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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 4 (कुमार खण्ड) , अध्याय 8 - Sanhita 2, Khand 4 (कुमार खण्ड) , Adhyaya 8

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देवराज इन्द्र, विष्णु तथा वीरक आदिके साथ तारकासुर का युद्ध

ब्रह्माजी बोले- हे तात! हे नारद! इस प्रकार मैंने देव-दानव सेनाओंके भयंकर युद्धका वर्णन किया, अब दोनों सेनाओंके सेनापतियों-कार्तिकेय और तारकासुरके युद्धका वर्णन सुनिये। इस प्रकार देव दानवके लिये विनाशकारी घोर संग्राममें तारकासुरने परम शक्ति अस्त्रद्वारा इन्द्रपर प्रहार किया, जिससे घायल होकर वे उसी क्षण हाथीसे गिर पड़े तथा मूच्छित हो गये। वज्र धारण करनेवाले इन्द्रको उस समय बहुत कष्ट हुआ। हे तात! उसी प्रकार अति बलवान् तथा महारणमें प्रवीण असुरोंने सभी लोकपालोंको भी पराजित कर दिया ॥ 1-4 ॥

युद्ध करते हुए दूसरे देवगण भी दैत्योंसे पराजित हो गये और उनके तेजको न सह सकनेके कारण इधर-उधर भागने लगे ॥ 5 ॥

इस प्रकार सफल उद्योगवाले विजयी असुर गर्जना करने लगे तथा सिंहनाद करते हुए कोलाहल करने लगे। इसी समय क्रोधित हो उठे वीरभद्र अपनेको वीर माननेवाले तारकासुरकी ओर पराक्रमी गणोंके साथ आये। शिवजीके कोपसे उत्पन्न बलवान् वीरभद्र देवगणोंको अपने पीछे करके स्वयं सभी गणोंके आगे होकर युद्धकी इच्छासे तारकासुरके सामने आ गये। उस समय वे सभी प्रमथगण एवं दैत्य उत्साहित होकर उस रणस्थलमें एक-दूसरेपर प्रहारकर युद्ध करने लगे ।। 6-9 ॥

रणमें कुशल वे एक-दूसरेपर त्रिशूल, ऋष्टि, पाश, खड्ग, परशु एवं पट्टिशसे प्रहार करने लगे ॥ 10 ॥ वीरभद्रने उस तारकको त्रिशूलसे अत्यधिक आहत कर दिया और वह क्षणभरमें मूच्छित होकर भूमिपर सहसा गिर पड़ा। इसके बाद उस दैत्य श्रेष्ठ तारकने मुच्छ त्यागकर बड़ी शीघ्रतासे उठकर वीरभद्रपर शक्तिसे बलपूर्वक प्रहार किया ।। 11-12 ॥

पराक्रमी तथा महातेजस्वी वीरभद्रने भी अपने घोर त्रिशूलसे शीघ्र ही उस तारकासुरपर प्रहार किया ll 13 ॥तत्पश्चात् दैत्योंके अधीश्वर तथा वीरोंमें मान्य महाबली तारकने भी रणभूमिमें वीरभद्रपर शक्तिसे प्रहार किया। इस प्रकार युद्धविद्यामें कुशल युद्ध करते हुए वे दोनों ही अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे एक दूसरेपर प्रहार करने लगे ॥ 14-15 ॥

उस समय उन दोनों वीरोंमें सबके देखते देखते ही अत्यन्त रोमांचकारी भयंकर द्वन्द्व-युद्ध होने लगा ॥ 16 ॥

तब भेरी, मृदंग, पटह, आनक तथा गोमुख बाजे बजने लगे, जिसे सुनकर वीर प्रसन्न तथा कायर व्याकुल हो गये। एक-दूसरे के प्रहारोंसे जर्जर कर दिये गये वे दोनों बड़ी सावधानीके साथ बुध तथा मंगलके समान बड़े वेगसे परस्पर युद्ध कर रहे थे। तब तारकासुरके साथ वीरभद्रका ऐसा युद्ध देखकर वहाँ वीरभद्र के पास जाकर शिवजीके प्रिय आप कहने लगे- ॥ 17-19 ॥

नारदजी बोले - हे वीरभद्र हे महावीर आप गणोंमें श्रेष्ठ हैं, आप इस युद्धसे हट जाइये क्योंकि आपके द्वारा इसका वध उचित नहीं है ॥ 20 ॥

आपके इस वचनको सुनकर गणोंमें अग्रणी कुपित वीरभद्र हाथ जोड़कर आपसे कहने लगे - ॥ 21 ॥

वीरभद्र बोले - हे महाप्राज्ञ ! हे मुनिवर्य ! आप मेरे श्रेष्ठ वचनको सुनिये। मैं तारकका वध [ अवश्य ] करूँगा; आज मेरा पराक्रम आप देखें ॥ 22 ॥

जो वीर अपने स्वामीको युद्धभूमिमें ले आते हैं, वे पापी तथा महानपुंसक होते हैं और रणक्षेत्रमें नष्ट हो जाते हैं। वे अशुभ गति प्राप्त करते हैं तथा उनको नरक अवश्य प्राप्त होता है। [हे मुने!] आप मुझे वीरभद्र जानिये, आप पुनः ऐसा कभी मत कहियेगा ।। 23-24 ॥

अस्त्र-शस्त्रोंसे छिन्न-भिन्न अंगोंवाले जो निर्भय होकर युद्ध करते हैं, वे इस लोकमें तथा परलोकमें प्रशंसाके पात्र होते हैं तथा अद्भुत सुख प्राप्त करते हैं ।। 25 ।।

विष्णु आदि सभी देवगण मेरे वचन सुन लें। आज | मैं इस पृथ्वीको तारकासुरसे रहित कर दूँगा ॥ 26 ॥ऐसा कहकर त्रिशूल धारण किये हुए वीरभद्र प्रमथगणोंको साथ लेकर मनमें शिवजीका स्मरणकर तारकासुर के साथ युद्ध करने लगे ॥ 27 ॥

वृषभपर बैठे हुए, उत्तम त्रिशूल धारण किये हुए तथा तीन नेत्रोंवाले अनेक महावीरोंके साथ रणमें विद्यमान वे [ वीरभद्र ] सुशोभित हो रहे थे ll 28 ll

सैकड़ों गण कोलाहल करते हुए वीरभद्रको आगे करके निर्भय हो दानवोंके साथ युद्ध करने लगे ॥ 29 ॥

इसी प्रकार तारकासुरके अधीन रहनेवाले बलोन्मत्त महावीर राक्षस भी क्रोधमें भरकर गणोंका मर्दन करते हुए युद्ध करने लगे। इस प्रकार उन दैत्योंके साथ गणोंका बहुत बड़ा विकट संग्राम बारंबार होने लगा, उस समय अस्त्र चलानेमें कुशल गण एक-दूसरेको प्रहर्षित करते हुए विजयी हो गये ॥ 30-31 ॥

तब प्रबल गणोंसे पराजित हुए दैत्य रणभूमिसे विमुख हो दुखी एवं व्याकुलचित्त होकर भागने लगे ॥ 32 ॥

इस प्रकार अपनी सेनाको व्यथित तथा पराङ्मुख देखकर तारकासुर क्रोधित होकर देवताओंको मारनेके लिये चला ॥ 33 ॥

वह दस हजार भुजा धारणकर सिंहपर आरूढ़ हो बड़े वेगसे देवताओं तथा गणको युद्धमें गिराने लगा ॥ 34 ॥

तब गणोंके मुखिया महाबली वीरभद्रने उसके इस कर्मको देखकर उसके वधके लिये अत्यधिक क्रोध किया। उन्होंने शिवजीके चरण | कमलोंका स्मरण करके श्रेष्ठ त्रिशूल ग्रहण किया, | उसके तेजसे सभी दिशाएँ तथा आकाश जलने लगे। इसी अवसरपर महान् कौतुक दिखानेवाले स्वामी कार्तिकेयने उन्हें तथा वीरबाहु आदि गणको युद्धभूमिसे हटा दिया ।। 35-37 ॥

उनकी आज्ञासे वीरभद्र रणभूमि से विरत हो गये। तब असुरनायक तारकासुरने महाक्रोध किया ।। 38 ।।अनेक अस्त्रको चलाने तथा युद्धमें कुशल वह तारकासुर शीघ्र ही देवताओंको पीड़ित करके उनके ऊपर बाणवृष्टि करने लगा ॥ 39 ॥

इस प्रकार असुरोंका पालन करनेवाला एवं बलवानोंमें श्रेष्ठ वह तारक ऐसा [युद्धरूप] महान् कर्म करके देवताओंसे अजेय हो गया। इस प्रकार [असुरोंके द्वारा] मारे जाते हुए तथा भयभीत उन देवताओंको देखकर विष्णु क्रोध करके युद्धके लिये शीघ्र उद्यत हो गये ।। 40-41 ।।

भगवान् विष्णु सुदर्शनचक्र, शार्ङ्गधनुष तथा अन्य अस्त्र धारणकर रणहेतु महादैत्य तारकके सम्मुख पहुँच गये ॥ 42 ॥

तदनन्तर हे मुने! सबके देखते-देखते तारकासुर तथा विष्णुका रोमांचकारी, अति भयंकर तथा घोर युद्ध होने लगा। विष्णुने बड़े वेगके साथ गदा उठाकर असुर तारकपर प्रहार किया। महाबली तारकने भी त्रिशिखसे उस गदाके दो टुकड़े कर दिये ।। 43-44 ।।

तब देवताओंको अभय देनेवाले भगवान् विष्णु अत्यन्त क्रोधित हो गये और उन्होंने शार्ङ्गधनुषसे छोड़े गये बाणोंसे उस असुरनायकपर प्रहार करना | प्रारम्भ कर दिया। शत्रुवीरोंका हनन करनेवाले उस महावीर तारकासुरने भी अपने तीक्ष्ण बाणोंसे उनके समस्त बाणोंको शीघ्रतासे काट दिया। इसके बाद तारकासुरने अपनी शक्तिसे विष्णुपर शीघ्रतापूर्वक प्रहार किया। उसके प्रहारसे मूच्छित होकर वे विष्णु पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ 45-47॥

तब क्षणभरके बाद चेतना प्राप्तकर वे उठ गये और उन्होंने महान् सिंहनाद करके क्रोधके साथ जलती हुई अग्निके समान तेजस्वी चक्रको धारण किया ॥ 48 ॥

विष्णुने उस चक्रसे दैत्यराजपर प्रहार किया और उस तीव्र प्रहारसे आहत होकर वह पृथ्वीपर गिर पड़ा ।। 49 ।।

बलशाली उस असुरनायक दैत्यराज तारकने पुनः उठकर बड़ी तेजीके साथ अपनी शक्तिसे सुदर्शनचक्रको काट दिया और उसी महाशक्तिसे | देवताओंके प्रिय अच्युतपर प्रहार किया। तब महावीरविष्णुने भी नन्दक नामक खड्गसे उसपर प्रहार किया । हे मुने! इस प्रकार अक्षीण बलवाले बलवान् विष्णु तथा तारकासुर दोनों ही रणमें एक-दूसरेसे घोर संग्राम करते रहे ॥ 50-52 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] कैलासपर भगवान् शिव एवं पार्वतीका बिहार
  2. [अध्याय 2] भगवान् शिवके तेजसे स्कन्दका प्रादुर्भाव और सर्वत्र महान् आनन्दोत्सवका होना
  3. [अध्याय 3] महर्षि विश्वामित्रद्वारा बालक स्कन्दका संस्कार सम्पन्न करना, बालक स्कन्दद्वारा क्रौंच पर्वतका भेदन, इन्द्रद्वारा बालकपर वज्रप्रहार, शाख-विशाख आदिका उत्पन्न होना, कार्तिकेयका षण्मुख होकर छः कृत्तिकाओंका दुग्धपान करना
  4. [अध्याय 4] पार्वतीके कहनेपर शिवद्वारा देवताओं तथा कर्मसाक्षी धर्मादिकोंसे कार्तिकेयके विषयमें जिज्ञासा करना और अपने गणोंको कृत्तिकाओंके पास भेजना, नन्दिकेश्वर तथा कार्तिकेयका वार्तालाप, कार्तिकेयका कैलासके लिये प्रस्थान
  5. [अध्याय 5] पार्वतीके द्वारा प्रेषित रथपर आरूढ़ हो कार्तिकेयका कैलासगमन, कैलासपर महान् उत्सव होना, कार्तिकेयका महाभिषेक तथा देवताओंद्वारा विविध अस्त्र-शस्त्र तथा रत्नाभूषण प्रदान करना, कार्तिकेयका ब्रह्माण्डका अधिपतित्व प्राप्त करना
  6. [अध्याय 6] कुमार कार्तिकेयकी ऐश्वर्यमयी बाललीला
  7. [अध्याय 7] तारकासुरसे सम्बद्ध देवासुर संग्राम
  8. [अध्याय 8] देवराज इन्द्र, विष्णु तथा वीरक आदिके साथ तारकासुर का युद्ध
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीका कार्तिकेयको तारकके वधके लिये प्रेरित करना, तारकासुरद्वारा विष्णु तथा इन्द्रकी भर्त्सना, पुनः इन्द्रादिके साथ तारकासुरका युद्ध
  10. [अध्याय 10] कुमार कार्तिकेय और तारकासुरका भीषण संग्राम, कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध, देवताओं द्वारा दैत्यसेनापर विजय प्राप्त करना, सर्वत्र विजयोल्लास, देवताओं द्वारा शिक्षा शिव तथा कुमारकी स्तुति
  11. [अध्याय 11] कार्तिकेयद्वारा बाण तथा प्रलम्ब आदि असुरोंका वध, कार्तिकेयचरितके श्रवणका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] विष्णु आदि देवताओं तथा पर्वतोंद्वारा कार्तिकेयकी स्तुति और वरप्राप्ति, देवताओंके साथ कुमारका कैलासगमन, कुमारको देखकर शिव-पार्वतीका आनन्दित होना, देवोंद्वारा शिवस्तुति
  13. [अध्याय 13] गणेशोत्पत्तिका आख्यान, पार्वतीका अपने पुत्र गणेशको अपने द्वारपर नियुक्त करना, शिव और गणेशका वार्तालाप
  14. [अध्याय 14] द्वाररक्षक गणेश तथा शिवगणोंका परस्पर विवाद
  15. [अध्याय 15] गणेश तथा शिवगणोंका भयंकर युद्ध, पार्वतीद्वारा दो शक्तियोंका प्राकट्य, शक्तियोंका अद्भुत पराक्रम और शिवका कुपित होना
  16. [अध्याय 16] विष्णु तथा गणेशका युद्ध, शिवद्वारा त्रिशूलसे गणेशका सिर काटा जाना
  17. [अध्याय 17] पुत्रके वधसे कुपित जगदम्बाका अनेक शक्तियोंको उत्पन्न करना और उनके द्वारा प्रलय मचाया जाना, देवताओं और ऋषियोंका स्तवनद्वारा पार्वतीको प्रसन्न करना, शिवजीके आज्ञानुसार हाथीका सिर लाया जाना और उसे गणेशके धड़से जोड़कर उन्हें जीवित करना
  18. [अध्याय 18] पार्वतीद्वारा गणेशको वरदान, देवोंद्वारा उन्हें अग्रपूज्य माना जाना, शिवजीद्वारा गणेशको सर्वाध्यक्षपद प्रदान करना, गणेशचतुर्थी व्रतविधान तथा उसका माहात्म्य, देवताओंका स्वलोक गमन
  19. [अध्याय 19] स्वामिकार्तिकेय और गणेशकी बाल लीला, विवाहके विषयमें दोनोंका परस्पर विवाद, शिवजीद्वारा पृथ्वी परिक्रमाका आदेश, कार्तिकेयका प्रस्थान, बुद्धिमान् गणेशजीका पृथ्वीरूप माता-पिताकी परिक्रमा और प्रसन्न शिवा-शिवद्वारा गणेशके प्रथम विवाहकी स्वीकृति
  20. [अध्याय 20] प्रजापति विश्वरूपकी सिद्धि तथा बुद्धि नामक दो कन्याओंके साथ गणेशजीका विवाह तथा उनसे 'क्षेम' तथा 'लाभ' नामक दो पुत्रोंकी उत्पत्ति, कुमार कार्तिकेयका पृथ्वी की परिक्रमाकर लौटना और क्षुब्ध होकर क्रौंचपर्वतपर चले जाना, कुमारखण्डके श्रवणकी महिमा