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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 24 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 24

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दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार

व्यासजी बोले- ब्रह्माजीके श्रेष्ठ पुत्र परम बुद्धिमान् हे सनत्कुमारजी! आपने इस परम अद्भुत कथाका श्रवण कराया। इसके बाद क्या हुआ, उस युद्धमें वह दैत्य जलन्धर किस प्रकार मारा गया, इसे कहिये ll 1 ॥

सनत्कुमार बोले- जब वह दैत्यपति जलन्धर पार्वतीको न देखकर युद्धभूमिमें लौट आया और गान्धर्वी माया विलीन हो गयी, तब वृषभध्वज भगवान् शंकर चैतन्य हुए। मायाके अन्तर्धान हो जानेपर भगवान् शंकरको ज्ञान हुआ, तदनन्तर संहार करनेवाले शंकर लौकिक गतिका आश्रय लेकर अत्यधिक क्रुद्ध हुए ॥ 2-3 ।।

इसके बाद शिवजी विस्मितमन तथा क्रुद्ध होकर जलन्धरसे युद्ध करनेके लिये चल दिये। उस दैत्यने भी शिवजीको पुनः आता हुआ देखकर उनपर बाणोंकी वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया ll 4 ॥

प्रभु शिवजीने बलशाली उस जलन्धरके द्वारा छोड़े गये उम्र बाणको अपने श्रेष्ठ बाणोंसे बड़ी शीघ्रतासे काटकर गिरा दिया। त्रिभुवन संहारकर्ता शिवके लिये यह कोई अद्भुत बात नहीं हुई। तदनन्तर अद्भुत पराक्रमवाले शंकरजीको देखकर जलन्धरने उन्हें मोहित करनेके लिये मायाकी पार्वती बनायी ll 5-6 llशिवजीने रथपर स्थित, बँधी हुई, विलाप करती हुई एवं शुभ तथा निशुम्भ के द्वारा मारी जाती हुई पार्वतीको देखा। तब उस स्थितिवाली पार्वतीको देखकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए शिवजी सामान्यजनोंकी तरह अत्यन्त व्याकुल हो उठे ।। 7-8 ॥

उस समय अनेक प्रकारकी लीलाओंमें प्रवीण शंकरजीके अंग शिथिल हो गये और अपना पराक्रम भूलकर वे दुखी होकर मुख नीचे करके मौन हो गये ॥ 9 ॥

उसके बाद जलन्धरने पुंखतक धँसनेवाले तीन बाग वेगपूर्वक शिवजीके सिर, हृदय तथा उदरप्रदेशस प्रहार किया। तब महालीला करनेवाले तथा ज्ञानतत्त्ववाले भगवान् रुद्रने क्षणभरमें अग्निज्वाला समूहसे युक अत्यन्त भयंकर रौद्ररूप धारण कर लिया। उनके इस अतिमहारौद्ररूपको देखकर महादैत्यगण सम्मुख खड़े रहनेमें असमर्थ हो गये और दसों दिशाओंमें भागने लगे । ll 10-12 ॥

हे मुनीश्वर ! उस समय वीरोंमें विख्यात महावीर जो शुम्भ एवं निशुम्भ थे, वे भी रणमें स्थित न रह सके। जलन्धरके द्वारा रची गयी माया क्षणभरमें विलुप्त हो गयी। उस संग्राममें चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा। तब उन दोनोंको भागते हुए देखकर क्रुद्ध हुए रुद्रने धिक्कारकर उन शुम्भ निशुम्भको इस प्रकार शाप दिया- ll 13-15 ll

रुद्र बोले- तुम दोनों दैत्य महान् दुष्ट हो, तुम दोनों पार्वतीको दण्ड देनेवाले हो, मेरा महान् अपराध करनेवाले हो और इस संग्रामसे भाग रहे हो ॥ 16 ॥

युद्धसे भागनेवालेको नहीं मारना चाहिये, अतः मैं तुम दोनोंका वध नहीं करूंगा किंतु गौरी मेरे बुद्धसे भागे हुए तुम दोनोंका वध अवश्य करेंगी। अभी शंकरजी यह बात कह हो रहे थे कि जलती हुई अग्निके समान समुद्रपुत्र जलन्धर अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा ।। 17-18 ।। उसने बड़े वेगके साथ शिवजीपर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया, जिससे पृथ्वीतल बाणोंके अन्धकारसे ढँक गया ॥ 19 ll

अभी रुद्र उसके बाणोंको काटनेमें लगे ही थे कि इतनेमें उस बलशालीने परिघसे वृषभपर प्रहार किया ll 20 ॥उस प्रहारसे आहत हुआ वृषभ रणभूमिसे पीछेकी ओर हटने लगा। शंकरजीके द्वारा खींचे जानेपर भी वह युद्धभूमिमें स्थित न रह सका। है मुनीश्वर ! उस समय महारुद्रने सभीके लिये अति दुःसह अपना तेज लोकमें दिखाया — यह सत्य है। उन प्रभु रुद्रने अत्यधिक क्रुद्ध होकर रौद्ररूप धारण कर लिया और वे सहसा प्रलयकालकी अग्निके समान अत्यन्त भयंकर हो गये ।। 21-23 ॥

मेरुशृंगके समान अचल उस दैत्यको अपने आगे | स्थित देखकर तथा उसे दूसरेसे अवध्य जानकर वे स्वयं उस दैत्यको मारनेके लिये उद्यत हो गये ॥ 24 ॥

जगत्की रक्षा करनेवाले उन महाप्रभुने ब्रह्माके वचनकी रक्षा करते हुए और हृदयमें दयाका भाव रखते हुए उस दैत्यके वधके लिये मनमें निश्चय किया ॥ 25 ॥

उस समय क्रोध करके अपनी लीलासे त्रिशूलधारी भगवान् शंकरने महासमुद्र अपने पैर के अँगूठेसे शीघ्र ही भयानक तथा अद्भुत रथ चक्रका निर्माण किया ॥ 26 ॥

उन्होंने उस महासमुद्र में अत्यन्त जाज्वल्यमान रथचक्रका निर्माण करके तथा यह स्मरणकर कि निश्चय ही इससे तीनों लोकोंका वध किया जा सकता है, वे दक्ष, अन्धक, त्रिपुर तथा यज्ञका विनाश करनेवाले भगवान् शंकर हँसते हुए बोले- ll 27 ॥

महारुद्र बोले - हे जलन्धर! मैंने महासमुद्र में अपने पैर के अँगूठेसे इस चक्रका निर्माण किया है, यदि तुम बलवान् हो तो इस चक्रको पानीके बाहर करके मुझसे युद्ध करनेके लिये ठहरो, अन्यथा भाग जाओ ॥ 28 ॥

सनत्कुमार बोले- उनके उस वचनको सुनकर जलन्धरकी आँखें क्रोधसे जलने लगीं और वह अपने क्रोधभरे नेत्रोंसे शंकरजीको जलाता हुआ-सा ओर देखकर कहने लगा- ॥ 29 ॥ उनकी जलन्धर बोला- हे शंकर! मैं रेखाके समान इस चक्र सुदर्शनको उठाकर गणोंसहित तुम्हारा एवं देवताओंके साथ समस्त लोकोंका वधकर गरुड़ के समान अपना भाग ग्रहण करूँगा। हे महेश्वर! मैं इन्द्रसहित चर-अचर सभीका नाश करनेमें समर्थ हूँ। इस त्रिलोकीमें ऐसा कौन है, जो मेरे बाणोंके द्वारा अभेद्य हो ? ।। 30-31 ॥मैंने अपनी बाल्यावस्थामें ही तपस्याके
प्रभावसे भगवान् ब्रह्माको भी जीत लिया था और वे बलवान् ब्रह्मा मुनियों एवं देवताओंके साथ मेरे घरमें हैं 32 ॥ हे रुद्र! मैंने चराचरसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको
क्षणमात्रमें जला दिया और अपनी तपस्यासे भगवान् विष्णुको भी जीत लिया है, फिर मैं तुम्हें क्या समझता हूँ ? ।। 33 ।।

इन्द्र, अग्नि, यम, कुबेर, वायु, वरुण आदि भी मेरे पराक्रमको उसी प्रकार नहीं सह सकते, जिस प्रकार सर्प गरुड़की गन्धको भी सहन नहीं कर सकते ।। 34 ।।

हे शंकर! स्वर्ग तथा भूलोकमें मेरे लिये कोई वाहन नहीं मिला, मैंने समस्त पर्वतोंपर जाकर सभी गणेश्वरोंको परास्त किया है। मैंने अपनी खुजली मिटानेके लिये पर्वतराज हिमालय, मन्दर, शोभामय नीलपर्वत तथा सुन्दर मेरु पर्वतको अपने बाहुदण्डसे घिस डाला है ।। 35-36 ।।

मैंने हिमालय पर्वतपर लीला करने हेतु अपनी भुजाओंसे गंगाजीको रोक दिया था। मेरे भृत्योंने शत्रु देवताओं पर विजय प्राप्त की है। मैंने बड़वानलका मुख अपने हाथोंसे पकड़कर जब बन्द कर दिया, उसी क्षण सम्पूर्ण जगत् जलमय हो गया था। मैंने ऐरावत आदि हाथियोंको समुद्रके जलपर फेंक दिया तथा रथसहित भगवान् इन्द्रको सैकड़ों योजन दूर फेंक दिया ।। 37-39 ॥

मैंने विष्णुजी सहित गरुडको भी नागपाशमें बाँध लिया तथा उर्वशी आदि अप्सराओंको अपने कारागारमें बन्दी बना लिया। हे रुद्र! त्रिलोकीपर विजय प्राप्त करनेवाले मुझ सिन्धुपुत्र महाबलवान् महादैत्य जलन्धरको तुम नहीं जानते ।। 40-41 ।।

सनत्कुमार बोले- उस समय महादेवसे ऐसा कहकर उस समुद्रपुत्र [जलन्धर] -ने युद्धमें मारे गये दानवोंका स्मरण नहीं किया और न तो वह [इधर उधर] हिला-डुला ही उस दुर्विनीत एवं मदान्ध दैत्यने दोनों बाहुओंको ठोककर अपने बाहुबलसे तथा कटु वचनोंसे रुद्रका अपमान किया ।। 42-43 ।।उस दुष्टके द्वारा कहे गये अमंगल वचनको सुनकर महादेव हँसे तथा बहुत क्रोधित हो गये ॥ 44 ॥ उन्होंने अपने पैरके अँगूठेसे जिस सुदर्शन नामक चक्रका निर्माण किया था, उसको अपने हाथमें ले लिया और उससे उसको मारनेके लिये रुद्र उद्यत हो गये ।। 45 ।।

भगवान् शिवने प्रलयकालकी अग्निके सदृश एवं करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान उस सुदर्शन चक्रको उसपर फेंका। आकाश तथा भूमिको प्रज्वलित करते हुए उस चक्रने वेगसे जलन्धरके पास आकर बड़े-बड़े नेत्रोंवाले उसके सिरको वेगपूर्वक काट दिया ।। 46-47 ।।

उस सिन्धुपुत्र दैत्यका शरीर एवं सिर भूतलको नादित करता हुआ रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा ॥ 48 ॥

काले पहाड़के समान उसका शरीर दो टुकड़े होकर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे वज्रके प्रहारसे अति विशाल पर्वत दो टुकड़े होकर समुद्रमें गिर पड़ता है ।। 49 ।।

हे मुनीश्वर ! उसके भयंकर रक्तसे सारा जगत् व्याप्त हो गया और उससे पृथ्वी [लाल हो जानेसे ] विकृत हो गयी। शिवजीको आज्ञासे उसका सम्पूर्ण रक्त एवं मांस महारौरव [नरक] में जाकर रक्तका कुण्ड बन गया ll 50-51 ।।

उसके शरीरसे निकला हुआ तेज शंकरमें उसी प्रकार समा गया, जिस प्रकार वृन्दाके शरीरसे उत्पन्न तेज गौरीमें प्रविष्ट हो गया था। जलन्धरको मरा हुआ देखकर उस समय देव, गन्धर्व तथा नागगण अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और शंकरजीको साधुवाद देने लगे ।। 52-53 ।।

सभी देव, सिद्ध एवं मुनीश्वर भी प्रसन्न हो गये और पुष्पवृष्टि करते हुए उच्च स्वरमें उनका यशोगान करने लगे। देवांगनाएँ प्रेमसे विह्वल होकर अति आनन्दपूर्वक नृत्य करने लगीं और मनोहर रागयुक्त शब्दोंसे किन्नरोंके साथ सुन्दर पदोंको गाने लगीं ॥। 54-55 ।।हे मुने! उस समय वृन्दापति जलन्धरके मर जानेपर सभी ओर पवित्र तथा सुखद स्पर्शवाली दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं, [शीतल, मन्द, सुगन्ध] तीनों प्रकारकी वायु चलने लगी। चन्द्रमा शीतलतासे युक्त हो गया, सूर्य परम तेजसे तपने लगा, शान्त अग्नि जलने लगी और आकाश निर्मल हो गया। इस प्रकार हे मुने! अनन्तमूर्ति सदाशिवके द्वारा उस समुद्रपुत्र जलन्धरके मारे जानेपर सम्पूर्ण त्रैलोक्य अत्यधिक शान्तिमय हो गया ॥ 56-58 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य