ऋषिगण बोले- हे महाप्राज्ञ ! हे सूत! आपने बड़ी अद्भुत कथाका वर्णन किया है। भगवान् शंकरकी माया धन्य है। यह चराचर जगत् उसीके अधीन है ॥ 1 ॥भगवान् शंकरके वे दोनों गण जब अपनी इच्छासे [कहीं अन्यत्र] चले गये, तब कामविह्वल और [अपमानसे] क्रुद्ध मुनि नारदने क्या किया ? ॥ 2 ॥ सूतजी बोले- शिवकी इच्छासे विमोहित [उस राजकुमारीके प्रति विशेष आसक्ति होनेके कारण अन्य अर्थ - अनर्थके ज्ञानसे रहित] मुनिने उन दोनोंको यथोचित शाप देकर जलमें अपना मुख और स्वरूप देखा ॥ 3 ॥
शिव-इच्छाके कारण उन्हें ज्ञान नहीं हुआ और विष्णुके द्वारा किये गये छलका स्मरण करके दुःसह क्रोधमें आकर वे उसी समय विष्णुलोकमें जा पहुँचे। शिवकी इच्छासे ज्ञान शून्य तथा समिधायुक्त जल रही अग्निके समान क्रुद्ध वे [नारद] विष्णुसे अत्यन्त अप्रिय व्यंग्य वचन कहने लगे -ll 4-5 ll
नारदजी बोले - हे हरे! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्वको मोहमें डाले रहते हो। दूसरोंका उत्साह तुमसे सहा नहीं जाता। तुम मायावी हो और तुम्हारा अन्तःकरण मलिन है ॥ 6 ॥
पूर्वकालमें तुमने मोहिनीरूप धारण करके कपट किया, असुरोंको वारुणी मदिरा पिलायी और उन्हें अमृत नहीं पीने दिया ॥ 7 ॥
छल-कपटमें ही रत रहनेवाले हे हरे यदि महेश्वर रुद्र दया करके विष न पी लेते, तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती ॥ 8 ॥
हे विष्णो! कपटपूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, भगवान् शंकरने तुम्हें स्वतन्त्र बना दिया है ॥ 9 ॥
परमात्मा शंकरके द्वारा ऐसा करके अच्छा नहीं किया गया और तुम उनके प्रभावबलको जानकर स्वतन्त्र होकर कार्य करते रहते हो तुम्हारी इस चाल-ढालको समझकर अब वे (भगवान् शिव) भी पश्चात्ताप करते होंगे ॥ 101 / 2 ll
अपनी वाणीरूप वेदकी प्रामाणिकता स्थापित करनेवाले महादेवजीने ब्राह्मणको सर्वोपरि बताया है। हे हरे! इस बातको जानकर आज मैं बलपूर्वक तुम्हें -ऐसी सीख दूँगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे ।। 11-12 ।।अबतक किसी तेजस्वी पुरुषसे तुम्हारा पाला नहीं पड़ा था, इसलिये आजतक तुम निडर बने हुए हो, परंतु हे विष्णो! अब तुम्हें अपने द्वारा किये गये कर्मका फल मिलेगा ॥ 13 ॥
भगवान् विष्णुसे ऐसा कहकर मायामोहित नारद मुनि अपने ब्रह्मतेजका प्रदर्शन करते हुए क्रोधसे खिन्न हो उठे और शाप देते हुए बोले- ॥ 14 ॥
हे विष्णो! तुमने स्त्रीके लिये मुझे व्याकुल किया है। तुम इसी तरह सबको मोहमें डालते रहते हो। यह कपटपूर्ण कार्य करते हुए तुमने जिस स्वरूपसे मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूपसे हे हरे ! तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्रीके लिये दूसरोंको दुःख | देनेवाले तुम भी स्त्रीके वियोगका दुःख भोगो। तुमने जिन वानरोंके समान मेरा मुँह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों। तुम दूसरोंको [स्त्री | विरहका ] दुःख देनेवाले हो, अतः स्वयं भी तुम्हें स्त्रीके वियोगका दुःख प्राप्त हो और अज्ञानसे मोहित मनुष्योंके समान तुम्हारी स्थिति हो ॥ 15 - 17 ॥
अज्ञानसे मोहित हुए नारदजीने मोहवश श्रीहरिको जब इस तरह शाप दिया, तब उन विष्णुने शम्भुकी मायाकी प्रशंसा करते हुए उस शापको स्वीकार कर लिया ॥ 18 ॥
तदनन्तर महालीला करनेवाले शम्भुने अपनी उस विश्वमोहिनी मायाको, जिसके कारण ज्ञानी नारदमुनि भी मोहित हो गये थे, खींच लिया ॥ 19 ॥
उस मायाके तिरोहित होते ही नारदजी पूर्ववत् शुद्ध बुद्धिसे युक्त हो गये। उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही। इससे उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ 20 ॥
वे पश्चात्ताप करके बार-बार अपनी निन्दा करने लगे। उस समय उन्होंने ज्ञानीको भी मोहमें डालनेवाली भगवान् शम्भुकी मायाकी सराहना की ॥ 21 ॥
तदनन्तर यह जानकर कि मायाके कारण ही मैं भ्रममें पड़ गया था, वैष्णवशिरोमणि नारदजी भगवान् विष्णुके चरणों में गिर पड़े ॥ 22 ॥भगवान् श्रीहरिने उन्हें उठाकर खड़ा कर दिया। उस | समय अपनी दुर्बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण वे बोले मायासे मोहित होनेके कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी, | इसलिये मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं। हे नाथ! मैंने आपको शाप तक दे डाला है। हे प्रभो ! उस शापको आप मिथ्या कर दीजिये। हाय! मैंने बहुत बड़ा पाप किया है, अब मैं निश्चय ही नरकमें पहुँगा। हे हरे! मैं आपका दास हूँ। अतः बताइये, मैं क्या उपाय कौन-सा प्रायश्चित्त करूँ, जिससे मेरा पाप-समूह नष्ट
हो जाय और मुझे नरकमें न गिरना पड़े । ll 23-25 ॥ ऐसा कहकर शुद्ध बुद्धिवाले मुनिशिरोमणि नारदजी | पुनः भक्तिभावसे भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था। तब श्रीविष्णु उन्हें उठाकर मधुर वाणीमें कहने लगे- ॥ 261/2 ॥
विष्णु बोले- हे तात! खेद मत कीजिये। आप मेरे श्रेष्ठ भक्त हैं, इसमें संशय नहीं है। मैं आपको एक बात बताता हूँ, सुनिये। उससे निश्चय ही आपका परम हित होगा, आपको नरकमें नहीं जाना पड़ेगा। भगवान् शिव आपका कल्याण करेंगे ॥ 27-28 ॥
आपने मदसे मोहित होकर जो भगवान् शिवकी बात नहीं मानी थी- उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराधका ऐसा फल भगवान् शिवने आपको दिया है, क्योंकि वे ही कर्मफलके दाता हैं ॥ 29 ॥ आप अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लीजिये कि भगवान् शिवकी इच्छासे ही यह सब कुछ हुआ है। सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही गर्वको दूर करनेवाले हैं ॥ 30 ॥ वे ही परब्रह्म हैं, परमात्मा हैं, उन्हींका सच्चिदानन्द रूपसे बोध होता है, वे निर्गुण हैं, निर्विकार हैं और सत्त्व, रज तथा तम- इन तीनों गुणोंसे परे हैं ॥ 31 ॥ वे ही अपनी मायाको लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश- इन तीन रूपोंमें प्रकट होते हैं। निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं ॥ 32 ॥ निर्गुण अवस्थामें उन्हींका नाम शिव है। वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनन्त और महादेव आदि नामोंसे कहे जाते हैं ॥ 33 ॥
उन्हींकी सेवासे ब्रह्माजी जगत्के स्रष्टा हुए हैं, मैं तीनों लोकोंका पालन करता हूँ और वे स्वयं ही रुद्ररूपसे सदा सबका संहार करते हैं ॥ 34 ॥वे शिवस्वरूपसे सबके साक्षी हैं, मायासे भिन्न और निर्गुण हैं । स्वतन्त्र होनेके कारण वे अपनी इच्छाके अनुसार चलते हैं। उनका विहार-आचार, व्यवहार उत्तम है और वे भक्तोंपर दया करनेवाले हैं ॥ 35 ॥
हे नारद मुने। मैं आपको एक सुन्दर उपाय बताता हूँ जो सुखद, समस्त पापका नाश करनेवाला और सदा भोग एवं मोक्ष देनेवाला है, आप उसे सुनिये ॥ 36 ॥
अपने समस्त संशयोंको त्यागकर आप भगवान् शंकरके सुयशका गान कीजिये और सदा अनन्यभावसे शिवके शतनामस्तोत्रका पाठ कीजिये जिसका | पाठ करनेसे आपके समस्त पाप शीघ्र ही नष्ट हो जायँगे ॥ 371/2 ॥
इस प्रकार नारदसे कहकर दयालु भगवान् विष्णुने उनसे पुनः कहा- हे मुने! आप शोक न करें। आपने तो कुछ किया ही नहीं है। यह सब तो भगवान् शंकरने अपनी | इच्छासे किया है। इसमें शंका नहीं है। ll 38-39 ।।
उन्होंने ही आपकी दिव्य बुद्धिका हरण कर लिया था। उन्होंने ही आपको कामका कष्ट भी दिया और उन्हीं भगवान् शंकरने आपके मुखसे मुझे यह शाप भी दिलाया है ॥ 40 ॥
इस प्रकार उन्होंने संसारमें अपने चरित्रको स्वयं प्रकट किया है इसमें अन्य किसीका दोष नहीं है]। वे मृत्युको जीतनेवाले, कालके भी काल और | भक्तोंका उद्धार करनेमें तत्पर रहनेवाले हैं ॥ 41 ॥
मुझे शिवके समान अन्य कोई प्रिय नहीं है। वे ही मेरे स्वामी हैं, सुख और शक्ति देनेवाले हैं। वे महेश्वर ही मेरे सब कुछ हैं ॥ 42 ll
हे मुने! आप उन्हींकी उपासना करें, सदैव उन्हींका भजन करें, उन्हींके यशका श्रवण और गान करें तथा नित्य उन्हींकी अर्चना करें ॥ 43 ॥
हे मुने। जो शरीर, मन तथा वाणीसे शंकरको प्राप्त कर लेता है, वही पण्डित है-ऐसा जानना चाहिये और वही जीवन्मुक्त कहा जाता है ॥ 44 ॥
शिव-नामरूपी इस दावाग्निसे महापातकरूपी पर्वत अनायास ही जलकर भस्म हो जाते हैं, यह पूर्णतया सत्य है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 45 ॥संसारमें पापोंके मूलभूत जितने भी प्रकारके दुःख हैं, वे सर्वधा मात्र शिवपूजनसे ही नष्ट हो जाते हैं। अन्य उपायोंसे [उनका] नाश सम्भव नहीं है ॥ 46 ॥
हे मुने! वही वैदिक है, वही पुण्यात्मा है, वही धन्य है और वही बुद्धिमान् है, जो सदा शरीर, वाणी और मनसे भगवान् शंकरकी शरणमें चला जाता है ॥ 47 ॥
जिनके विविध प्रकारके धर्मकृत्य तत्काल फलोन्मुख (फल देनेवाले) होते हैं, उनका पूर्ण विश्वास त्रिपुरके विनाशक शिवमें होता है ॥ 48 ॥ महामुने। शिवकी पूजासे जितने पाप नष्ट हो जाते हैं, उतने पाप तो पृथ्वीमें हैं ही नहीं ॥। 49 ।।
हे मुने। ब्रह्महत्यादि पापोंको अपरिमित राशियाँ भी शिवका स्मरण करनेसे नष्ट हो जाती हैं, यह 我 पूर्ण सत्य कह रहा हूँ ॥ 50 ॥
शिव-नामका कीर्तन करनेवाले लोग ही शिवनामकी नौकासे संसाररूपी सागरको पार कर जाते हैं। संसारका मूल पाप-समूह है, उसका नाश नामकीर्तनसे निश्चित ही हो जाता है ॥ 51 ॥
हे महामुने शिवनामरूपी कुठारसे संसारके मूलभूत पापोंका नाश अवश्य हो जाता है ॥ 52 ॥
पापरूपी दावानलसे दग्ध हुए लोगोंको शिव नामरूपी अमृत पीना चाहिये, पापकी दावाग्निसे तपे हुए लोगोंको उसके बिना शान्ति देनेका कोई अन्य उपाय नहीं मिल सकता ।। 53 ।।
शिव-इस नामकी अमृतमयी वर्षाकी धारासे नहाये हुए लोग संसारके पापोंकी दावाग्निके मध्य रहते हुए भी शोक नहीं करते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ 54 ॥
राग-द्वेषमें निरन्तर लगे रहनेवाले लोगोंकी शिवके प्रति भक्ति नहीं होती है, किंतु इसके विपरीत अर्थात् पापोंसे विरत रहनेवाले लोगोंकी मुक्ति तो निश्चित ही होती है ॥55॥
जिसने अनन्त जन्मोंमें अपनी तपस्यासे शरीरको जलाया होगा, उसीकी भक्ति भवानीप्राणवल्लभ शिवके लिये सम्भव है ॥ 56 ll
भगवान् शिवके प्रति अनन्यतापूर्वक की गयी 'शिव-नाम-भक्ति' के अतिरिक्त अन्य साधारण भक्ति व्यर्थ ही हो जाती है ॥ 57 ॥भगवान् शिवके प्रति जिसकी भक्ति एकनिष्ठ तथा असाधारण होती है, उसको ही मोक्ष प्राप्त होता है। अन्यके लिये वह सुलभ नहीं है-ऐसा मेरा विश्वास है ॥ 58 ॥
अनन्त पाप करनेके पश्चात् भी यदि प्राणी शंकरमें भक्ति करने लगता है, तो वह सभी पापोंसे निर्मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 59 ॥ जिस प्रकार वनमें दावाग्निसे वृक्ष [जलकर ] भस्म हो जाते हैं, उसी प्रकार शिव भक्तोंके पाप भी [शिव भक्तिके प्रभावसे] नष्ट हो जाते हैं ॥ 60 ॥
जो मनुष्य नित्य अपने शरीरको भस्मसे पवित्रकर शिवकी पूजामें लगा रहता है, वह महान् कष्ट देनेवाले संसाररूपी अपार सागरको निश्चित ही पार कर जाता है ॥ 61 ॥
ब्राह्मणोंका धन हरण करके और बहुतसे ब्राह्मणोंकी हत्या करके भी जो मनुष्य विरूपाक्ष भगवान् शंकरकी सेवामें लग जाता है, उसे उन पापोंसे लिप्त नहीं होना पड़ता ॥ 62 ॥
सम्पूर्ण वेदोंका अवलोकन करके पूर्ववर्ती विद्वानोंने यही निश्चय किया है कि भगवान् शिवकी पूजा ही संसार-बन्धनके नाशका उपाय है ॥ 63 ॥
[हे मुने!] आजसे यत्नपूर्वक सावधान रहकर विधि-विधानके साथ भक्तिभावसे नित्य जगदम्बा पार्वतीसहित महेश्वर सदाशिवका भजन कीजिये ॥ 64 ॥ पैरसे लेकर सिरतक भस्मका लेपन करके सम्यक् रूपसे आदरपूर्वक सभी श्रुतियोंसे सुने गये पडक्षर शैव-मन्त्र ( ॐ नमः शिवाय) का जप कीजिये ।। 65 ।।
प्रयत्नपूर्वक [बताये गये नियमानुसार] भगवान् शिवके प्रिय रुद्राक्षको धारण करके अत्यन्त सद्भक्तिसे ही सविधि मन्त्रका जप करना चाहिये ॥ 66 ॥
नित्य शिवकी ही कथा सुनिये और कहिये। अत्यन्त यत्न करके बारम्बार शिव भक्तोंका पूजन किया कीजिये ।। 67 ।।
प्रमादसे रहित होकर सदा एकमात्र शिवकी शरणमें रहिये, क्योंकि शिवके पूजनसे ही निरन्तर आनन्द प्राप्त होता रहता है ।। 68 ।।हे मुनिश्रेष्ठ! अपने हृदयमें भगवान् शिवके उज्वल चरणारविन्दोंकी स्थापना करके पहले शिवके तीर्थोंमें विचरण कीजिये ॥ 69 ॥
हे मुने! इस प्रकार परमात्मा शंकरके अनुपम माहात्म्यका दर्शन करते हुए अन्तमें आनन्दवन (काशी) जाइये, वह स्थान भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय है ॥ 70 ॥
वहाँ विश्वनाथजीका दर्शन करके भक्तिपूर्वक उनकी पूजा कीजिये। विशेषतः उनकी स्तुति-वन्दना | करके आप निर्विकल्प (संशयरहित) हो जायँगे ॥ 71 ॥ हे मुने! इसके बाद आपको मेरी आज्ञासे भक्तिपूर्वक अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये निश्चय ही ब्रह्मलोकमें जाना चाहिये ॥ 72 ॥
हे मुने ! वहाँ अपने पिता ब्रह्माजीकी विशेषरूपसे स्तुति-वन्दना करके आपको प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे बारम्बार शिव-महिमाके विषयमें प्रश्न करना चाहिये ॥ 73 ॥ ब्रह्माजी शिव भक्तोंमें श्रेष्ठ हैं, वे आपको अत्यन्त प्रसन्नताके साथ भगवान् शंकरका माहात्म्य और शतनाम स्तोत्र सुनायेंगे ॥ 74 ॥
हे मुने! आजसे आप शिवाराधनमें तत्पर रहनेवाले शिवभक्त हो जाइये और विशेषरूपसे मोक्षके भागी बनिये। भगवान् शिव आपका कल्याण करेंगे ।। 75 ।। इस प्रकार प्रसन्नचित्त हुए भगवान् विष्णु नारदमुनिको प्रेमपूर्वक उपदेश देकर शिवजीका स्मरण, वन्दन और स्तवन करके वहाँसे अन्तर्धान हो गये ॥ 76 ॥