सूतजी बोले – [हे मुनियो ।] एक समय बात है, ब्रह्माजी के पुत्र, निशिरोमणि विन नारदजीने तपस्याके लिये मनमें विचार किया॥1॥
हिमालय पर्वतमें कोई एक परम शोभा-सम्पन गुफा थी, जिसके निकट देवनदी गंगा निरन्तर वेगपूर्वक बहती थीं ॥ 2 ॥
वहाँ एक महान् दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकारकी शोभासे सुशोभित था। वे दिव्यदर्शी नारदजी तपस्या करनेके लिये वहाँ गये ॥ 3 ॥
उस गुफरको देखकर मुनिवर नारदजी बड़े प्रसन हुए और सुदीर्घकालतक वहाँ तपस्या करते रहे। उनका अन्तःकरण शुद्ध था। वे दृढ़तापूर्वक आसन बाँधकर मौन हो प्राणायामपूर्वक समाधिमें स्थित हो गये 4॥ हे ब्राह्मणो उन्होंने वह समाधि लगायी, जिसमें ब्रह्मका साक्षात्कार करानेवाला 'अहं ब्रह्मास्मि' [मैं ब्रह्म हूँ ] - यह विज्ञान प्रकट होता है ॥ 5 ॥ मुनिवर नारदजी जब इस प्रकार तपस्या करने लगे, तब देवराज इन्द्र काँप उठे और मानसिक सन्तापसे व्याकुल हो गये ॥ 6 ॥ 'वे नारद मुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं'-मन ही-मन ऐसा सोचकर इन्द्रने उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये प्रयत्न करनेकी इच्छा की। उस समय | देवनायक इन्द्रने मनसे कामदेवका स्मरण किया। [स्मरण करते ही ] समान बुद्धिवाले कामदेव अपनी पत्नी रतिके साथ आ गये ।। 7-8 ।।आये हुए कामदेवको देखकर कपटबुद्धि देवराज इन्द्र शीघ्र ही स्वार्थके लिये उनको सम्बोधित करते हुए कहने लगे- ॥ 9 ॥
इन्द्र बोले- मित्रोंमें श्रेष्ठ हे महावीर हे सर्वदा हितकारक तुम प्रेमपूर्वक मेरे वचनोंको सुनो और मेरी सहायता करो ॥ 10 ॥ हे मित्र! तुम्हारे बलसे मैंने बहुत लोगों की तपस्याका गर्व नष्ट किया है तुम्हारी कृपासे ही मेरा
यह राज्य स्थिर है ॥ 11 ॥
पूर्णरूपसे संयमित होकर दृढनिश्चयी देवर्षि नारद मनसे विश्वेश्वर भगवान् शंकरकी प्राप्तिका लक्ष्य बनाकर हिमालयकी गुफामें तपस्या कर रहे हैं ll 12 ॥
मुझे यह शंका है कि [तपस्यासे प्रसन्न] ब्रह्मासे वे मेरा राज्य ही न माँग लें। आज ही तुम वहाँ चले जाओ और उनकी तपस्यामें विघ्न डालो ॥ 13 ॥
इन्द्रसे ऐसी आज्ञा पाकर वे कामदेव वसन्तको साथ लेकर बड़े गर्वसे उस स्थानपर गये और अपना उपाय करने लगे ॥ 14 ॥ उन्होंने वहाँ शीघ्र ही अपनी सारी कलाएँ रच डालीं वसन्तने भी मदमत्त होकर अनेक प्रकारसे अपना प्रभाव प्रकट किया ।। 15 ।।
हे मुनिवरो! [कामदेव और वसन्तके अथक प्रयत्न करनेपर भी] नारदमुनिके चित्तमें विकार नहीं उत्पन्न हुआ। महादेवजीके अनुग्रहसे उन दोनोंका गर्व चूर्ण हो गया ॥ 16 ॥
हे शौनक आदि महर्षियो। ऐसा होनेमें जो कारण था, उसे आदरपूर्वक सुनिये महादेवजीकी कृपासे ही [ नारदमुनिपर ] कामदेवका कोई प्रभाव नहीं पड़ा ॥ 17 ॥
पहले उसी आश्रम कामशत्रु भगवान् शिवने उत्तम तपस्या की थी और वहीं पर उन्होंने मुनियोंकी तपस्याका नाश करनेवाले कामदेवको शीघ्र ही भस्म कर डाला था ॥ 18 ॥
उस समय रतिने कामदेवको पुनः जीवित करनेके लिये देवताओंसे प्रार्थना की। तब देवताओंने समस्त लोकोंका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरसे याचना की। इसपर वे बोले-हे देवताओ! कुछ समय व्यतीत होनेके बाद कामदेव जीवित तो हो जायेंगे, परंतु यहाँ उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा । ll19-20 ॥हे अमरगण। यहाँ खड़े होकर लोग चारों ओर जितनी दूरतककी भूमिको नेत्रोंसे देख पाते हैं, वहाँतक कामदेवके बाणों का प्रभाव नहीं चल सकेग इसमें संशय नहीं है ॥ 21 ॥
भगवान् शंकरकी इस उक्तिके अनुसार उस समय वहाँ नारदजी के प्रति कामदेवका अपना प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ। वे शीघ्र ही स्वर्गलोकमें इन्द्रके पास लौट गये ॥ 22 ॥
वहाँ कामदेवने अपना सारा वृतान्त और मुनिका प्रभाव कह दिया। तत्पश्चात् इन्द्रकी आज्ञासे वे वसन्तके साथ अपने स्थानको लौट गये ॥ 23 ॥
उस समय देवराज इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने नारदजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण वे उस पूर्ववृत्तान्तका स्मरण न कर सके ॥ 24 ॥
वास्तवमें इस संसार में सभी प्राणियोंकि लिये शम्भुकी | मायाको जानना अत्यन्त कठिन है। जिसने अपने-आपको | शिवको समर्पित कर दिया है, उस भक्तको छोड़कर है | शेष सम्पूर्ण जगत् उनकी मायासे मोहित हो जाता है ।। 25 ।।
नारदजी भी भगवान् शंकरकी कृपासे वहाँ चिर | कालतक तपस्यामें लगे रहे। अन्तमें अपनी तपस्याको पूर्ण हुआ जानकर वे मुनि उससे विरत हो गये॥ 26 ॥
कामदेवपर अपनी विजय मानकर उन मुनीश्वरको व्यर्थ ही गर्व हो गया। भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण उन्हें यथार्थ बातका ज्ञान नहीं रहा ॥ 27 ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! भगवान् शम्भुकी महामाया धन्य है, धन्य है। ब्रह्मा, विष्णु आदि देव भी उसकी गतिको नहीं देख पाते हैं ॥ 28 ॥
उस मायासे अत्यन्त मोहित मुनिशिरोमणि नारद गर्वयुक्त होकर अपना [कामविजय-सम्बन्धी] वृत्तान्त बतानेके लिये तुरंत ही कैलास पर्वतपर गये ॥ 29 ॥ वहाँ रुद्रदेवको नमस्कार करके गर्वसे भरे हुए मुनिने अपने आपको महात्मा, प्रभु तथा कामजेता मानकर उनसे अपना सारा वृत्तान्त कहा ॥ 30 ॥
यह सुनकर भक्तवत्सल शंकरजी अपनी मायासे मोहित, वास्तविक कारणसे अनभिज्ञ तथा भ्रष्टचित | नारदसे कहने लगे- ॥31॥रुद्र बोले - हे तात! हे नारद! हे प्राज्ञ! तुम धन्य हो। मेरी बात सुनो, अबसे फिर कभी ऐसी बात कहीं भी न कहना और विशेषतः भगवान् विष्णुके सामने तो इसकी चर्चा कदापि न करना ॥ 32 ॥
तुमने मुझसे अपना जो वृत्तान्त बताया है, उसे पूछनेपर भी दूसरोंके सामने न कहना। यह [सिद्धि सम्बन्धी] वृत्तान्त सर्वथा गुप्त रखनेयोग्य है, इसे कभी किसीसे प्रकट नहीं करना चाहिये ॥ 33 ॥
तुम मुझे विशेष प्रिय हो, इसीलिये [अधिक जोर देकर] मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूँ; क्योंकि तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो और उनके भक्त होते हुए मेरे अत्यन्त अनुगामी हो ॥ 34 ॥
इस प्रकार बहुत कुछ कहकर संसारकी सृष्टि करनेवाले भगवान् रुद्रने नारदजीको शिक्षा दी, परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण नारदजीने उनकी दी हुई शिक्षाको अपने लिये हितकर नहीं माना। भावी | कर्मगति अत्यन्त बलवान् होती है, उसे बुद्धिमान् लोग ही जान सकते हैं। भगवान् शिवकी इच्छाको कोई भी मनुष्य नहीं टाल सकता ॥ 35-36 ॥
तदनन्तर मुनिशिरोमणि नारद ब्रह्मलोकमें गये। वहाँ ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने अपने तपोबलसे कामदेवको जीत लेनेकी बात कही ॥ 37 ॥
उनकी वह बात सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके और समस्त कारण जानकर अपने पुत्रको यह सब कहनेसे मना किया ।। 38 ।।
नारदजी शिवकी मायासे मोहित थे, अतएव | उनके चित्तमें मदका अंकुर जम गया था। इसलिये ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ नारदजीने ब्रह्माजीकी बातको अपने लिये हितकर नहीं समझा ॥ 39 ॥ इस लोक में शिवकी जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है। समस्त विश्व उन्हींकी इच्छाके अधीन है और उन्हींकी वाणीरूपी तन्त्रीसे बँधा हुआ है ।। 40 ।।
तब नष्ट बुद्धिवाले नारदजी अपना सारा वृत्तान्त गर्वपूर्वक भगवान् विष्णुके सामने कहनेके लिये वहाँसे शीघ्र ही विष्णुलोकमें गये ॥ 41 ॥नारद मुनिको आते देखकर भगवान् विष्णु बड़े आदरसे उठकर शीघ्र ही आगे बढ़े और उन्होंने मुनिको हृदयसे लगा लिया। उन्हें मुनिके आगमनके हेतुका ज्ञान पहलेसे ही था। नारदजीको अपने आसनपर बैठाकर भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका स्मरण करके श्रीहरि उनसे यथार्थ तथा गर्वनाशक वचन कहने लगे- ॥ 42-43 ।।
विष्णु बोले - हे तात ! आप कहाँसे आ रहे हैं? यहाँ किसलिये आपका आगमन हुआ है ? हे मुनिश्रेष्ठ! आप धन्य हैं। आपके शुभागमनसे मैं पवित्र हो गया ॥ 44 ॥
भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर गर्वसे भरे हुए नारद मुनिने मदसे मोहित होकर अपना सारा वृत्तान्त बड़े अभिमानके साथ बताया ॥ 45 ॥
नारद मुनिका वह अहंकारयुक्त वचन सुनकर मन-ही-मन शिवके चरणारविन्दोंका स्मरणकर भगवान् विष्णुने उनके कामविजयके समस्त यथार्थ कारणको पूर्णरूपसे जान लिया ॥ 46 ॥
उसके पश्चात् शिवके आत्मस्वरूप, परम शैव, सुबुद्ध भगवान् विष्णु भक्तिपूर्वक अपना सिर झुकाकर हाथ जोड़कर परमेश्वर कैलासपति शंकरकी स्तुति करने लगे ॥ 47 ॥
विष्णु बोले- हे देवेश्वर! हे महादेव ! हे परमेश्वर! आप प्रसन्न हों । हे शिव! आप धन्य हैं और सबको विमोहित करनेवाली आपकी माया भी धन्य है ॥ 48 ॥
इस प्रकार परमात्मा शिवकी स्तुति करके हरि अपने नेत्रोंको बन्दकर उनके चरणकमलोंमें ध्यानस्थित होकर चुप हो गये ll 49 ।।
विश्वपालक हरि शिवके द्वारा जो होना था, उसे हृदयसे जानकर शिवके आज्ञानुसार मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे कहने लगे- ॥ 50 ॥
विष्णु बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आप धन्य हैं, आप तपस्याके भण्डार हैं और आपका हृदय भी बड़ा उदार है। हे मुने। जिसके भीतर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते, उसीके मनमें समस्त दुःखोंको देनेवाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं। आप तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं और सदा ज्ञान-वैराग्यसे युक्त रहते हैं, फिर आपमें कामविकार कैसे आ सकता है। आप तो जन्मसे 2 निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धिवाले हैं ॥ 51-52 ॥श्रीहरिकी कही हुई बहुत-सी बातें सुनकर मुनिशिरोमणि नारदजी जोर-जोरसे हँसने लगे और मन-ही-मन भगवान्को प्रणाम करके इस प्रकार कहने लगे - ॥ 531/2 ॥
नारदजी बोले - हे स्वामिन्! यदि मुझपर आपकी कृपा है, तब कामदेवका मेरे ऊपर क्या प्रभाव हो सकता है। ऐसा कहकर भगवान्के चरणोंमें मस्तक झुकाकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चले गये ॥ 54-55 ॥