नारदजी बोले - हे विधे! हे महाप्राज्ञ! हे शिवतत्त्वके प्रदर्शक ! आपने अत्यन्त अद्भुत एवं रमणीय शिवलीला सुनायी है। हे तात! पराक्रमी वीरभद्र जब दक्षके यज्ञका विनाश करके कैलास पर्वतपर चले गये, तब क्या हुआ? अब उसे बताइये ॥ 1-2 ॥ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] समस्त देवता और मुनि रुद्रके सैनिकोंसे पराजित तथा छिन्न-भिन्न अंगोंवाले होकर मेरे लोकको चले गये। वहाँ मुझ स्वयम्भूको नमस्कार करके और बार-बार मेरा स्तवन करके उन्होंने अपने विशेष क्लेशको पूर्णरूपसे बताया ।। 3-4 ।।
तब उसे सुनकर मैं पुत्रशोकसे पीड़ित हो गया और अत्यन्त व्यग्र हो व्यथितचित्तसे विचार करने लगा ॥ 5 ॥ इस समय मैं कौन-सा कार्य करूँ, जो देवताओंक लिये सुखकारी हो और जिससे देव दक्ष जीवित हो जायँ तथा यज्ञ भी पूरा हो जाय ॥ 6 ॥
हे मुने। इस प्रकार बहुत विचार करनेपर जब मुझे शान्ति नहीं मिली, तब भक्तिपूर्वक विष्णुका स्मरण करते हुए मैंने उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया ॥ 7 ॥
तदनन्तर देवताओं और मुनियोंके साथ मैं विष्णुलोक में गया और उन्हें नमस्कार करके तथा अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करके अपना दुःख उनसे कहने लगा-हे देव! जिस तरह भी यज्ञ पूर्ण हो, यज्ञकर्ता [दक्ष] जीवित हों और समस्त | देवता तथा मुनि सुखी हो जायें, आप वैसा कीजिये। हे देवदेव ! हे रमानाथ! हे देवसुखदायक विष्णो! हम देवता और मुनिलोग निश्चय ही आपकी शरणमें आये हैं ॥ 8-10 ॥
ब्रह्माजी बोले-मुझ ब्रह्माकी यह बात सुनकर शिवस्वरूप लक्ष्मीपति विष्णु शिवजीका स्मरण करके दुखीचित्त होकर इस प्रकार कहने लगे- ॥ 11 ॥
विष्णु बोले- हे देवताओ! परम समर्थ तेजस्वी पुरुषसे कोई अपराध बन जाय, तो भी उसके बदले में अपराध करनेवाले मनुष्योंके लिये उनका वह अपराध मंगलकारी नहीं हो सकता हे विधे समस्त देवता परमेश्वर शिवके अपराधी हैं; क्योंकि इन्होंने उन शम्भुको यज्ञका भाग नहीं दिया । ll 12-13 ॥
अब आप सभी लोग शुद्ध हृदयसे शीघ्र ही प्रसन्न होनेवाले भगवान् शिवके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न कीजिये ll 14llजिन भगवान्के कुपित होनेपर यह सारा जगत् नष्ट हो जाता है तथा जिनके शासनसे लोकपालसहित यज्ञका जीवन शीघ्र ही समाप्त जाता है, उन प्रियाविहीन तथा अत्यन्त दुरात्मा दक्षके दुर्वचनोंसे बिंधे हुए हृदयवाले देव शंकरसे आपलोग शीघ्र ही क्षमा माँगिये ll 15-16 ॥
हे विधे। उन शम्भुकी शान्ति तथा सन्तुष्टिके लिये केवल यही महान् उपाय है-ऐसा मैं समझता हूँ। यह मैंने सच्ची बात कही है ॥ 17 ॥
हे विधे! न मैं, न तुम, न अन्य देवता, न मुनिगण और न दूसरे शरीरधारी ही जिनके बल तथा पराक्रमके तत्त्व तथा प्रमाणोंको जान पाते हैं, उन स्वतन्त्र परमात्मा परमेश्वरको विरुद्धकर प्रसन्न करनेका [प्रणिपात करनेके अतिरिक्त ] कोई दूसरा उपाय नहीं हो सकता ।। 18-19 ॥
हे ब्रह्मन् ! आपलोगोंके साथ मैं भी शिवालय चलूँगा और शिवके प्रति स्वयं अपराधी होनेपर भी उनसे क्षमा करवाऊँगा ॥ 20 ॥
ब्रह्माजी बोले- देवता आदिके साथ मुझ ब्रह्माको इस प्रकार आदेश देकर भगवान् विष्णुने देवताओंके साथ कैलासपर्वतपर जानेका विचार किया ॥ 21 ॥
देवता, मुनि, प्रजापति आदिको साथ लेकर वे विष्णु शिवजीके स्वप्रकाशस्वरूप शुभ तथा श्रेष्ठ कैलास पर्वतपर पहुँच गये ॥ 22 ॥ कैलास भगवान् शिवको सदा ही प्रिय है, वह मनुष्योंके अतिरिक्त किन्नरों, अप्सराओं तथा योगसिद्ध महात्माओंसे सेवित था और बहुत ऊँचा था 23 ॥ वह चारों ओरसे अनेक मणिमय शिखरोंसे सुशोभित था, अनेक धातुओंसे विचित्र जान पड़ता था और अनेक प्रकारके वृक्ष तथा लताओंसे भरा हुआ था ll 24 ॥
अनेक प्रकारके पशुओं-पक्षियों तथा अनेक प्रकारके झरनोंसे वह परिव्याप्त था। उसके शिखरपर सिद्धांगनाएँ अपने-अपने पतियोंके साथ विहार करती थीं। वह अनेक प्रकारकी कन्दराओं, शिखरों तथा अनेक प्रकारके वृक्षोंकी जातियोंसे सुशोभित था उसकी कान्ति चाँदीके समान श्वेतवर्णकी थी । ll 25-26 ॥वह पर्वत बड़े-बड़े व्याघ्र आदि जन्तुओंसे युक्त, भयानकतासे रहित, सम्पूर्ण शोभासे सम्पन्न, दिव्य तथा अत्यधिक आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला था ॥ 27 ॥
वह सभीको पवित्र कर देनेवाली तथा अनेक तीर्थोंका निर्माण करनेवाली विष्णुपदी सती श्रीगंगाजीसे घिरा हुआ तथा अत्यन्त निर्मल था ॥ 28 ॥
शिवजीके परम प्रिय कैलास नामक इस प्रकारके पर्वतको देखकर मुनीश्वरोंसहित विष्णु आदि देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ 29 ॥
उन देवताओंने उस कैलासके सन्निकट शिवके मित्र कुबेरकी अलका नामक परम दिव्य तथा रम्य पुरीको देखा ॥ 30 ॥
उन्होंने उसके पास ही सौगन्धिक नामक दिव्य वन भी देखा, जो अनेक प्रकारके दिव्य वृक्षोंसे शोभित था और जहाँ [पक्षियोंकी] अद्भुत ध्वनि हो रही थी ॥ 31 ॥
उससे बाहर नन्दा एवं अलकनन्दा नामक दिव्य तथा परम पावन सरिताएँ वह रही थीं, जो दर्शनमात्रसे ही [मनुष्यों के] पापोंका विनाश कर देती हैं ॥ 32 ॥ देवस्त्रियाँ प्रतिदिन अपने लोकसे आकर उनका | जल पीर्ती और स्नान करके रतिसे आकृष्ट होकर पुरुषोंके साथ विहार करती हैं ॥ 33 ॥ उसके बाद उस अलकापुरी तथा सौगन्धिक वनको छोड़कर आगे की ओर जाते हुए उन देवताओंने समीपमें ही शंकरजीके वटवृक्षको देखा ॥ 34 ॥
वह [वटवृक्ष] उस पर्वतके चारों ओर छाया फैलाये हुए था, उसकी शाखाएँ तीन ओर फैली हुई थीं, उसका घेरा सौ योजन ऊँचा था, वह घोंसलोंसे विहीन था और तापसे रहित था। उसका दर्शन [केवल ] पुण्यात्माओंको ही होता है। वह अत्यन्त रमणीय, परम पावन शिवजीका योगस्थल, दिव्य योगियोंके निवासके योग्य तथा अत्युत्तम था ।। 35-36 ।।
विष्णु आदि सभी देवताओंने महायोगमय तथा मुमुक्षुओंको शरण प्रदान करनेवाले उस करके नीचे बैठे हुए शिवजीको देखा ॥ 37 ॥
शान्त स्वभाववाले, अत्यन्त शान्त विग्रहवाले,शिवभक्तिमें तत्पर तथा महासिद्ध [सनक आदि] ब्रह्मपुत्र प्रसन्नताके साथ उनकी उपासना कर रहे थे॥ 38 ॥गुह्यकों एवं राक्षसोंके पति उनके मित्र कुबेर अपने गणों तथा कुटुम्बीजनोंके साथ विशेषरूपसे उनकी सेवा कर रहे थे। वे परमेश्वर शिव तपस्वीजनोंको प्रिय लगनेवाले सुन्दर रूपको धारण किये हुए थे, वात्सल्यके कारण वे सम्पूर्ण विश्वके मित्ररूप प्रतीत हो रहे थे और भस्म आदिसे उनके अंगोंकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ 39-40 ।।
हे मुने! आपके पूछनेपर कुशासनपर बैठे हुए वे शिव सभी सज्जनोंको सुनाते हुए आपको ज्ञानका उपदेश दे रहे थे। वे अपना बायाँ चरण अपनी दायीं जाँघेपर और बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रखे कलाईमें रुद्राक्षकी माला डाले सुन्दर तर्कमुद्रामें विराजमान थे ।। 41-42 ।।
इस प्रकारके स्वरूपवाले शिवको देखकर उस समय विष्णु आदि सभी देवताओंने शीघ्रतासे नम्रतापूर्वक दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। तब सज्जनोंके शरणदाता प्रभु रुद्रने मेरे साथ आये हुए विष्णुको देखकर उठ करके सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ।। 43-44 ।।
विष्णु आदि देवताओंने जब भगवान् शिवजीके चरणों में प्रणाम किया, तब उन्होंने भी उसी प्रकार मुझे नमस्कार किया, जिस प्रकार लोकोंको सद्गति प्रदान | करनेवाले भगवान् विष्णु कश्यपको प्रणाम करते हैं ।। 45 ।। तब शिवजीने देवताओं, सिद्धों, गणाधीशों और महर्षियोंसे नमस्कृत तथा वन्दित विष्णुसे आदरपूर्वक वार्तालाप किया ।। 46 ।।