व्यासजी बोले- ब्रह्माजीके श्रेष्ठ पुत्र परम बुद्धिमान् हे सनत्कुमारजी! आपने इस परम अद्भुत कथाका श्रवण कराया। इसके बाद क्या हुआ, उस युद्धमें वह दैत्य जलन्धर किस प्रकार मारा गया, इसे कहिये ll 1 ॥
सनत्कुमार बोले- जब वह दैत्यपति जलन्धर पार्वतीको न देखकर युद्धभूमिमें लौट आया और गान्धर्वी माया विलीन हो गयी, तब वृषभध्वज भगवान् शंकर चैतन्य हुए। मायाके अन्तर्धान हो जानेपर भगवान् शंकरको ज्ञान हुआ, तदनन्तर संहार करनेवाले शंकर लौकिक गतिका आश्रय लेकर अत्यधिक क्रुद्ध हुए ॥ 2-3 ।।
इसके बाद शिवजी विस्मितमन तथा क्रुद्ध होकर जलन्धरसे युद्ध करनेके लिये चल दिये। उस दैत्यने भी शिवजीको पुनः आता हुआ देखकर उनपर बाणोंकी वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया ll 4 ॥
प्रभु शिवजीने बलशाली उस जलन्धरके द्वारा छोड़े गये उम्र बाणको अपने श्रेष्ठ बाणोंसे बड़ी शीघ्रतासे काटकर गिरा दिया। त्रिभुवन संहारकर्ता शिवके लिये यह कोई अद्भुत बात नहीं हुई। तदनन्तर अद्भुत पराक्रमवाले शंकरजीको देखकर जलन्धरने उन्हें मोहित करनेके लिये मायाकी पार्वती बनायी ll 5-6 llशिवजीने रथपर स्थित, बँधी हुई, विलाप करती हुई एवं शुभ तथा निशुम्भ के द्वारा मारी जाती हुई पार्वतीको देखा। तब उस स्थितिवाली पार्वतीको देखकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए शिवजी सामान्यजनोंकी तरह अत्यन्त व्याकुल हो उठे ।। 7-8 ॥
उस समय अनेक प्रकारकी लीलाओंमें प्रवीण शंकरजीके अंग शिथिल हो गये और अपना पराक्रम भूलकर वे दुखी होकर मुख नीचे करके मौन हो गये ॥ 9 ॥
उसके बाद जलन्धरने पुंखतक धँसनेवाले तीन बाग वेगपूर्वक शिवजीके सिर, हृदय तथा उदरप्रदेशस प्रहार किया। तब महालीला करनेवाले तथा ज्ञानतत्त्ववाले भगवान् रुद्रने क्षणभरमें अग्निज्वाला समूहसे युक अत्यन्त भयंकर रौद्ररूप धारण कर लिया। उनके इस अतिमहारौद्ररूपको देखकर महादैत्यगण सम्मुख खड़े रहनेमें असमर्थ हो गये और दसों दिशाओंमें भागने लगे । ll 10-12 ॥
हे मुनीश्वर ! उस समय वीरोंमें विख्यात महावीर जो शुम्भ एवं निशुम्भ थे, वे भी रणमें स्थित न रह सके। जलन्धरके द्वारा रची गयी माया क्षणभरमें विलुप्त हो गयी। उस संग्राममें चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा। तब उन दोनोंको भागते हुए देखकर क्रुद्ध हुए रुद्रने धिक्कारकर उन शुम्भ निशुम्भको इस प्रकार शाप दिया- ll 13-15 ll
रुद्र बोले- तुम दोनों दैत्य महान् दुष्ट हो, तुम दोनों पार्वतीको दण्ड देनेवाले हो, मेरा महान् अपराध करनेवाले हो और इस संग्रामसे भाग रहे हो ॥ 16 ॥
युद्धसे भागनेवालेको नहीं मारना चाहिये, अतः मैं तुम दोनोंका वध नहीं करूंगा किंतु गौरी मेरे बुद्धसे भागे हुए तुम दोनोंका वध अवश्य करेंगी। अभी शंकरजी यह बात कह हो रहे थे कि जलती हुई अग्निके समान समुद्रपुत्र जलन्धर अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा ।। 17-18 ।। उसने बड़े वेगके साथ शिवजीपर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करना प्रारम्भ कर दिया, जिससे पृथ्वीतल बाणोंके अन्धकारसे ढँक गया ॥ 19 ll
अभी रुद्र उसके बाणोंको काटनेमें लगे ही थे कि इतनेमें उस बलशालीने परिघसे वृषभपर प्रहार किया ll 20 ॥उस प्रहारसे आहत हुआ वृषभ रणभूमिसे पीछेकी ओर हटने लगा। शंकरजीके द्वारा खींचे जानेपर भी वह युद्धभूमिमें स्थित न रह सका। है मुनीश्वर ! उस समय महारुद्रने सभीके लिये अति दुःसह अपना तेज लोकमें दिखाया — यह सत्य है। उन प्रभु रुद्रने अत्यधिक क्रुद्ध होकर रौद्ररूप धारण कर लिया और वे सहसा प्रलयकालकी अग्निके समान अत्यन्त भयंकर हो गये ।। 21-23 ॥
मेरुशृंगके समान अचल उस दैत्यको अपने आगे | स्थित देखकर तथा उसे दूसरेसे अवध्य जानकर वे स्वयं उस दैत्यको मारनेके लिये उद्यत हो गये ॥ 24 ॥
जगत्की रक्षा करनेवाले उन महाप्रभुने ब्रह्माके वचनकी रक्षा करते हुए और हृदयमें दयाका भाव रखते हुए उस दैत्यके वधके लिये मनमें निश्चय किया ॥ 25 ॥
उस समय क्रोध करके अपनी लीलासे त्रिशूलधारी भगवान् शंकरने महासमुद्र अपने पैर के अँगूठेसे शीघ्र ही भयानक तथा अद्भुत रथ चक्रका निर्माण किया ॥ 26 ॥
उन्होंने उस महासमुद्र में अत्यन्त जाज्वल्यमान रथचक्रका निर्माण करके तथा यह स्मरणकर कि निश्चय ही इससे तीनों लोकोंका वध किया जा सकता है, वे दक्ष, अन्धक, त्रिपुर तथा यज्ञका विनाश करनेवाले भगवान् शंकर हँसते हुए बोले- ll 27 ॥
महारुद्र बोले - हे जलन्धर! मैंने महासमुद्र में अपने पैर के अँगूठेसे इस चक्रका निर्माण किया है, यदि तुम बलवान् हो तो इस चक्रको पानीके बाहर करके मुझसे युद्ध करनेके लिये ठहरो, अन्यथा भाग जाओ ॥ 28 ॥
सनत्कुमार बोले- उनके उस वचनको सुनकर जलन्धरकी आँखें क्रोधसे जलने लगीं और वह अपने क्रोधभरे नेत्रोंसे शंकरजीको जलाता हुआ-सा ओर देखकर कहने लगा- ॥ 29 ॥ उनकी जलन्धर बोला- हे शंकर! मैं रेखाके समान इस चक्र सुदर्शनको उठाकर गणोंसहित तुम्हारा एवं देवताओंके साथ समस्त लोकोंका वधकर गरुड़ के समान अपना भाग ग्रहण करूँगा। हे महेश्वर! मैं इन्द्रसहित चर-अचर सभीका नाश करनेमें समर्थ हूँ। इस त्रिलोकीमें ऐसा कौन है, जो मेरे बाणोंके द्वारा अभेद्य हो ? ।। 30-31 ॥मैंने अपनी बाल्यावस्थामें ही तपस्याके
प्रभावसे भगवान् ब्रह्माको भी जीत लिया था और वे बलवान् ब्रह्मा मुनियों एवं देवताओंके साथ मेरे घरमें हैं 32 ॥ हे रुद्र! मैंने चराचरसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको
क्षणमात्रमें जला दिया और अपनी तपस्यासे भगवान् विष्णुको भी जीत लिया है, फिर मैं तुम्हें क्या समझता हूँ ? ।। 33 ।।
इन्द्र, अग्नि, यम, कुबेर, वायु, वरुण आदि भी मेरे पराक्रमको उसी प्रकार नहीं सह सकते, जिस प्रकार सर्प गरुड़की गन्धको भी सहन नहीं कर सकते ।। 34 ।।
हे शंकर! स्वर्ग तथा भूलोकमें मेरे लिये कोई वाहन नहीं मिला, मैंने समस्त पर्वतोंपर जाकर सभी गणेश्वरोंको परास्त किया है। मैंने अपनी खुजली मिटानेके लिये पर्वतराज हिमालय, मन्दर, शोभामय नीलपर्वत तथा सुन्दर मेरु पर्वतको अपने बाहुदण्डसे घिस डाला है ।। 35-36 ।।
मैंने हिमालय पर्वतपर लीला करने हेतु अपनी भुजाओंसे गंगाजीको रोक दिया था। मेरे भृत्योंने शत्रु देवताओं पर विजय प्राप्त की है। मैंने बड़वानलका मुख अपने हाथोंसे पकड़कर जब बन्द कर दिया, उसी क्षण सम्पूर्ण जगत् जलमय हो गया था। मैंने ऐरावत आदि हाथियोंको समुद्रके जलपर फेंक दिया तथा रथसहित भगवान् इन्द्रको सैकड़ों योजन दूर फेंक दिया ।। 37-39 ॥
मैंने विष्णुजी सहित गरुडको भी नागपाशमें बाँध लिया तथा उर्वशी आदि अप्सराओंको अपने कारागारमें बन्दी बना लिया। हे रुद्र! त्रिलोकीपर विजय प्राप्त करनेवाले मुझ सिन्धुपुत्र महाबलवान् महादैत्य जलन्धरको तुम नहीं जानते ।। 40-41 ।।
सनत्कुमार बोले- उस समय महादेवसे ऐसा कहकर उस समुद्रपुत्र [जलन्धर] -ने युद्धमें मारे गये दानवोंका स्मरण नहीं किया और न तो वह [इधर उधर] हिला-डुला ही उस दुर्विनीत एवं मदान्ध दैत्यने दोनों बाहुओंको ठोककर अपने बाहुबलसे तथा कटु वचनोंसे रुद्रका अपमान किया ।। 42-43 ।।उस दुष्टके द्वारा कहे गये अमंगल वचनको सुनकर महादेव हँसे तथा बहुत क्रोधित हो गये ॥ 44 ॥ उन्होंने अपने पैरके अँगूठेसे जिस सुदर्शन नामक चक्रका निर्माण किया था, उसको अपने हाथमें ले लिया और उससे उसको मारनेके लिये रुद्र उद्यत हो गये ।। 45 ।।
भगवान् शिवने प्रलयकालकी अग्निके सदृश एवं करोड़ों सूर्योंके समान देदीप्यमान उस सुदर्शन चक्रको उसपर फेंका। आकाश तथा भूमिको प्रज्वलित करते हुए उस चक्रने वेगसे जलन्धरके पास आकर बड़े-बड़े नेत्रोंवाले उसके सिरको वेगपूर्वक काट दिया ।। 46-47 ।।
उस सिन्धुपुत्र दैत्यका शरीर एवं सिर भूतलको नादित करता हुआ रथसे पृथ्वीपर गिर पड़ा और चारों ओर महान् हाहाकार होने लगा ॥ 48 ॥
काले पहाड़के समान उसका शरीर दो टुकड़े होकर उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे वज्रके प्रहारसे अति विशाल पर्वत दो टुकड़े होकर समुद्रमें गिर पड़ता है ।। 49 ।।
हे मुनीश्वर ! उसके भयंकर रक्तसे सारा जगत् व्याप्त हो गया और उससे पृथ्वी [लाल हो जानेसे ] विकृत हो गयी। शिवजीको आज्ञासे उसका सम्पूर्ण रक्त एवं मांस महारौरव [नरक] में जाकर रक्तका कुण्ड बन गया ll 50-51 ।।
उसके शरीरसे निकला हुआ तेज शंकरमें उसी प्रकार समा गया, जिस प्रकार वृन्दाके शरीरसे उत्पन्न तेज गौरीमें प्रविष्ट हो गया था। जलन्धरको मरा हुआ देखकर उस समय देव, गन्धर्व तथा नागगण अत्यन्त प्रसन्न हो उठे और शंकरजीको साधुवाद देने लगे ।। 52-53 ।।
सभी देव, सिद्ध एवं मुनीश्वर भी प्रसन्न हो गये और पुष्पवृष्टि करते हुए उच्च स्वरमें उनका यशोगान करने लगे। देवांगनाएँ प्रेमसे विह्वल होकर अति आनन्दपूर्वक नृत्य करने लगीं और मनोहर रागयुक्त शब्दोंसे किन्नरोंके साथ सुन्दर पदोंको गाने लगीं ॥। 54-55 ।।हे मुने! उस समय वृन्दापति जलन्धरके मर जानेपर सभी ओर पवित्र तथा सुखद स्पर्शवाली दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं, [शीतल, मन्द, सुगन्ध] तीनों प्रकारकी वायु चलने लगी। चन्द्रमा शीतलतासे युक्त हो गया, सूर्य परम तेजसे तपने लगा, शान्त अग्नि जलने लगी और आकाश निर्मल हो गया। इस प्रकार हे मुने! अनन्तमूर्ति सदाशिवके द्वारा उस समुद्रपुत्र जलन्धरके मारे जानेपर सम्पूर्ण त्रैलोक्य अत्यधिक शान्तिमय हो गया ॥ 56-58 ॥