ब्रह्माजी बोले- तब उन गणोंने क्रुद्ध हो शिवजीकी आज्ञासे वहाँ जाकर उन द्वारपाल गिरिजापुत्रसे पूछा ॥ 1 ॥
शिवगण बोले- तुम कौन हो, कहाँसे आये हो और यहाँ क्या करना चाहते हो? यदि जीना चाहते हो तो यहाँसे शीघ्र ही दूर चले जाओ ॥ 2 ॥ब्रह्माजी बोले- उनका वह वचन सुनकर हाथमें लाठी लिये हुए गिरिजापुत्रने निडर होकर उन द्वाररक्षक गणोंसे कहा- ॥ 3 ॥ गणेशजी बोले- आपलोग कौन हैं और कहाँसे आये हैं? आपलोग तो बहुत ही सुन्दर हैं, शीघ्र ही यहाँसे दूर हो जाइये, विरोध करनेके लिये यहाँ क्यों स्थित हैं ? ॥ 4 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार उनके वचनको सुनकर शिवजी के सभी महावीर गणोंने आश्चर्यचकित होकर परस्पर हास्य करके कहा ॥ 5 ॥ शिवजीके उन पार्षदोंने आपसमें बातें करके कुपितमन होकर उन द्वारपाल गणेशजीसे कहा- ॥ 6 ॥
शिवगण बोले- सुनिये, हम सब शिवजीके श्रेष्ठ गण ही यहाँके द्वारपाल हैं। हम उन विभु शंकरकी आज्ञासे तुम्हें यहाँसे हटानेके लिये आये हैं ॥ 7 ॥
तुमको भी एक गण समझकर हम तुम्हारा वध नहीं करते। अन्यथा तुम मार दिये गये होते। तुम स्वयं यहाँसे हट जाओ, क्यों मरना चाहते हो ? ॥ 8 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहे जानेके बाद भी गिरिजापुत्र निर्भय गणेश शंकरगणोंको बहुत फटकारकर द्वारसे नहीं हटे। तब वहाँके उन सम्पूर्ण शिवगणोंने भी गणेशजीका वचन सुनकर शिवजीके पास जाकर उस वृत्तान्तको निवेदित किया। हे मुने! तब अद्भुत लीला करनेवाले महेश्वर उस वचनको सुनकर अपने गणको डाँटकर लौकिक गतिका आश्रय लेकर कहने लगे - ॥ 9-11 ॥
महेश्वर बोले- हे गणो! यह कौन है? जो शत्रुके समान इतना उच्छृंखल होकर बातें करता है, यह असदबुद्धि क्या करेगा, निश्चय ही यह अपनी मृत्यु चाहता है ॥ 12 ॥
इस नवीन द्वारपालको शीघ्र ही यहाँसे दूर करो, तुमलोग कायरोंकी भाँति खड़े होकर उसका समाचार मुझसे क्यों कह रहे हो? अद्भुत लीला करनेवाले शंकरके ऐसा कहनेपर उन गणोंने पुनः वहींपर आकर उन द्वारपाल गणेशसे कहा- ॥ 13-14 ॥शिवगण बोले- हे द्वारपाल ! तुम कौन हो और किसके द्वारा नियुक्त होकर यहाँ स्थित हो, तुमको हमलोगों की कोई परवाह नहीं है, यहाँ रहकर कैसे जीना चाहते हो ? ।। 15 ।।
द्वारपाल तो हमलोग हैं, तुम किस प्रकार अपनेको द्वारपाल कहते हो, शेरके आसनपर बैठकर सियार किस प्रकार अपने कल्याणकी इच्छा कर सकता है ? ॥ 16 ॥
हे मूर्ख! तुम तभीतक गर्जना कर रहे हो, | जबतक तुम शिवगणोंके पराक्रमका अनुभव नहीं कर लेते हो। अभी जब तुम अनुभव कर लोगे, तब धराशायी हो जाओगे ॥ 17 ll
तब उनके द्वारा कहे गये इस वचनको सुनकर गणेशजी दोनों हाथमें लाठी लेकर ऐसा बोलनेवाले उन गणोंको मारने लगे। तदनन्तर शिवापुत्र गणेशने निडर होकर शंकरके महावीर गणोंको घुड़ककर कहा- ।। 18-19 ॥
पार्वतीपुत्र बोले- जाओ, जाओ, यहाँसे दूर चले जाओ, अन्यथा मैं तुमलोगोंको प्रचण्ड पराक्रम दिखाऊँगा, जिससे तुमलोग उपहासास्पद हो जाओगे ॥ 20 ॥
तब उन गिरिजापुत्रकी यह बात सुनकर शंकरके वे गण आपसमें कहने लगे ॥ 21 ॥
शिवगण बोले- अब हमें क्या करना चाहिये, कहाँ जाना चाहिये। कहनेपर भी यह हमारी बात नहीं मानता। हमलोग तो मर्यादाकी रक्षा करते हैं, इसने ऐसी बात किस प्रकार कही ॥ 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- तब शिवके सभी गणोंने कैलाससे एक कोसकी दूरीपर स्थित शंकरजीसे जाकर वह सब कहा— तब हाथमें त्रिशूल धारण किये हुए उग्रबुद्धि परमेश्वर शिवजीने हँसकर वीरमानी अपने उन गणोंसे कहा- ॥ 23-24 ॥
शिवजी बोले- हे गणो! तुमलोग कायर हो, वीरमानी वीर नहीं, मेरे सामने तुमलोग ऐसा कहनेके योग्य नहीं हो, डाँटे जानेपर वह पुनः क्या कह सकता है ॥ 25 ॥तुमलोग जाओ, उसपर प्रहार करो, चाहे वह कोई क्यों न हो, मैं तुमलोगोंसे अधिक क्या कहूँ, चाहे जैसे भी हो, उसे वहाँसे हटाओ ॥ 26 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर जब महेश्वरने अपने श्रेष्ठ गणोंको इस प्रकार फटकारा, तब वे गण पुनः वहाँ गये और बोले - ॥ 27 ॥ शिवगण बोले- अरे बालक! सुनो। तुम हठपूर्वक क्यों व्यर्थ बकवास करते हो, अब तुम यहाँसे दूर चले जाओ, अन्यथा तुम्हारी मृत्यु हो जायगी ॥ 28 ॥ ब्रह्माजी बोले- शिवके आज्ञाकारी उन गणोंका निश्चयपूर्वक वचन सुनकर 'मैं क्या करूँ'- यह सोचकर पार्वतीपुत्र गणेशजी बहुत दुखी हुए ।। 29 ।।
इसी बीच द्वारपर गणोंका तथा गणेशका कलह सुनकर देवी पार्वतीने अपनी सखीसे कहा- देखो, द्वारपर किस प्रकारका कलह हो रहा है? सखीने वहाँ आकर सारा वृत्तान्त जान लिया और क्षणमात्रमें सब कुछ देखकर
प्रसन्न होकर वह पार्वतीके पास गयी। हे मुने जो कुछ
भी घटित हुआ था, वहाँ जाकर उस सखीने वह सब
यथार्थ रूपसे पार्वतीके आगे वर्णन किया । ll 30-32 ॥
सखी बोली- हे महेश्वरि ! हमारा गण जो द्वारपर स्थित है, उसको शिवजीके वीर गण निश्चित रूपसे धमका रहे हैं। शिव तथा उनके वे सभी गण बिना अवसरके परमें जबरदस्ती कैसे प्रवेश कर सकते हैं, यह तो आपके लिये शुभतर नहीं है । ll 33-34 ।।
इस बालकने बहुत अच्छा किया, जो इस कार्यके लिये दुःख तथा तिरस्कार आदिका अनुभव करके भी इसने किसीको घरमें आने नहीं दिया। इसके बाद इन लोगों में परस्पर विवाद चल रहा है, वाद-विवाद किये जानेपर वे सुखपूर्वक घरमें प्रवेश नहीं कर पायेंगे ।। 35-36 ll
हे प्रिये! यदि वाद-विवाद किया गया, तो मेरे गणको जीतकर विजय प्राप्त करनेके बाद ही वे घरमें प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। हमारे गणको धमकी देनेसे इन गणोंने हमलोगोंको ही धमकी दी है, इसलिये हे देवि! हे भद्रे ! आपको अपने श्रेष्ठ मानका त्याग नहीं करना चाहिये। हे सति। शिवजी तो बन्दरके समान सदा आपके अधीन हैं, वे अहंकार क्या करेंगे; अवश्य | ही वे आपके अनुकूल हो जायँगे ll 37-39 ॥ब्रह्माजी बोले- आश्चर्य है कि वे सती पार्वती शिवेच्छासे क्षणभर वहाँ रुक गयीं और वे मानिनी होकर अपने मनमें कहने लगीं ॥। 40-41 ।। शिवा बोलीं- अहो, यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि शिवके गण क्षणमात्र भी रुक नहीं सके। इस प्रकार प्रवेशका हठ उन लोगोंने कैसे ठान लिया! अब इस निमित्त उनसे विनय अथवा अन्य उपाय करना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है। जो होना होगा, वही होगा, मैंने जो कर दिया है, उसे अन्यथा कैसे कर सकती हूँ। ऐसा कहकर प्रिया पार्वतीने अपनी सखीको वहाँ भेजा ॥। 42-43 ।।
वह सखी आकर पार्वतीपुत्र गणेशसे प्रिया पार्वतीद्वारा कही गयी बात कहने लगी- ॥ 44 ॥
सखी बोली- हे भद्र! तुमने बहुत अच्छा किया, ये लोग अब हठपूर्वक घरमें प्रवेश न करें। तुम्हारे सामने ये गण क्या हैं? जो कि तुम्हारे जैसे गणको जीत लें ll 45 ।।
करनेयोग्य अथवा न करनेयोग्य जो भी कर्तव्य हो, तुम उसे अवश्य करना। जो एक बार जीत लिया जायगा, वह फिर वैर नहीं करेगा ।। 46 ll
ब्रह्माजी बोले- उस सखीके द्वारा कहे गये माताके वचनको सुनकर गणेश्वरको परम आनन्द, बल तथा महान् उत्साह प्राप्त हुआ ।। 47 ।। उन्होंने अच्छी तरहसे कमर कस ली और पगड़ी बाँधकर ऊरु तथा जंघापर ताल ठोकते हुए निडर होकर उन सभी गणोंसे प्रसन्नतापूर्वक यह वचन कहा- ॥ 48 ll
गणेशजी बोले- मैं पार्वतीका पुत्र हूँ, तुमलोग शिवके गण हो, दोनों ही समान हैं, [हम सभी ] अपने-अपने कर्तव्यका पालन करें ।। 49 ।।
क्या आप लोग ही द्वारपाल रह सकते हैं, मैं द्वारपाल नहीं रह सकता? यदि आपलोग शिवके द्वारपर स्थित हैं, तो मैं भी यहाँ निश्चित रूपसे स्थित है ॥ 50 ॥
जब आपलोग यहाँ स्थित रहियेगा, तब आपलोग शिवकी आज्ञाका पालन कीजियेगा। इस समय तो यहाँ मैं पार्वतीकी आज्ञा का पालन कर रहा है। हे वीरो! यह
सत्य है मैंने उचित निर्णय लिया है ॥ 51-52 ॥इसलिये हे शिवगणो! आपलोग मेरा वचन आदरपूर्वक सुन लें, हठसे अथवा विनयसे आपलोगोंको घरके भीतर नहीं जाना चाहिये ॥ 53 ॥
ब्रह्माजी बोले- गणेश्वरके द्वारा इस प्रकार कहे गये वे सभी शिवगण लज्जित होकर शिवके पास गये और उन्हें प्रणामकर उनके आगे खड़े हो गये ॥ 54 ॥
खड़े होकर उनलोगोंने यह सारा अद्भुत वृत्तान्त शिवजीसे निवेदन किया। इसके बाद फिर हाथ जोड़कर सिर झुकाये हुए वे शिवजीकी स्तुतिकर उनके आगे खड़े हो गये। तब अपने गणोंके द्वारा कहे गये उस समाचारको सुनकर शिवजी लौकिक व्यवहारका आश्रय लेकर यह वचन कहने लगे- ॥ 55-56 ॥
शंकर बोले- हे समस्त गणो! सुनो, युद्ध | करना भी उचित नहीं है, क्योंकि तुमलोग हमारे गण हो और वह बालक पार्वतीका गण है। हे गणो ! यदि नम्रता प्रदर्शित की जाय, तो संसारमें मेरी यह निन्दनीय प्रसिद्धि होगी कि शिवजी सदा स्त्रीके वशमें रहते हैं और शिवके गण निर्बल हैं जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिये-यही नीति सर्वश्रेष्ठ है। वह अकेला बालक गण क्या पराक्रम करेगा ? ।। 57 - 59 ॥
तुम सब मेरे गण हो और युद्धमें अत्यन्त कुशल हो, अतः युद्ध छोड़कर तुमलोग लघुताको कैसे प्राप्त होओगे, विशेषरूपसे पतिके आगे स्त्रीको हठ कैसे करना चाहिये। हठ करके वह पार्वती उसका फल अवश्य प्राप्त करेगी। इसलिये हे वीरो ! तुम सब मेरी बात आदरपूर्वक सुनो, तुम लोग अवश्य युद्ध करो, जो होनहार है, वह तो होकर ही रहेगा ।। 60-62 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे ब्रह्मन्! हे मुनिश्रेष्ठ! अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेमें प्रवीण शंकरजी ऐसा कहकर लौकिक गति प्रदर्शित करते हुए चुप हो गये ॥ 63 ॥