ब्रह्माजी बोले- हे नारद! इस प्रकार मेना और शैलराजको शिवमें अनन्य भक्ति देखकर इन्द्र आदि सभी देवताओंने विचार किया ॥ 1 ॥
देवता बोले- यदि हिमालय शिवजीमें अनन्य भक्तिपूर्वक शंकरजीको अपनी कन्या देंगे तो भारतमें अवश्य ही निर्वाण पद प्राप्त कर लेंगे ॥ 2 ॥
यदि इन अनन्त रत्नोंसे पूर्ण वे हिमालय वसुन्धराको त्यागकर चले जायेंगे, तो निश्चय हो इस पृथिवीका रत्नगर्भा - यह नाम व्यर्थ हो जायगा। इस स्थावररूपको छोड़कर दिव्यरूप धारणकर और अपनी कन्या शूलधारी शंकरको देकर वे अवश्य ही शिवलोक चले जायेंगे ॥ 3-4 ॥
उन्हें शिवलोक में सारूप्य मुक्ति प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं। वहाँ अनेक प्रकारके श्रेष्ठ भोगोंको भोगकर वे मुक्त हो जायेंगे ॥ 5 ll
ब्रह्माजी बोले- यह कहकर वे सभी देवता इस बातका विचारकर विस्मित हो परस्पर मन्त्रणा करके बृहस्पतिको हिमालयके पास भेजनेको इच्छा करने लगे ॥ 6 ॥
हे नारद! तब इन्द्रादि सभी देवता स्वार्थ साधनकी इच्छासे विनम्र होकर प्रीतिपूर्वक बृहस्पतिके घर गये ॥ 7 ॥ वे देवता वहाँ जाकर बृहस्पतिको प्रणाम करके
आदरपूर्वक उन गुरुसे सारा वृत्तान्त कहने लगे - ॥ 8 ॥ देवता बोले- हे गुरो! आप हमलोगोंकी कार्यसिद्धिके लिये हिमालयके पास जाइये और वहाँ जाकर प्रयत्नपूर्वक शिवकी निन्दा कीजिये ॥ 9 ॥
पार्वती शिवके अतिरिक्त किसी अन्यका वरण नहीं करेंगी और वे हिमालय बिना इच्छाके ही अपनी कन्या पार्वतीका विवाह शिवजीके साथ करेंगे और शीघ्र ही इसका फल प्राप्त कर लेंगे। हे गुरो! हमलोगोंकी इच्छा है कि हिमालय अभी पृथिवीपर निवास करें। अतः आप अनेक रत्नोंको धारण करनेवाले उन हिमालयको पृथ्वीपर स्थापित कीजिये ll 10-11 ॥ब्रह्माजी बोले- देवगणोंकी यह बात सुनकर बृहस्पतिने अपने कानोंपर हाथ रख लिया और शिवजीका नाम-स्मरण करते हुए उन्होंने इस बातको स्वीकार नहीं किया। उदारबुद्धिवाले बृहस्पति महादेवजीका स्मरणकर श्रेष्ठ देवताओंको बार-बार धिक्कारते हुए कहने लगे - ॥ 12-13 ॥
बृहस्पति बोले- हे देवताओ तुमलोग स्वार्थसाधक और दूसरेके कार्यको विनष्ट करनेवाले हो। शंकरजीको निन्दा करके मैं निश्चित रूपसे नरक चला जाऊँगा ॥ 14 ॥
इसलिये आपलोगोसे कोई हिमालयके पास जाकर हिमालयको समझाकर अपना कार्य सिद्ध करे, जिससे वे अनिच्छापूर्वक अपनी कन्या शिवजीको देकर भारतमें निवास करें; क्योंकि भक्तिपूर्वक कन्या | देकर वे निश्चित ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे ।। 15-16 ॥
बादमें सप्तर्षि पर्वतराजको समझायेंगे कि यह | पार्वती शिवजीको छोड़कर दूसरे किसीका वरण नहीं करेगी ॥ 17 ॥
अथवा हे देवताओ! आपलोग इन्द्रके साथ ब्रह्मलोकको जायें और अपना सारा वृतान्त ब्रह्माजीको बतायें, वे ही आपलोगोंका कार्य सम्पन्न करेंगे ॥ 18 ॥
ब्रह्माजी बोले- यह सुनकर और विचारकर वे सभी देवता मेरी सभामें आये और प्रणामकर आदरपूर्वक अपना सारा वृत्तान्त उन्होंने मुझसे निवेदन किया ॥ 19 ॥
हे मुने। तब देवताओंकी उस शिव निन्दाविषयक बातको सुनकर वेदवता में दुखी होकर उन देवताओंसे कहने लगा- ॥ 20 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे वत्सो मैं शिवजीको दुःसह निन्दा नहीं कर सकता है; क्योंकि शिवजीकी निन्दा सम्पत्तिका विनाश करनेवाली एवं विपत्तियोंका कारण है ॥ 21 ॥
इसलिये हे देवताओ आपलोग कैलासपर जायें और शिवको सन्तुष्ट करें तथा उन्हींको हिमालयके घर भेजिये। वे ही स्वयं हिमालयके घर जाकर अपनी निन्दा करें; क्योंकि परनिन्दा विनाशके लिये और आत्मनिन्दा यशके लिये कही गयी है॥ 22-23 ॥ब्रह्माजी बोले- वे देवता मेरी बात सुनकर प्रेमसे मुझे प्रणामकर शीघ्र ही शैलराज कैलास पर्वतपर गये ॥ 24 ॥
वहाँ जाकर शिवजीको देखकर सिर झुकाकर शिवजीको प्रणाम करके हाथ जोड़कर वे सभी देवता उन शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 25 ॥
देवता बोले- हे देवदेव! हे महादेव! हे करुणाकर! हे शंकर! हम सब आपकी शरणमें हैं, आपको प्रणाम है, हमलोगोंपर कृपा कीजिये ॥ 26 ॥ हे स्वामिन् । आप भक्तवत्सल हैं, सदा भठोंका कार्य करनेवाले, दीनोंका उद्धार करनेवाले, कृपासिन्धु और भक्तोंकी आपत्ति दूर करनेवाले हैं ॥ 27 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार इन्द्रादि देवगणोंने शिवजीकी स्तुति करके बड़े आदरके साथ अपना सारा वृत्तान्त उनसे निवेदन किया ॥ 28 ॥
देवताओंकी उस बातको सुनकर शिवजीने उसे स्वीकार कर लिया और उन्होंने हँसकर देवताओंको आश्वासन देकर उन्हें विदा कर दिया ॥ 29 ॥
तब सभी देवगण प्रसन्न हो गये और अपना कार्य सिद्ध जानकर शिवजीकी प्रशंसा करते हुए वे अपने स्थानको चले गये। तब वे भक्तवत्सल, मायेश, निर्विकार महेश्वर भगवान् शम्भु शैलराजके पास गये । ll 30-31 ॥ उस समय गिरिराज अपने बन्धुवर्गों के साथ पार्वतीसहित प्रसन्न मनसे सभामें विराजमान थे ॥ 32 ॥ उसी समय दण्ड, छत्र एवं दिव्य वस्त्र धारण किये तथा उज्ज्वल तिलक लगाये हुए भगवान सदाशिव उनकी सभामें आ गये ॥ 33 ॥ वे एक हाथमें स्फटिककी माला और गलेमें शालग्रामशिला धारण किये हुए थे। वे भली प्रकार ब्राह्मणका वेष धारणकर नारायणके नामका जप कर रहे थे ।॥ 34 उन्हें देखकर हिमालय सभासदोंके साथ खड़े हो गये और उन्होंने भूतलपर दण्डके समान पड़कर भक्ति
भावसे उन अपूर्व अतिथिको साष्टांग प्रणाम किया ।। 35 ।। ब्राह्मणवेषधारी शिवजीको अपना प्राणेश्वर समझकर पार्वतीने प्रणाम किया और हृदयसे परम प्रसन्नतासे उनकी स्तुति की ॥ 36 ॥ब्राह्मणवेष धारण करनेवाले उन सदाशिवने बड़े प्रेम पूर्वक उन सबको आशीर्वाद दिया और विशेषकर पार्वतीको हृदयसे उनका मनोवांछित आशीर्वाद प्रदान किया ॥ 37 ॥
उन ब्राह्मणने शैलाधिराज हिमवान्के द्वारा बड़े आदर के साथ दिये गये मधुपर्क आदिको प्रेमसे ग्रहण किया ॥ 38 ॥
हे मुने! इस प्रकार प्रेमपूर्वक उन द्विजेन्द्रका विधिवत् पूजन करनेके पश्चात् पर्वतश्रेष्ठ हिमालय | उनका कुशल पूछने लगे। पर्वतराजने उनसे पूछा कि आप कौन हैं? तब विप्रेन्द्र गिरिराजसे आदरपूर्वक शीघ्र यह वचन कहने लगे- ॥ 39-40 ॥
विप्रेन्द्र बोले - हे गिरिश्रेष्ठ! मैं बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ वैष्णव ब्राह्मण हूँ और ज्योतिषवृत्तिका सहारा लेकर पृथिवीतलमें विचरण करता हूँ ॥ 41 ॥
मैं अपने गुरुकी कृपासे मनके समान सर्वत्र चलनेवाला, सर्वत्र गमन करनेवाला, सर्वज्ञ, परोपकारी, शुद्ध मनवाला, दयासिन्धु तथा विकारका नाश करनेवाला हूँ ॥ 42 ॥
मुझे ज्ञात हुआ है कि आप कमलके समान, दिव्य, उत्तम रूपवाली तथा सर्वलक्षणसम्पन्न अपनी यह कन्या आश्रयरहित, असंग, कुरूप, गुणहीन, श्मशान में रहनेवाले, सर्पधारी, योगी, नग्न, मलिन शरीरवाले, सर्पका आभूषण धारण करनेवाले, अज्ञात कुल तथा नामवाले, कुशील, विहारमें रुचि न रखनेवाले, विभूतिसे लिप्त देहवाले, अत्यन्त क्रोधी, अज्ञानी, अज्ञात आयुवाले, सदा विकृत जटा धारण करनेवाले, सबको आश्रय देनेवाले, भ्रमणशील, नागों का हार पहननेवाले, भिक्षुक, कुमार्गमें निरत तथा हठपूर्वक वैदिक मार्गका त्याग करनेवाले शिवको देना चाहते हैं ।। 43-47 ।।
[हे हिमालय!] आपका यह अटल विचार अवश्य ही मंगलदायक नहीं है। नारायणकुलमें उत्पन्न तथा ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ [गिरिराज!] आप इसपर विचार कीजिये ।। 48 ।।पार्वतीके दानकर्ममें वे आपके इस दानके अनुरूप पात्र नहीं हैं। बड़े लोग इस बातको सुनकर आपकी हँसी करेंगे। देखिये, उनका कोई बन्धु बान्धव नहीं है और आप पर्वतराज हैं, उनके पास कुछ भी नहीं है और आप रत्नाकर हैं ।। 49-50 ।। हे शैलाधिराज! आप पार्वतीको छोड़कर [इस विषयमें] बान्धवोंसे, मेनासे, पुत्रोंसे और सभी पण्डितोंसे प्रयत्नपूर्वक शीघ्रतासे पूछिये ॥ 51 ॥
हे गिरिसत्तम! रोगीको सर्वदा औषधि अच्छी नहीं लगती, अपितु महादोषकारक कुपथ्य ही सदा बहुत अच्छा लगता है ॥ 52 ॥
ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर नाना प्रकारकी | लीला करनेवाले विप्ररूप शिव प्रसन्नतापूर्वक भोजनकर शान्तचित्त हो शीघ्र अपने घर चले गये ॥ 53 ॥