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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 35 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 35

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धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना

नारदजी बोले - हे तात! अनरण्यके कन्यादान सम्बन्धी चरित्रको सुनकर गिरिश्रेष्ठने क्या किया, उसे कहिये ॥ 1 ॥ब्रह्माजी बोले- हे तात! अनरण्यका कन्यादान सम्बन्धी चरित्र सुनकर गिरिराजने हाथ जोड़कर वसिष्ठजीसे पुनः पूछा- ॥ 2 ॥

शैलेश बोले- हे वसिष्ठ हे मुनिशा है ब्रह्मपुत्र ! हे कृपानिधे! आपने अनरण्यका परम अद्भुत चरित्र कहा ॥ 3 ॥

तदनन्तर अनरण्यको कन्याने पिप्पलाद मुनिको | पतिरूपमें प्राप्त करनेके अनन्तर क्या किया? वह सुखदायक चरित्र आप कहिये ॥ 4 ॥

वसिष्ठजी बोले- अवस्थासे जर्जर मुनिश्रेष्ठ पिप्पलाद अनरण्यकी उस कन्याके साथ अपने आश्रम में जाकर बड़े प्रेमसे निवास करने लगे। हे गिरिराज ! वे वहाँ वनमें श्रेष्ठ पर्वतपर इन्द्रियोंको वशमें करके तपस्यापरायण हो नित्य अपने धर्मका पालन करने लगे ।। 5-6 ॥

वह अनरण्यकन्या भी मन, वचन तथा कर्मसे भक्तिपूर्वक मुनिकी सेवा करने लगी, जिस प्रकार लक्ष्मी नारायणकी सेवा करती है। किसी समय जब वह सुस्मितभाषिणी गंगास्नान करने जा रही थी, तब मायासे मनुष्यरूप धारण किये धर्मराजने उसे रास्ते में देखा ।। 7-8 ।।

वे अनेक प्रकारके अलंकारोंसे भूषित, मनोहर रत्नोंसे जटित रथपर विराजमान थे। वे नवयौवनसे सम्पन्न एवं कामदेवके समान अत्यन्त कमनीय थे। प्रभु धर्म उस सुन्दरी पद्माको देखकर उस मुनिपत्नीके अन्तःकरणका भाव जाननेके लिये उससे कहने लगे- ॥ 9-10 ॥

धर्म बोले- हे सुन्दरि ! हे राजयोग्ये! हे मनोहरे! हे नवीन यौवनवाली! हे कामिनि! हे नित्य युवावस्थामें रहनेवाली! तुम तो साक्षात् लक्ष्मी हो ॥ 11 ॥ हे तन्वंगि! मैं सत्य कहता हूँ कि तुम जराग्रस्त पिप्पलाद मुनिके समीप शोभित नहीं हो रही हो ॥ 12 ॥ तुम तपस्यायें लगे हुए, क्रोधी तथा मरणोन्मुख ब्राह्मणको त्यागकर मुझ राजेन्द्र, कामकलामें निपुण एवं कामातुरकी ओर देखो ॥ 13 ॥

सुन्दरी स्त्री अपने पूर्वजन्ममें किये गये पुण्यके प्रभावसे ही सौन्दर्यको प्राप्त करती है। किंतु वह सब | किसी रसिकके आलिंगनसे ही सफल होता है॥ 14 ॥हे कान्ते। तुम इस जरा-जर्जर पतिको छोड़कर हजारों स्त्रियोंके कान्त तथा कामशास्त्रके विशारद मुझे अपना किंकर बनाओ और निर्जन मनोहर वनमें, पर्वतपर तथा नदीके तटपर मेरे साथ विहार करो तथा इस जन्मको सफल करो ।। 15-16 ।।

वसिष्ठजी बोले- इस प्रकार कहकर वे ज्यों ही रथसे उतरकर उसका हाथ पकड़ना ही चाहते थे कि वह पतिव्रता कहने लगी- ॥ 17 ॥

पद्मा बोली- हे राजन्! तुम तो बड़े पापी हो, दूर हट जाओ, दूर हट जाओ, यदि तुमने मुझे और सकाम भावसे देखा, तो शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे ॥ 18 ll

मैं तपस्यासे पवित्र शरीरवाले उन मुनिश्रेष्ठ पिप्पलादको छोड़कर परस्त्रीगामी एवं स्त्रीके वशमें रहनेवाले तुमको कैसे स्वीकार कर सकती हूँ? ll 19 ॥

स्त्रीके वशमें रहनेवालेके स्पर्शमात्रसे सारा पुण्य नष्ट हो जाता है। जो स्त्रीजित् तथा दूसरेकी हत्या करनेवाला पापी है, उसका दर्शन भी पाप उत्पन्न करनेवाला होता है। जो पुरुष स्त्रीके वशमें रहनेवाला है, वह सत्कर्ममें लगे रहनेपर भी सदा अपवित्र है। पितर, देवता | तथा सभी मनुष्य उसकी निन्दा करते हैं ll 20-21 ।।

जिसका मन स्त्रियोंके द्वारा हर लिया गया है, उसके ज्ञान, उत्तम तप, जप, होम, पूजन, विद्या तथा दानसे क्या लाभ है! तुमने माताके समान मुझमें स्त्रीकी भावनासे जो इस प्रकारकी बात कही है. इसलिये समय आनेपर मेरे शापसे तुम्हारा नाश हो जायगा ॥ 22-23 ॥

वसिष्ठजी बोले- सतीके शापको सुनकर वे देवेश धर्मराज राजाका रूप त्यागकर अपना स्वरूप धारणकर काँपते हुए कहने लगे- ॥ 24 ॥

धर्म बोले- हे मातः! हे सति! आप मुझे ज्ञानियोंके गुरुओंका भी गुरु तथा परायी स्त्रीमें सर्वदा मातृबुद्धि रखनेवाला समझें ॥ 25 ll

मैं आपके मनोभावकी परीक्षा लेनेके लिये आपके | पास आया था और आपका अभिप्राय जान लिया, किंतु हे साध्वि ! विधिसे प्रेरित होकर आपने [शाप देकर ] मेरा गर्व नष्ट किया। यह तो आपने उचित ही किया, कोई विरुद्ध कार्य नहीं किया। इस प्रकारका शासन उन्मार्गगामियोंके लिये ईश्वरद्वारा निर्मित है ॥ 26-27 ।।जो स्वयं सबको महान् सुख-दुःख देनेवाले हैं और सम्पत्ति तथा विपत्ति देनेमें समर्थ हैं, उन शिवके प्रति नमस्कार है। जो शत्रु, मित्र, प्रीति तथा कलहका विधान करने और सृष्टिका सृजन एवं संहार करने समर्थ हैं, उन शिवको नमस्कार है ।। 28-29 ॥

जिन्होंने पूर्वकालमें दूधको शुक्लवर्णका बनाया जलमें शैत्य उत्पन्न किया और अग्निको दाहकताशक्ति प्रदान की, उन शिवको नमस्कार है। जिन्होंने प्रकृतिका, महत् आदि तत्त्वोंका एवं ब्रह्मा, विष्णु-महेश आदिका निर्माण किया है, उन शिवको नमस्कार है ॥ 30-31 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर जगद्गुरु धर्मराज उस पतिव्रताके आगे खड़े हो गये। वे उसके पातिव्रत्यसै सन्तुष्ट होकर आश्चर्यसे चकित रह गये और कुछ भी नहीं बोल सके। हे पर्वत! तब अनरण्यकी कन्या तथा पिप्पलादकी पत्नी वह साध्वी पद्मा उन्हें धर्मराज जानकर चकित होकर कहने लगी- ॥ 32-33 ॥

पद्मा बोली- हे धर्म ! आप ही सबके समस्त कर्मोंके साक्षी हैं, हे विभो ! आपने मेरे मनका भाव | जाननेके लिये कपटरूप क्यों धारण किया ? ।। 34 ।।

हे ब्रह्मन् ! यह जो कुछ मैंने किया, उसमें मेरा अपराध नहीं है। हे धर्म! मैंने अज्ञानसे स्त्रीस्वभावके कारण आपको व्यर्थ ही शाप दे दिया ।। 35 ।।

मैं इस समय यही सोच रही हूँ कि उस शापकी क्या व्यवस्था होनी चाहिये, मेरे चित्तमें अब वह बुद्धि स्फुरित हो, जिससे मैं शान्ति प्राप्त करूँ ॥ 36 ॥

यह आकाश, सभी दिशाएँ तथा वायु भले ही नष्ट हो जायँ, किंतु पतिव्रताका शाप कभी नष्ट नहीं होता ॥ 37 ॥

हे देवराज! आप सत्ययुगमें अपने चारों पैरोंसे सभी समय पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान दिन-रात | शोभित रहते हैं। यदि आप नष्ट हो जायँगे, तब तो सृष्टिका ही नाश हो जायगा। किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मैंने यह झूठा शाप दे दिया है ।। 38-39 ।।

हे सुरोत्तम! हे विभो ! [ अब आप मेरे शापकी व्यवस्था सुनिये ।] त्रेतायुगमें आपका एक पाद, द्वापरमें दो पाद और कलियुगमें तीन पाद नष्ट होगा और कलिके अन्तमें आपके सभी पाद नष्ट हो जायँगे। तदनन्तर सत्ययुग आनेपर आपः पुनः पूर्ण हो जायेंगे ll 40-49 ॥सत्ययुगमें आप सर्वव्यापक रहेंगे और अन्य युगों में युग-व्यवस्थानुसार आप कहीं-कहीं जैसे-तैसे घटते बढ़ते रहेंगे। मेरा यह सत्य वचन आपके लिये सुखदायक हो। हे विभो अब मैं अपने पतिकी सेवाके लिये जा रही हूँ और आप अपने घर जायँ ।। 42-43 ।।

ब्रह्माजी बोले- हे ब्रह्मपुत्र नारद पद्माके इस वचनको सुनकर धर्मराज प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहनेवाली उस साध्वीसे कहने लगे- ॥ 44 ॥ धर्म बोले- हे पतिव्रते! तुम धन्य हो, तुम पतिभक्त हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम वर स्वीकार करो। तुम्हारा स्वामी तुम्हारी रक्षा करनेके कारण युवा हो जाय। तुम्हारा पति रतिमें शूर, धार्मिक, रूपवान्, गुणवान्, वक्ता और सदा स्थिर यौवनवाला हो । ll 45-46 ॥

हे शुभे ! वह मार्कण्डेयसे भी बढ़कर चिरंजीवी हो, कुबेरसे भी अधिक धनवान् तथा इन्द्रसे भी अधिक ऐश्वर्यशाली रहे। वह विष्णुके समान शिवभक्त, कपिलके समान सिद्ध, बुद्धिमें बृहस्पतिके समान तथा समदर्शितामें ब्रह्मदेवके समान हो ।। 47-48 ॥

तुम जीवनपर्यन्त स्वामीके सौभाग्यसे संयुक्त रहो और हे सुभगे ! हे देवि! तुम्हारा भी यौवन स्थिर रहे ।। 49 ।।

तुम अपने पतिसे भी अधिक चिरंजीवी एवं गुणवान् दस पुत्रोंकी माता होओगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 50 ॥

हे साध्वि! तुम्हारे घर नाना प्रकारकी सम्पत्तिसे पूर्ण, निरन्तर प्रकाशयुक्त तथा कुबेरके भवनसे भी श्रेष्ठ हों ॥ 51 ॥

वसिष्ठ बोले- हे गिरिश्रेष्ठ! इस प्रकार कहकर धर्मराज चुप होकर खड़े हो गये और वह भी उनकी प्रदक्षिणाकर उन्हें प्रणाम करके अपने घर चली गयी ॥ 52 ॥

धर्मराज भी [ पद्माको] आशीर्वाद देकर अपने घर चले गये और वे प्रत्येक सभामें प्रसन्न मनसे पद्माकी प्रशंसा करने लगे। तदनन्तर वह [पद्मा ] अपने युवा स्वामीके साथ नित्य एकान्तमें रमण करने लगी। बादमें उसके पतिसे भी अधिक गुणवान् उत्तम पुत्र उत्पन्न हुए ॥ 53-54 ॥स्त्री एवं पुरुषोंको सुख देनेवाली सारी सम्पत्ति उनके पास हो गयी, जो सब प्रकारके आनन्दको बढ़ानेवाली और इस लोक तथा परलोकमें कल्याण कारिणी हुई ॥ 55 ॥

हे शैलेन्द्र! उन दोनों स्त्री-पुरुषोंका यह सारा पुरातन इतिहास मैंने आपसे वर्णन किया और आपने इसे अत्यन्त आदरपूर्वक सुना ॥ 56 ॥

अतः आप इस चरित्रको जानकर अपनी कन्या पार्वतीको शिवजीको प्रदान कीजिये और हे शैलेन्द्र ! अपनी स्त्री मेनाके सहित अपना हठ छोड़ दीजिये ।। 57 ।।

एक सप्ताह बीतनेपर एक दुर्लभ उत्तम शुभयोग आ रहा है। उस लग्नमें लग्नका स्वामी स्वयं अपने घरमें स्थित है और चन्द्रमा भी अपने पुत्र बुधके साथ स्थित रहेगा। चन्द्रमा रोहिणीयुक्त होगा, इसलिये चन्द्र तथा तारागणों का योग भी उत्तम है। मार्गशीर्षका महीना है, उसमें भी सर्वदोषविवर्जित चन्द्रवारका दिन है, वह लग्न सभी उत्तम ग्रहोंसे युक्त तथा नीच ग्रहोंकी दृष्टिसे रहित है। उस शुभ लग्नमें बृहस्पति उत्तम सन्तान तथा पतिका सौभाग्य प्रदान करनेवाले हैं ।। 58-60॥

हे पर्वत ! [ऐसे शुभ लग्नमें] अपनी कन्या मूल प्रकृतिरूपा ईश्वरी जगदम्बाको जगत्पिता शिवजीके लिये प्रदान करके आप कृतार्थ हो जायँगे ॥ 61 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] यह कहकर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ मुनिशार्दूल वसिष्ठजी अनेक लीला करनेवाले प्रभु शिवका स्मरण करके चुप हो गये ॥ 62 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा