नन्दीश्वर बोले- हे मुने! मैं उस वनमें जाकर निर्जन स्थलमें आसन लगाकर धीरतापूर्वक कठोर तप करने लगा, जो मुनिजनोंके लिये भी असाध्य है॥ 1 ॥ नदीके उत्तरकी ओर पवित्र भागमें स्थित हो अपने हृदयकमलके [मध्यवर्ती] विवरमें तीन नेत्रवाले, दस भुजाओंसे युक्त, परम शान्त, पंचमुख सदाशिव त्र्यम्बकदेवका ध्यान करके परम समाधिमें लोन होकर एकाग्रचित्तसे सावधानीपूर्वक रुद्रमन्त्रका जप करने लगा मुझको उस जपमें स्थित देखकर चन्द्रकला धारण करनेवाले पार्वतीसहित परमेश्वर महादेवने मुझपर प्रसन्न होकर कहा- ॥ 2-4 ॥
शिवजी बोले- हे शिलादपुत्र ! मैं तुम्हारी इस तपस्यासे सन्तुष्ट होकर वर प्रदान करने आया हूँ। हे धीमन् ! तुमने अच्छी तरह तपस्या की है, तुमको जो अभीष्ट हो, उसे माँग लो ॥ 5 ॥
शिवजीके ऐसा कहनेपर मैंने सिर झुकाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया और जरा एवं शोकका विनाश करनेवाले उन परमेश्वरकी स्तुति की ।। 6 ।।
महाकष्टोंका नाश करनेवाले, वृषभध्वज, परमेश्वर शम्भुने परम भक्तिसे युक्त, अश्रुपूर्ण नेत्रवाले और चरणों में सम्यक् सिर झुकाये हुए मुझ नन्दीको उठाकर दोनों हाथोंसे पकड़कर मेरा स्पर्श किया। इसके बाद गणपतियों एवं देवी पार्वतीकी ओर देखकर दयामयी दृष्टिसे मुझे | निहारते हुए जगत्पति शिवजी कहने लगे- ॥ 7-9 ॥।हे वत्स! हे नन्दिन्! हे महाप्राज्ञ ! तुमको मृत्युसे भय कहाँ? मैंने ही उन दोनों ब्राह्मणों को भेजा था। तो मेरे ही समान हो, इसमें संशय नहीं है। तुम अपने पिता एवं सुहृज्जनोंके सहित अजर, अमर, दुःखरहित, अविनाशी, अक्षय और सदा मेरे परम प्रिय गणपति हो गये। तुममें मेरे समान ही बल होगा और मेरे प्रिय होकर मन्दिर मेरे समीप निवास करोगे। मेरी कृपासे तुमको जरा, जन्म एवं मृत्यु प्राप्त नहीं होगी ।। 10-12 ॥
नन्दीश्वर बोले - [ हे सनत्कुमार!] इस प्रकार कहकर कृपानिधि शिवने कमलकी बनी हुई अपनी शिरोमालाको उतारकर मेरे कण्ठमें शीघ्रतासे पहना दिया ॥ 13 ॥
हे विप्र ! उस पवित्र मालाके गलेमें पड़ते ही मैं तीन नेत्र एवं दस भुजाओंसे युक्त होकर दूसरे शिवके समान हो गया ॥ 14 ॥
तदनन्तर परमेश्वरने मुझे अपने हाथसे पकड़कर कहा- हे वत्स ! बताओ, मैं तुमको कौन-सा श्रेष्ठ वर प्रदान करूँ ? ॥ 15 ॥
तत्पश्चात् वृषभध्वजने अपनी जटामें स्थित हारके समान निर्मल जलको लेकर 'तुम यहींपर नदी हो जाओ' ऐसा कहा और उसे छिड़क दिया ॥ 16 ॥
उससे स्वच्छ जलवाली, महावेगसे युक्त, दिव्य स्वरुपा सुन्दरी एवं कल्याणकारिणी पाँच नदियाँ उत्पन्न हुई जटोदका, त्रिस्रोता, वृषध्वनि, स्वर्णोदका एवं | जम्बूनदीये पाँच नदियाँ कही गयी हैं। ll 17-18 ॥
हे मुने! यह पंचनद नामक शिवका शुभ पृष्ठदेश परम पवित्र है, जो जपेश्वरके समीप विद्यमान है। जो [व्यक्ति ] पंचनदमें आकर इसमें स्नान तथा जपकर जपेश्वर शिवको पूजा करता है, उसे शिवसायुज्यकी प्राप्ति होती है, इसमें संशय नहीं है । ll 19-20 ॥
इसके बाद शिवजीने पार्वतीजीसे कहा- मैं नन्दीको अभिषिक्त करना चाहता हूँ और इसे गणेश्वर बनाना चाहता हूँ। हे अव्यये ! इसमें तुम्हारी क्या सम्मति है ? ॥ 21 ॥
उमा बोलीं- हे देवेश! हे परमेश्वर! आप इस नन्दीको अवश्य ही गणेश्वरपद प्रदान करें। हे नाथ ! | यह शिलादपुत्र [आजसे ] मेरा परम प्रिय पुत्र है । ll 22 ॥नन्दीश्वर बोले- [ हे सनत्कुमार!] तदनन्तर स्वतन्त्र, सब कुछ प्रदान करनेवाले तथा भक्तवत्सल परमेश्वर शंकरने अपने श्रेष्ठ गणाधिपोंका स्मरण किया। शिवके स्मरण करते ही असंख्य गणेश्वर वहाँ उपस्थित हो गये, वे सब परम आनन्दसे परिपूर्ण तथा | शंकरके स्वरूपवाले थे ।। 23-24 ॥ वे महाबली गणेश्वर शिव एवं पार्वतीको प्रणाम
करके हाथ जोड़कर तथा विनत होकर शुभ वचन कहने लगे- ॥ 25 ॥ गणेश्वर बोले- हे देव! आपने किसलिये हमलोगोंका स्मरण किया है ? हे महाप्रभो ! हे त्रिपुरार्दन! हे कामद ! यहाँ आये हुए हम सेवकोंको आज्ञा दीजिये ॥ 26 ॥
क्या हमलोग समुद्रोंको सुखा दें अथवा सेवकसहित यमराजको मार डालें अथवा मृत्यु, महामृत्यु तथा बूढ़े ब्रह्माका संहार कर दें अथवा देवताओंके सहित इन्द्रको अथवा पार्षदोंसहित विष्णुको अथवा दानवोंसहित अत्यन्त क्रुद्ध दैत्योंको बाँधकर ले आयें ? आज आपकी आज्ञासे हम किसे घोर दण्ड दें अथवा हे देव! सभी कामनाओंकी सिद्धिके लिये हम आज किसका उत्सव मनायें ? ।। 27-29 ॥
नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार वीरतापूर्ण वचन कहनेवाले उन गणोंकी बात सुनकर वे परमेश्वर उन गणपतियोंकी प्रशंसा करके कहने लगे- ॥ 30 ॥ शिवजी बोले- यह नन्दीश्वर मेरा परम प्रिय पुत्र है, अत: तुमलोग इसे सभी गणोंका अग्रणी तथा सभी गणाध्यक्षोंका ईश्वर बनाओ, यह मेरी आज्ञा है ॥ 31 ॥ मेरे जितने भी गणपति हैं, उन गणपतियोंके आश्रय इस [ नन्दी]-को पतिपदपर तुम सब प्रेमपूर्वक अभिषिक्त करो । यह नन्दीश्वर आजसे तुम सभीका स्वामी होगा ॥ 32 ॥
नन्दीश्वर बोले- तब शंकरजीके द्वारा इस प्रकार कहे गये वे सभी गणेश्वर 'ऐसा ही होगा' - यह कहकर [ अभिषेककी] सामग्री एकत्र करने लगे ॥ 33 ॥ इसके बाद प्रसन्न मुखमण्डलवाले इन्द्रसहित सभी देवता, नारायण आदि मुख्य [देवगण], मुनिगण एवं अन्य सभी लोग वहाँ उपस्थित हुए ॥ 34 ॥हे भगवन्! शिवजीकी आज्ञासे स्वयं ब्रह्माने एकाग्रचित्त होकर नन्दीश्वरका समस्त गणाध्यक्षोंके अधिपतिपदपर अभिषेक किया। तत्पश्चात् विष्णु इन्द्र एवं [अन्य] लोकपालोंने भी उसी प्रकार अभिषेक किया, तत्पश्चात् ऋषिगण एवं पितामह आदिने उनकी स्तुति की। उन सभीके स्तुति कर लेनेके अनन्तर सम्पूर्ण जगत्के स्वामी विष्णुने सिरपर अंजलि बाँधकर एकाग्रचित्त हो उनकी स्तुति की और हाथ जोड़कर प्रणाम करके उनका जयकार किया, पुनः सभी गणाधिपों, देवताओं एवं असुरोंने जयकार किया ।। 35-38 ।।
हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार परमेश्वरकी आज्ञासे ब्रह्मासहित सभी देवताओंने मुझ नन्दीश्वरका अभिषेक तथा स्तवन किया ॥ 39 ॥
ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंने शिवजीकी आज्ञासे बड़े उत्सवके साथ प्रेमपूर्वक मेरा विवाह भी सम्पन्न किया ll 40 ॥
मन तथा नेत्रोंको आनन्द देनेवाली मनोहर तथा | दिव्य सुवशा नामक मरुत्कन्या मेरी पत्नी हुई ॥ 41 ॥ उस [सुयशा] ने हाथके अग्रभागमें चामर धारण को हुई स्त्रियोंसे युक्त तथा चामरोंसे सुशोभित चन्द्रप्रभासदृश छत्र प्राप्त किया। मैं उसके साथ श्रेष्ठतम सिंहासनपर बैठा और स्वयं महालक्ष्मीने मुकुट सुन्दर भूषणोंसे मुझे सुशोभित किया ।। 42-43 ।।
देवीने अपने कण्ठमें स्थित उत्तम हार उतारकर मुझे प्रदान किया। हे मुने! मुझे श्वेतपेन्द्र हाथी सिंह, सिंहध्वज, रथ, चन्द्रबिम्बके समान स्वच्छ सोनेका हार और अन्यान्य वस्तुएँ भी प्राप्त हुई ll 44-45 ।।
हे महामुने! इस प्रकार विवाह हो जानेपर मैंने उस पत्नीके साथ शिव, पार्वती, ब्रह्मा एवं विष्णुके चरणोंकी वन्दना की ॥ 46 ॥
उस समय उन त्रिलोकेश्वर भक्तवत्सल प्रभु | सदाशिवने उस स्वरूपवाले मुझ सपत्नीक नन्दीश्वरसे अत्यन्त प्रेमके साथ कहा- ॥ 47 ॥
ईश्वर बोले- सुनो तुम मेरे पुत्र हो यह सुयश तुम्हारी पत्नी है तुम्हारे मनमें जो भी अभिलाषा है, उसे मैं प्रेमपूर्वक तुम्हें प्रदान करूंगा ॥ 48 ॥हे गणेश्वर हे नन्दीश्वर पार्वतीसहित मैं तुमपर सदा सन्तुष्ट हूँ। हे वत्स! तुम मेरी उत्तम बात सुनो। तुम अपने पिता एवं पितामहके साथ सदा मेरे प्रिय, विशिष्ट, परमैश्वर्यसे युक्त, महायोगी, महाधनुर्धर, अजेय, सर्वजेता, सदा पूज्य एवं महावली होओगे। जहाँ मैं रहूँगा, वहाँ तुम रहोगे और जहाँ तुम रहोगे, वहाँ मैं भी रहूँगा ll 49-51 ॥
हे पुत्र ! तुम्हारे ये पिता महान् ऐश्वर्यसे युक्त, महाबली, मेरे भक्त एवं गणोंके अध्यक्ष होंगे ॥ 52 ॥ हे वत्स ! तुम्हारे पितामह भी उसी प्रकारके होंगे। ये सभी मेरे द्वारा वरदान प्राप्तकर मेरी समीपता प्राप्त करेंगे। तुम्हारे लिये मैंने यह वरदान दिया ll 53 ॥
नन्दीश्वर बोले- [हे मुने!] तब वरदायिनी महाभागा पार्वती देवीने मुझ नन्दीश्वरसे कहा- हे पुत्र तुम मुझसे सभी अभिलषित वर माँगो 54 ॥ तब पार्वती देवीके उस वचनको सुनकर नन्दीश्वरने हाथ जोड़कर कहा- हे देवि! आपके चरणोंमें सदा मेरी उत्तम भक्ति हो ॥ 55 ॥
मेरे वचनको सुनकर उन देवीने कहा- ऐसा ही हो, पुनः उन्होंने बड़े प्रेमसे मुझ नन्दीकी कल्याणमयी पत्नी सुयशासे कहा- ॥ 56 ॥
देवी बोलीं- हे वत्से ! तुम यथेष्ट वर ग्रहण करो। तुम तीन नेत्रवाली एवं जन्म [-मृत्यु] से रहित रहोगी और पुत्र-पौत्रोंके सहित तुम्हारी भक्ति मुझमें और अपने पतिमें निरन्तर बनी रहेगी ॥ 57 ॥
नन्दी बोले- उस समय ब्रह्मा, विष्णु तथा सभी देवताओंने प्रसन्नतापूर्वक शिवकी आज्ञासे उन दोनोंको वर दिये ।। 58 ।।
उसके बाद ईश शिवजी सम्बन्धियों, बन्धु बान्धवों एवं कुटुम्बके साथ मुझे लेकर पार्वतीसहित बैलपर सवार होकर अपने धामको गये ॥ 59 ॥
वे विष्णु आदि सभी देवता भी मेरी प्रशंसा करते हुए तथा शिव-पार्वतीकी स्तुति करते हुए अपने-अपने धामको चले गये ॥ 60 ॥
हे वत्स ! हे महामुने! इस प्रकार मैंने अपना अवतार आपसे कहा जो मनुष्योंको सदा आनन्द | देनेवाला एवं शिवजीमें भक्ति बढ़ानेवाला है ॥ 61 ॥जो [व्यक्ति] श्रद्धा तथा भक्तिसे युक्त होकर मुझ नन्दीके इस जन्म, वरदान, अभिषेक तथा विवाहके प्रसंगको सुनता है अथवा सुनाता है अथवा भक्तिपूर्वक पढ़ता है या पढ़ाता है, वह इस लोकमें सभी सुखोंको भोगकर परलोकमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।। 62-63॥