View All Puran & Books

शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 5 (युद्ध खण्ड) , अध्याय 54 - Sanhita 2, Khand 5 (युद्ध खण्ड) , Adhyaya 54

Previous Page 224 of 466 Next

नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना

व्यासजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखाद्वारा अपने पौत्र अनिरुद्धका हरण कर लिये जानेपर श्रीकृष्णने क्या किया, उसे कहिये ॥ 1॥सनत्कुमार बोले- हे मुनिसत्तम । अनिरुद्ध के चले जानेपर उन स्त्रियोंके रोनेके शब्दको सुनकर श्रीकृष्णको बहुत दुःख हुआ ॥ 2 ॥

अनिरुद्धको बिना देखे उनके बन्धुओं तथा श्रीकृष्णको शोक करते हुए वर्षाकालके चार मास बीत गये ॥ 3 ॥

तब नारदजीसे उनकी वार्ता तथा उनके बंधनका समाचार सुनकर सब यादवगण तथा श्रीकृष्णजी अति दुखी हुए। उस सम्पूर्ण वृत्तान्तको सुनकर श्रीकृष्ण उसी समय आदर पूर्वक गरुडको बुलाकर युद्धके लिये शोणितपुरको गये। उस समय प्रद्युम्न, युयुधान, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द, भद्र, बलराम तथा कृष्णके अनुवर्ती सब लोग चले ॥ 4-6 ॥

बारह अक्षौहिणी सेनाके साथ श्रेष्ठ यादवोंने चारों ओरसे बाणासुरके नगरको घेर लिया ॥ 7 ॥ नगर, उद्यान, प्राकार, अटारी, गोपुर आदिको विध्वस्त होता हुआ देखकर क्रोधसे व्याप्त वह बाणासुर भी उतनी ही सेनाके साथ निकल पड़ा ॥ 8 ॥

बाणासुरकी रक्षा करनेके लिये भगवान् सदाशिव नन्दी वृषभपर सवार होकर अपने पुत्र तथा प्रमथगणोंके साथ युद्ध करनेके लिये गये। वहाँ बाणासुरके रक्षक रुद्र आदिसे श्रीकृष्ण आदिका अद्भुत रोमांचकारी तथा भयंकर युद्ध हुआ। कृष्णके साथ शिवजीका, प्रद्युम्नके साथ कार्तिकेयका एवं कूष्माण्ड और कृपकर्णके साथ बलरामका परस्पर द्वन्द्वयुद्ध होने लगा ॥ 9-11 ॥

साम्बका बाणासुरके पुत्रके साथ, सात्यकिका बाणासुरके साथ, गरुडका नन्दीके साथ और अन्य लोगोंका अन्य लोगोंके साथ युद्ध होने लगा ॥ 12 ॥

उस समय ब्रह्मा आदि देवता, मुनि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथा अप्सराएँ अपने वाहनों तथा विमानोंसे बुद्ध देखनेके लिये आये ॥ 13 ॥

हे विप्रेन्द्र विविध आकारवाले रेवती आदि प्रमथोंके साथ उन यदुवंशियोंका बड़ा भयानक युद्ध हुआ ॥ 14 ॥भाई बलराम तथा बुद्धिमान् प्रद्युम्नके सहित श्रीकृष्णजीने प्रमथगणोंके साथ घोर भयानक युद्ध किया। वहाँ अग्नि, यम, वरुण आदि देवताओंके साथ विमुख, त्रिपाद, ज्वर और गुहका युद्ध हुआ। विविध आकारवाले प्रमथोंके साथ उन यादवोंका विकट, भयंकर तथा रोमहर्षण युद्ध होने लगा ॥ 15-17 ॥ बहुत-सी विभीषिकाओंसे, कोटरियोंसे तथा निर्लज्ज प्रबल स्त्रियोंसे पास-पाससे युद्ध होने लगा ॥ 18 ॥

तब श्रीकृष्णजीने शिवजीके भूत, प्रमथ तथा गुह्यक आदि अनुचरोंको अपने शार्ङ्ग धनुषसे छोड़े हुए तीक्ष्ण अग्रभागवाले बाणोंसे पीड़ित किया। इस प्रकार युद्धके उत्साही प्रद्युम्न आदि वीर भी शत्रुकी | सेनाका नाश करते हुए महाभयंकर युद्ध करने लगे। तब अपनी सेनाको नष्ट होते हुए देखकर शिवजीने उसे सहन न करते हुए महान् क्रोध किया और भयंकर गर्जन किया । ll 19 - 21 ॥

यह सुनकर शिवजीके गण गरजने लगे तथा शिवजीके तेजसे तेजस्वी हुए वे शत्रुयोद्धाओंको नष्ट करते हुए युद्ध करने लगे। श्रीकृष्णने शार्ङ्गधनुषपर नाना प्रकारके अस्त्रोंको रखकर शिवजीके ऊपर प्रहार किया, तब विस्मित न होते हुए महादेवजीने प्रत्यक्ष रूपसे अस्त्रोंको शान्त कर दिया। शिवजीने ब्रह्मास्त्रको ब्रह्मास्त्रसे, वायव्यास्त्रको पर्वतास्त्रसे तथा नारायणके आग्नेय अस्त्रको अपने पर्जन्यास्त्रसे शान्त कर दिया ।। 22-24 ॥

प्रत्येक योद्धासे जीती हुई श्रीकृष्णजीकी सेना भागने लगी, हे व्यासजी! वह सेना शिवके सम्पूर्ण | तेजके कारण युद्धमें न रुक सकी। हे मुने! अपनी सेनाके पलायन करनेपर परम तपस्वी श्रीकृष्णने वरुणदेवता सम्बन्धी अपने शीतल नामक ज्वरको छोड़ा ॥ 25-26 ॥

हे मुने! श्रीकृष्णकी सेनाके भाग जानेपर श्रीकृष्णका शीतलज्वर दसों दिशाओंको भस्म करता हुआ उन शिवजीके समीप गया। उसको आता हुआ देखकर महादेवने अपना ज्वर छोड़ा। उस समय शिवज्वर तथा विष्णुज्वर आपसमें युद्ध करने लगे। तब विष्णुका ज्वर शिवजीके ज्वरसे पीड़ित होकर क्रन्दन करने लगा और कहीं अपनी रक्षा न देखकर शिवजीकी स्तुति करने लगा ॥ 27–29 ॥तब विष्णुके ज्वरद्वारा वन्दित शरणागत वत्सल सदाशिवने प्रसन्न होकर विष्णुके शीतज्वरसे कहा- ॥ 30 ॥

महेश्वर बोले- हे शीतज्वर। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ. तुमको मेरे ज्वरसे भय नहीं होगा, जो कोई हम दोनोंके संवादका स्मरण करेगा, उसको खरसे भय नहीं होगा ।। 31 ।।

सनत्कुमार बोले- इस प्रकार कहे जानेपर वह वैष्णवज्वर शिवजीको नमस्कार करके चला गया। उस चरित्रको देखकर श्रीकृष्ण भयभीत तथा विस्मित हो गये। प्रद्युम्नके बाणसमूहसे पीड़ित होकर कुपित हुए दैत्य संघाती स्कन्दने अपनी शक्तिसे प्रद्युम्नको आहत कर दिया। तब स्वामी कार्तिकेयकी शक्तिसे आहत बलवान् प्रद्युम्न अपने शरीरसे रुधिर बहाते हुए संग्रामभूमिसे हट गये। कुम्भाण्ड और कृपकर्णके द्वारा अनेक अस्त्रोंसे आहत किये गये बली बलभद्र भी युद्धमें स्थिर न रह सके और भाग गये ll 32-35 ll

गरुड़ने हजारों रूप धारणकर महासागरसे जलका पानकर और मेघोंके समान जल छोड़कर बहुत-से लोगोंका नाश किया। तब शिवजीके वाहन बलवान् वृषभने कुपित होकर उन गरुडजीको बड़े वेगसे शीघ्रतापूर्वक सींगोंद्वारा विदीर्ण कर दिया। तब सींगोंके आघातसे विदीर्ण शरीरवाले गरुड़जी अत्यन्त विस्मित हो शीघ्र ही भगवान्‌को छोड़कर युद्धस्थलसे भाग गये ।। 36-38 ll

ऐसा चरित्र होनेपर देवकीपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण शिवजीके तेजसे विस्मित हो शीघ्र ही अपने सारथी से कहने लगे- ॥ 39 ॥

श्रीकृष्ण बोले- हे सूत! तुम मेरे वचनको सुनो, मेरे रथको शीघ्र ले चलो, जिससे मैं शिवके समीप स्थित होकर उनसे कुछ कह सकूँ ll 40 ॥

सनत्कुमार बोले- भगवान् के इस प्रकार कहनेपर अपने गुणोंके कारण मुख्य दारुक नामक सारथि शीघ्र ही उस रथको शिवजीके समीप ले गया ।। 41 ।।

तब शरणागत हुए श्रीकृष्णने झुककर हाथ जोड़कर भक्तवत्सल शिवजीसे भक्तिपूर्वक प्रार्थना की ।। 42 ।।श्रीकृष्ण बोले—हे देवोंके देव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! आप अनन्त शक्तिवाले, सबके आत्मरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। आप संसारकी उत्पत्ति स्थिति एवं नाशके कारण, सज्ज्ञप्तिमात्र, ब्रह्मलिंग, परमशान्त, केवल, परमेश्वर, काल, दैव, कर्म, जीव, स्वभाव, द्रव्य, क्षेत्र, प्राण, आत्मा, विकार तथा अनेक समुदायवाले हैं, हे संसारके स्वामिन्! बीजरोह तथा प्रवाहरूपी यह आपकी माया है, इस कारण मैं आप बन्धनहीन परमेश्वरकी शरण में आया हूँ । ll 43 - 46 ll

आप लोकेश्वर अपने द्वारा किये गये विविध भावोंसे लीलापूर्वक देवता आदिका पोषण करते हैं तथा बुरे मार्गमें जानेवालोंको स्वभावसे विनष्ट करते हैं ॥ 47 ॥

आप ही ब्रह्म, परम ज्योतिःस्वरूप तथा शब्दब्रह्म रूप हैं, आप निर्मल आत्माको योगी केवल आकाशके समान देखते हैं। आप ही आदिपुरुष, अद्वितीय, तुर्य, आत्मद्रष्टा, ईश, हेतु, अहेतु तथा विकारी प्रतीयमान होते हैं। हे प्रभो हे भगवन्! हे महेश्वर आप अपनी मायासे सम्पूर्ण गुणोंकी प्रसिद्धिके निमित्त सभीसे युक्त तथा सभीसे भिन्न भी हैं ॥ 48-50 ll

हे प्रभो ! जिस प्रकार सूर्य छायारूपोंका तिरस्कार करके अपनी कान्तिसे प्रकाश करता है, उसी प्रकार दिव्य नेत्रवाले आप सर्वत्र प्रकाश कर रहे हैं ॥ 51 ॥ हे विभो ! हे भूमन् हे गिरिश ! आप गुणोंसे बिना ढके हुए भी अपने गुणोंसे समस्त गुणोंको दीपकके समान प्रकाशित करते हैं। हे शंकर! आपकी मायासे मोहित बुद्धिवाले पुत्र, स्त्री, गृह आदिमें आसक्त होकर पापसमुद्रमें डूबते-उतराते रहते हैं ॥ 52-53 ॥

जो अजितेन्द्रिय पुरुष प्रारब्धवश इस मनुष्य जन्मको प्राप्तकर आपके चरणोंमें प्रेम नहीं करता, वह शोक करनेयोग्य तथा आत्मवंचक है ॥ 54 ॥ हे भगवन्! मैं आपकी आज्ञासे बाणासुरकी भुजाओंको काटनेके लिये आया हूँ, अभिमानके नाश करनेवाले आपने ही इस गर्वित बाणासुरको शाप दिया है ॥ 55 ॥ हे देव ! आप संग्रामभूमिसे लौट जाइये, जिससे आपका शाप व्यर्थ न हो। हे प्रभो! आप मुझे बाणासुरके हाथ काटनेकी आज्ञा दीजिये ॥ 56 ॥सनत्कुमार बोले- हे मुनीश्वर श्रीकृष्णके इस वचनको सुनकर महेश्वर शिवजीने श्रीकृष्णकी स्तुतिसे प्रसन्नचित्त होकर कहा- ॥ 57 ॥

महेश्वर बोले- हे तात! आपने सत्य कहा, मैंने दैत्यराजको शाप दिया है। आप मेरी आज्ञासे बाणासुरकी भुजाओंको काटनेके लिये आये हैं। हे रमानाथ! हे हरे! मैं क्या करूँ, मैं सदा भक्तोंके अधीन हूँ। हे वीर ! मेरे देखते हुए बाणासुरकी भुजाओंका छेदन किस प्रकार हो सकता है। अतः आप मेरी आज्ञासे जृम्भणास्त्रसे मेरा जृम्भण (जम्भाई आना) कीजिये, इसके बाद अपना यथेष्ट कार्य कीजिये और सुखी हो जाइये ll 58-60 ॥

सनत्कुमार बोले- हे मुनीश्वर ! शिवजीके इस प्रकार कहने पर वे श्रीकृष्णजी अति विस्मित हुए और अपने युद्धस्थलमें आकर प्रसन्न हुए ॥ 61 ॥

हे व्यासजी इसके बाद अनेक अस्त्रोंके संचालनमें कुशल भगवान् श्रीकृष्णजीने शीघ्र ही जृम्भणास्त्रका धनुषपर सन्धानकर उसे शिवजीके ऊपर छोड़ा ॥ 62 ॥

उस जृम्भणास्त्रसे जृम्भित हुए शिवको मोहित करके श्रीकृष्णने खड्ग, गदा तथा ॠष्टिसे बाणासुरकी सेनाओंको मार डाला ॥ 63 ॥

Previous Page 224 of 466 Next

शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] तारकासुरके पुत्र तारकाक्ष, विद्युन्माली एवं कमलाक्षकी तपस्यासे प्रसन्न ब्रह्माद्वारा उन्हें वरकी प्राप्ति, तीनों पुरोंकी शोभाका वर्णन
  2. [अध्याय 2] तारकपुत्रोंसे पीड़ित देवताओंका ब्रह्माजीके पास जाना और उनके परामर्शके अनुसार असुर- वधके लिये भगवान् शंकरकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] त्रिपुरके विनाशके लिये देवताओंका विष्णुसे निवेदन करना, विष्णुद्वारा त्रिपुरविनाशके लिये यज्ञकुण्डसे भूतसमुदायको प्रकट करना, त्रिपुरके भयसे भूतोंका पलायित होना, पुनः विष्णुद्वारा देवकार्यकी सिद्धिके लिये उपाय सोचना
  4. [अध्याय 4] त्रिपुरवासी दैत्योंको मोहित करनेके लिये भगवान् विष्णुद्वारा एक मुनिरूप पुरुषकी उत्पत्ति, उसकी सहायताके लिये नारदजीका त्रिपुरमें गमन, त्रिपुराधिपका दीक्षा ग्रहण करना
  5. [अध्याय 5] मायावी यतिद्वारा अपने धर्मका उपदेश, त्रिपुरवासियोंका उसे स्वीकार करना, वेदधर्मके नष्ट हो जानेसे त्रिपुरमें अधर्माचरणकी प्रवृत्ति
  6. [अध्याय 6] त्रिपुरध्वंसके लिये देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  7. [अध्याय 7] भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये देवताओंद्वारा मन्त्रजप, शिवका प्राकट्य तथा त्रिपुर- विनाशके लिये दिव्य रथ आदिके निर्माणके लिये विष्णुजीसे कहना
  8. [अध्याय 8] विश्वकर्माद्वारा निर्मित सर्वदेवमय दिव्य रथका वर्णन
  9. [अध्याय 9] ब्रह्माजीको सारथी बनाकर भगवान् शंकरका दिव्य रथमें आरूढ़ होकर अपने गणों तथा देवसेनाके साथ त्रिपुर- वधके लिये प्रस्थान, शिवका पशुपति नाम पड़नेका कारण
  10. [अध्याय 10] भगवान् शिवका त्रिपुरपर सन्धान करना, गणेशजीका विघ्न उपस्थित करना, आकाशवाणीद्वारा बोधित होनेपर शिवद्वारा विघ्ननाशक गणेशका पूजन, अभिजित् मुहूर्तमें तीनों पुरोंका एकत्र होना और शिवद्वारा बाणाग्निसे सम्पूर्ण त्रिपुरको भस्म करना, मयदानवका बचा रहना
  11. [अध्याय 11] त्रिपुरदाहके अनन्तर भगवान् शिवके रौद्ररूपसे भयभीत देवताओं द्वारा उनकी स्तुति और उनसे भक्तिका वरदान प्राप्त करना
  12. [अध्याय 12] त्रिपुरदाहके अनन्तर शिवभक्त मयदानवका भगवान् शिवकी शरणमें आना, शिवद्वारा उसे अपनी भक्ति प्रदानकर वितललोकमें निवास करनेकी आज्ञा देना, देवकार्य सम्पन्नकर शिवजीका अपने लोकमें जाना
  13. [अध्याय 13] बृहस्पति तथा इन्द्रका शिवदर्शन के लिये कैलासकी ओर प्रस्थान, सर्वज्ञ शिवका उनकी परीक्षा लेनेके लिये दिगम्बर जटाधारी रूप धारणकर मार्ग रोकना, कुद्ध इन्द्रद्वारा उनपर वज्रप्रहारकी चेष्टा, शंकरद्वारा उनकी भुजाको स्तम्भित कर देना, बृहस्पतिद्वारा उनकी स्तुति, शिवका प्रसन्न होना और अपनी नेत्राग्निको क्षार-समुद्रमें फेंकना
  14. [अध्याय 14] क्षारसमुद्रमें प्रक्षिप्त भगवान् शंकरकी नेत्राग्निसे समुद्रके पुत्रके रूपमें जलन्धरका प्राकट्य, कालनेमिकी पुत्री वृन्दाके साथ उसका विवाह
  15. [अध्याय 15] राहुके शिरश्छेद तथा समुद्रमन्थनके समयके देवताओंके छलको जानकर जलन्धरद्वारा क्रुद्ध होकर स्वर्गपर आक्रमण, इन्द्रादि देवोंकी पराजय, अमरावतीपर जलन्धरका आधिपत्य, भयभीत देवताओंका सुमेरुकी गुफामें छिपना
  16. [अध्याय 16] जलन्धरसे भयभीत देवताओंका विष्णुके समीप जाकर स्तुति करना, विष्णुसहित देवताओंका जलन्धरकी सेनाके साथ भयंकर युद्ध
  17. [अध्याय 17] विष्णु और जलन्धरके युद्धमें जलन्धरके पराक्रमसे सन्तुष्ट विष्णुका देवों एवं लक्ष्मीसहित उसके नगरमें निवास करना
  18. [अध्याय 18] जलन्धरके आधिपत्यमें रहनेवाले दुखी देवताओंद्वारा शंकरकी स्तुति, शंकरजीका देवर्षि नारदको जलन्धरके पास भेजना, वहाँ देवोंको आश्वस्त करके नारदजीका जलन्धरकी सभा में जाना, उसके ऐश्वर्यको देखना तथा पार्वतीके सौन्दर्यका वर्णनकर उसे प्राप्त करनेके लिये
  19. [अध्याय 19] पार्वतीको प्राप्त करनेके लिये जलन्धरका शंकरके पास दूतप्रेषण, उसके वचनसे उत्पन्न क्रोधसे शम्भुके भ्रूमध्यसे एक भयंकर पुरुषकी उत्पत्ति, उससे भयभीत जलन्धरके दूतका पलायन, उस पुरुषका कीर्तिमुख नामसे शिवगण
  20. [अध्याय 20] दूतके द्वारा कैलासका वृत्तान्त जानकर जलन्धरका अपनी सेनाको युद्धका आदेश देना, भयभीत देवोंका शिवकी शरणमें जाना, शिवगणों तथा जलन्धरकी सेनाका युद्ध, शिवद्वारा कृत्याको उत्पन्न करना, कृत्याद्वारा शुक्राचार्यको छिपा लेना
  21. [अध्याय 21] नन्दी, गणेश, कार्तिकेय आदि शिवगणोंका कालनेमि, शुम्भ तथा निशुम्भ के साथ घोर संग्राम, वीरभद्र तथा जलन्धरका युद्ध, भयाकुल शिवगणोंका शिवजीको सारा वृत्तान्त बताना
  22. [अध्याय 22] श्रीशिव और जलन्धरका युद्ध, जलन्धरद्वारा गान्धर्वी मायासे शिवको मोहितकर शीघ्र ही पार्वतीके पास पहुँचना, उसकी मायाको जानकर पार्वतीका अदृश्य हो जाना और भगवान् विष्णुको जलन्धरपत्नी वृन्दाके पास जानेके लिये कहना
  23. [अध्याय 23] विष्णुद्वारा माया उत्पन्नकर वृन्दाको स्वप्नके माध्यमसे मोहित करना और स्वयं जलन्धरका रूप धारणकर वृन्दाके पातिव्रतका हरण करना, वृन्दाद्वारा विष्णुको शाप देना तथा वृन्दाके तेजका पार्वतीमें विलीन होना
  24. [अध्याय 24] दैत्यराज जलन्धर तथा भगवान् शिवका घोर संग्राम, भगवान् शिवद्वारा चक्रसे जलन्धरका शिरश्छेदन, जलन्धरका तेज शिवमें प्रविष्ट होना, जलन्धर- वधसे जगत्में सर्वत्र शान्तिका विस्तार
  25. [अध्याय 25] जलन्धरवधसे प्रसन्न देवताओंद्वारा भगवान् शिवकी स्तुति
  26. [अध्याय 26] विष्णुजीके मोहभंगके लिये शंकरजीकी प्रेरणासे देवोंद्वारा मूलप्रकृतिकी स्तुति मूलप्रकृतिद्वारा आकाशवाणीके रूपमें देवोंको आश्वासन, देवताओंद्वारा त्रिगुणात्मिका देवियोंका स्तवन, विष्णुका मोहनाश, धात्री (आँवला), मालती तथा तुलसीकी उत्पत्तिका आख्यान
  27. [अध्याय 27] शंखचूडकी उत्पत्तिकी कथा
  28. [अध्याय 28] शंखचूडकी पुष्कर - क्षेत्रमें तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे वरकी प्राप्ति, ब्रह्माकी प्रेरणासे शंखचूडका तुलसीसे विवाह
  29. [अध्याय 29] शंखचूडका राज्यपदपर अभिषेक, उसके द्वारा देवोंपर विजय, दुखी देवोंका ब्रह्माजीके साथ वैकुण्ठगमन, विष्णुद्वारा शंखचूडके पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना और विष्णु तथा ब्रह्माका शिवलोक गमन
  30. [अध्याय 30] ब्रह्मा तथा विष्णुका शिवलोक पहुँचना, शिवलोककी तथा शिवसभाकी शोभाका वर्णन, शिवसभाके मध्य उन्हें अम्बासहित भगवान् शिवके दिव्यस्वरूपका दर्शन और शंखचूडसे प्राप्त कष्टोंसे मुक्ति के लिये प्रार्थना
  31. [अध्याय 31] शिवद्वारा ब्रह्मा-विष्णुको शंखचूडका पूर्ववृत्तान्त बताना और देवोंको शंखचूडवथका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] भगवान् शिक्के द्वारा शंखचूडको समझानेके लिये गन्धर्वराज चित्ररथ (पुष्पदन्त ) को दूतके रूपमें भेजना, शंखचूडद्वारा सन्देशकी अवहेलना और युद्ध करनेका अपना निश्चय बताना, पुष्पदन्तका वापस आकर सारा वृत्तान्त शिवसे निवेदित करना
  33. [अध्याय 33] शंखचूडसे युद्धके लिये अपने गणोंके साथ भगवान् शिवका प्रस्थान
  34. [अध्याय 34] तुलसीसे विदा लेकर शंखचूडका युद्धके लिये ससैन्य पुष्पभद्रा नदीके तटपर पहुँचना
  35. [अध्याय 35] शंखचूडका अपने एक बुद्धिमान् दूतको शंकरके पास भेजना, दूत तथा शिवकी वार्ता, शंकरका सन्देश लेकर दूतका वापस शंखचूडके पास आना
  36. [अध्याय 36] शंखचूडको उद्देश्यकर देवताओंका दानवोंके साथ महासंग्राम
  37. [अध्याय 37] शंखचूडके साथ कार्तिकेय आदि महावीरोंका युद्ध
  38. [अध्याय 38] श्रीकालीका शंखचूडके साथ महान् युद्ध, आकाशवाणी सुनकर कालीका शिवके पास आकर युद्धका वृत्तान्त बताना
  39. [अध्याय 39] शिव और शंखमूहके महाभयंकर युद्ध शंखचूडके सैनिकोंके संहारका वर्णन
  40. [अध्याय 40] शिव और शंखचूडका युद्ध, आकाशवाणीद्वारा शंकरको युद्धसे विरत करना, विष्णुका ब्राह्मणरूप धारणकर शंखचूडका कवच माँगना, कवचहीन शंखचूडका भगवान् शिवद्वारा वध, सर्वत्र हर्षोल्लास
  41. [अध्याय 41] शंखचूडका रूप धारणकर भगवान् विष्णुद्वारा तुलसीके शीलका हरण, तुलसीद्वारा विष्णुको पाषाण होनेका शाप देना, शंकरजीद्वारा तुलसीको सान्त्वना, शंख, तुलसी, गण्डकी एवं शालग्रामकी उत्पत्ति तथा माहात्म्यकी कथा
  42. [अध्याय 42] अन्धकासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवके वरदानसे हिरण्याक्षद्वारा अन्धकको पुत्ररूपमें प्राप्त करना, हिरण्याक्षद्वारा पृथ्वीको पाताललोकमें ले जाना, भगवान् विष्णुद्वारा वाराहरूप धारणकर हिरण्याक्षका वधकर पृथ्वीको यथास्थान स्थापित करना
  43. [अध्याय 43] हिरण्यकशिपुकी तपस्या, ब्रह्मासे वरदान पाकर उसका अत्याचार, भगवान् नृसिंहद्वारा उसका वध और प्रह्लादको राज्यप्राप्ति
  44. [अध्याय 44] अन्धकासुरकी तपस्या, ब्रह्माद्वारा उसे अनेक वरोंकी प्राप्ति, त्रिलोकीको जीतकर उसका स्वेच्छाचारमें प्रवृत्त होना, मन्त्रियोंद्वारा पार्वतीके सौन्दर्यको सुनकर मुग्ध हो शिवके पास सन्देश भेजना और शिवका उत्तर सुनकर
  45. [अध्याय 45] अन्धकासुरका शिवकी सेनाके साथ युद्ध
  46. [अध्याय 46] भगवान् शिव एवं अन्धकासुरका युद्ध, अन्धककी मायासे उसके रक्तसे अनेक अन्धकगणोंकी उत्पत्ति, शिवकी प्रेरणासे विष्णुका कालीरूप धारणकर दानवोंके रक्तका पान करना, शिवद्वारा अन्धकको अपने त्रिशूलमें लटका लेना, अन्धककी स्तुतिसे प्रसन्न हो शिवद्वारा उसे गाणपत्य पद प्रदान करना
  47. [अध्याय 47] शुक्राचार्यद्वारा युद्धमें मरे हुए दैत्योंको संजीवनी विद्यासे जीवित करना, दैत्योंका युद्धके लिये पुनः उद्योग, नन्दीश्वरद्वारा शिवको यह वृत्तान्त बतलाना, शिवकी आज्ञासे नन्दीद्वारा युद्ध-स्थलसे शुक्राचार्यको शिवके पास लाना, शिवद्वारा शुक्राचार्यको निगलना
  48. [अध्याय 48] शुक्राचार्यकी अनुपस्थितिसे अन्धकादि दैत्योंका दुखी होना, शिवके उदरमें शुक्राचार्यद्वारा सभी लोकों तथा अन्धकासुरके युद्धको देखना और फिर शिवके शुकरूपमें बाहर निकलना, शिव-पार्वतीका उन्हें पुत्ररूपमें स्वीकारकर विदा करना
  49. [अध्याय 49] शुक्राचार्यद्वारा शिवके उदरमें जपे गये मन्त्रका वर्णन, अन्धकद्वारा भगवान् शिवकी नामरूपी स्तुति प्रार्थना, भगवान् शिवद्वारा अन्धकासुरको जीवनदानपूर्वक गाणपत्य पद प्रदान करना
  50. [अध्याय 50] शुक्राचार्यद्वारा काशीमें शुक्रेश्वर लिंगकी स्थापनाकर उनकी आराधना करना, मूर्त्यष्टक स्तोत्रसे उनका स्तवन, शिवजीका प्रसन्न होकर उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान करना और ग्रहोंके मध्य प्रतिष्ठित करना
  51. [अध्याय 51] प्रह्लादकी वंशपरम्परामें बलिपुत्र वाणासुरकी उत्पत्तिकी कथा, शिवभक्त बाणासुरद्वारा ताण्डव नृत्यके प्रदर्शनसे शंकरको प्रसन्न करना, वरदानके रूपमें शंकरका बाणासुरकी नगरीमें निवास करना, शिव-पार्वतीका बिहार, पार्वतीद्वारा बाणपुत्री ऊषाको वरदान
  52. [अध्याय 52] अभिमानी बाणासुरद्वारा भगवान् शिवसे युद्धकी याचना, बाणपुत्री ऊषाका रात्रिके समय स्वप्नमें अनिरुद्ध के साथ मिलन, चित्रलेखाद्वारा योगबलसे अनिरुद्धका द्वारकासे अपहरण, अन्तःपुरमें अनिरुद्ध और ऊषाका मिलन तथा द्वारपालोंद्वारा यह समाचार बाणासुरको बताना
  53. [अध्याय 53] क्रुद्ध बाणासुरका अपनी सेनाके साथ अनिरुद्धपर आक्रमण और उसे नागपाशमें बांधना, दुर्गाके स्तवनद्वारा अनिरुद्धका बन्धनमुक्त होना
  54. [अध्याय 54] नारदजीद्वारा अनिरुद्धके बन्धनका समाचार पाकर श्रीकृष्णकी शोणितपुरपर चढ़ाई, शिवके साथ उनका घोर युद्ध, शिवकी आज्ञासे श्रीकृष्णका उन्हें जृम्भणास्त्रसे मोहित करके बाणासुरकी सेनाका संहार करना
  55. [अध्याय 55] भगवान् कृष्ण तथा बाणासुरका संग्राम, श्रीकृष्णद्वारा बाणकी भुजाओंका काटा जाना, सिर काटनेके लिये उद्यत हुए श्रीकृष्णको शिवका रोकना और उन्हें समझाना, बाणका गर्वापहरण, श्रीकृष्ण और बाणासुरकी मित्रता, ऊषा अनिरुद्धको लेकर श्रीकृष्णका द्वारका आना
  56. [अध्याय 56] बाणासुरका ताण्डवनृत्यद्वारा भगवान् शिवको प्रसन्न करना, शिवद्वारा उसे अनेक मनोऽभिलषित वरदानोंकी प्राप्ति, बाणासुरकृत शिवस्तुति
  57. [अध्याय 57] महिषासुर के पुत्र गजासुरकी तपस्या तथा ब्रह्माद्वारा वरप्राप्ति, उन्मत्त गजासुरद्वारा अत्याचार, उसका काशीमें आना, देवताओंद्वारा भगवान् शिवसे उसके बधकी प्रार्थना, शिवद्वारा उसका वध और उसकी प्रार्थनासे उसका धर्म धारणकर 'कृत्तिवासा' नामसे विख्यात होना एवं कृत्तिवासेश्वर लिंगकी स्थापना करना
  58. [अध्याय 58] काशीके व्याघ्रेश्वर लिंग-माहात्म्यके सन्दर्भमें दैत्य दुन्दुभिनिर्ह्रादके वधकी कथा
  59. [अध्याय 59] काशीके कन्दुकेश्वर शिवलिंगके प्रादुर्भावमें पार्वतीद्वारा बिदल एवं उत्पल दैत्योंके वधकी कथा, रुद्रसंहिताका उपसंहार तथा इसका माहात्म्य