व्यासजी बोले- हे मुने! यदि आप मुझसे सन्तुष्ट हैं तो स्त्रियोंकी जिस दुष्प्रवृत्तिको पंचचूडाने कहा है, उसे संक्षेपमें मुझसे कहिये ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले - हे विप्र ! सुनिये, मैं स्त्रियोंके स्वभावका यथार्थरूपमें वर्णन कर रहा हूँ, जिसके सुनने मात्रसे उत्तम वैराग्य हो जाता है ॥ 2 ॥ हे मुने! क्षुद्रचित्तवाली स्त्रियाँ सदा दोषोंकी जड़ होती हैं। इसलिये सावधान मुमुक्षुओंको उनमें आसक्ति नहीं करनी चाहिये ॥ 3 ॥ इस विषय में व्यभिचारिणी पंचचूडाके साथ नारदजीके संवादरूप इस प्राचीन इतिहासको लोग उदाहृत करते हैं। पूर्वकालमें सम्पूर्ण लोकोंमें विचरण करते हुए बुद्धिमान् देवर्षि नारदने सुन्दरी बाला पंचचूडा नामक अप्सराको देखा ॥ 4-5 ॥मुनिश्रेष्ठ नारदने सुन्दर भौंहोंवाली उस अप्सरासे पूछा- हे सुमध्यमे मेरे मनमें कुछ सन्देह है, तुम उसे बताओ। इस प्रकार पूछे जानेपर उस श्रेष्ठ अप्सराने विप्र नारदजीसे कहा-यदि आप मुझे उसके योग्य समझते हों और मैं कहने में समर्थ हुई तो आपके प्रश्नोंका उत्तर दूँगी ll 6-7 ।।
नारदजी बोले - हे भद्रे । मैं तुम्हें किसी ऐसे कार्यमें प्रवृत्त नहीं करूँगा, जो तुम्हारी जानकारीसे बाहर हो हे सुमध्यमे। मैं तुमसे स्त्रियोंके स्वभावको सुनना चाहता हूँ ॥ 8 ॥
सनत्कुमार बोले- हे व्यासजी देवर्षिका यह वचन सुनकर श्रेष्ठ अप्सरा मुनीश्वर देवर्षिसे कहने लगी - ॥ 9 ॥
पंचचूडा बोली- हे मुने! कोई स्त्री सती नारीकी निन्दा नहीं कर सकती है, जो स्त्रियों स्वभावसे जिस प्रकारकी होती हैं, उनके विषयमें आप जानते ही हैं ॥ 10 ॥
अतः हे मुने। मुझे इस प्रकारके प्रश्नके समाधानमें नियुक्त मत कीजिये। ऐसा कहकर वह श्रेष्ठ अप्सरा पंचचूडा मौन हो गयी। तब उसका उत्तम वचन सुनकर देवर्षियोंमें श्रेष्ठ नारदजी लोगोंके हितकी कामनासे उससे पुनः कहने लगे- ॥ 11.12 ॥
नारदजी बोले -झूठ बोलनेमें दोष होता है, सत्य बोलनेमें दोष नहीं है-ऐसा तुम सत्य जानो, अतः हे सुमध्यमे ! तुम उसे बताओ ॥ 13 ll
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार बतानेके लिये बलात् प्रेरित किये जानेपर मनोहर हास्यवाली वह निश्चयपूर्वक स्त्रियोंके स्वाभाविक तथा सत्य दोषोंको कहने लगी ॥ 14 ॥
पंचचूडा बोली- हे नारद! कुलीन, पतिमती एवं सुन्दर रूपवाली स्त्रिय [भी कभी-कभी] मर्यादामें नहीं रहती हैं, यही दोष स्त्रियोंमें है। इस प्रकारकी स्त्रियाँ अपने पतिके परोक्षमें बिना जाने हुए भी धनवान्, रूपवान् एवं अपनेको चाहनेवाले पुरुषोंकी कामना करती हैं और किसीकी प्रतीक्षा नहीं करतीं ॥। 15 - 17 ॥हे प्रभो! हम जैसी स्त्रियोंका यह एक बड़ा बुरा धर्म है, जो कि हम लज्जा छोड़कर अन्य पुरुषोंका भी सेवन करती हैं। जो मनुष्य स्त्रीको चाहता है, उसके समीप जाता है एवं थोड़ा भी उसकी सेवा करता है, उसे स्त्रियाँ चाहने लगती हैं ।। 18-19 ।।
बिना मर्यादावाली स्त्रियाँ मनुष्योंकि कामलोलुप न रहनेसे एवं पति आदिके भयसे ही अपने पतियोंकी मर्यादामें रहती हैं ॥ 20 ॥
इनके लिये अमान्य कोई नहीं है और न तो इनके लिये अवस्थाका ही कोई निश्चय है, ये सुरूप अथवा कुरूप किसी भी प्रकारके पुरुषका सेवन कर लेती हैं। ऐसी स्वियों न भयसे, न आक्रोशसे, न धनके निमित्त और न जातिकुलके सम्बन्धसे ही पतियों के वशमें रहती हैं । ll 21-22 ॥
ऐसी स्त्रियाँ युवावस्थामें इच्छानुसार वस्त्र आभूषण प्राप्त करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्रियोंके साथकी अभिलाषा करती हैं ॥ 23 ॥
जो प्रिय स्त्रियाँ सर्वदा बहुत सम्मानित होकर रखी जाती हैं, वे भी कुबड़े, अन्धे, मूर्ख, बौने तथा लँगड़े मनुष्योंपर आसक्त हो जाती हैं। हे देवर्षे हे महामुने! संसारमें अन्य भी जो निन्दित पुरुष हैं, उनमें कोई भी ऐसी स्त्रियोंके लिये अगम्य नहीं है ।। 24-25 ॥
हे ब्रह्मन् ! स्त्रियाँ यदि किसी प्रकार पुरुषोंको प्राप्त नहीं कर पातीं तो वे आपसमें भी आसक्त हो जाती हैं, परंतु अपने पतियोंकि वशमें नहीं रहतीं ॥ 26 ॥ पुरुषोंके प्राप्त न होनेसे, परिजनोंके भयसे और वध तथा बन्धनके भयसे ही वे स्त्रियाँ कामनारहित हुआ करती हैं। चंचल स्वभाववाली तथा बुरी चेष्टाओंवाली स्त्रियाँ भावुक होनेके कारण बुद्धिमान् पुरुषके द्वारा भी दुर्ग्राह्य ही होती हैं, वे तो केवल संयोगसे ही अनुकूल हो सकती हैं॥ 27-28 ॥
हे मुने! जिस प्रकार आग काष्ठोंसे तृप्त नहीं होती, समुद्र नदियोंसे तृप्त नहीं होता तथा काल सभी जीवोंसे भी तृप्त नहीं होता, उसी प्रकार असती स्त्रियाँ भी पुरुषोंसे तृप्त नहीं होतीं। हे देवर्षे! यह एक विशेष बात है कि पुरुषोंका अवलोकन करनेपर असती स्त्रियोंके अवयव विह्वल हो जाते हैं । 29-30 ॥सुगन्धका लेप किये हुए एवं अच्छी तरह स्नान किये हुए निर्मल पुरुषको देखकर पानीसे भरी मशकके समान स्त्रियोंमें आंगिक विकार परिलक्षित होने लगते हैं। दुष्ट स्त्रियाँ तो इच्छाओंको पूर्ण करनेवाले, मान देनेवाले, सान्त्वना प्रदान करनेवाले तथा रक्षा करनेवाले प्रिय स्वामीके भी वशमें नहीं रहती हैं ॥ 31-32 ॥
वे न सम्पूर्ण कामोंके भोगसे और न तो अलंकार तथा धनके संचयसे वैसा सुख मानती हैं, जैसा शृंगारिकताके परिग्रहसे मानती हैं। काल, कष्ट देनेवाला मृत्यु, पाताल, बड़वानल, छूरेकी धार, विष, सर्प एवं अग्नि- ये सभी एक ओर तथा स्त्रियाँ एक ओर हैं, अर्थात् इन काल आदिका सामर्थ्य सम्मिलित रूपसे ही स्त्रीसामर्थ्यके तुल्य हो सकता है ॥ 33-34 ॥
हे नारद! ब्रह्माने जहाँसे पंच महाभूतों तथा जहाँसे लोकका निर्माण किया एवं जहाँसे स्त्री-पुरुषोंका निर्माण किया, वहींसे स्त्रियोंमें सर्वदा दोषका विधान किया है अर्थात् स्त्रियोंके ये दोष स्वाभाविक हैं ॥ 35 ॥
सनत्कुमार बोले—उसका वचन सुनकर नारदजी प्रसन्नचित्त हो गये और उसकी बात सत्य मानकर स्त्रियोंसे विरक्त हो गये। हे व्यास ! इस प्रकार मैंने पंचचूडाद्वारा कहे गये स्त्रियोंके स्वभावको आदरपूर्वक आपसे कह दिया, जो वैराग्यका कारण है, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 36-37 ॥