सूतजी बोले- उस समय उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महाभाग्यवान् उन ऋषियोंने महादेवका अर्चन करते हुए उस स्थानमें यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ किया ॥ 1 ॥
उन महर्षियोंका वह यज्ञ अनेक प्रकारके आश्चयोंसे वैसे ही परिपूर्ण था जिस प्रकार पूर्व समय सृष्टिकी इच्छा करनेवाले विश्वसष्टा प्रजापतियोंका यज्ञ था ॥ 2 ॥
कुछ समय बीत जानेपर प्रचुर दक्षिणावाला वह यज्ञ जब समाप्त हो गया, तब ब्रह्माजीकी आज्ञासे वहाँ स्वयं वायुदेव आये ॥ 3 ॥
वे वायुदेव साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीके शिष्य, सब कुछ प्रत्यक्ष देखनेवाले तथा इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे। जिनकी आज्ञामें उनचास मरुद्गण सर्वदा समुद्यत रहते हैं, जो प्राण आदि अपनी वृत्तियोंके द्वारा अंगोंको चेष्टावान् करते रहते हैं, जो समस्त प्राणियोंके शरीरोंको धारण करते हैं, जो अणिमादि आठ प्रकारकी सिद्धियों तथा नानाविध ऐश्वयसे युक्त हैं, जो तिरछी पड़नेवाली अपनी पवित्र गतियोंसे भुवनोंको धारण करते हैं, जो आकाशसे उत्पन्न हुए हैं, जो स्पर्श एवं शब्द नामक दो गुणोंवाले हैं, तत्त्ववेत्ता लोग जिन्हें तेजोंकी प्रकृति कहते हैं- उन्हें आश्रममें आया देखकर दीर्घकालिक यज्ञ करनेवाले मुनिगण ब्रह्माजीके वचनका स्मरणकर अत्यन्त प्रसन्न हो गये ll 4-8 ll तब सभीने उठकर आकाशजन्मा वायुदेवको प्रणामकर उन्हें [बैठनेके लिये] सुवर्णमय आसन प्रदान किया ॥ 9 ॥
इसके पश्चात् मुनियोंने उस आसनपर बैठे हुए वायुदेवकी भलीभाँति पूजा की और उन्होंने भी उन सभीकी प्रशंसाकर उनसे कुशल पूछा ॥ 10 ॥
वायु बोले- हे ब्राह्मणो! इस महायज्ञके पूरे होनेतक आपलोग सकुशल तो रहे यज्ञमें विघ्न डालनेवाले देवशत्रु दैत्योंने कहीं विघ्न तो उपस्थितनहीं किया? आपके इस यज्ञमें कोई प्रत्यवाय अथवा | उपद्रव तो नहीं हुआ? आपलोगोंने स्तवन तथा मन्त्रजपके द्वारा देवगणोंका तथा पितृ-कर्मोंके द्वारा पितरोंका पूजनकर ठीक तरहसे यज्ञानुष्ठानकी विधि | सम्पन्न तो कर ली। अब इस महायज्ञके समाप्त हो जानेके अनन्तर आपलोगोंकी क्या करनेकी इच्छा है ? ॥ 11 - 13 ॥
तब शिवभक्त वायुके द्वारा इस प्रकार पूछे गये सभी मुनि प्रसन्नचित्त तथा विनयावनत होकर कहने लगे - ॥ 14 ॥
मुनि बोले- जब आप हमारे कल्याणकी वृद्धिके लिये यहाँ आ गये हैं तो आज हमलोगोंका पूर्णतः मंगल हो गया और हमारी तपस्या सफल हो गयी ।। 15 ।।
अब आप पहलेका एक वृत्तान्त सुनिये। तमोगुणसे आक्रान्त मनवाले हमलोगोंने पूर्वकालमें विशिष्ट ज्ञानके निमित्त प्रजापति ब्रह्माजीकी उपासना की थी ॥ 16 ॥
तब शरणागतोंकी रक्षा करनेवाले उन्होंने हम शरणागतोंपर कृपा करके कहा- हे ब्राह्मणो! सभी कारणोंके कारण रुद्रदेव सर्वश्रेष्ठ हैं। तर्कसे परे उन रुद्र देवताको यथार्थ रूपसे भक्तिमान ही देख सकता है और इन्हींकी प्रसन्नतासे भक्ति मिलती है और [अन्तमें] मुक्ति भी प्राप्त होती है ।। 17-18 ।।
अतः आपलोग इनकी प्रसन्नता प्राप्त करनेहेतु नैमिषारण्यमें यज्ञनियमोंमें दीक्षित होकर दीर्घसत्र के द्वारा परमकारण रुद्रका यजन कीजिये। तब उनकी प्रसन्नतासे यहके अन्तमें वायुदेव आयेंगे। उनके मुखसे आपलोगों को ज्ञानलाभ होगा और कल्याणकी प्राप्ति होगी ॥ 19-20 ॥
इस प्रकारका आदेश देकर ब्रह्माजीने हमलोगों को इस स्थानपर भेजा है। हे महाभाग ! हमलोग आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥ 21 ॥
दिव्य हजार वर्षपर्यन्त हमलोग यहाँ बैठकर जो दीर्घसत्र कर रहे थे, उसका उद्देश्य आपके आगमन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं था ॥ 22 ॥तब प्रसन्न मनसे वायुदेवने दीर्घसत्र करनेवाले ऋषियोंके उस प्राचीन वृत्तान्तका श्रवण किया और मुनियोंसे घिरे हुए वे वहींपर विराजमान हो गये ॥ 23 ॥
इसके पश्चात् मुनियोंके द्वारा पूछे जानेपर शिवमें उनकी भक्ति बढ़ानेके लिये सर्वव्यापक वायुदेवने सृष्टिकी उत्पत्ति एवं शिवका ऐश्वर्य संक्षेपमें बताया ।। 24 ।।