ब्रह्माजी बोले- हे मुने! उसके बाद आपस विचार-विमर्शकर शंकरजीकी आज्ञा लेकर भगवान् विष्णुने पहले आपको हिमालयके घर भेजा है नारद भगवान् श्रीहरिकी प्रेमपूर्ण प्रेरणासे सर्वेश्वर शिवको प्रणामकर आप बरातसे आगे हिमालयके नगरको चले ॥ 1-2 ॥
हे मुने! वहाँ जाकर आपने विश्वकर्माद्वारा | रचित लज्जाकी मुद्रासे युक्त अपनी कृत्रिम मूर्ति देखी और उसे देखते ही आप विस्मित हो गये। हे महामुने! विश्वकर्माद्वारा बनायी गयी अपनी मूर्तिको देखकर तथा विश्वकर्माका सारा चरित्र जानकर आप अन्त हो गये। तत्पश्चात् आपने स्वर्णकलशोंसे एवं केलेके खम्भोंसे अत्यन्त मण्डित रत्नचित्रित हिमालयके | मण्डपमें प्रवेश किया ॥ 3-5 ॥
वह मण्डप अति अद्भुत, नाना प्रकारके चित्रोंसे अलंकृत तथा हजारों खम्भोंसे युक्त था। उसमें बनी हुई वेदी देखकर आप आश्चर्यमें पड़ गये ॥ 6 ॥ हे मुने! हे नारद! उस विस्मयके कारण आपका ज्ञान एवं बुद्धि नष्ट हो गयी, पुनः आपने हिमालयसे पूछा- ॥7॥
हे हिमालय! क्या इस समय विष्णु आदि सभी देवता, महर्षि सिद्ध एवं गन्धर्व यहाँ पहुँच गये हैं? हे पर्वतराज! क्या विवाहहेतु श्वेत बैलपर सवार | होकर गणेश्वरोंसे युक्त सदाशिव पधार चुके हैं? यह बात आप सत्य सत्य कहिये ।। 8-9 ॥ब्रह्माजी बोले- हे मुने! विस्मितचित्त हुए आपके इस प्रकारके वचनको सुनकर पर्वत हिमालय आपसे तथ्ययुक्त वचन कहने लगे- ॥ 10 ॥
हिमवान् बोले- हे नारद! हे महाप्राज्ञ! अभी पार्वतीके विवाह के लिये अपने गणों तथा बरातियोंको लेकर शिवजी नहीं आये हैं ॥ 11 ll
हे नारद! आप उत्तम बुद्धिसे विश्वकर्माके द्वारा रचित चित्र जानिये। हे देवर्षे! आप आश्चर्यका त्याग कीजिये, स्वस्थ हो जाइये और शिवका स्मरण कीजिये ॥ 12 ॥
आप मुझपर कृपाकर भोजन तथा विश्राम करके मैनाक आदि पर्वतोंके साथ शंकरके समीप जाना 13 ॥
हे महामते। जिनके चरणकमलकी अर्चना देवता तथा असुर भी किया करते हैं, उन शिवकी प्रार्थनाकर आप इन पर्वतोंको साथ लेकर देवताओं तथा महर्षियोंसहित उन्हें यहाँ शीघ्र ले आइये ।। 14 ।।
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] तब आपने 'तथास्तु" कहा और वहाँका सारा कृत्य अच्छी तरह सम्पन्नकर भोजन करके महामनस्वी आप हिमालयके पुत्रोंसहित बड़ी प्रसन्नतासे शीघ्र शिवजी के समीप गये ll 15 ll
वहाँ आपने देवताओंसे घिरे हुए महादेवजीको | देखा आपने तथा उन पर्वतोंने भक्तिसे उन कान्तिमान् शिवको प्रणाम किया ।। 16 ।।
तत्पश्चात् हे मुने! अनेक प्रकारके अलंकारोंसे युक्त मैनाक, सह्य, मेरु आदि पर्वतोंको देखकर सन्देहसे आकुल मनवाले मैंने, विष्णुने तथा इन्द्रसे युक्त देवताओं एवं रुद्रानुचरोंने विस्मित होकर आपसे पूछा- ll 17-18ll
देवता बोले- हे नारद! हे महाप्राज्ञ! आप तो आश्चर्यसे चकित दिखायी पड़ते हैं, हिमालयने आपका सत्कार किया या नहीं। हमलोगोंको यह विस्तारपूर्वक बताइये। ये महाबली मैनाक, सह्य तथा मेरु आदि पर्वत अनेक अलंकार धारणकर यहाँ किस उद्देश्यसे आये हैं। हे नारद! आप यह भी बताइये कि पर्वतराज हिमालयका विचार शिवजीको कन्या देनेका है या नहीं? हे तात! इस समय हिमालयके यहाँ क्या | हो रहा है, यह सब विस्तारसे कहिये ॥ 19 - 21 ॥हे सुव्रत। हम देवताओंका मन अनेक प्रकारके सन्देहसे ग्रस्त हो रहा है, इसलिये हमलोग आपसे पूछ रहे हैं, आप हमारा सन्देह दूर करें ॥ 22 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! उन विष्णु आदि देवताओंका वचन सुनकर विश्वकर्माकी मायासे विस्मित हुए आपने उनसे कहा- ॥ 23 ॥
हे मुने! आप मुझ विष्णुको और सभी देवताओंके ईश्वर शयके पति पर्वतोंके पूर्व शत्रु तथा पर्वतोंके पक्षको काटनेवाले इन्द्रको एकान्तमें बुलाकर कहने लगे- ll 24 ॥
नारदजी बोले - विश्वकर्माने हिमालयके पर जैसी कारीगरी की है, उसे देखते ही सभी देवगण मोहित हो जायँगे। वे हिमालय तो उस कारीगरीके कौशलसे सारे देवताओंको प्रेमपूर्वक युक्तिसे मोहित करना चाहते हैं ॥ 25 ॥
हे शचीपते! आपने पूर्वकालमें विश्वकर्माको भुलावेमें डाल दिया था, क्या उसे आप भूल गये हैं? इसलिये वे आज आपको जीतनेकी इच्छासे हिमालयके घरमें विराजमान हैं। उन्होंने मेरा ऐसा चित्र बनाया है कि उसे देखकर मैं तो मोहित हो गया हूँ। इसी प्रकार उन्होंने विष्णु, ब्रह्मा तथा इन्द्र आदि देवताओंके चित्रका भी निर्माण किया है ।। 26-27 ।।
हे देवेश! अधिक कहनेसे क्या उन विश्वकमनि सभी देवगणोंका चित्र इतनी कुशलतासे बनाया है कि वह यथार्थ देवताओंके रूपसे किंचिन्मात्र भी भिन्न नहीं जान पड़ता। उन्होंने परिहास करनेके लिये सभी देवताओंकी यह मायामयी चित्ररचना की है, जिससे | देवताओंको मोह उत्पन्न हो जाय ।। 28-29 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार नारदके वचनको | सुनकर भयसे व्याकुल शरीरवाले देवेन्द्रने विष्णुकी ओर देखकर शीघ्रतासे कहा- ॥ 30 ॥ देवेन्द्र बोले- हे देवदेव! हे रमानाथ त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा शोकसे व्याकुल हो मुझसे द्रोह करता है। कहीं | ऐसा न हो कि वह इसी बहाने मेरा वध कर दे ॥ 31 ॥ ब्रह्माजी बोले- उनका यह वचन सुनकर | देवाधिदेव जनार्दन उन्हें समझाते हुए कहने लगे ॥32॥विष्णुजी बोले- हे शनीपते। आपके वैरी निवात-कवचादि दानवगणोंने महाविद्याके बलसे पूर्वसमयमें भी आपको मोहित किया था। हे वासव! इसी प्रकार आपने मेरी आज्ञासे पर्वतराज हिमालयके तथा अन्य दूसरे पर्वतोंके पंखका छेदन कर दिया है। । इस कारण ये पर्वत भी उसी मायाको देखकर तथा सुनकर आपको जीतनेकी इच्छा करते हैं। ये सभी मूर्ख हैं और पराक्रम नहीं जानते हैं, अतः आप इनसे भयभीत न हों ॥। 33-35 ॥
हे देवेन्द्र! इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि भक्तवत्सल भगवान् सदाशिव हम सभीका मंगल करेंगे ll 36 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार व्याकुल हुए इन्द्रको देखकर विष्णुने उन्हें समझाया। तब लौकिक गतिका आश्रय लेनेवाले भगवान् शिव उनसे कहने लगे - ॥ 37 ॥
ईश्वर बोले- हे हरे! हे सुरपते! आपलोग आपस में क्या विचार-विमर्श कर रहे हैं? [ब्रह्माजी बोले-] उन दोनोंसे इस प्रकार कहकर हे मुने! पुनः उन्होंने आपसे कहा- हे नारद महाशैलने क्या कहा है, आप यथार्थ रूपसे सारा वृत्तान्त कहिये, आप उसे गुप्त न रखें ॥ 38-39 ॥
आप शीघ्रतासे बताइये कि शैलराजकी कन्या देनेकी इच्छा है अथवा नहीं? हे तात! आपने वहाँ जाकर क्या देखा और क्या किया? यह सारा वृत्तान्त प्रेमपूर्वक कहिये ॥ 40 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुने! जब शिवजीने आपसे यह कहा, तब दिव्य दृष्टिवाले आपने मण्डपमें जो कुछ
देखा था, वह सब एकान्तमें इस प्रकार कहा- 41 ॥ नारदजी बोले हे देवदेव! हे महादेव! आप मेरा शुभ वचन सुनें। इस विवाहमें किसी प्रकारके विघ्न दिखायी नहीं पड़ते और न तो किसी प्रकारका भय ही है ॥ 42 ॥
शैलराज निश्चित रूपसे आपको ही अपनी कन्या देना चाहते हैं और ये पर्वत इसी निमित्त आपको लेनेकी इच्छासे यहाँ आये हैं, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 43 ॥हे सर्वज्ञ! परंतु एक बात यह है कि कुतूहलवश वहाँ सभी देवताओंको मोहित करनेके लिये एक अद्भुत माया रची गयी है। इसके अतिरिक्त वहाँ और किसी प्रकारके विघ्नकी सम्भावना नहीं है ॥ 44 ॥
हे विभो ! महामाया करनेवाले विश्वकमत हिमालयकी आज्ञासे उनके घरमें महान् आश्चर्ययुक्त मण्डपकी रचना की है। उस मण्डपमें विश्वकर्माने सारे देवसमाजके चित्रका निर्माण किया है, उसे देखकर मैं मोहित होकर आश्चर्यमें पड़ गया हूँ ।। 45-46 ।।
ब्रह्माजी बोले- नारदका वचन सुनकर लोकाचार करनेवाले प्रभु शिवजी विष्णु आदि देवताओंसे हँसते हुए कहने लगे - ॥ 47 ॥
ईश्वर बोले- हे विष्णो! यदि पर्वत हिमालय मुझे अपनी कन्या देंगे, तो आप यथार्थ रूपसे बताइये कि मुझे मायासे क्या प्रयोजन है ? ।। 48 ।।
हे ब्रह्मन्! हे शक्र हे मुनिगण तथा हे देवताओ। आपलोग यथार्थ रूपसे कहिये कि हिमालय मुझे अपनी कन्या दे रहे हैं, तो मायासे मेरा क्या प्रयोजन है ? ॥ 49 ।।
न्यायशास्त्रके जानकार पण्डितोंने कहा है कि जिस किसी उपायसे अपने साध्यको प्राप्त करना चाहिये। अतः आप सभी विष्णु आदि देवगण इस कार्यसिद्धिकी इच्छासे शीघ्र ही चलें ॥ 50 ll
ब्रह्माजी बोले- देवताओंसे इस प्रकार कहनेवाले जितेन्द्रिय भगवान् सदाशिवको कामदेवने साधारण मनुष्यके समान अपने वशमें कर लिया। उसके बाद शिवजीकी आज्ञासे विष्णु आदि देवता एवं ऋषिगण भ्रान्त तथा मोहित करनेवाले हिमालय-गृहकी ओर गये ॥ 51-52 ॥ हे मुने! उन देवताओंने आप नारदको तथा उन पर्वतोंको आगेकर आश्चर्यचकित हो हिमालयके अपूर्व एवं परम अद्भुत मन्दिरकी ओर प्रस्थान किया ।। 53 ।।
इस प्रकार हर्षमें भरे हुए विष्णु आदि देवताओं तथा प्रसन्नतासे युद्ध अपने गणक साथ वे शिवजी आनन्दित होकर हिमालयके नगरके समीप आ गये ॥ 54 ॥