप्रकाश महान् महेशको हमारा नमस्कार है ॥ 11 ॥
आप ही प्रजापतियोंके स्रष्टा, धाता, प्रपितामह, त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम)-स्वरूप, निर्गुण एवं प्रकृति तथा पुरुषसे परे हैं ॥ 12 ॥नीलकण्ठ, विधाता, परमात्मा, विश्व विश्वके बी और जगत्के आनन्दभूत आपको नमस्कार है ।। 13 ।। [हे प्रभो!] आप ही ॐकार वषट्कार, सभीके आदिप्रवर्तक, हन्तकार, स्वधाकार एवं हव्य कव्यके सदा भोक्ता हैं ॥ 14 ॥
हे धर्मपरायण! आपने इस यज्ञका विध्वंस क्यों किया? हे महादेव! आप तो ब्राह्मणोंके रक्षक हैं, तब है विभो ! आप इस यज्ञके विनाशक कैसे बन गये ? ॥ 15 ॥
हे प्रभो! आप ब्राह्मण, गौ तथा धर्मकी रक्षा करनेवाले एवं सभी प्राणियोंको शरण प्रदान करनेवाले तथा अनन्त हैं ॥ 16 ॥
हे भगवन्! हे रुद्र ! हे सूर्यके समान अमित तेजवाले! आपको प्रणाम है। रसरूप, जलरूप, जगन्मय स्वरूप आप भव देवताको नमस्कार है ll 17 ll
सुगन्धवाले पृथ्वीस्वरूप आप शर्वको नमस्कार है। अग्निस्वरूप महातेजस्वी आप रुद्रको नमस्कार है ॥ 18ll
आप वायुरूप, स्पर्शरूप ईश्वरको नमस्कार है, आप पशुओंके पति, यजमान एवं विधाताको नमस्कार है ॥ 19 ॥ आकाशस्वरूप शब्दवाले आप भीमको नमस्कार है। सोमस्वरूपसे कर्ममें प्रवृत्त करनेवाले आप महादेवको
नमस्कार है ॥ 20 ॥
आप उग्र, सूर्यरूप कर्मयोगीको नमस्कार है। है रुद्र! कालोंके भी काल एवं क्रोधस्वरूप आपके लिये नमस्कार है ॥ 21 ॥ शिव, भीम एवं कल्याण करनेवाले आप शिव
शंकरको नमस्कार है। [ हे प्रभो!] आप उग्र हैं, सभी
प्राणियोंके नियन्ता हैं एवं हमारा कल्याण करनेवाले
हैं ।। 22 ।।
आप मयस्कर [सुख प्रदान करनेवाले], विश्वरूप, ब्रह्म, दुःखोंका नाश करनेवाले, अम्बिकापति तथा उमापति हैं, आपको नमस्कार है ।। 23 ।।
शर्व, सर्वरूप, पुरुषरूप, परात्मा, सत् एवं असत्की अभिव्यक्तिसे हीन, महत्तत्त्वके कारण, संसारमें अनेक प्रकारसे उत्पन्न होनेवाले, प्रभूतस्वरूप, नीलस्वरूप, नीलरुद्र, कद्रुद्र एवं प्रचेताको बार बार नमस्कार है ।। 24-25 ॥आप मीढुष्टम, देव तथा शिपिविष्टको नमस्कार है। देवताओंके शत्रुओंको मारनेवाले तथा सर्वश्रेष्ठको नमस्कार है ॥ 26 ॥
तारकमन्त्रस्वरूप, सबका उद्धार करनेवाले, तरुणरूप, परमतेजस्वी, हरिकेश, देव महेश्वरको बार बार नमस्कार है ॥ 27 ॥
देवताओंका कल्याण करनेवाले, सभी ऐश्वयसे युक्त, परमात्मा तथा परम आपको नमस्कार है। आप कालकण्ठको नमस्कार है। सुवर्णस्वरूप, परमेश, सुवर्णमय शरीरवाले, भीम, भीमरूप एवं भीमकर्ममें रत रहनेवाले आपको नमस्कार है ।। 28-29 ॥
भस्मसे लिप्त शरीरवाले, रुद्राक्षका आभूषण धारण करनेवाले तथा हस्व-दीर्घ वामनस्वरूपवाले आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 30 ॥
हे देव! दूर रहनेवालों तथा आगे रहनेवालोंका वध करनेवाले आपको नमस्कार है। धनुष, शूल, गदा तथा हल धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। अनेक आयुधोंको धारण करनेवाले, दैत्य-दानवोंका विनाश करनेवाले, सद्य, सद्यरूप तथा सद्योजात आपको नमस्कार है। वाम, वामरूप तथा वामनेत्र आपको नमस्कार है अघोर, परेश एवं विकटको बार-बार नमस्कार है ।। 31-33 ॥
तत्पुरुष, नाथ, पुराणपुरुष, पुरुषार्थ प्रदान करनेवाले, व्रतधारी परमेष्ठीको नमस्कार है। ईशान, ईशस्वरूप | आपको बार-बार नमस्कार है। ब्रह्म, ब्रह्मस्वरूप एवं साक्षात् परमात्मस्वरूपको नमस्कार है ।। 34-35 ।।
आप उम्र हैं, सभी दुष्टोंका नियन्त्रण एवं हम देवताओंका कल्याण करनेवाले हैं। कालकूट विषका पान करनेवाले, देवताओं आदिकी रक्षा करनेवाले, वीर, वीरभद्र, वीरोंकी रक्षा करनेवाले, त्रिशूलधारी, पशुपति, महादेव, महान् आपको नमस्कार है ।। 36-37 ।।
वीरात्मा, श्रेष्ठ विद्यावाले, श्रीकण्ठ, पिनाकी, अनन्त, सूक्ष्म, मृत्यु तथा क्रोधस्वरूपवाले आपको बार-बार नमस्कार है। पर, परमेश, परसे भी पर, परात्पर, सर्वैश्वर्य सम्पन्न तथा विश्वमूर्ति आपको नमस्कार है ।। 38-39 ॥विष्णुको अपना मित्र माननेवाले, विष्णुको अपना कुटुम्ब माननेवाले, भानुकर, भैरव, सबको शरण देनेवाले, त्रिलोचन एवं [सर्वत्र] विहार करनेवाले [शिवजी] को प्रणाम है ॥ 40 ॥
मृत्युंजय, शोकस्वरूप, त्रिगुण, गुणरूप, सूर्य-चन्द्र-अग्निरूप नेत्रवाले तथा समस्त कारणोंके सेतुस्वरूप आपको नमस्कार है। आपने ही अपने तेजसे सारे जगत्को व्याप्त किया है। आप परब्रह्म, विकाररहित, चिदानन्द एवं प्रकाशवान् हैं । ll 41-42 ॥
हे महेश्वर! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, चन्द्र आदि समस्त देव तथा अन्य मुनिगण आपसे ही उत्पन्न हुए हैं ।। 43 ।।
आप ही आठ प्रकारसे अपने शरीरको विभक्तकर जगत्की रक्षा करते हैं, इस कारण आप अष्टमूर्ति हैं। आप ही ईश्वर, जगत्के आदिकारण तथा करुणामय हैं ।। 44 ।।
आपके भयसे वायु सर्वदा बहता रहता है, | आपके भवसे अग्नि जलती है, आपके भयसे सूर्य तपता है तथा आपके ही भयसे मृत्यु सर्वत्र दौड़ती रहती है ।। 45 ।।
हे दयासिन्धो! हे महेशान! हे परमेश्वर! आप प्रसन्न होइये। हमलोग नष्ट और कर्तव्यशून्य हो गये हैं, अतः हमलोगोंकी रक्षा कीजिये ।। 46 ।। हे करुणानिधान! हे नाथ! आपने सदैव ही आपत्तियोंमें हमलोगोंकी रक्षा की है। हे शम्भो ! उसी प्रकार आज भी हमलोगोंकी रक्षा कीजिये ॥ 47 हे नाथ! हे दुर्गेश ! हे कृपा करनेवाले! आप प्रजापति दक्षके अपूर्ण यज्ञका उद्धार कीजिये ॥ 48 ॥
भग देवता पूर्ववत् नेत्र प्राप्त कर लें, यजमान दक्ष जीवित हो जायें, पूषा अपने दाँतोंको पूर्ववत् प्राप्त कर लें तथा महर्षि भृगुकी दाढ़ी पूर्ववत् हो जाय ।। 49 ।।
हे शंकर शस्त्रोंसे तथा पत्थरोंसे छिन्न-भिन्न शरीरवाले तथा आपके द्वारा अनुगृहीत देवता आदिको आरोग्य प्राप्त हो जाय ll 50 ll
हे नाथ! इस शेष यज्ञकर्ममें आपका ही पूर्ण भाग हो आपके उसी भागसे ही यज्ञकी पूर्ति होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।॥ 51 llयह कहकर ब्रह्मासहित विष्णुदेव हाथ जोड़कर क्षमा करानेके लिये उद्यत हो दण्डके समान पृथिवीपर लेट गये ॥ 52 ॥