व्यासजी बोले- हे मुनीश्वर! हे तात! रागनिवृत्तिके लिये इस समय विधिपूर्वक जीवके जन्म तथा गर्भमें उसकी स्थितिका वर्णन कीजिये ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- हे व्यास ! अब मैं संक्षेपमें |सम्पूर्ण शास्त्रोंके साररूप उत्तम वैराग्यका वर्णन करूँगा, जो मुमुक्षुजनके संसाररूप बन्धनको काटनेवाला है ॥ 2 ॥
पाकपात्रके मध्य स्थित अन्न और जल अलग अलग रहते हैं। अग्निके ऊपर जल रहता है तथा जलके ऊपर अन्न रखा जाता है। जलके नीचे स्थित अग्निको वायु धीरे-धीरे प्रज्वलित करता है, वायुसे प्रेरित हुई अग्नि जलको उष्ण करती है ॥ 3-4 ॥
गर्म हुए जलसे उस अन्नका भलीभाँति परिपाक होता है। पका हुआ अन्न खा लेनेपर दो भागों में विभक्त हो जाता है, किट्ट अलग और रस अलग हो जाता है। वह किट्ट बारह मलोंके रूपमें बँटकर शरीरसे बाहर निकलता है। रस देहमें फैलता है, वह देह उससे पुष्ट होता है। कान, नेत्र, नासिका, जिह्वा, दाँत, लिंग, गुदा, नख-ये मलाश्रय हैं तथा कफ, पसीना, विष्ठा और मूत्र - ये मल हैं, सभी मिलाकर बारह कहे गये हैं ।। 5-7॥
हृदयकमलमें चारों ओरसे समस्त नाड़ियाँ बँधी हुई हैं, उन्हें रसवाहिनियाँ जानना चाहिये हे मुने। मैं उनकी [ संचरण ] विधि कहता हूँ। प्राणवायु उन नाड़ियोंके मुखोंमें उस सूक्ष्म रसको स्थापित करता है, इसके बाद प्राण रससे उन नाड़ियोंको सन्तृप्त करता है ॥ 8-9 ॥
प्राणवायुसे समन्वित हो सभी नाड़ियाँ उस रसको सारे शरीरमें फैला देती हैं। इस प्रकार नाड़ियोंके बीचमें प्रवाहित हुआ वह रस अपने शरीरद्वारा पकाया जाता है, इसके पाक हो जानेपर पुनः वह दो भागोंमें बँट जाता है। सबसे पहले उससे त्वचा बनती है, जो शरीरको वेष्टित करती है, बादमें रक्त बनता है। रक्तसे लोम और मांस बनते हैं, मांससे केश और स्नायु बनते हैं, स्वयु अस्थियों और अस्थियोंसे नख एवं मज्जा बनते हैं। मज्जासे प्रसवका कारणस्वरूप शुक्र बनता है, अन्नका यह बारह प्रकारका परिणाम कहा गया है । 10-13 ॥अन्नसे शुक्र बनता है और शुक्रसे दिव्य देहकी उत्पत्ति होती है। जब ऋतुकालमें निर्दोष शुक्र योनिमें स्थित होता है, तब वायुके द्वारा वह स्त्रीके रक्तमें मिलकर एक हो जाता है। जब शुक्र शरीरसे स्खलित होकर स्त्रीकी योनिमें प्रविष्ट होता है, तब उसी समय कारणदेहसे संयुक्त होकर जीव अपने कर्मवश निगूढरूपसे स्त्रीयोनिमें प्रविष्ट हो जाता है। वह शुक्र और रक्त मिलकर एक दिनमें कलल बनता है। वह कलल पाँच रातमें बुदबुदके आकारका हो जाता है और बुद्बुद सात रातमें मांसपेशी बन जाता है ॥ 14-17 ॥
इसके बाद ग्रीवा, सिर दोनों कन्धे पीठ (तथा मेरुदण्ड), पेट, हाथ, पैर, दोनों पार्श्व, कमर और गात्र क्रमशः दो महीने के भीतर बन जाते हैं। तीन महीनेमें सभी अंकुरसन्धियाँ [जोड़] बन जाती हैं ॥ 18-19 ॥
चार महीनेमें क्रमानुसार अँगुलियाँ बन जाती हैं। पाँच महीनेमें मुख, नासिका तथा कान उत्पन्न हो जाते हैं, तत्पश्चात् दाँतोंकी पंक्ति, गुह्यभाग और नख प्रकट हो जाते हैं। छः महीनेके भीतर कानोंका छिद्र प्रकट हो जाता है ॥ 20-21 ॥
सात महीने में गुदा, मेह- उपस्थेन्द्रिय, नाभि और अंगोंमें जो सन्धियाँ हैं—ये सब उत्पन्न हो जाते हैं ॥ 22 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार अंग प्रत्यंगसे पूर्ण वह जीव परिपक्व होकर जरायुसे लिपटा हुआ माताके उदरमें स्थित रहता है ॥ 23 ॥
नाभिनालमें बँधा हुआ वह [जीव] माताके आहारसे प्राप्त छः प्रकारके रसोंसे प्रतिदिन बढ़ता रहता है ॥ 24 ॥
तत्पश्चात् शरीरके पूर्ण हो जानेपर उस जीवको स्मृति प्राप्त होती है। वह अपने पूर्वजन्मके किये गये कर्मों, सुख, दुःख, निद्रा एवं स्वप्नको जानने लगता है॥ 25 ॥
मैं मरकर पुनः पैदा हुआ और पैदा होकर पुनः मरा, इस प्रकारसे जन्म लेते हुए मैंने हजारों योनियाँ देखीं। अब मैं उत्पन्न होते ही संस्कारयुक्त होकर इस | शरीरसे उत्तम कर्म करूँगा, जिससे पुनः गर्भमें न आना पड़े। गर्भमें स्थित वह जीव यही सोचता रहता है कि मैं गर्भसे निकलते ही संसारसे मुक्ति प्रदान करनेवाले शिवज्ञानका अन्वेषण करूंगा ॥ 26-28 ॥इस प्रकार कर्मवश महान् गर्भक्लेशसे सन्तप्त हुआ वह जीव मोक्षका उपाय सोचता हुआ वहाँ रहता है। जिस प्रकार बहुत बड़े पहाड़से दबा हुआ कोई मनुष्य बड़े कष्टसे स्थित रहता है, उसी प्रकार जरायुसे लिपटा हुआ जीव भी बड़े दुःखसे स्थित रहता है ॥ 29-30 ॥ जैसे सागरमें गिरा हुआ मनुष्य व्याकुल होता है, उसी प्रकार गर्भजलसे सिक्त अंगोंवाला जीव भी सर्वदा व्याकुल रहता है ॥ 31 ॥
जिस प्रकार लोहेकी बटलोयीमें रखा गया कोई पदार्थ अग्निसे पकाया जाता है, उसी प्रकार गर्भकुम्भमें स्थित जीव भी जठराग्निसे पकाया जाता है ॥ 32 ॥
आगमें लाल की गयी सुइयोंसे निरन्तर बिंधे हुए प्राणीको जो कष्ट होता है, उससे भी अधिक कष्ट वहाँपर [गर्भाशय में] स्थित उस जीवको सदा प्राप्त होता रहता है। शरीरधारियोंके लिये गर्भवाससे बड़ा उद्विग्न करनेवाला कष्ट अन्यत्र कहीं नहीं होता है, यह दुःख महाघोर तथा बहुत संकट देनेवाला होता है ॥ 33-34 ॥
मैंने यहाँ केवल पापियोंके अत्यधिक दुःखका वर्णन किया, धर्मात्माओंका जन्म तो सात ही मासमें हो जाता है ॥ 35 ॥
हे व्यास ! गर्भसे निकलते समय योनियन्त्रसे निपीडनके कारण महान् दुःख केवल पापियोंको होता है, धर्मात्माओंको नहीं होता है। जिस प्रकार ईखको कोल्हूमें डालकर उसे चारों ओरसे पेरा जानेपर उसका निपीडन होता है, उसी प्रकार पापरूपी मुद्गरसे सिरपर प्रहार होनेसे उन पापियोंको दुःख होता है ॥ 36-37 ॥ जिस प्रकार कोल्हूमें पेरे जानेपर तिल क्षणभरमें निःसार हो जाते हैं, उसी प्रकार [जन्मकालमें ] योनियन्त्रसे निपीडित होनेके कारण शरीर भी अशक्त हो जाता है ॥ 38 ॥
इसमें इस शरीर [रूपी भवन] को स्नायुबन्धनसे यन्त्रित अस्थिपाद- रूप तुलास्तम्भके समान रक्तमांसरूपी मिट्टीसे लिप्त विष्ठा मूत्ररूपी द्रव्यका पात्र, केश- रोम नखोंसे ढका हुआ, रोगोंका घर, आतुरस्वरूप, मुखरूपी महाद्वारवाला, आठ छिद्ररूपी गवाक्षोंसे सुशोभित, दो ओठरूपी कपाटवाला, जीभरूपी अर्गलासे युक्त, भोग तृष्णासे आतुर, अज्ञानमय राग-द्वेषके वशीभूत रहनेवाला,अंग-प्रत्यंगों से करवट लेता हुआ, जरायुसे परिवेष्टित, बड़े संकीर्ण योनिमार्गसे निर्गत, विष्ठा- मूत्र रक्तसे सिक्त अंगोंवाला, विकोशिकासे उत्पन्न और अस्थि- पंजरसे युक्त जानना चाहिये || 39-43 ॥
इसमें तीन सौ पैंसठ पेशियाँ हैं और यह सभी ओरसे साढ़े तीन करोड़ रोमोंसे ढँका हुआ है। यह शरीर इतने ही करोड़ सूक्ष्म तथा स्थूल नाड़ियोंसे चारों ओरसे व्याप्त है, वे नाड़ियाँ दृश्य तथा अदृश्य कही गयी हैं। यह शरीर स्वेद एवं मधुविहीन नाड़ियोंसे रहित होकर भी [ स्वेदादिके रूपमें] बाहर स्रवित होता रहता है। इस शरीरमें बत्तीस दाँत बताये गये हैं और बीस नख कहे गये हैं । ll 44 - 46 ॥
इसमें पित्तका भाग एक कुडव (पावभर) जानना चाहिये, कफका भाग एक आढ़क (चार सेर) कहा गया है। चरबीका भाग बीस पल और कपिलका भाग उसका आधा है। साढ़े पाँच पल तुला और मेदाका भाग दस पल जानना चाहिये। [इस शरीरमें ] तीन पल महारक्त होता है और मज्जा इसकी चौगुनी होती है। इसमें आधा कुडव वीर्य समझना चाहिये, वही शरीरधारियोंका उत्पत्ति- बीज तथा बल है। मांसका | परिमाण हजार पल कहा जाता है। हे मुनिश्रेष्ठ ! रक्तको सौ पल परिमाणका जानना चाहिये और चार- चार अंजलि | विष्ठा तथा मूत्रका परिमाण होता है ॥ 47-50॥
इस प्रकार विशुद्ध नित्य आत्माका यह अनित्य एवं अपवित्र शरीररूपी घर कर्मबन्धनसे विनिर्मित है ॥ 51 ॥