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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 4, अध्याय 7 - Sanhita 4, Adhyaya 7

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नन्दिकेश्वरलिंगका माहात्म्य- वर्णन

ऋषिगण बोले- हे सूत! हे प्रभो ! वैशाख मासके शुक्लपक्षकी सप्तमीके दिन नर्मदानदीमें गंगाजी कैसे आयी थीं; इसे विशेषरूपसे बताइये। हे महामते ! उस स्थानपर शिवजी नन्दिकेश नामसे कैसे प्रसिद्ध हुए; आप इस वृत्तान्तको भी अत्यन्त प्रीतिपूर्वक कहिये ॥ 1-2 ॥

सूतजी बोले- हे ऋषिश्रेष्ठो! आपलोगोंने नन्दिकेशसे सम्बन्धित यह बहुत ही उत्तम बात पूछी है; अब मैं उसका वर्णन करता हूँ, इसके सुननेमात्रसे पुण्यकी वृद्धि होती है। [ पूर्व समयमें] किसी ब्राह्मणकी ऋषिका नामक एक कन्या थी; उसने अपनी उस कन्याका विवाह विधानपूर्वक किसी ब्राह्मणसे कर दिया ।। 3-4 ।।

हे ब्राह्मणश्रेष्ठो ! पूर्वजन्मके कर्मके प्रभावसे वह ब्राह्मणपत्नी पातिव्रत्यधर्ममें परायण होनेपर भी बाल्यावस्थामें ही विधवा हो गयी ॥ 5 ॥

तब वह ब्राह्मणपत्नी ब्रह्मचर्यव्रतके पालनमें तत्पर हो, पार्थिवपूजनपूर्वक कठोर तप करने लगी ॥ 6 ॥उसी समय महामायावी 'मूढ' नामक बलवान् दुष्ट असुर कामवाणसे पीड़ित होकर उस स्थानपर गया और तपस्या करती हुई उस परम सुन्दरी स्त्रीको देखकर वह अनेक प्रकारका प्रलोभन देते हुए उसके साथ सहवासकी याचना करने लगा ।। 7-8 ॥

हे मुनीश्वरो ! उस समय शिवध्यानमें परायण उस सुव्रता स्त्रीने कामभावनासे उसकी ओर देखातक नहीं। वह अत्यन्त तपोनिष्ठ तथा शिवध्यानमें मग्न थी। अतः तपस्यामें संलग्न उस ब्राह्मणीने उसका सम्मान भी नहीं किया । ll 9-10 ॥

तब उस स्त्रीके द्वारा तिरस्कृत हुए उस मूर्ख दैत्यने उसपर अत्यन्त क्रोध किया और उसे अपना विकट रूप दिखाया ॥ 11 ॥

इसके बाद वह दुष्टात्मा [राक्षस ] उस ब्राह्मणीको भयकारक दुर्वचन कहने लगा तथा उसे अनेक प्रकारसे डराने लगा । तब शिवपरायणा वह कृशांगी द्विजपत्नी भयभीत होकर प्रेमपूर्वक बारंबार 'शिव शिव'- ऐसा उच्चारण करने लगी ॥ 12-13 ॥

अत्यन्त व्याकुल एवं शिवनामका जप करती हुई वह स्त्री अपने धर्मकी रक्षाके लिये जब शिवजीकी शरणमें चली गयी, तब शरणागतकी रक्षा, सदाचारकी स्थापना तथा उस ब्राह्मणीके आनन्दके लिये सदाशिव वहीं प्रकट हो गये ll 14-15 ।।

तत्पश्चात् भक्तवत्सल शिवजीने कामपीड़ित उस | मूढ नामक दैत्यको उसी समय भस्म कर दिया ॥ 16 ॥ इसके बाद भक्तोंकी रक्षा करनेमें दक्ष बुद्धिवाले शिवजीने दयादृष्टिसे उसकी ओर देखकर वर माँगो' इस प्रकार कहा ॥ 17 ॥

वह पतिव्रता ब्राह्मणी शिवजीके इस वचनको सुनकर उनके मनोहर तथा आनन्दप्रद रूपकी ओर देखने लगी। तदनन्तर उत्तम विचारोंवाली वह पतिव्रता [ब्राह्मणी] सुख देनेवाले महेश्वर शिवको प्रणाम करके सिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगी ।। 18- 19 ॥

ऋषिका बोली- हे देवदेव! हे महादेव हे शरणागतवत्सल ! आप दीनोंके बन्धु सबके ईश्वर तथा सर्वदा भक्तोंकी रक्षा करनेवाले हैं॥ 20 ॥[हे प्रभो।] आपने इस मूळ नामक दैत्यसे मेरे धर्मकी रक्षा की और आपने जो इसका वध किया है, उससे आपने [सम्पूर्ण] जगत्की भी रक्षा की है ॥ 21 ॥ अब आप मुझे अपने चरणोंमें सदा स्थिर रहनेवाली श्रेष्ठ भक्ति प्रदान कीजिये। हे नाथ। यही मेरा वर है; इससे अधिक दूसरा वर क्या हो सकता है। हे विभो। हे महेश्वर। मेरी एक और प्रार्थना आप सुनें- आप लोककल्याणके निमित्त यहीं पर निवास कीजिये ।। 22-23 ।।

सूतजी बोले- इस प्रकार महादेवकी स्तुतिकर | उत्तम व्रतवाली वह ऋषिका चुप हो गयी; तब दयालु शिवजी कहने लगे- ॥ 24 ॥

गिरिश बोले- हे ऋषिके। तुम उत्तम चरित्रवाली हो और तुम मुझमें विशेष रूपसे भक्ति रखती हो, इसलिये तुमने जो जो वर माँगा, उन सभी वरोंको मैंने तुम्हें प्रदान किया ॥ 25 ॥

इसी अवसरपर शिवजीको प्रकट हुआ जानकर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता हर्षयुक्त होकर वहाँ पहुँच गये। हे विप्रो उन सभीने अत्यन्त प्रीतिपूर्वक शिवजीको प्रणामकर उनका पूजन किया और सिर झुकाकर हाथ जोड़कर प्रसन्न चित्तसे उनकी स्तुति की ॥ 26- 27 ॥

इसी समय स्वर्नदी गंगाजीने [वहाँ आकर] साध्वी ऋषिकाके भाग्यकी प्रशंसा करते हुए प्रसन्नचित्त होकर उससे कहा ॥ 28 ॥

गंगाजी बोलीं- [हे साध्यि] तुम वैशाख महीने में एक दिन मेरे कल्याणके लिये अपने समीपमें मुझे रहनेका वचन दो, जिससे मैं एक दिन तुम्हारा सामीप्य प्राप्त करूँ ॥ 29 ॥

सूतजी बोले- गंगाजीका वचन सुनकर श्रेष्ठ व्रतवाली उस साध्वीने लोकहितके लिये प्रेमपूर्वक यह वचन कहा—'ऐसा ही हो' ॥ 30 ll

शिवजी भी उसके आनन्दके लिये उसके द्वारा निर्मित उस पार्थिव लिंगमें प्रसन्न होकर अपने पूर्णांशसे प्रविष्ट हो गये 31 ॥

इसके बाद ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवता तथा गंगाजी प्रसन्न हो शिवजीकी तथा उस [ ब्राह्मणी]- की | प्रशंसा करने लगे और अपने- अपने स्थानको चले गये।उसी दिनसे इस प्रकारका यह परम पावन तीर्थ हो गया और शिवजी भी वहाँ सभी पापोंका विनाश करनेवाले
नन्दिकेश नामसे प्रसिद्ध हो गये । ll 32-33 ॥ हे द्विजो ! तभी गंगाजी भी सबके कल्याणकी इच्छासे तथा मनुष्योंसे ग्रहण किया हुआ अपना पाप धोनेके लिये प्रत्येक वर्ष इस दिन यहाँ आती हैं ॥ 34 ॥ मनुष्य वहाँ स्नानकर और भलीभाँति नन्दिकेश्वरकी पूजाकर ब्रह्महत्या आदि सभी पापोंसे छूट जाता है ॥ 35 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ऋषियोंद्वारा सम्मानित सूतजीके द्वारा कथाका आरम्भ, विद्यास्थानों एवं पुराणोंका परिचय तथा वायुसंहिताका प्रारम्भ
  2. [अध्याय 2] ऋषियोंका ब्रह्माजीके पास जाकर उनकी स्तुति करके उनसे परमपुरुषके विषयमें प्रश्न करना और ब्रह्माजीका आनन्दमग्न हो 'रुद्र' कहकर उत्तर देना
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीके द्वारा परमतत्त्वके रूपमें भगवान् शिवकी महत्ताका प्रतिपादन तथा उनकी आज्ञासे सब मुनियोंका नैमिषारण्यमें आना
  4. [अध्याय 4] नैमिषारण्यमें दीर्घसत्रके अन्तमें मुनियोंके पास वायुदेवता का आगमन
  5. [अध्याय 5] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवद्वारा पशु, पाश एवं पशुपति का तात्त्विक विवेचन
  6. [अध्याय 6] महेश्वरकी महत्ताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] कालकी महिमाका वर्णन
  8. [अध्याय 8] कालका परिमाण एवं त्रिदेवोंके आयुमानका वर्णन
  9. [अध्याय 9] सृष्टिके पालन एवं प्रलयकर्तुत्वका वर्णन
  10. [अध्याय 10] ब्रह्माण्डकी स्थिति, स्वरूप आदिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] अवान्तर सर्ग और प्रतिसर्गका वर्णन
  12. [अध्याय 12] ब्रह्माजीकी मानसी सृष्टि, ब्रह्माजीकी मूर्च्छा, उनके मुखसे रुद्रदेवका प्राकट्य, सप्राण हुए ब्रह्माजीके द्वारा आठ नामोंसे महेश्वरकी स्तुति तथा रुद्रकी आज्ञासे ब्रह्माद्वारा सृष्टि रचना
  13. [अध्याय 13] कल्पभेदसे त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) के एक-दूसरेसे प्रादुर्भावका वर्णन
  14. [अध्याय 14] प्रत्येक कल्पमें ब्रह्मासे रुद्रकी उत्पत्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट शिवकी ब्रह्माजीद्वारा स्तुति
  16. [अध्याय 16] महादेवजीके शरीरसे देवीका प्राकट्य और देवीके भूमध्य भाग से शक्तिका प्रादुर्भाव
  17. [अध्याय 17] ब्रह्माके आधे शरीरसे शतरूपाकी उत्पत्ति तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  18. [अध्याय 18] दक्षके शिवसे द्वेषका कारण
  19. [अध्याय 19] दक्षयज्ञका उपक्रम, दधीचिका दक्षको शाप देना, वीरभद्र और भद्रकालीका प्रादुर्भाव तथा उनका यज्ञध्वंसके लिये प्रस्थान
  20. [अध्याय 20] गणोंके साथ वीरभद्रका दक्षकी यज्ञभूमिमें आगमन तथा
  21. [अध्याय 21] वीरभद्रका दक्ष यज्ञमें आये देवताओंको दण्ड देना तथा दक्षका सिर काटना
  22. [अध्याय 22] वीरभद्रके पराक्रमका वर्णन
  23. [अध्याय 23] पराजित देवोंके द्वारा की गयी स्तुतिसे प्रसन्न शिवका यज्ञकी सम्पूर्ति करना तथा देवताओंको सान्त्वना देकर अन्तर्धान होना
  24. [अध्याय 24] शिवका तपस्याके लिये मन्दराचलपर गमन, मन्दराचलका वर्णन, शुम्भ-निशुम्भ दैत्यकी उत्पत्ति, ब्रह्माकी प्रार्थनासे उनके वधके लिये शिव और शिवाके विचित्र लीला प्रपंचका वर्णन
  25. [अध्याय 25] पार्वतीकी तपस्या, व्याघ्रपर उनकी कृपा, ब्रह्माजीका देवीके साथ वार्तालाप, देवीके द्वारा काली त्वचाका त्याग और उससे उत्पन्न कौशिकीके द्वारा शुम्भ निशुम्भका वध
  26. [अध्याय 26] ब्रह्माजीद्वारा दुष्कर्मी बतानेपर भी गौरीदेवीका शरणागत व्याघ्रको त्यागनेसे इनकार करना और माता पितासे मिलकर मन्दराचलको जाना
  27. [अध्याय 27] मन्दराचलपर गौरीदेवीका स्वागत, महादेवजीके द्वारा उनके और अपने उत्कृष्ट स्वरूप एवं अविच्छेद्य सम्बन्धका प्रकाशन तथा देवीके साथ आये हुए व्याघ्रको उनका गणाध्यक्ष बनाकर अन्तःपुरके द्वारपर सोमनन्दी नामसे प्रतिष्ठित करना
  28. [अध्याय 28] अग्नि और सोमके स्वरूपका विवेचन तथा जगत्‌की अग्नीषोमात्मकताका प्रतिपादन
  29. [अध्याय 29] जगत् 'वाणी और अर्थरूप' है इसका प्रतिपादन
  30. [अध्याय 30] ऋषियोंका शिवतत्त्वविषयक प्रश्न
  31. [अध्याय 31] शिवजीकी सर्वेश्वरता, सर्वनियामकता तथा मोक्षप्रदताका निरूपण
  32. [अध्याय 32] परम धर्मका प्रतिपादन, शैवागमके अनुसार पाशुपत ज्ञान तथा उसके साधनोंका वर्णन
  33. [अध्याय 33] पाशुपत व्रतकी विधि और महिमा तथा भस्मधारणकी महत्ता
  34. [अध्याय 34] उपमन्युका गोदुग्धके लिये हठ तथा माताकी आज्ञासे शिवोपासनामें संलग्न होना
  35. [अध्याय 35] भगवान् शंकरका इन्द्ररूप धारण करके उपमन्युके भक्तिभावकी परीक्षा लेना, उन्हें क्षीरसागर आदि देकर बहुत से वर देना और अपना पुत्र मानकर पार्वतीके हाथमें सौंपना, कृतार्थ हुए उपमन्युका अपनी माताके स्थानपर लौटना