वायुदेव बोले- [हे विप्रवरो!] इस प्रकार अस्त्रोंसे छिन्न-भिन्न अंगोंवाले विष्णु आदि देवता क्षणमात्रमें कष्टको प्राप्तकर युद्धमें शेष देवताओंके साथ व्याकुल हो गये ॥ 1 ॥
वीरभद्र के द्वारा प्रेरित क्रोधी प्रमथगणोंने | देवताओंके अपराधके अनुसार युद्धमें बचे हुए उन अन्य भयभीत देववीरोंको पकड़कर अत्यन्त दृढ़ लोहेकी जंजीरोंसे उनके हाथ, पैर, कन्धा तथा पेट बाँध दिये ॥ 2-3 ॥
उस समय देवी पार्वतीके स्नेह-पात्र उन वीरभद्रके सारथी होनेके कारण अनुग्रहको प्राप्त हुए ब्रह्माजी प्रार्थना करते हुए विनयपूर्वक कहने लगे-हे भगवन् ! अब क्रोधका शमन कीजिये ये देवता विनष्ट हो चुके हैं। हे सुव्रत प्रसन्न होइये और अपने रोमसे उत्पन्न गणोंके साथ आप इन सभीको क्षमा कीजिये ॥ 4-5 ॥उन परमेष्ठी ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर अति प्रसन्न हुए गणाधिप [वीरभद्र ] उनके गौरवके कारण शान्त हो गये। देवता भी उचित समय जानकर सिरपर अंजलि धारणकर अनेक प्रकारके स्तोत्रोंसे देवदेव शिवके मन्त्री वीरभद्रको स्तुति करने लगे ॥ 6-7 ॥
देवगण बोले- शिव, यज्ञहन्ता शान्तस्वरूप, त्रिशूलधारी, रुद्रभट् स्वपति एवं रुद्रभूति क | रुदरूप, काल तथा कामदेवके शरीरको विनष्ट करनेवाले | देवताओं तथा दुरात्मा दक्षके सिरका छेदन करनेवाले | आपको नमस्कार है। हे वीर! यद्यपि हमलोग निरपराध हैं, फिर भी इस पापी दक्षके संसर्गके कारण आपने हमलोगोंको संग्राममें दण्ड दिया है ॥ 8-10 ll
॥ हे प्रभो! आपने हमलोगोंको [अपनी कोपाग्निसे] जला-सा दिया है, इसलिये हम आपसे डरे हुए हैं, | अब आप ही हमारे रक्षक हैं, हम शरणागतीकी रक्ष कीजिये ll 11 ll
वायु मुक बोले—इस प्रकार स्तुतिसे प्रसन्न हुए प्रभु वीरभद्र देवताओंको लोहेकी जंजीरसे करके उनको देवदेव [शिव] के समीप ले आये। उस समय सर्वसमर्थ, सर्वलोकमहेश्वर, सर्वव्यापी भगवान् सदाशिव गणोंके साथ अन्तरिक्षमें विराजमान थे ।। 12-13 ।।
उन परमेश्वरको देखकर विष्णु आदि देवताओंने डरे होनेपर भी प्रसन्नतापूर्वक महेश्वरको प्रथम किया ।। 14 ।।
तब उन देवताओंको डरा हुआ देखकर दोनों के दुःखको दूर करनेवाले महादेव पार्वतीकी ओर देखकर देवताओंसे हँसते हुए यह कहने लगे - ॥ 15 ॥ महादेव बोले- हे देवताओ! हरिये मा क्योंकि आप सभी लोग मेरी प्रजा है, कृप वीरभद्रने अनुग्रहके लिये ही आपलोगोंको दा किया है। अब हमलोगोंने आप देवगणोंके अपराधको क्षमा कर दिया, हमलोगोंके क्रोधित हो जानेपर न आपलोगों की स्थिति रह सकती है और न जीवन सकता है ।। 16-17 ॥वायु बोले- अमिततेजस्वी सदाशिवने सभी देवताओंसे ऐसा कहा, तब वे देवता शीघ्र ही सन्देहरहित होकर प्रसन्नतापूर्वक नाचने लगे ॥ 18 ll वे देवता प्रसन्नचित्त तथा आनन्दविहल मनवाले होकर शिवजीकी स्तुति करने लगे ॥ 19 ॥
देवगण बोले- हे देव! ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र नामक स्वरूपभेदोंसे रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुणको धारण करनेवाले आत्ममूर्ते आप कर्ता, पालक तथा संहारक परमेश्वर हैं हे सर्वमूर्ते! हे विश्वभावन हे पावन हे अमूर्त हे भक्तोंको सुख देनेके लिये स्वरूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ 20-21 ॥
हे देवेश! आपकी कृपासे ही चन्द्रमा [यक्ष्माके] रोगसे मुक्त हो गये। हे शंकर! मिहिरजाजलिने जलमें डूबकर मर जानेके बाद भी पुनः जीवित हो आपकी दयासे सुख प्राप्त किया ll 22 ॥
हे प्रभो! सीमन्तिनीने सोमवारका व्रत करनेसे तथा आपके पूजनके प्रभावसे पतिके मर जानेपर भी पुनः अतुल सौभाग्य तथा अनेक पुत्रोंको प्राप्त किया ॥ 23 ॥
हे देव! आपने श्रीकरको अपना उत्तम पद प्रदान किया और राजाओंके भयसे सुदर्शनकी रक्षा की ॥ 24 ॥
आप कृपालुने स्त्रीसहित मेदुरका उद्धार किया और अपनी कृपासे विधवा शारदाको सधवा बना दिया ॥ 25 ॥
आपने भद्रायुकी विपत्ति दूर करके उसे सुख प्रदान किया और आपकी सेवाके प्रभावसे सौमिनी संसारबन्धनसे मुक्त हो गयी ॥ 26 ॥
विष्णु बोले- हे शिवजी! आप प्राणियोंपर अनुग्रह करनेकी कामनासे रज, सत्व और तमोगुणसे ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्रमूर्ति धारणकर इस जगत्की उत्पत्ति, पालन तथा संहार करते हैं ॥ 27 ॥
आप सभीका घमण्ड दूर करनेवाले हैं, सभीको तेज प्रदान करनेवाले, सभी विद्याओंमें गुप्त रूपसे निवास करनेवाले एवं सबपर अनुग्रह करनेवाले हैं ॥ 28 ॥हे गिरीश्वर ! आपसे सब कुछ है, आप ही सब कुछ हैं और सब कुछ आपमें ही स्थित है। मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये, पुनः रक्षा कीजिये और मुझपर दया कीजिये। इसके बाद उचित अवसर पाकर ब्रह्माजी हाथ जोड़कर प्रणाम करके शिवजीसे इस प्रकार कहने लगे- ॥ 29-30 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे देव! भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले ! आपकी जय हो। इस प्रकारका अपराध करनेवालों पर भी आपके अतिरिक्त और कौन प्रसन्न हो सकता है! जो देवता इस संग्रामभूमिमें पहले मारे गये हैं, वे फिर जीवित हो उठे। [आप] परमेश्वरके प्रसन्न हो जानेपर किसकी अभ्युन्नति नहीं हो सकती है अर्थात् सभीका अभ्युदय ही होगा। हे देव! देवताओंके शरीरोंमें जो ये घाव हो गये हैं, आपके अंगीकार करनेके गौरवसे उन्हें मैं भूषण ही मानता हूँ ॥ 31–33 ll
परमेष्ठी के इस प्रकार प्रार्थना करनेपर पार्वतीके मुखकी ओर देखकर मुसकराते हुए देवदेव प्रभुने पुत्रस्वरूप कमलयोनि ब्रह्माके वात्सल्यके कारण देवताओंके अंगोंको पहलेकी भाँति कर दिया ।। 34-35 ।।
इसी प्रकार प्रमथोंके द्वारा जो देवियाँ तथा देवमाताएँ दण्डित की गयी थीं, सदाशिवने उनके भी अंगोंको पूर्वके समान कर दिया। स्वयं पितामह भगवान् ब्रह्माने दक्षके पापके अनुसार वृद्ध बकरेके मुखके समान उनका मुख बना दिया। इसके पश्चात् जीवित हुए वे बुद्धिमान् दक्ष भी चेतना प्राप्त करके शिवजीको देखकर भयभीत हो हाथ | जोड़कर बहुत प्रलाप करते हुए शिवकी स्तुति करने लगे - ॥ 36-38 ॥
दक्ष बोले- लोकपर अनुग्रह करनेवाले हे जगन्नाथ! हे देव! आपकी जय हो हे महेशान! आप मुझपर कृपा कीजिये और मेरे अपराधको क्षमा कीजिये। हे प्रभो! आप ही जगत्के कर्ता, भर्ता, हर्ता तथा प्रभु हैं, मैं विशेषरूपसे जान गया कि आप विष्णु आदि सभीके ईश्वर हैं। आपने ही सारे जगत्काविस्तार किया है, आप सर्वत्र व्याप्त हैं, आप ही इसकी सृष्टि और विनाश करते हैं। विष्णु आदि कोई भी देवता आपसे बढ़कर नहीं हैं ।। 39-41 ।।
वायु बोले- तब अपराध किये हुए, व्याकुल, भयभीत तथा गिड़गिड़ाते हुए उन दक्षको देखकर करुणानिधि शिवजीने मुसकराते हुए कहा ' [हे दक्ष !] भयभीत मत होइये।' ऐसा कहकर शिवजीने उनके पिता ब्रह्माजीका प्रिय करनेकी इच्छासे दक्षको अक्षय गाणपत्यपद प्रदान किया। तदनन्तर ब्रह्मादि देवता हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनम्र वाणीमें गिरिजापति शंकरकी स्तुति करने लगे ।। 42 – 44 ।।
ब्रह्मा आदि [ देवता] बोले- हे शंकर! हे देवेश! हे दीनानाथ ! हे महाप्रभो ! हे महेशान ! कृपा कीजिये और हमारे अपराधको क्षमा कीजिये ॥ 45 ॥ हे यज्ञपालक ! हे यज्ञाधीश! हे दक्षयज्ञविध्वंस कारक ! हे महेशान ! कृपा कीजिये और हमलोगोंके अपराधको क्षमा कीजिये। हे देवदेव! हे परेशान ! हे भक्तप्राणपोषक ! आप दुष्टोंको दण्ड देनेवाले हैं। हे दुष्टदण्डप्रद स्वामिन्! कृपा करें, आपको नमस्कार है ।। 46-47 ।।
हे प्रभो! जो आपको नहीं जानते - ऐसे दुष्टोंका आप गर्व दूर करते हैं और अपनेमें आसक्त चित्तवाले सत्पुरुषोंके आप रक्षक हैं ॥ 48 ॥
हे प्रभो! आपकी दयासे ही अब हमलोगोंने निश्चय किया है कि आपका चरित्र अद्भुत है। हे दीनवत्सल प्रभो! हमारे द्वारा जो भी अपराध किये गये हैं, उन्हें क्षमा कर दीजिये ॥ 49 ॥
वायु बोले- इस प्रकार ब्रह्मादि देवताओं द्वारा स्तुत वे करुणासागर, भक्तवत्सल प्रभु महादेव प्रसन्न हो गये। तब दीनवत्सल भगवान् शंकरने ब्रह्मा आदि | देवगणोंपर अनुग्रह किया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक उन्हें वर प्रदान किया। तत्पश्चात् सबके भयको दूर करनेवाले वे परम दयालु परमेश्वर शरणमें आये हुए देवताओंसे अनुगतोंके प्रति स्वाभाविक रूपसे मन्दहास्ययुक्त वाणीमें कहने लगे- ॥ 50-52॥शिवजी बोले – देवताओंने यह जो अपराध किया है, वह दैवकी परवशतासे ही किया है। अब आपलोगोंको शरणागत देखकर हमने निश्चय ही वह समस्त अपराध भुला दिया ॥ 53 ॥
हे विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्रादि देवगणो! अब आपलोग भी इस संग्रामभूमिमें अपनी दुर्दशाका मनमें ध्यान न करके लज्जाका परित्यागकर सुखपूर्वक | देवलोकको इस समय प्रस्थान करें। देवताओंसे ऐसा कहकर दक्ष-यज्ञका विनाशकर पार्वती एवं गणोंके साथ शिवजी आकाशमें विराजमान हो अन्तर्धान हो गये ।। 54-55 ll
इसके पश्चात् व्यथारहित वे इन्द्रादि देवगण भी वीरभद्रके कल्याणकारी पराक्रमका वर्णन करते हुए सुखपूर्वक आकाशमार्गसे शीघ्र ही अपने-अपने स्थानोंको चले गये ॥ 56 ॥