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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 13 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 13

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पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना

भवानी बोलीं- हे योगिन् ! आपने तपस्वी होकर भी मेरे पितासे क्या कह दिया। हे ज्ञानविशारद उसका उत्तर मुझसे सुनिये। हे शम्भो ! आप तपकी शक्तिसे सम्पन्न होकर ही महातपस्या कर रहे हैं और [उसी महाशक्तिकी ही प्रेरणासे] तपस्या करनेके लिये आप महात्माको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है। सभी कमको करनेवाली उस शक्तिको ही प्रकृति जानना चाहिये, उसीके द्वारा सबकी सृष्टि, पालन और संहार होता है ॥ 1-3 ॥

अतः हे भगवन्! आप कौन हैं और सूक्ष्म प्रकृति क्या है, इसका आप विचार करें। प्रकृतिके बिना लिंगरूपी महेश्वर किस प्रकार रह सकते हैं ? ॥ 4 llआप प्रकृतिके ही कारण सदा प्राणियोंके लिये अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं [ इस बातको] हृदयसे विचारकर ही आप वह सब कहिये ॥ 5 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] पार्वतीजीके उस | वचनको सुनकर महती लीला करनेमें रत रहनेवाले प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसकर कहने लगे-॥ 6 ॥

महेश्वर बोले- मैं उत्तम तपस्याद्वारा ही प्रकृतिका नाश करता हूँ और वस्तुतः प्रकृतिसे रहित होकर ही शम्भुके रूपमें स्थित रहता हूँ। अतः सत्पुरुषोंको कभी भी प्रकृतिका संग्रह नहीं करना चाहिये और लोकाचारसे
दूर तथा विकाररहित रहना चाहिये ।। 7-8 ।। ब्रह्माजी बोले- हे तात! जब शम्भुने लौकिक व्यवहारके अनुसार यह बात कहीं, तब काली मन ही मन हँसकर यह मधुर वचन कहने लगीं ॥9॥

काली बोलीं- हे योगिन् ! हे शंकर! हे प्रभो! आपने जो बात कही है, क्या वह प्रकृति नहीं है, आप उससे परे कैसे हैं? इन सबका तात्त्विक दृष्टिसे ठीक ठीक विचार करके ही आपको बोलना चाहिये। यह सब कुछ सदा प्रकृतिसे बँधा हुआ है। इसीलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना सब व्यवहार प्रकृति ही है ऐसा अपनी बुद्धिसे समझिये 10-12 ॥

आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृतिका ही कार्य है। इसे मिथ्या कह देना निरर्थक है। हे प्रभो! शम्भो ! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं, तो इस समय इस हिमवान् पर्वतपर आप तपस्या किसलिये कर रहे हैं। हे हर प्रकृतिने आपको निगल लिया है, अतः आप अपनेको नहीं जानते। हे ईश! यदि आप अपनेको जानते हैं, तो किसलिये तप करते हैं ।। 13-15 ॥

हे योगिन् ! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करनेकी क्या आवश्यकता है। विद्वान् पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होनेपर अनुमान प्रमाणको नहीं मानते ॥ 16 ॥

जो कुछ प्राणियोंकी इन्द्रियाँका विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषोंको बुद्धिसे विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिये। हे योगीश! बहुत कहने से क्या लाभ ! मेरी | उत्तम बात सुनिये। मैं वह प्रकृति हूँ और आप पुरुष हैं। यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है । ll 17-18 ॥मेरे अनुग्रहसे ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना आप निरीह हैं और कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं हैं। आप जितेन्द्रिय होनेपर भी प्रकृतिके अधीन हो नाना प्रकारके कर्म करते हैं, तब आप फिर निर्विकार कैसे हैं और मुझसे लिप्त कैसे नहीं हैं? हे शंकर! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं और यदि आपका वचन सत्य है, तो मेरे समीप रहनेपर भी आपको डरना नहीं चाहिये ॥ 19-21 ॥

ब्रह्माजी बोले- पार्वतीका सांख्यशास्त्रके अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान् शिव वेदान्तमतमें स्थित हो शिवासे यह वचन कहने लगे-॥ 22 ॥

श्रीशिव बोले- सुन्दर भाषण करनेवाली हे गिरिजे! यदि आप सांख्यमतको धारण करके ऐसा कहती हैं, तो प्रतिदिन मेरी अनिषिद्ध सेवा कीजिये, यदि मैं ब्रह्म, मायासे निर्लिप्त, परमेश्वर, वेदान्तसे जाननेयोग्य तथा मायापति हूँ, तब आप क्या करेंगी ? ।। 23-24 ।।

ब्रह्माजी बोले- गिरिजासे इस प्रकार कहकर भोंको प्रसन्न करनेवाले तथा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् शिव हिमवान्से कहने लगे- ॥ 25 ॥

शिवजी बोले- हे गिरे मैं यहीं आपके अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखरकी भूमिपर उत्तम तपस्याके द्वारा आनन्दमय परमार्थ स्वरूपका विचार करता हुआ विचरण करूंगा पर्वतराज! आप मुझे यहाँ तपस्या करनेकी अनुमति दें, आपकी आज्ञा के बिना कोई तप नहीं किया जा सकता है ॥ 26-27 ॥

ब्रह्माजी बोले- देवाधिदेव शूलधारी शिवकी यह बात सुनकर हिमवान्ने शम्भुको प्रणाम करके यह वचन कहा- ॥ 28 ॥

हिमवान् बोले- हे महादेव देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् तो आपका ही है, मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ ॥ 29 ॥

ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] हिमवान्‌के इस प्रकार कहने पर लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने हँसकर आदरपूर्वक उन गिरिराजसे कहा- अब आप जाइये ॥ 30 ॥शंकरजीकी आज्ञा पाकर हिमवान् गिरिजाके साथ | अपने घर लौट गये। तबसे वे गिरिजाके साथ प्रतिदिन उनका दर्शन करने लगे। काली अपने पिताके बिना भी | दोनों सहेलियोंके साथ नित्य भक्तिपरायण होकर सेवाके लिये शंकरके पास जाती थीं। हे तात! महेश्वरके | आदेशसे उनकी आज्ञाका पालन करनेवाले पवित्र नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकते नहीं थे ॥ 31-33 ॥

विशेष विचार करनेपर परस्पर अभिन्न होते हुए भी सांख्य और वेदान्तमतवाले शिवा तथा शिवका संवाद [ सभी के लिये] सदा कल्याणदायक तथा सुखकर कहा गया है। इन्द्रियातीत भगवान् शंकरने गिरिराजके कहने से उनका गौरव मानकर उनकी पुत्रीको अपने पास रहकर सेवा करनेके लिये स्वीकार कर लिया ।। 34-35 ॥

भगवान् शंकरने सखियोंसहित पार्वती से कहा कि तुम नित्य मेरी सेवा करो तथा चली जाओ अथवा निर्भय होकर यहाँ रहो। इस प्रकार कहकर निर्विकार, महायोगी तथा अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले भगवान् शंकरने अपनी सेवाके लिये उन देवीको रख लिया। धैर्यशाली तथा परम तपस्वियोंका यह महान् धैर्य ही है, जो विघ्नकारक वस्तुओंको ग्रहणकर भी विघ्नोंसे विनष्ट नहीं होता है ।। 36-38 ll

हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् गिरिराज अपने सेवकोंके साथ अपने स्थानको चले आये और अपनी प्रियाके साथ मनमें परम आनन्दित हुए ।। 39 ।।

भगवान् शंकर भी आदरपूर्वक ध्यान योगके द्वारा निर्विघ्नं मनसे परमात्माका चिन्तन करने लगे ll 40ll

काली भी प्रतिदिन सखियोंसहित चन्द्रशेखर महादेवकी सेवा करती हुई वहाँ जाने आने लगीं ॥ 41 वे भगवान् शंकरके चरणोंको धोकर उस चरणोदकका पान करती थीं और आगसे [तपाकर] शुद्ध किये हुए वस्त्रसे उनके शरीरको पोंछा करती थीं ll 42 ll

वे नित्यप्रति षोडशोपचारसे विधिवत् भगवान् हरकी पूजाकर बारंबार उन्हें प्रणामकर अपने पिताके घर चली जाती थीं। हे मुनिसत्तम। इस प्रकार ध्यानमें तत्पर भगवान् शंकरकी सेवा करती हुई उन शिवाका बहुत समय व्यतीत हो गया। वे कभी अपनी सखियोंके साथ भगवान् शंकरके आश्रम में तालसे समन्वित | प्रेमवर्धक सुन्दर गान करती थीं ॥ 43 - 45 ॥वे कभी कुशा, पुष्प तथा समिधाएँ स्वयं लाती थीं और सखियोंके साथ आश्रमका सम्मार्जन करती थीं ॥ 46 ॥ वे कभी नियमपूर्वक शंकरजीके आश्रम में | रहकर सकाम भावसे शंकरजीको देखती हुई उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया करती थीं ॥ 47 ॥

भगवान् शिवने अपनी तपस्याके बलसे निःसंग रहनेवाली उस कालीको देखकर पंचतत्त्वके शरीरमें रहनेवाली अपनी पूर्वजन्मको भाव समझ लिया ॥ 48 ll फिर भी शिवजीने मुनियोंको भी मोहित कर देनेवाली तथा महासौन्दर्यकी राशिस्वरूप उन कालीको अपनी पत्नीके रूपमें ग्रहण नहीं किया ll 49 ॥

महादेवजी भगवतीको इस प्रकार जितेन्द्रिय होकर नित्यप्रति अपनी सेवामें संलग्न देखकर दयापूर्वक विचार करने लगे कि जब यह तपस्याका व्रत करेगी, तब अभिमान बीजसे रहित इस कालीको ग्रहण करूँगा ।। 50-51 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार विचार करके

बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले महायोगीश्वर भूतेश्वर भगवान् शिव शीघ्र ही ध्यानमें तत्पर हो गये ।। 52 ।। हे मुने! ध्यानमें मग्न उन परमात्मा शंकरके मनमें किसी अन्य चिन्ताका उदय नहीं हुआ ॥ 53 ॥

काली भी उन्हीं परमात्मा शंकरके स्वरूपका चिन्तन करती हुई भक्तिपूर्वक निरन्तर उनकी सेवा | करने लगीं ॥ 54 ॥

भगवान् शिव ध्यानमें स्थित हो पूर्व चिन्ताओंको भूलकर सुस्थित कालीको देखा करते थे, वस्तुतः वे उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे ॥ 55 ॥

इसी समय महापराक्रमी तारकासुरसे अत्यन्त पीड़ित इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियोंने उन रुद्रके साथ कालीका कामभावसे योग करानेके लिये ब्रह्माजीकी आज्ञासे कामदेवको आदरपूर्वक वहाँ भेजा ।। 56-57 ॥ कामदेवने वहाँ जाकर अपना समस्त उपाय लगाया, परंतु शिव कुछ भी विक्षुब्ध नहीं हुए और उन्होंने उसे भस्म कर दिया ॥ 58 ॥

हे मुने! पार्वतीका भी अभिमान नष्ट हो गया और तत्पश्चात् नारदजीके उपदेशानुसार घोर तपस्या करके उन सतीने शिवको पतिरूपमें प्राप्त किया ॥ 59 ॥इस प्रकार परमेश्वर एवं पार्वती परम प्रसन्न हो गये और परोपकारमें परायण होकर देवकार्यको पूर्ण करने लगे ॥ 60 ॥

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा