सनत्कुमार बोले- तब नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि गणाधिपतियोंको देखकर वे दानव द्वन्द्रपुद्ध करनेके लिये क्रोधपूर्वक दौड़े ॥ 1 ॥
कालनेमि नन्दीकी ओर, शुम्भ गणेशकी और और निशुम्भ कार्तिकेयकी ओर शंकित होकर दौड़ा ॥ 2 ॥ निशुम्भने कार्तिकेयके मयूरके हृदयमें पाँच बाणोंसे वेगपूर्वक प्रहार किया, जिससे वह मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब कुमारने क्रोधित हो पाँच बाणोंसे उसके रथ, घोड़ों और सारथीपर प्रहार किया ।। 3-4 ।।
इसके बाद रणदुर्भद उन वीर कार्तिकेयने अपने दूसरे तीक्ष्ण बाणसे देवशत्रु निशुम्भपर बड़े वेगसे प्रहार किया और घोर गर्जना की ॥ 5 ll
महाबली निशुम्भ नामक असुरने भी युद्ध में गर्जना करते हुए उन कार्तिकेयपर अपने बाणसे प्रहार किया ॥ 6 ॥
तब कार्तिकेयने जबतक क्रोधसे अपना शकि नामक आयुध लिया, इतनेमें निशुम्भने वेगपूर्वक अपनी शक्तिसे उन्हें गिरा दिया ॥ 7 ॥
हे व्यास। इस प्रकार वीरध्वनि करके गरजते हुए कार्तिकेय एवं निशुम्भका वहाँपर घोर युद्ध होने लगा ॥ 8 ॥
नन्दीश्वरने भी अपने बाणोंसे कालनेमिको बे दिया। उन्होंने अपने सात बाणोंसे कालनेमिके घोड़े, सारथी, रथ तथा ध्वजाका छेदन कर दिया ॥ 9 ॥
तब कालनेमिने क्रुद्ध होकर अपने धनुषसे छूटे हुए अत्यन्त तीखे बाणोंसे नन्दीका धनुष काट दिया ॥ 10॥ उसके बाद नन्दीश्वरने उस धनुषको त्यागकर शूलसे महादैत्य कालनेमिके वक्षःस्थल पर जोरसे प्रहार किया। इस प्रकार घोड़े और सारधिके नष्ट हो जाने पर एवं त्रिशूल से वक्षःस्थलके फट जानेपर उसने पर्वतका शिखर उखाड़कर नन्दीश्वरपर प्रहार किया ।। 11-12 ॥उस समय रथपर सवार शुम्भ एवं मूषकपर सवार श्रीगणेशजी युद्ध करते हुए एक-दूसरेको बाणसमूहोंसे बेधने लगे। उसके बाद गणेशजीने शुम्भके हृदयमें बाणसे प्रहार किया और तीन बाणोंसे सारथिपर प्रहार करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया। तब अत्यन्त कुपित शुम्भ भी बाणवृष्टिसे गणेशजीको तथा तीन बाणोंसे मूषकको बेधकर मेघके समान | गर्जन करने लगा ॥ 13-15 ॥ बाणोंसे छिन्न अंगवाला मूषक अत्यन्त पीड़ित होकर भाग चला, जिसके कारण गणेशजी गिर पड़े और वे पैदल ही युद्ध करने लगे। फिर तो उन लम्बोदरने परशुसे शुम्भ के वक्ष स्थलपर प्रहार करके उसे पृथ्वीपर गिरा दिया तदनन्तर वे पुनः मूषकपर सवार हो गये । ll 16-17 ॥ गणेशजी समरके लिये पुनः उद्यत हो गये और उन्होंने हँसकर क्रोधसे शुम्भपर इस प्रकार प्रहार किया, जैसे अंकुशसे हाथीपर प्रहार होता हो॥ 18 ॥
तब कालनेमि एवं निशुम्भ दोनों ही क्रोधपूर्वक एक साथ सर्पके समान [तीक्ष्ण] बाणोंसे शीघ्रतासे गणेशपर प्रहार करने लगे तब महावली वीरभद्र उन्हें इस प्रकार पीड़ित किया जाता हुआ देखकर बड़े वेगसे करोड़ों भूतोंको साथ लेकर दौड़े ॥ 19-20 ।। उनके साथ कूष्माण्ड, भैरव, वेताल, योगिनियाँ, पिशाच, डाकिनियाँ एवं गण भी चले ॥ 21 ॥
उस समय उन लोगोंके किलकिला शब्द, सिंहनाद, घर्घर एवं डमरूके शब्दसे पृथ्वी निनादित होकर काँप उठी। उस समय समरभूमिमें भूतगण दौड़-दौड़कर दानवोंका भक्षण करने लगे और उनके ऊपर चढ़कर उन्हें गिराने लगे और नाचने लगे ll 22-23 ।।
हे व्यास! इसी बीच नन्दी और कार्तिकेयको चेतना आ गयी और वे उठ गये तथा रणभूमिमें गरजने लगे ॥ 24 ॥
वे नन्दीश्वर एवं कार्तिकेय शीघ्र रणभूमिमें आ गये और अपने बाणोंद्वारा दैत्योंपर निरन्तर प्रहार करने लगे ॥ 25 ॥
तब छिन्न-भिन्न हुए दैत्यगण पृथ्वीपर गिरने लगे और उन गिरे हुए दैत्योंको भूतगण खाने लगे, इससे दैत्योंकी सेना विषादग्रस्त तथा व्याकुल हो गयी ll 26 ॥ इस प्रकार प्रतापी नन्दी, कार्तिकेय, गणेशजी, वीरभद्र तथा अन्य गण युद्धभूमिमें जोर जोरसे गरजने लगे ॥ 27 ॥ जलन्धरके वे दोनों सेनापति शुम्भ निशुम्भ, महादैत्य
कालनेमि एवं अन्य असुर पराजित हो गये ।। 28 ।। तब अपनी सेनाको विध्वस्त हुआ देखकर बलवान् जलन्धर ऊँची पताकावाले रथपर सवार हो गणोंके समक्ष आ गया ॥ 29 ॥
हे व्यासजी तब पराजित हुए दैत्य भी महान् उत्साहसे भर गये और युद्धके लिये तैयार होकर गरजने लगे ॥ 30 ॥ हे मुने। विजयशील शिवके गण नन्दी, कार्तिकेय, गजानन, वीरभद्र आदि भी गर्जना करने लगे ॥ 31 ॥ उस समय दोनों सेनाओंमें हाथियों, घोड़ों तथा रथोंके शब्द, शंख एवं भेरियोंकी ध्वनि एवं सिंहनाद होने लगे ॥ 32 ॥
जलन्धरके बाणसमूहों से द्युलोक तथा भूलोकके बीचका स्थान उसी प्रकार आच्छादित हुआ, जैसे कुहरेसे आकाश आच्छन्न हो जाता है। वह नन्दीपर पाँच, गणेशपर पाँच और वीरभद्रपर बीस बाणोंसे प्रहार करके मेघके समान गर्जन करने लगा। तब रुद्रपुत्र महावीर कार्तिकेयने बड़ी शीघ्रतासे अपनी शक्तिद्वारा उस दैत्य जलन्धरपर प्रहार किया और वे गर्जन करने लगे ।। 33-35 ॥
शक्तिसे विदीर्ण देहवाला वह महाबली दैत्य आँखोंको घुमाता हुआ पृथ्वीपर गिर पड़ा, किंतु बड़ी शीघ्रतासे उठ गया। इसके बाद उस दैत्य श्रेष्ठ जलन्धरने बड़े क्रोधसे कार्तिकेयके हृदयमें गदासे प्रहार किया ।। 36-37 ॥
हे व्यासजी! तब वे शंकरपुत्र कार्तिकेय ब्रह्माके द्वारा दिये गये वरदानके कारण उस गदाके प्रहारको सफल प्रदर्शित करते हुए शीघ्र पृथ्वी पर गिर पड़े। ll 38 ॥
इसी प्रकार शत्रुहन्ता एवं महावीर नन्दी भी गदाके प्रहारसे घायल होकर कुछ व्याकुलमन हो पृथ्वीपर गिर पड़े। उसके बाद महाबली गणेशजीने अत्यन्त क्रुद्ध हो शिवजीके चरणकमलोंका स्मरण करके बड़े वेगसे दौड़कर अपने परशुसे दैत्यकी गदाको काट दिया ।। 39-40 ।।वीरभद्रने तीन बाणसे उस दानवके वक्षःस्थलपर प्रहार किया तथा सात बाणोंसे उसके घोड़ों, ध्वजा, धनुष एवं छत्रको काट डाला ॥ 41 ॥ तब दैत्येन्द्रने अत्यधिक कुपित होकर अपनी दारुण शक्तिको उठाकर उसके प्रहारसे गणेशको [ पृथ्वीपर] गिरा दिया और स्वयं दूसरे रथपर सवार हो गया ।। 42 ।।
इसके बाद वह दैत्येन्द्र क्रोधित होकर अपने मनमें उन वीरभद्रको कुछ न समझकर वेगपूर्वक उनकी ओर दौड़ा। दैत्यराज महावीर जलन्धरने तीखे बाणसे शीघ्रतापूर्वक उन वीरभद्रपर प्रहार किया और गर्जना की ।। 43-44 ।।
तब वीरभद्रने भी अति क्रुद्ध होकर तीक्ष्ण धारवाले वाणसे उसके बाणको काट दिया और अपने महान् बाणसे उसपर प्रहार किया। इस प्रकार सूर्यके समान अत्यन्त तेजस्वी तथा वीरवरोंमें श्रेष्ठ वे दोनों अनेक प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे बहुत समयतक परस्पर युद्ध करते रहे। वीरभद्रने अपने बाणोंसे उस रथी दैत्यके घोड़ोंको अनेक बाणोंसे मार गिराया और उसके धनुष तथा ध्वजको भी वेगपूर्वक काट दिया ।। 45 - 47 ॥
इसके बाद वह महाबली दैत्यराज परिघ अस्त्र लेकर दौड़ा और वीरभद्रके पास शीघ्र जा पहुँचा ॥ 48 ll उस महाबली वीर समुद्रपुत्र जलन्धरने उस विशाल परिघसे वीरभद्रके सिरपर प्रहार किया और गर्जना की ll 49 ll
उस महान् परिघसे गणेश्वर वीरभद्रका सिर फट गया और वे पृथ्वीपर गिर पड़े. [उनके सिरसे] बहुत रक्त बहने लगा ॥ 50 ॥
वीरभद्रको पृथ्वीपर गिरा हुआ देखकर रुद्रगण भवसे शंकरजीको पुकारते हुए रणभूमि छोड़कर भागने लगे ॥ 51 ॥ तब शिवजीने गणोंका कोलाहल सुनकर अपने समीपमें स्थित महाबली गणोंसे पूछा ॥ 52॥
शिवजी बोले- हे महावीरो मेरे गणोंका यह महान् कोलाहल क्यों हो रहा है, तुमलोग पता लगाओ। मैं इसे शीघ्र ही शान्त करूँगा ll 53 ॥वे देवेश अभी गणोंसे आदरपूर्वक पूछ ही रहे थे, तभी वे श्रेष्ठ गण प्रभु शिवके पास पहुँच गये ॥ 54 ॥
उन्हें विकल देखकर प्रभु शंकरजी उनका कुशल पूछने लगे, तब उन गणोंने विस्तारपूर्वक सारा वृत्तान्त यथावत् कह दिया। तब महान् लीला करनेवाले प्रभु भगवान् रुद्रने उसे सुनकर महान् उत्साह बढ़ाते हुए उन्हें अभय प्रदान किया ।। 55-56 ॥