सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी ! मिथ्या शास्त्रमें प्रवृत्त व्यक्ति द्विजिह्न नामक नरकमें जाता है, जहाँ जिह्वाके समान पतले, आधे कोशके विस्तारवाले तथा तीखे फालोंवाले हलोंसे उसे विशेष पीड़ा पहुँचायी जाती है। जो क्रूर मनुष्य माता- पिता एवं गुरुको झिड़कता है, उसके मुखको कीड़ोंसे युक्त विष्ठासे भरकर उसे पीटा जाता है ॥ 1-2 ॥
जो मनुष्य शिवमन्दिर, बगीचा, बावली, कूप, तड़ाग तथा ब्राह्मणोंके स्थानको नष्ट करते हैं और वहाँ विहार करते हैं, जो लोग कामके निमित्त मदोन्मत्त होकर वहाँ तेल मालिश, उबटन, स्नान, [मद्यादिका] पान, जल (अविधिपूर्वक जलका पान ), भोजन, क्रीड़ा, मैथुन तथा द्यूतका सेवन करते हैं, वे अनेक प्रकारके घोर इक्षुयन्त्र (कोल्हू) आदिसे पीड़ितकर दुखी किये जाते हैं और प्रलयकालपर्यन्त नरककी अग्नियोंमें पकते रहते हैं ॥ 3-5॥
परस्त्रीगमन करनेवाले उसी रूपसे पीड़ित किये जाते हैं। वे पुरुष अतितप्त लोहनिर्मित नारीका पूर्ववत् आकार धारणकर दृढ़तापूर्वक आलिंगन करके सभी ओरसे जलते हैं। इस प्रकार वे व्यभिचारिणी स्त्रीका दृढ़तापूर्वक आलिंगन करते हैं और [जोर जोरसे चिल्ला-चिल्लाकर] रोते हैं ॥ 6-7 ॥जो लोग सज्जनोंकी निन्दा सुनते रहते हैं, उनके कानोंमें अग्निके समान वर्णवाली लोहेकी कीलें तथा ताम्र आदिसे निर्मित तप्त कीलें ठोंक दी जाती हैं और फिर पिघले हुए राँगा, सीसा एवं पीतलसे तथा तप्त दूध, तप्त तीक्ष्ण तेल अथवा वज्रलेपसे क्रमशः उनके कानोंको भरकर नरकोंमें क्रमानुसार चारों ओरसे उन्हें यातनाएँ दी जाती हैं ॥ 8-10 ॥
इसी प्रकार प्रत्येक शरीरसे किये गये पापके कारण क्रमसे सभी इन्द्रियोंकी भी घोर यातनाएँ होती हैं। जो मूढ़ दूसरेकी स्त्रीका [सकाम भावसे] स्पर्श करते हैं, उस स्पर्शदोषके कारण उनके हाथ अग्निके समान दहकती हुई बालुओंसे भर दिये जाते हैं। उनके शरीरपर सभी क्षारपदार्थोंका लेप कर दिया जाता है और सभी नरकोंमें महान् कष्ट देनेवाली यातनाएँ दी जाती हैं ।। 11-13 ॥
जो मनुष्य अपने माता- पिताको टेढ़ी भृकुटीसे देखते हैं, उनकी ओर हाथ उठाते हैं, उन्हें आँख दिखाते हैं, उनके मुख लोहेके शंकुओंसे दृढ़तापूर्वक अन्ततक (चिरकालपर्यन्त) छेदे जाते हैं। जो मनुष्य जिन इन्द्रियोंसे परायी स्त्रीको दूषित करते हैं, उनकी उन इन्द्रियोंको वैसे ही विकृत कर दिया जाता है ।। 14-15 ll
जो लुब्ध होकर अपलक दृष्टिसे दूसरेकी स्त्रियोंको देखते हैं, उनके नेत्रोंको अग्निके जैसी सूइयोंसे तथा | क्षार आदि पदार्थोंसे भर दिया जाता है। है मुनिशार्दूल! क्रमसे यहाँ ये यमयातनाएँ दी जाती हैं। यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं ।। 16-17 ॥
जो देवता, अग्नि, गुरु एवं ब्राह्मणोंको बिना दिये ही खा लेता है, उसकी जीभ तथा मुख लौहनिर्मित तथा तपी हुई सैकड़ों कीलोंसे भर दिये जाते हैं ॥ 18 ॥
जो मनुष्य देवताके लिये लगाये गये उद्यानके फूलोंको लोभवश हाथसे तोड़कर सूँघते हैं और | पुनः सिरपर धारण करते हैं, उनके सिरपर लोहेकी तपी हुई कीलें ठोंक दी जाती हैं और उनकी नाक अत्यधिक क्षार आदि पदार्थोंसे पूर्णतः भर दी जाती है ।। 19-20 ।।जो लोग महात्मा, कथावाचक, धर्मोपदेशक, देवता, अग्नि, गुरु, भक्त तथा सनातन धर्मशास्त्रकी निन्दा करते हैं, उनके हृदय, कण्ठ, जिह्वा, दाँत, मसूढ़ों, तालु, ओठ, नासिका, मस्तक तथा समस्त अंगोंके सन्धिस्थलोंपर तीन फालवाले अग्निके समान लाल, तप्त लोहशंकु मुद्गरोंसे ठोंके जाते हैं। उसके बाद सभी जगह दीप्त क्षारसे लेप किया जाता है, इस प्रकार हर तरहसे शरीरकी महती यातनाएँ पाते हुए वे क्रमशः सम्पूर्ण नरकोंमें घूमते रहते हैं । ll 21 - 243 ॥
जो लोग दूसरेका द्रव्य लेते हैं, पैरोंसे ब्राह्मणोंको छूते हैं और शिवकी पूजा सम्बन्धी वस्तु, गाय तथा ज्ञानमय शास्त्रोंको [अपवित्र] हाथों तथा [ अवज्ञापूर्वक ] पैर आदिसे छूते हैं, उनके हाथ एवं पैरोंमें लोहेकी कीलें ठोंकी जाती हैं। इसी प्रकार सभी नरकोंमें हाथों एवं पैरोंसे सम्बन्धित विचित्र तथा कष्टकारक बहुत-सी यातनाएँ प्राप्त होती हैं ॥ 25-27 ॥
जो पापी शिवमन्दिरकी सीमामें तथा देवताओंके लिये लगाये गये उद्यानों में मल-मूत्रका त्याग करते हैं, उनके वृषण तथा मूत्रेन्द्रियको लोहेके मुद्गरोंसे चूर चूर कर दिया जाता है और पुनः अग्निके सदृश तप्त सुइयोंको उसमें भर दिया जाता है, उसके अनन्तर शीघ्र ही उस जीवकी गुदा एवं शिश्नमें अत्यन्त तीक्ष्ण क्षार पदार्थ अच्छी तरहसे बार- बार भरा जाता है, जिससे मन एवं सभी इन्द्रियोंमें [बड़ी तीव्र] वेदना होती है ॥ 28-30 ॥
जो [मनुष्य] धन होनेपर भी लोभवश दान नहीं करते हैं और भोजनकालमें घरपर आये हुए अतिथिका अपमान करते हैं, इस कारणसे वे पापके भागी होकर अपवित्र नरकमें जाते हैं ।। 31-32 ॥
जो लोग कौवों तथा कुत्तोंको अन्न न देकर [ स्वयं ] भोजन करते हैं, उनके मुँहमें दो कीलें ठोंककर उसे खुला रखा जाता है। वे कीड़े, हिंसक जन्तु एवं लोहेके समान चोंचवाले कौवे अनेक प्रकारके घोर उपद्रवोंसे उनके चित्तमें पीड़ा पहुँचाते हैं । ll33-34 ॥
यममार्गका अनुगमन करनेवाले श्याम और शबल नामक जो दो कुत्ते हैं, उन दोनोंको मैं बलि देता हूँ; वे दोनों इस बलिको ग्रहण करें। पश्चिम, वायव्य, याम्यतथा नैर्ऋत्य दिशाके जो कौवे हैं, वे पुण्यकर्मवाले कौवे मेरी बलिको ग्रहण करें- इस प्रकार जो यत्नपूर्वक शिवमन्त्रोंसे शिवका पूजन करके विधिपूर्वक अग्निमें होमकर शिवमन्त्रोंसे बलि देते हैं अर्थात् बलिवैश्वदेव करते हैं, वे यमराजको नहीं देखते हैं और स्वर्गको जाते हैं। अतः प्रतिदिन चौकोर मण्डल बनाकर उसे गन्ध आदिसे सुगन्धितकर ईशानकोणमें धन्वन्तरिके लिये तथा पूर्व दिशामें इन्द्रके लिये बलि प्रदान करना चाहिये। पुनः दक्षिण में यमके लिये, पश्चिममें सुदक्षोमके लिये, दक्षिणमें पितरोंके लिये और पुनः पूर्वमें अर्यमाको बलि प्रदान करके द्वारदेशपर धाता एवं विधाताको बलि देनी चाहिये। कुते कुत्तेके स्वामियों तथा पक्षियोंके लिये भूमिपर बलि देनी चाहिये। देवता, पितर, मनुष्य, प्रेत, भूत, गुझक, पक्षी, कृमि एवं कीटोंसे गृहस्थ उपजीवित | होता है अर्थात् ये सभी गृहस्थके आश्रयसे निर्वाह करते हैं। स्वाहाकार, स्वधाकार, तीसरा वषट्कार तथा हन्तकार ये [ धर्ममयी] धेनुके चार स्तन हैं। देवता स्वाहाकार स्तनका, पितर स्वधाकार स्तनका अन्य देवता तथा भूतेश्वर वषट्कारका और मनुष्य हन्तकार स्तनका निरन्तर पान करते हैं। जो मनुष्य श्रद्धासे इस धर्ममयी धेनुके लिये बतायी गयी विधिका निरन्तर अनुपालन करता है, वह अग्निके समान तेजस्वी एवं पवित्र हो जाता है और | जो उसका त्याग करता है, वह अशान्त होकर तामिस्र नरकमें डूबता रहता है। इसलिये उन सबको बलि प्रदान करके क्षणमात्र द्वारपर रुककर अतिथिकी प्रतीक्षा करे और यथाशक्ति अपने भोजनसे भूखे अभ्यागत अथवा अपने ही गाँव के रहनेवाले किसी व्यक्ति विधिपूर्वक उत्तम अन्नका भोजन कराये ।। 35-47 ॥
जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह उस व्यक्तिको अपना पाप देकर और उसका पुण्य लेकर चला जाता है। उसके बाद मधुर अन्नको खानेवाला मनुष्य श्रृंखलाओंसे आबद्ध होकर जिह्वाके वेगसे बिंधा हुआ चिरकालतक नरकमें निवास करता है। तिल-तिलभर उसका मांस काटकर और रुधिरको निकालकर उन्हें खानेके लिये दिया जाता है। इसके | बाद कोड़ोंसे मारकर उसे बहुत कष्ट दिया जाता है। | अत्यधिक भूख और प्याससे व्याकुल होकर वह बहुत कष्ट पाता है 48- 51 ॥इस प्रकारकी अनेक यातनाएँ पाप करनेवालोंको दी जाती हैं, इसके अनन्तर अन्तमें जो भी वह प्राप्त करता है, उसे संक्षेपसे सुनिये ॥ 52 ॥
जो प्राणी महापाप करता है और थोड़ा धर्म भी करता है अथवा धर्माचरण अधिक करता है, उन दोनोंकी स्थितियोंको सुनिये ॥ 53 ॥
अधिक पापके प्रभावके कारण पुण्यका फल नहीं बताया गया; अनेक भोगोंसे युक्त होनेपर भी वह उनसे सुखी नहीं हो पाता और व्याकुल तथा अति सन्तप्त हुआ वह भोजनयोग्य पदार्थोंसे सुखका | अनुभव नहीं करता है। वह अभावके कारण दूसरेके आगे प्रतिदिन दुखी रहता है ।। 54-55 ।।
जिस मनुष्यने अधिक धर्म किया है, वह धनसम्पन्न उपवासी गृहस्थके समान नियममें स्थित रहनेपर भी पीड़ाका अनुभव नहीं करता है ॥ 56 ॥
इस प्रकारके अनेक घोर पाप हैं, जिनके द्वारा भूलोक में मनुष्य वज्रसे आहत हुए पर्वतकी भाँति सौ | टुकड़ोंमें छिन्न- भिन्न हो जाता है ॥ 57 ॥