व्यासजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! कुम्भाण्डकी पुत्री चित्रलेखाद्वारा अपने पौत्र अनिरुद्धका हरण कर लिये जानेपर श्रीकृष्णने क्या किया, उसे कहिये ॥ 1॥सनत्कुमार बोले- हे मुनिसत्तम । अनिरुद्ध के चले जानेपर उन स्त्रियोंके रोनेके शब्दको सुनकर श्रीकृष्णको बहुत दुःख हुआ ॥ 2 ॥
अनिरुद्धको बिना देखे उनके बन्धुओं तथा श्रीकृष्णको शोक करते हुए वर्षाकालके चार मास बीत गये ॥ 3 ॥
तब नारदजीसे उनकी वार्ता तथा उनके बंधनका समाचार सुनकर सब यादवगण तथा श्रीकृष्णजी अति दुखी हुए। उस सम्पूर्ण वृत्तान्तको सुनकर श्रीकृष्ण उसी समय आदर पूर्वक गरुडको बुलाकर युद्धके लिये शोणितपुरको गये। उस समय प्रद्युम्न, युयुधान, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द, भद्र, बलराम तथा कृष्णके अनुवर्ती सब लोग चले ॥ 4-6 ॥
बारह अक्षौहिणी सेनाके साथ श्रेष्ठ यादवोंने चारों ओरसे बाणासुरके नगरको घेर लिया ॥ 7 ॥ नगर, उद्यान, प्राकार, अटारी, गोपुर आदिको विध्वस्त होता हुआ देखकर क्रोधसे व्याप्त वह बाणासुर भी उतनी ही सेनाके साथ निकल पड़ा ॥ 8 ॥
बाणासुरकी रक्षा करनेके लिये भगवान् सदाशिव नन्दी वृषभपर सवार होकर अपने पुत्र तथा प्रमथगणोंके साथ युद्ध करनेके लिये गये। वहाँ बाणासुरके रक्षक रुद्र आदिसे श्रीकृष्ण आदिका अद्भुत रोमांचकारी तथा भयंकर युद्ध हुआ। कृष्णके साथ शिवजीका, प्रद्युम्नके साथ कार्तिकेयका एवं कूष्माण्ड और कृपकर्णके साथ बलरामका परस्पर द्वन्द्वयुद्ध होने लगा ॥ 9-11 ॥
साम्बका बाणासुरके पुत्रके साथ, सात्यकिका बाणासुरके साथ, गरुडका नन्दीके साथ और अन्य लोगोंका अन्य लोगोंके साथ युद्ध होने लगा ॥ 12 ॥
उस समय ब्रह्मा आदि देवता, मुनि, सिद्ध, चारण, गन्धर्व तथा अप्सराएँ अपने वाहनों तथा विमानोंसे बुद्ध देखनेके लिये आये ॥ 13 ॥
हे विप्रेन्द्र विविध आकारवाले रेवती आदि प्रमथोंके साथ उन यदुवंशियोंका बड़ा भयानक युद्ध हुआ ॥ 14 ॥भाई बलराम तथा बुद्धिमान् प्रद्युम्नके सहित श्रीकृष्णजीने प्रमथगणोंके साथ घोर भयानक युद्ध किया। वहाँ अग्नि, यम, वरुण आदि देवताओंके साथ विमुख, त्रिपाद, ज्वर और गुहका युद्ध हुआ। विविध आकारवाले प्रमथोंके साथ उन यादवोंका विकट, भयंकर तथा रोमहर्षण युद्ध होने लगा ॥ 15-17 ॥ बहुत-सी विभीषिकाओंसे, कोटरियोंसे तथा निर्लज्ज प्रबल स्त्रियोंसे पास-पाससे युद्ध होने लगा ॥ 18 ॥
तब श्रीकृष्णजीने शिवजीके भूत, प्रमथ तथा गुह्यक आदि अनुचरोंको अपने शार्ङ्ग धनुषसे छोड़े हुए तीक्ष्ण अग्रभागवाले बाणोंसे पीड़ित किया। इस प्रकार युद्धके उत्साही प्रद्युम्न आदि वीर भी शत्रुकी | सेनाका नाश करते हुए महाभयंकर युद्ध करने लगे। तब अपनी सेनाको नष्ट होते हुए देखकर शिवजीने उसे सहन न करते हुए महान् क्रोध किया और भयंकर गर्जन किया । ll 19 - 21 ॥
यह सुनकर शिवजीके गण गरजने लगे तथा शिवजीके तेजसे तेजस्वी हुए वे शत्रुयोद्धाओंको नष्ट करते हुए युद्ध करने लगे। श्रीकृष्णने शार्ङ्गधनुषपर नाना प्रकारके अस्त्रोंको रखकर शिवजीके ऊपर प्रहार किया, तब विस्मित न होते हुए महादेवजीने प्रत्यक्ष रूपसे अस्त्रोंको शान्त कर दिया। शिवजीने ब्रह्मास्त्रको ब्रह्मास्त्रसे, वायव्यास्त्रको पर्वतास्त्रसे तथा नारायणके आग्नेय अस्त्रको अपने पर्जन्यास्त्रसे शान्त कर दिया ।। 22-24 ॥
प्रत्येक योद्धासे जीती हुई श्रीकृष्णजीकी सेना भागने लगी, हे व्यासजी! वह सेना शिवके सम्पूर्ण | तेजके कारण युद्धमें न रुक सकी। हे मुने! अपनी सेनाके पलायन करनेपर परम तपस्वी श्रीकृष्णने वरुणदेवता सम्बन्धी अपने शीतल नामक ज्वरको छोड़ा ॥ 25-26 ॥
हे मुने! श्रीकृष्णकी सेनाके भाग जानेपर श्रीकृष्णका शीतलज्वर दसों दिशाओंको भस्म करता हुआ उन शिवजीके समीप गया। उसको आता हुआ देखकर महादेवने अपना ज्वर छोड़ा। उस समय शिवज्वर तथा विष्णुज्वर आपसमें युद्ध करने लगे। तब विष्णुका ज्वर शिवजीके ज्वरसे पीड़ित होकर क्रन्दन करने लगा और कहीं अपनी रक्षा न देखकर शिवजीकी स्तुति करने लगा ॥ 27–29 ॥तब विष्णुके ज्वरद्वारा वन्दित शरणागत वत्सल सदाशिवने प्रसन्न होकर विष्णुके शीतज्वरसे कहा- ॥ 30 ॥
महेश्वर बोले- हे शीतज्वर। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ. तुमको मेरे ज्वरसे भय नहीं होगा, जो कोई हम दोनोंके संवादका स्मरण करेगा, उसको खरसे भय नहीं होगा ।। 31 ।।
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार कहे जानेपर वह वैष्णवज्वर शिवजीको नमस्कार करके चला गया। उस चरित्रको देखकर श्रीकृष्ण भयभीत तथा विस्मित हो गये। प्रद्युम्नके बाणसमूहसे पीड़ित होकर कुपित हुए दैत्य संघाती स्कन्दने अपनी शक्तिसे प्रद्युम्नको आहत कर दिया। तब स्वामी कार्तिकेयकी शक्तिसे आहत बलवान् प्रद्युम्न अपने शरीरसे रुधिर बहाते हुए संग्रामभूमिसे हट गये। कुम्भाण्ड और कृपकर्णके द्वारा अनेक अस्त्रोंसे आहत किये गये बली बलभद्र भी युद्धमें स्थिर न रह सके और भाग गये ll 32-35 ll
गरुड़ने हजारों रूप धारणकर महासागरसे जलका पानकर और मेघोंके समान जल छोड़कर बहुत-से लोगोंका नाश किया। तब शिवजीके वाहन बलवान् वृषभने कुपित होकर उन गरुडजीको बड़े वेगसे शीघ्रतापूर्वक सींगोंद्वारा विदीर्ण कर दिया। तब सींगोंके आघातसे विदीर्ण शरीरवाले गरुड़जी अत्यन्त विस्मित हो शीघ्र ही भगवान्को छोड़कर युद्धस्थलसे भाग गये ।। 36-38 ll
ऐसा चरित्र होनेपर देवकीपुत्र भगवान् श्रीकृष्ण शिवजीके तेजसे विस्मित हो शीघ्र ही अपने सारथी से कहने लगे- ॥ 39 ॥
श्रीकृष्ण बोले- हे सूत! तुम मेरे वचनको सुनो, मेरे रथको शीघ्र ले चलो, जिससे मैं शिवके समीप स्थित होकर उनसे कुछ कह सकूँ ll 40 ॥
सनत्कुमार बोले- भगवान् के इस प्रकार कहनेपर अपने गुणोंके कारण मुख्य दारुक नामक सारथि शीघ्र ही उस रथको शिवजीके समीप ले गया ।। 41 ।।
तब शरणागत हुए श्रीकृष्णने झुककर हाथ जोड़कर भक्तवत्सल शिवजीसे भक्तिपूर्वक प्रार्थना की ।। 42 ।।श्रीकृष्ण बोले—हे देवोंके देव ! हे महादेव ! हे शरणागतवत्सल ! आप अनन्त शक्तिवाले, सबके आत्मरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। आप संसारकी उत्पत्ति स्थिति एवं नाशके कारण, सज्ज्ञप्तिमात्र, ब्रह्मलिंग, परमशान्त, केवल, परमेश्वर, काल, दैव, कर्म, जीव, स्वभाव, द्रव्य, क्षेत्र, प्राण, आत्मा, विकार तथा अनेक समुदायवाले हैं, हे संसारके स्वामिन्! बीजरोह तथा प्रवाहरूपी यह आपकी माया है, इस कारण मैं आप बन्धनहीन परमेश्वरकी शरण में आया हूँ । ll 43 - 46 ll
आप लोकेश्वर अपने द्वारा किये गये विविध भावोंसे लीलापूर्वक देवता आदिका पोषण करते हैं तथा बुरे मार्गमें जानेवालोंको स्वभावसे विनष्ट करते हैं ॥ 47 ॥
आप ही ब्रह्म, परम ज्योतिःस्वरूप तथा शब्दब्रह्म रूप हैं, आप निर्मल आत्माको योगी केवल आकाशके समान देखते हैं। आप ही आदिपुरुष, अद्वितीय, तुर्य, आत्मद्रष्टा, ईश, हेतु, अहेतु तथा विकारी प्रतीयमान होते हैं। हे प्रभो हे भगवन्! हे महेश्वर आप अपनी मायासे सम्पूर्ण गुणोंकी प्रसिद्धिके निमित्त सभीसे युक्त तथा सभीसे भिन्न भी हैं ॥ 48-50 ll
हे प्रभो ! जिस प्रकार सूर्य छायारूपोंका तिरस्कार करके अपनी कान्तिसे प्रकाश करता है, उसी प्रकार दिव्य नेत्रवाले आप सर्वत्र प्रकाश कर रहे हैं ॥ 51 ॥ हे विभो ! हे भूमन् हे गिरिश ! आप गुणोंसे बिना ढके हुए भी अपने गुणोंसे समस्त गुणोंको दीपकके समान प्रकाशित करते हैं। हे शंकर! आपकी मायासे मोहित बुद्धिवाले पुत्र, स्त्री, गृह आदिमें आसक्त होकर पापसमुद्रमें डूबते-उतराते रहते हैं ॥ 52-53 ॥
जो अजितेन्द्रिय पुरुष प्रारब्धवश इस मनुष्य जन्मको प्राप्तकर आपके चरणोंमें प्रेम नहीं करता, वह शोक करनेयोग्य तथा आत्मवंचक है ॥ 54 ॥ हे भगवन्! मैं आपकी आज्ञासे बाणासुरकी भुजाओंको काटनेके लिये आया हूँ, अभिमानके नाश करनेवाले आपने ही इस गर्वित बाणासुरको शाप दिया है ॥ 55 ॥ हे देव ! आप संग्रामभूमिसे लौट जाइये, जिससे आपका शाप व्यर्थ न हो। हे प्रभो! आप मुझे बाणासुरके हाथ काटनेकी आज्ञा दीजिये ॥ 56 ॥सनत्कुमार बोले- हे मुनीश्वर श्रीकृष्णके इस वचनको सुनकर महेश्वर शिवजीने श्रीकृष्णकी स्तुतिसे प्रसन्नचित्त होकर कहा- ॥ 57 ॥
महेश्वर बोले- हे तात! आपने सत्य कहा, मैंने दैत्यराजको शाप दिया है। आप मेरी आज्ञासे बाणासुरकी भुजाओंको काटनेके लिये आये हैं। हे रमानाथ! हे हरे! मैं क्या करूँ, मैं सदा भक्तोंके अधीन हूँ। हे वीर ! मेरे देखते हुए बाणासुरकी भुजाओंका छेदन किस प्रकार हो सकता है। अतः आप मेरी आज्ञासे जृम्भणास्त्रसे मेरा जृम्भण (जम्भाई आना) कीजिये, इसके बाद अपना यथेष्ट कार्य कीजिये और सुखी हो जाइये ll 58-60 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुनीश्वर ! शिवजीके इस प्रकार कहने पर वे श्रीकृष्णजी अति विस्मित हुए और अपने युद्धस्थलमें आकर प्रसन्न हुए ॥ 61 ॥
हे व्यासजी इसके बाद अनेक अस्त्रोंके संचालनमें कुशल भगवान् श्रीकृष्णजीने शीघ्र ही जृम्भणास्त्रका धनुषपर सन्धानकर उसे शिवजीके ऊपर छोड़ा ॥ 62 ॥
उस जृम्भणास्त्रसे जृम्भित हुए शिवको मोहित करके श्रीकृष्णने खड्ग, गदा तथा ॠष्टिसे बाणासुरकी सेनाओंको मार डाला ॥ 63 ॥