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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 5, अध्याय 8 - Sanhita 5, Adhyaya 8

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नरक - भेद-निरूपण

चित्रगुप्त बोले- हे पापकर्मवालो! हे दूसरोंके द्रव्यका अपहरण करनेवालो! हे रूप एवं पराक्रमपर घमण्ड करनेवालो! हे परनारीप्रसंग करनेवालो तुमलोगोंने स्वयं जो कर्म किया है, उसे तुम्हें भोगना पड़ रहा है तुमलोगोंने आत्मविनाशके लिये कुत्सित आचरण क्यों किया ? इस समय तुमलोग अपने कर्मक कारण पीड़ित किये जाते हुए [इस प्रकार ] प्रलाप क्यों कर रहे हो ? अब अपने कर्मोंको भोगो, इसमें किसीका दोष नहीं है ॥ 1-3 ॥

सनत्कुमार बोले- इसी प्रकार अपने कुत्सित कम तथा बलपर गर्व करनेवाले राजालोग भी अपने घोर कर्मोंके कारण चित्रगुप्तके पास उपस्थित हुए तब धर्मके ज्ञाता महाप्रभु चित्रगुप्तने यमराजको आज्ञा क्रोधयुक्त होकर उन्हें शिक्षा प्रदान की ॥ 4-5 ॥

चित्रगुप्त बोले- प्रजाओंका विध्वंस करनेवाले हे दुराचारी राजाओ! तुमलोगोंने अल्पकालवाले राज्यके लिये पापकर्म क्यों किया ? ॥ 6 ॥हे राजाओ! तुमलोगोंने राज्यभोगके मोहसे अन्यायपूर्वक जबरदस्ती प्रजाओंको जो दण्डित किया, अब उसका फल भोगो ॥ 7 ॥

अब वह राज्य कहाँ है, वह स्त्री कहाँ है, जिनके लिये तुमलोगोंने [ इतना बड़ा] दुष्कर्म किया ? उन सभीको छोड़कर तुमलोग अकेले ही यहाँ स्थित हो ॥ 8 ॥

मैं तुमलोगों का वह बल नष्ट हुआ देख रहा हूँ, जिसके द्वारा तुमलोगोंने प्रजाओंका नाश किया है। तुमलोग तो यमदूतोंसे बंधे हुए हो, अब क्या हो सकेगा ? ॥ 9 ॥

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार यमके द्वारा अनेकविध वचनोंसे उपालम्भ प्राप्त किये हुए वे राजालोग चुप हो गये और अपने कर्मोंपर पश्चात्ताप करने लगे ॥ 10 ॥

इस प्रकार उन राजाओंके कर्मको बतलाकर धर्मराज यमने उनके पापरूपी कीचड़की शुद्धिके लिये दूतोंसे यह कहा- ll 11 ॥

यमराज बोले- हे चण्ड ! हे महाचण्ड ! इन राजाओंको बलपूर्वक पकड़कर नियमपूर्वक क्रमसे नरककी अग्नियोंमें इन्हें शुद्ध करो ॥ 12 ॥

सनत्कुमार बोले- तब वे दूत शीघ्र ही उन राजाओंको दबोचकर उनके दोनों पैर पकड़कर वेगसे घुमाकर ऊपरकी ओर फेंककर और पुनः पकड़कर सर्वप्रथम तपे हुए शिलातलपर बड़े वेग से पटकते हैं, मानो वज्रके द्वारा आहत होकर महावृक्ष गिर रहे हों ॥ 13-14 ॥

उस समय अत्यधिक जर्जर हो जानेपर उस जीवके कानोंसे रक्त बहने लगता है और वह संज्ञाशून्य तथा मूच्छित हो जाता है। तब वायुका स्पर्श कराकर यमदूत उसे पुनः उज्जीवित कर देते हैं और पापकी शुद्धिके लिये यमदूत उसे नरकसमुद्रमें फेंक देते हैं ।। 15-16 ॥

उनमें पहली कोटि घोरा है और [ दूसरी सुघोरा उसके नीचे स्थित है वहाँ पृथ्वीसे नीचे घोर अन्धकारमय सातवें पातालतलके अन्तमें सात [प्रधान] नरककोटियाँ हैं, जो अट्ठाइस नरक कोटियोंके रूपमें दृष्टिगोचर होती हैं, जिनमें नारकीय प्राणी स्थित रहता है। इसी प्रकार अतिघोरा,महाघोरा, पाँचवीं घोररूपा, छटी तलातला, सातवीं भयानका, आठवीं कालरात्रि, नौवीं भयोत्कटा, उसके नीचे दसवीं चण्डा, उसके भी नीचे महाचण्डा, चण्डकोलाहला, चण्डोंकी नायिका प्रचण्डा, पद्मा, पद्मावती, भीता, भीषण नरकोंकी नायिका भीमा, कराला, विकराला और बीसवीं वज्रा कही गयी है। त्रिकोणा, पंचकोणा, सुदीर्घा, अखिलार्तिदा, समा, भीमबलाभा, उग्रा एवं अन्तिम दीप्तप्राया है। इस प्रकार नामके अनुसार अट्ठाईस घोर नरककोटियाँको आपसे कह दिया, ये पापियोंको यातना देनेवाली हैं ।। 17- 23 ll

उन नरककोटियोंमें प्रत्येकमें पाँच-पाँच प्रधान नरक जानने चाहिये। नामके अनुसार उन्हें सुनिये। उनमें प्रथम रौरव है, जहाँ प्राणी रोते रहते हैं, महारौरवकी यातनाओंसे महानसे महान् प्राणी भी रोने लगते हैं। तीसरा शीत, चौथा उष्ण और पाँचवाँ सुघोर-ये पाँच प्रधान नरक कहे गये हैं। इसी प्रकार सुमहातीक्ष्ण, संजीवन, महातम, विलोम, विलोप, कण्टक, तीव्रवेग, कराल, विकराल, प्रकम्पन, महावक्र, काल, कालसूत्र, प्रगर्जन, सूचीमुख, सुनेति, खादक, सुप्रपीडन, कुम्भीपाक, सुपाक, क्रकच, अतिदारुण, अंगारराशिभवन, मेदोऽसृक्प्रहित, तीक्ष्णतुण्ड, शकुनि, महासंवर्तक, क्रतु, तप्तजन्तु, पंकलेप, प्रतिमांस, त्रपूद्भव, उच्छ्वास, सुनिरुच्छ्वास, सुदीर्घ, कूटशाल्मलि, दुरिष्ट, सुमहावाद, प्रवाह, सुप्रतापन, मेष, वृष, शाल्म, सिंहमुख, व्याघ्रमुख, गजमुख, श्वमुख, सूकरमुख, अजमुख, महिषमुख, घूकमुख, कोकमुख, वृकमुख, ग्राह, कुम्भीनस, नक्र, सर्प, कूर्म, काक, गृध्र, उलूक, हलौक, शार्दूल, ऊँट, कर्कट, मण्डूक, पूतिवक्त्र, रक्ताक्ष, पूतिमृत्तिक, कणधूम्र, अग्नि, कृमि, गन्धिवपु, अग्नीध्र, अप्रतिष्ठ, रुधिराभ, श्वभोजन, लालाभक्ष, आन्त्रभक्ष, सर्वभक्ष, सुदारुण, कण्टक, सुविशाल, विकट, कटपूतन, अम्बरीष, कटाह, कष्टदायक वैतरणी नदी,सुतप्तलोहशयन, एकपाद, प्रपूरण, घोर असितालवन, अस्थिभंग, सुपूरण, विलातस, असुयन्त्र, कूटपाश, प्रमर्दन, महाचूर्ण, असुचूर्ण, तप्तलोहमय, पर्वत, क्षुरधारा, यमलपर्वत, मूत्रकूप, विष्ठाकूप, अश्रुकूप, क्षारकूप, शीतल, मुसल- उलूखलयन्त्र, शिला शकटलांगल, तालपत्र, असिगहन, महाशकटमण्डप, सम्मोह, अस्थिभंग, तप्त, चल, अयोगुड, बहुदुःख, महाक्लेश, कश्मल, समल, मल, हालाहल, विरूप, स्वरूप, यमानुग, एकपाद, त्रिपाद, तीव्र, आचीवर, तम—ये पाँच-पाँचके क्रममें अट्ठाईस नरक हैं, उनमें क्रमसे नरककोटियोंके पाँच-पाँच नायक हैं । ll 24-43 ॥

प्राणियोंको दुःख देनेके लिये एक सौ चालीस नरक बताये गये हैं, उसे नरकमण्डल कहा गया है। हे व्यास! इस प्रकार मैंने आपसे संख्याके अनुसार नरककी स्थितिका वर्णन किया, अब आप वैराग्य तथा उस पापगतिका श्रवण कीजिये ।। 44-45 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ऋषियोंके पूछनेपर वायुदेवका श्रीकृष्ण और उपमन्युके मिलनका प्रसंग सुनाना, श्रीकृष्णको उपमन्यसे ज्ञानका और भगवान् शंकरसे पुत्रका लाभ
  2. [अध्याय 2] उपमन्युद्वारा श्रीकृष्णको पाशुपत ज्ञानका उपदेश
  3. [अध्याय 3] भगवान् शिवकी ब्रह्मा आदि पंचमूर्तियों, ईशानादि ब्रह्ममूर्तियों तथा पृथ्वी एवं शर्व आदि अष्टमूर्तियोंका परिचय और उनकी सर्वव्यापकताका वर्णन
  4. [अध्याय 4] शिव और शिवाकी विभूतियोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] परमेश्वर शिवके यथार्थ स्वरूपका विवेचन तथा उनकी शरणमें जानेसे जीवके कल्याणका कथन
  6. [अध्याय 6] शिवके शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्वमय, सर्वव्यापक एवं सर्वातीत स्वरूपका तथा उनकी प्रणवरूपताका प्रतिपादन
  7. [अध्याय 7] परमेश्वरकी शक्तिका ऋषियोंद्वारा साक्षात्कार, शिवके प्रसादसे प्राणियोंकी मुक्ति, शिवकी सेवा-भक्ति तथा पाँच प्रकारके शिवधर्मका वर्णन
  8. [अध्याय 8] शिव-ज्ञान, शिवकी उपासनासे देवताओंको उनका दर्शन, सूर्यदेवमें शिवकी पूजा करके अर्घ्यदानकी विधि तथा व्यासावतारोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] शिवके अवतार योगाचार्यों तथा उनके शिष्योंकी नामावली
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवके प्रति श्रद्धा-भक्तिकी आवश्यकताका प्रतिपादन, शिवधर्मके चार पादोंका वर्णन एवं ज्ञानयोगके साधनों तथा शिवधर्मके अधिकारियोंका निरूपण, शिवपूजनके अनेक प्रकार एवं अनन्यचित्तसे भजनकी महिमा
  11. [अध्याय 11] वर्णाश्रम धर्म तथा नारी-धर्मका वर्णन; शिवके भजन, चिन्तन एवं ज्ञानकी महत्ताका प्रतिपादन
  12. [अध्याय 12] पंचाक्षर मन्त्र के माहात्म्यका वर्णन
  13. [अध्याय 13] पंचाक्षर मन्त्रकी महिमा, उसमें समस्त वाङ्मयकी स्थिति, उसकी उपदेशपरम्परा, देवीरूपा पंचाक्षरीविद्याका ध्यान, उसके समस्त और व्यस्त अक्षरोंके ऋषि, छन्द, देवता, बीज, शक्ति तथा अंगन्यास आदिका विचार
  14. [अध्याय 14] गुरु मन्त्र लेने तथा उसके जप करनेकी विधि, पाँच प्रकारके जप तथा उनकी महिमा, मन्त्रगणना के लिये विभिन्न प्रकारकी मालाओंका महत्त्व तथा अंगुलियोंके उपयोगका वर्णन, जपके लिये उपयोगी स्थान तथा दिशा, जपमें वर्जनीय बातें, सदाचारका महत्त्व, आस्तिकताकी प्रशंसा तथा पंचाक्षर मन्त्रकी विशेषताका वर्णन
  15. [अध्याय 15] त्रिविध दीक्षाका निरूपण, शक्तिपातकी आवश्यकता तथा उसके लक्षणोंका वर्णन, गुरुका महत्त्व, ज्ञानी गुरुसे ही मोक्षकी प्राप्ति तथा गुरुके द्वारा शिष्यकी परीक्षा
  16. [अध्याय 16] समय- संस्कार या समयाचारकी दीक्षाकी विधि
  17. [अध्याय 17] पध्वशोधनका निरूपण
  18. [अध्याय 18] षडध्वशोधनकी विधि
  19. [अध्याय 19] साधक-संस्कार और मन्त्र-माहात्म्यका वर्णन
  20. [अध्याय 20] योग्य शिष्यके आचार्यपदपर अभिषेकका वर्णन तथा संस्कारके विविध प्रकारोंका निर्देश
  21. [अध्याय 21] शिवशास्त्रोक्त नित्य नैमित्तिक कर्मका वर्णन
  22. [अध्याय 22] शिवशास्त्रोक्त न्यास आदि कर्मोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] अन्तर्याग अथवा मानसिक पूजाविधिका वर्णन
  24. [अध्याय 24] शिवपूजन विधि
  25. [अध्याय 25] शिवपूजाकी विशेष विधि तथा शिव भक्तिकी महिमा
  26. [अध्याय 26] सांगोपांगपूजाविधानका वर्णन
  27. [अध्याय 27] शिवपूजनमें अग्निकर्मका वर्णन
  28. [अध्याय 28] शिवाश्रमसेवियोंके लिये नित्य नैमित्तिक कर्मकी विधिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] काम्यकर्मका वर्णन
  30. [अध्याय 30] आवरणपूजाकी विस्तृत विधि तथा उक्त विधिसे पूजनकी महिमाका वर्णन
  31. [अध्याय 31] शिवके पाँच आवरणोंमें स्थित सभी देवताओंकी स्तुति तथा उनसे अभीष्टपूर्ति एवं मंगलकी कामना
  32. [अध्याय 32] ऐहिक फल देनेवाले कर्मों और उनकी विधिका वर्णन, शिव पूजनकी विधि, शान्ति-पुष्टि आदि विविध काम्य कर्मोमें विभिन्न हवनीय पदार्थोंके उपयोगका विधान
  33. [अध्याय 33] पारलौकिक फल देनेवाले कर्म- शिवलिंग महाव्रतकी विधि और महिमाका वर्णन
  34. [अध्याय 34] मोहवश ब्रह्मा तथा विष्णुके द्वारा लिंगके आदि और अन्तको जाननेके लिये किये गये प्रयत्नका वर्णन
  35. [अध्याय 35] लिंगमें शिवका प्राकट्य तथा उनके द्वारा ब्रह्मा-विष्णुको दिये गये ज्ञानोपदेशका वर्णन
  36. [अध्याय 36] शिवलिंग एवं शिवमूर्तिकी प्रतिष्ठाविधिका वर्णन
  37. [अध्याय 37] योगके अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगोंका विवेचनयम, नियम, आसन, प्राणायाम, दशविध प्राणोंको जीतनेकी महिमा, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिका निरूपण
  38. [अध्याय 38] योगमार्गके विघ्न, सिद्धि-सूचक उपसर्ग तथा पृथ्वीसे लेकर बुद्धितत्त्वपर्यन्त ऐश्वर्यगुणों का वर्णन, शिव-शिवाके ध्यानकी महिमा
  39. [अध्याय 39] ध्यान और उसकी महिमा, योगधर्म तथा शिवयोगीका महत्त्व, शिवभक्त या शिवके लिये प्राण देने अथवा शिवक्षेत्रमें मरणसे तत्काल मोक्ष-लाभका कथन
  40. [अध्याय 40] वायुदेवका अन्तर्धान होना, ऋषियोंका सरस्वतीमें अवभूथ-स्नान और काशीमें दिव्य तेजका दर्शन करके ब्रह्माजीके पास जाना, ब्रह्माजीका उन्हें सिद्धि प्राप्तिकी सूचना देकर मेरुके कुमारशिखरपर भेजना
  41. [अध्याय 41] मेरुगिरिके स्कन्द-सरोवर के तटपर मुनियोंका सनत्कुमारजीसे मिलना, भगवान् नन्दीका वहाँ आना और दृष्टिपातमात्रसे पाशछेदन एवं ज्ञानयोगका उपदेश करके चला जाना, शिवपुराणकी महिमा तथा ग्रन्थका उपसंहार
  42. [अध्याय 42] सदाशिवके विभिन्न स्वरूपोंका ध्यान
  43. [अध्याय 43] दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रम्