सूतजी बोले- [ हे ऋषियो!] वहाँपर आँगनमें एक उत्तम गाय बँधी थी। रातको जब बाहर गया हुआ [गृहपति] ब्राह्मण आया, तब हे मुनीश्वरो ! गायको बिना दुही हुई आँगनमें स्थित देख करकेखिन्न हो उसे दुहनेकी इच्छासे उसने अपनी पत्नीसे |कहा- हे प्रिये। तुमने अभीतक गाय नहीं दुही? पत्नीसे ऐसा कहकर वह बछड़ेको ले आया। इसके बाद हे मुनियो । दुहनेके उद्देश्यसे शीघ्र ही स्त्रीको बुलाकर दूधकी इच्छावाला वह गृहपति ब्राह्मण स्वयं बछड़ेको खूंटेमें बाँधनेका प्रयत्न करने लगा ॥ 1-4 ॥
हे सुव्रतो! ब्राह्मणद्वारा खींचे जानेपर बछड़ेने उसके पैरमें लात मार दी, जिससे ब्राह्मणको कष्ट हुआ ॥ 5 ॥
उस पादप्रहारके कारण क्रोधसे तमतमाये हुए उस ब्राह्मणने कुहनीसे उस बछड़ेको जोरसे मारा ॥ 6 ॥ इस प्रकार उसके द्वारा मारे जानेपर बछड़ा भी शान्त हो गया। उसके बाद उस ब्राह्मणने गायको दुह लिया, किंतु क्रोधके कारण बछड़ेको मुक्त नहीं किया ॥ 7 ॥ वह गाय अपने बछड़े को प्रीतिपूर्वक दूध पिलानेके लिये महान् रुदन करने लगी; तब उसका रुदन देखकर बछड़ेने यह वाक्य कहा- ॥ 8 ॥
बछड़ा बोला हे माता! तुम क्यों रो रही हो, तुम्हें कौन-सा दुःख आ पहुँचा; उसे प्रेमपूर्वक मुझे बताओ। यह सुनकर गाय बोली- हे पुत्र ! मेरा दुःख सुनो; मैं उसे कह नहीं सकती हूँ। इस दुष्टने तुमको मारा है, इससे मुझे भी [बहुत] दुःख हुआ है ।। 9-10 ॥ सूतजी बोले- अपनी माताकी बात सुनकर प्रारब्धसे सन्तुष्ट उस बछड़ेने अपनी माताको समझाते हुए कहा- ॥ 11 ॥ हे मातः ! क्या किया जाय और कहाँ जाया जाय; क्योंकि हम सभी कर्मके बन्धनमें बंधे हुए हैं, इसलिये पूर्वमें जैसा कर्म किया गया है, वही इस समय भोगना पड़ रहा है ॥ 12 ॥
प्राणी हँसते हुए तो कर्म करता है और रोते हुए उसका फल भोगता है। कोई किसीको न सुख देनेवाला है और न ही किसीको दुःख देनेवाला है ॥ 13 ॥
"कोई दूसरा सुख और दुःख देनेवाला है'- यह दुर्बुद्धि मानी गयी है। 'मैं ही करता हूँ' यह मिथ्या ज्ञान कहा जाता है। [ प्राणीको] अपने कर्मोंसे दुःख होता है और उसी कर्मसे सुख भी होता है, इसलिये कर्मकी पूजा होती है; सब कुछ कर्ममें ही स्थित है ।। 14-15 ।।हे माता तुम में और ये जीव आदि जो भी ये सब कर्मसे हुए हैं, इसलिये तुम किसी प्रकारका सोच मत करो ।। 16 ।।
सूतजी बोले- इस प्रकार अपने पुत्रके ज्ञानपूर्ण | वचनको सुनकर पुत्रशोकसे युक्त एवं दुःखित उस गायने यह कहा- ॥ 17 ॥
गाय बोली- हे वत्स । मैं सब जानती हूँ कि सभी प्राणी कर्मके अधीन हैं, किंतु मोहसे ग्रस्त होने के कारण में बारंबार दुःख प्राप्त कर रही है। [तुम्हारी ममतावश] बहुत रुदन भी किया, किंतु तब भी दुःख शान्त नहीं हो रहा है। तब यह बात सुनकर बछड़ेने मातासे यह कहा - ।। 18-19 ।।
बछड़ा बोला यदि तुम ऐसा जानती हो, से फिर रोना कैसा ! कुछ भी करके उसका भोग करना ही पड़ता है, अतः अब दुःख छोड़ो ॥ 20 ॥
सूतजी बोले- पुत्रकी यह बात सुनकर उसकी माता बहुत दुःखित हुई। इसके बाद लम्बी साँस लेकर गायने बछड़ेसे यह वचन कहा- ॥ 21 ॥ गाय बोली- हे पुत्र ! मेरा दुःख तो तभी दूर होगा, जब वैसा ही दुःख इस ब्राह्मणको भी होगा; यह मैं सत्य कह रही हूँ ॥ 22 ॥
हे पुत्र ! मैं प्रातः काल उसे अवश्य ही दोनों सींगोंसे मारूँगी और तब घायल होनेपर इसके प्राण अवश्य छूट जायेंगे इसमें संशय नहीं है॥ 23 ॥
बछड़ा बोला हे मातः ! तुमने पूर्वजन्ममें जो कर्म किया है, उसका फल इस समय भोग रही हो और अब इस ब्रह्महत्याका फल किस प्रकार भोगोगी ? ॥ 24 ॥
हे माता! पुण्य और पापके समान होनेपर भारतमें जन्म प्राप्त होता है और भोगके द्वारा उन दोनोंके नष्ट होनेपर मुक्ति प्राप्त होती है ॥ 25 ॥
कभी-कभी कर्मके द्वारा कर्मका नाश हो जाता है तो कभी वह कर्म भोगका भी कारण बनता है इसलिये तुम पुनः इस प्रकारका कर्म करनेके लिये तत्पर मत होओ। मैं कहाँसे आज तुम्हारा | पुत्र हूँ और कहाँसे तुम मेरी माता हो; अतः पुत्रत्व | और मातृत्वका अभिमान व्यर्थ है-तुम इसपर विचार करो ।। 26-27 ॥तुम विचार करो कि कौन किसकी माता और कौन किसका पिता है? कौन किसका स्वामी और कौन किसकी स्त्री है; यहाँपर कोई भी किसीका नहीं है, सभी अपने किये हुए कर्मका फल भोगते हैं ॥ 28 ॥
हे मातः ! ऐसा विचारकर आपको धैर्यसे दुःखका त्याग करना चाहिये और परलोकमें सुखकी इच्छा से सद्धर्मका आचरण करना चाहिये ॥ 29 ॥
गाय बोली- हे पुत्र ! [ यद्यपि ] मैं यह जानती हूँ, किंतु यह मोह मुझे नहीं छोड़ता। उसने तुम्हें जिस प्रकारका दुःख दिया है, मैं वैसा ही दुःख उसे भी दूँगी। उसके बाद मैं वहाँ जाऊँगी, जहाँ ब्रह्महत्याका नाश होता है, वह स्थान मैंने देखा है, जिससे मेरी हत्या दूर हो जायगी ॥ 30-31 ॥
सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो अपनी माता उस गायकी बात सुनकर बछड़ा चुप हो गया और [ इसके आगे] कुछ भी नहीं कह सका ॥ 32 ॥
हे मुनीश्वरो ! तब उन दोनोंकी यह अद्भुत बात सुनकर वह तीर्थयात्री ब्राह्मण विस्मित होकर मनमें विचार करने लगा कि प्रातः काल इस अद्भुत घटनाको देखकर ही मुझे जाना चाहिये; फिर मुझे उस [ब्रह्महत्याविनाशक] स्थानपर अवश्य चलना चाहिये ।। 33-34 ll
सूतजी बोले – हे ब्राह्मणो ! वह मातृभक्त ब्राह्मण मनमें ऐसा निश्चयकर सेवकसहित अति विस्मित हो रात्रिमें सो गया ॥ 35 ॥
इसके बाद प्रातः काल होनेपर गृहपति ब्राह्मण उठा और उस पथिकको जगाने लगा तथा उससे यह वचन कहने लगा-॥ 36 ॥
ब्राह्मण बोला- [हे पथिक] तुम अभीतक क्यों सो रहे हो ? प्रातः काल हो गया है, अतः जहाँ जानेकी इच्छा हो, उस स्थानके लिये अपनी यात्रा आरम्भ करो तब उसने कहा- हे ब्रह्मन् सुनिये, मेरे | सेवकके शरीरमें वेदना है, अतः मुहूर्तभर रुककर हम चले जायेंगे ।। 37-38 ।।सूतजी बोले- इस प्रकार बहाना बनाकर | उस अद्भुत तथा आश्चर्यजनक सम्पूर्ण घटनाके विषयमें जाननेके लिये वह व्यक्ति पुनः सो गया। तदनन्तर गाय दुहनेके समय कार्यवश कहीं जानेकी इच्छावाले उस [गृहपति] ब्राह्मणने अपने पुत्रसे कहा- ।। 39-40 ॥
पिता बोला- हे पुत्र मैं कार्यवश फिर कहीं अन्यत्र जा रहा हूँ; तुम सावधानीपूर्वक अपनी इस गायको दुह लेना ॥ 41 ॥ सूतजी बोले – [हे महर्षियो!] ऐसा कहकर वह ब्राह्मणश्रेष्ठ कहीं चला गया। फिर पुत्र उठा और उसने बछड़ेको खोला ॥ 42 ॥ उसी समय उसकी माता गाय दुहनेके लिये स्वयं आयो तब ब्राह्मणपुत्र कोहनीसे मारे जानेके कारण दुखी बछड़ेको दूधकी इच्छासे बाँधनेके लिये जब गायके पास ले गया, तब गाय क्रोधमें भरकर उसे सींगसे मारने लगी । ll 43-44 ।।
तब मर्मस्थानमें चोट खाया हुआ वह मूच्छित होकर गिर पड़ा। उसी समय सब लोग एकत्रित हो गये। 'गायने बालकको मार डाला, जल लाओ, जल लाओ' इस प्रकार कहते हुए वे जहाँ उसके पिता आदि थे, वहाँ पहुँचे। जबतक उसे बचानेका प्रयत्न किया गया, इतनेमें वह वालक मर गया ।। 45-46 ।।
बालकके मर जानेपर वहाँ हाहाकार मच गया; उसकी माता दुखी हो उठी और बारंबार रोने लगी ।। 47 ।।
'अब मैं क्या करूँ ! कहाँ जाऊँ! कौन मेरे दुःखको दूर करेगा इस प्रकार विलाप करके उसने गायको मारकर उसका बन्धन खोल दिया ll 48 ll
श्वेतवर्णकी वह गाय [ब्रह्महत्याके पापसे] श्यामवर्ण हो गयी। सभी लोग आपसमें जोर-जोर से कहने लगे- देखिये, यह कैसा आश्चर्य है ! ll 49 ll तब यात्री ब्राह्मण यह आश्चर्य देखकर चल दिया और वह गाय जहाँ गयी, वहाँ उसीके पीछे पीछे वह ब्राह्मण भी गया ॥ 50 ॥वह गाय अपनी पूँछ ऊपर उठाये शीघ्र ही नर्मदा नदीकी ओर आकर इन नन्दिकेश्वरके निकट नर्मदा नदीके जलमें तीन बार अवगाहन करके पुनः श्वेतवर्ण हो गयी। फिर वह जैसे आयी थी, वैसे चली गयी; इससे ब्राह्मण आश्चर्यचकित हो गया। वह बोला- अहो! ब्रह्महत्याका नाश करनेवाला यह तीर्थ परम धन्य है। तब स्वयं उस ब्राह्मणने सेवकके साथ वहीं स्नान किया। स्नान करके उस नदीकी प्रशंसा करते हुए वे दोनों चल दिये; इसके बाद मार्गमें आभूषणसे भूषित कोई सुन्दरी स्त्री उन्हें मिली ।। 51-54॥
उसने पूछा- हे पथिक आप चकित होकर कहाँ जा रहे हैं? हे विप्रवर। छल त्यागकर आप मेरे सामने सत्य सत्य कहिये ॥ 55 ॥
सूतजी बोले- उस स्त्रीकी बात सुनकर ब्राह्मणने सारी घटना यथार्थ रूपमें बता दी; फिर स्त्रीने उस ब्राह्मणसे कहा- तुम यहाँ रुको। तब उसकी बात सुनकर वह ब्राह्मण रुक गया और विनम्र होकर बोला- तुम क्या कहती हो? मुझे यह बताओ ।। 56-57 ।।
तब वह पुनः बोली- 'तुमने जिस स्थलको अभी देखा है, वहीं अपनी माताकी अस्थियोंको विसर्जित कर दो। अन्यत्र क्यों जाते हो? हे पथिकश्रेष्ठ! [ऐसा करनेसे] तुम्हारी माता साक्षात् दिव्य तथा उत्तम शरीर धारणकर शीघ्र ही शिवकी [कृपासे] सद्गतिको प्राप्त कर लेंगी। हे ब्राह्मण श्रेष्ठ वैशाखमासमें शुक्लपक्षको सप्तमीके शुभ अवसरमें यहाँ सर्वदा गंगाजी आती हैं। आज ही वह सप्तमी तिथि है और वह गंगा मैं ही हूँ तथा वहीं जा भी रही हूँ' हे मुनीश्वरो ! यह कहकर [स्त्रीरूपधारी] वे गंगाजी अन्तर्धान हो गयीं ॥ 58-61 ॥
इसके बाद उस ब्राह्मणने भी लौटकर माताकी आधी ही अस्थियोंको अपने वस्त्रसे ज्यों ही उस तीर्थमें विसर्जित किया, तभी एक विचित्र दृश्य उपस्थित हो गया ।। 62 ।।उसने दिव्य शरीर धारण की हुई अपनी माताको देखा; माताने उससे कहा - [ हे पुत्र!] तुम धन्य हो, कृतकृत्य हो; तुमने अपने कुलको पवित्र कर दिया, तुम्हारे धन, धान्य, आयु एवं वंशकी वृद्धि हो-बार बार अपने पुत्रको इस प्रकारका आशीर्वाद देकर वे स्वर्ग चली गयीं ॥ 63-64॥ वहाँपर बहुत समयतक अत्युत्तम परम सुख भोगकर शिवकृपासे उन्होंने श्रेष्ठ गति प्राप्त की ॥ 65 ॥ इसके बाद उसका पुत्र वह ब्राह्मण भी अस्थियाँ विसर्जितकर प्रसन्न मनवाला हो गया एवं शुद्धचित्त हो अपने घर चला गया ॥ 66 ॥