सूतजी बोले - [ हे मुनियो !] किसी समय उस दुष्टात्मा राक्षस दारुकके एक सेवकने वैश्यके समक्ष [स्थित हुए] शिवजीका सुन्दर रूप देखा ॥ 1 ॥
उसने जाकर राक्षसराजके सामने कौतुकसमन्वित उस अद्भुत चरित्रको यथार्थ रूपसे निवेदन किया। तब उस बलवान् राक्षसराज दारुकने भी विह्वल हो शीघ्र ही वहाँ आकर शिवके विषयमें उससे पूछा- ॥ 2-3 ॥
दारुक बोला- हे वैश्य! तुम किसका ध्यान कर रहे हो, मेरे सामने सत्य सत्य बताओ, ऐसा करनेपर तुम्हें मृत्युदण्ड नहीं प्राप्त होगा, अन्यथा तुम मारे जाओगे, मेरी बात कभी झूठी नहीं होती ॥ 4 ॥सूतजी बोले- तब उसने कहा- मैं कुछ नहीं जानता। यह सुनकर उसने कुपित होकर राक्षसोंसे कहा- हे राक्षसो! इसे मार डालो ॥ 5 ॥
उसके ऐसा कहनेपर तत्काल ही वे राक्षस शिवमें तत्पर चित्तवाले उस श्रेष्ठ वैश्यको मारनेके लिये अनेकविध शस्त्र धारणकर वेगसे दौड़े ॥ 6 ॥ तब उन राक्षसोंको आया हुआ देखकर वह वैश्य भयसे अपने नेत्रोंको बन्दकर अत्यन्त प्रेमपूर्वक शिवका स्मरण और बार-बार उनके नामका संकीर्तन करने लगा 7 ॥ वैश्यपति बोला- हे शंकर! हे देवेश! हे शम्भो ! हे शिव! हे त्रिलोकेश! हे दुष्टनाशक ! हे भक्तवत्सल ! इस दुष्टसे रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ 8 ॥
हे देव आप ही मेरे सर्वस्य हैं, हे प्रभो। इस समय मैं आपके अधीन हूँ, आपका ही हूँ और आप ही मेरे सर्वदा प्राण हैं ॥ 9 ॥
सूतजी बोले - [हे महर्षियो !] इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर चारों ओर दरवाजेवाले उत्तम मन्दिरके सहित शिवजी उस विवरसे प्रकट हुए। 10 ॥ उस (भवन) - केबीचमें ज्योतिःस्वरूप परिवारसहित अद्भुत शिवका रूप देखकर उसने पूजन किया ॥ 11 ॥
तब उससे पूजित हुए शिवजी प्रसन्न हो गये और उन्होंने [सुप्रिय वैश्यको] पाशुपत नामक अस्त्र दे करके सभी उपकरणों तथा गणोंसहित उन समस्त राक्षसगणोंका स्वयं शीघ्रतासे संहार कर दिया। इस प्रकार दुष्टोंका वध करनेवाले उन शिवने अपने भक्तकी रक्षा की ।। 12-13 ॥
उस समय अपनी लीलासे सुन्दर शरीर धारण करनेवाले तथा अत्यद्भुत चरित्र करनेवाले शिवजीने उन सबको मारकर उस वनको वरदान दिया कि इस वनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद-इन चारों वर्णोंके धर्म नित्य स्थिर रहेंगे ॥ 14-15 ॥
यहाँ शिवधर्मप्रवर्तक तथा शिवधर्मवता श्रेष्ठ मुनि ही होंगे, तमोगुणी लोग कभी नहीं होंगे ॥ 16 ॥ सूतजी बोले- इसी समय दुःखित मनवाली उस दास्का नामक राक्षसीने भगवती पार्वतीकी | स्तुति की ॥ 17 ॥तब पार्वतीजीने प्रसन्न होकर उससे कहा मैं क्या करूँ, तब उसने पुनः कहा- [हे देवि ! ] आप मेरे वंशकी रक्षा करें। मैं तुम्हारे वंशकी रक्षा अवश्य करूँगी, यह मैं सत्य कह रही हूँ-ऐसा कहकर उन्होंने शिवके साथ (लीलापूर्वक) कलह किया ।। 18- 19 ।।
उसके बाद वरदानके वशीभूत हुए शिवजीने क्रुद्ध हुई पार्वतीजीको देखकर प्रेमपूर्वक कहा- तुम जैसा चाहो, वैसा करो 20 सूतजी बोले- अपने पति शिवजीका यह वचन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई पार्वतीजीने हँस करके शीघ्रतासे यह वचन कहा- ॥ 21 ॥
पार्वतीजी बोलीं- आपका वचन युगके अन्तमें सत्य होगा, तबतक तामसी सृष्टि ही बनी रहे ऐसा मेरा विचार है, अन्यथा प्रलय हो जायगा। हे शिवजी यह मैं सत्य कहती हूँ। हे नाथ! मैं आपकी [ वल्लभा ] हूँ और आपकी आश्रिता हूँ। अतः मेरा वचन प्रमाणित कीजिये। यह राक्षसी देवी दारुका मेरी शक्ति है, सभी राक्षसियोंमें बलिष्ठ है, यह राक्षसोंपर राज्य करे ये राक्षसोंकी पत्नियाँ यहाँपर अपने पुत्रोंको उत्पन्न करेंगी। वे सब मिलकर इस वनमें मेरी आज्ञासे निवास करेंगी। ll 22-25 ॥
सूतजी बोले- अपनी पत्नी पार्वतीजीका यह वचन सुनकर भगवान् शिव प्रसन्नमन होकर यह वाक्य कहने लगे- ॥ 26 ॥
शंकर बोले- हे प्रिये! यदि तुम ऐसा कहती हो, तो मेरी बात सुनो। मैं अपने भक्तोंका पालन करनेके लिये इस वनमें प्रीतिपूर्वक निवास करूँगा ॥ 27 ॥ यहाँपर जो अपने वर्णोचित धर्ममें स्थित होकर प्रेमपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा होगा ॥ 28 ॥
इसके बाद कलियुगके बीत जानेपर तथा सत्ययुगके प्रारम्भ होनेपर अपनी बहुत बड़ी सेनासे युक्त जो वीरसेन नामक प्रसिद्ध श्रेष्ठ राजा होगा, वह मेरी भक्तिके प्रभावसे अतीव पराक्रमी होगा, वह यहाँ आकर मेरा दर्शन करेगा और मेरे दर्शनके फलस्वरूप वह चक्रवर्ती राजा बनेगा ॥ 29-30 ॥सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! इस प्रकार साक्षात्
महालीला करनेवाले वे शिव और पार्वती परस्पर हास- विलास करके स्वयं वहीं स्थित हो गये ॥ 31 ॥ वहाँ ज्योतिर्लिंगरूप शिवजी नागेश्वर नामसे तथा देवी पार्वती नागेश्वरी नामसे प्रसिद्ध हुईं, वे दोनों सज्जनोंको अत्यन्त प्रिय हैं ॥ 32 ॥
ऋषिगण बोले- हे महामते ! वीरसेन उस दारुका वनमें किस प्रकार जायेंगे और किस प्रकार शिवजीकी पूजा करेंगे, आप इसका वर्णन कीजिये ? ।। 33 ।।
सूतजी बोले- निषेध नामक सुन्दर देशमें क्षत्रियोंके कुलमें महासेनके वीरसेन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो शिवका [अत्यन्त ] प्रिय था ॥ 34 ॥ वीरसेनने पार्थिवेश शिवका अर्चन करते हुए बारह वर्षपर्यन्त अत्यन्त कठिन तप किया ॥ 35 ॥ तब प्रसन्न हुए देवाधिदेव शंकरने प्रकट होकर [राजासे] कहा- हे वीरसेन! काठकी मछली बनाकर उसपर राँगेका लेपकर [और उसे] योगमाया [ से सम्पन्न ] बनाकर तुम्हें दे रहा हूँ, उसे लेकर तुम इस समय नौकासे इस विवरमें प्रवेश करके चले जाओ, तदनन्तर वहाँ जाकर मेरे द्वारा किये गये उस विवरमें प्रविष्ट होकर नागेश्वरका पूजन करके उनसे पाशुपतास्त्र प्राप्तकर इन [ दारुका आदि] प्रमुख राक्षसियोंका विनाश करना। मेरे दर्शनके प्रभावसे तुम्हें किसी प्रकारकी कमी न होगी। उस समयतक पार्वतीका वरदान भी पूर्ण हो जायगा, जिससे वहाँ जो अन्य म्लेच्छरूपवाले होंगे, वे भी सदाचारी हो जायँगे ॥ 36-40 ॥
दुःखको दूर करनेवाले प्रभु सदाशिव वीरसेनसे | इतना कहकर उनपर महती कृपा प्रकट करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 41 ॥
तब परमात्मा शिवसे वर प्राप्त किये हुए वे वीरसेन भी बिना संसदके सब कुछ करने में समर्थ हो गये ।। 42 ।।
इस प्रकार ज्योतियोंके पति लिंगरूप प्रभु नागेश्वरदेवको उत्पत्ति हुई, वे तीनों लोकोंको सम्पूर्ण कामनाको सदा पूर्ण करनेवाले हैं॥ 43 ॥जो प्रतिदिन नागेश्वरकी इस उत्पत्तिका वृत्तान्त श्रद्धापूर्वक सुनता है, वह बुद्धिमान् महापातकोंका नाश करनेवाले सम्पूर्ण अभीष्टोंको प्राप्त कर लेता है ॥ 44 ॥