भवानी बोलीं- हे योगिन् ! आपने तपस्वी होकर भी मेरे पितासे क्या कह दिया। हे ज्ञानविशारद उसका उत्तर मुझसे सुनिये। हे शम्भो ! आप तपकी शक्तिसे सम्पन्न होकर ही महातपस्या कर रहे हैं और [उसी महाशक्तिकी ही प्रेरणासे] तपस्या करनेके लिये आप महात्माको ऐसी बुद्धि प्राप्त हुई है। सभी कमको करनेवाली उस शक्तिको ही प्रकृति जानना चाहिये, उसीके द्वारा सबकी सृष्टि, पालन और संहार होता है ॥ 1-3 ॥
अतः हे भगवन्! आप कौन हैं और सूक्ष्म प्रकृति क्या है, इसका आप विचार करें। प्रकृतिके बिना लिंगरूपी महेश्वर किस प्रकार रह सकते हैं ? ॥ 4 llआप प्रकृतिके ही कारण सदा प्राणियोंके लिये अर्चनीय, वन्दनीय और चिन्तनीय हैं [ इस बातको] हृदयसे विचारकर ही आप वह सब कहिये ॥ 5 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] पार्वतीजीके उस | वचनको सुनकर महती लीला करनेमें रत रहनेवाले प्रसन्नचित्त महेश्वर हँसकर कहने लगे-॥ 6 ॥
महेश्वर बोले- मैं उत्तम तपस्याद्वारा ही प्रकृतिका नाश करता हूँ और वस्तुतः प्रकृतिसे रहित होकर ही शम्भुके रूपमें स्थित रहता हूँ। अतः सत्पुरुषोंको कभी भी प्रकृतिका संग्रह नहीं करना चाहिये और लोकाचारसे
दूर तथा विकाररहित रहना चाहिये ।। 7-8 ।। ब्रह्माजी बोले- हे तात! जब शम्भुने लौकिक व्यवहारके अनुसार यह बात कहीं, तब काली मन ही मन हँसकर यह मधुर वचन कहने लगीं ॥9॥
काली बोलीं- हे योगिन् ! हे शंकर! हे प्रभो! आपने जो बात कही है, क्या वह प्रकृति नहीं है, आप उससे परे कैसे हैं? इन सबका तात्त्विक दृष्टिसे ठीक ठीक विचार करके ही आपको बोलना चाहिये। यह सब कुछ सदा प्रकृतिसे बँधा हुआ है। इसीलिये आपको न तो बोलना चाहिये और न कुछ करना ही चाहिये; क्योंकि कहना और करना सब व्यवहार प्रकृति ही है ऐसा अपनी बुद्धिसे समझिये 10-12 ॥
आप जो कुछ सुनते, खाते, देखते और करते हैं, वह सब प्रकृतिका ही कार्य है। इसे मिथ्या कह देना निरर्थक है। हे प्रभो! शम्भो ! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं, तो इस समय इस हिमवान् पर्वतपर आप तपस्या किसलिये कर रहे हैं। हे हर प्रकृतिने आपको निगल लिया है, अतः आप अपनेको नहीं जानते। हे ईश! यदि आप अपनेको जानते हैं, तो किसलिये तप करते हैं ।। 13-15 ॥
हे योगिन् ! मुझे आपके साथ वाद-विवाद करनेकी क्या आवश्यकता है। विद्वान् पुरुष प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध होनेपर अनुमान प्रमाणको नहीं मानते ॥ 16 ॥
जो कुछ प्राणियोंकी इन्द्रियाँका विषय होता है, वह सब ज्ञानी पुरुषोंको बुद्धिसे विचारकर प्राकृत ही मानना चाहिये। हे योगीश! बहुत कहने से क्या लाभ ! मेरी | उत्तम बात सुनिये। मैं वह प्रकृति हूँ और आप पुरुष हैं। यह सत्य है, सत्य है, इसमें संशय नहीं है । ll 17-18 ॥मेरे अनुग्रहसे ही आप सगुण और साकार माने गये हैं। मेरे बिना आप निरीह हैं और कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं हैं। आप जितेन्द्रिय होनेपर भी प्रकृतिके अधीन हो नाना प्रकारके कर्म करते हैं, तब आप फिर निर्विकार कैसे हैं और मुझसे लिप्त कैसे नहीं हैं? हे शंकर! यदि आप प्रकृतिसे परे हैं और यदि आपका वचन सत्य है, तो मेरे समीप रहनेपर भी आपको डरना नहीं चाहिये ॥ 19-21 ॥
ब्रह्माजी बोले- पार्वतीका सांख्यशास्त्रके अनुसार कहा हुआ वचन सुनकर भगवान् शिव वेदान्तमतमें स्थित हो शिवासे यह वचन कहने लगे-॥ 22 ॥
श्रीशिव बोले- सुन्दर भाषण करनेवाली हे गिरिजे! यदि आप सांख्यमतको धारण करके ऐसा कहती हैं, तो प्रतिदिन मेरी अनिषिद्ध सेवा कीजिये, यदि मैं ब्रह्म, मायासे निर्लिप्त, परमेश्वर, वेदान्तसे जाननेयोग्य तथा मायापति हूँ, तब आप क्या करेंगी ? ।। 23-24 ।।
ब्रह्माजी बोले- गिरिजासे इस प्रकार कहकर भोंको प्रसन्न करनेवाले तथा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् शिव हिमवान्से कहने लगे- ॥ 25 ॥
शिवजी बोले- हे गिरे मैं यहीं आपके अत्यन्त रमणीय श्रेष्ठ शिखरकी भूमिपर उत्तम तपस्याके द्वारा आनन्दमय परमार्थ स्वरूपका विचार करता हुआ विचरण करूंगा पर्वतराज! आप मुझे यहाँ तपस्या करनेकी अनुमति दें, आपकी आज्ञा के बिना कोई तप नहीं किया जा सकता है ॥ 26-27 ॥
ब्रह्माजी बोले- देवाधिदेव शूलधारी शिवकी यह बात सुनकर हिमवान्ने शम्भुको प्रणाम करके यह वचन कहा- ॥ 28 ॥
हिमवान् बोले- हे महादेव देवता, असुर और मनुष्यों सहित सम्पूर्ण जगत् तो आपका ही है, मैं तुच्छ होकर आपसे क्या कहूँ ॥ 29 ॥
ब्रह्माजी बोले- [हे नारद!] हिमवान्के इस प्रकार कहने पर लोककल्याणकारी भगवान् शंकरने हँसकर आदरपूर्वक उन गिरिराजसे कहा- अब आप जाइये ॥ 30 ॥शंकरजीकी आज्ञा पाकर हिमवान् गिरिजाके साथ | अपने घर लौट गये। तबसे वे गिरिजाके साथ प्रतिदिन उनका दर्शन करने लगे। काली अपने पिताके बिना भी | दोनों सहेलियोंके साथ नित्य भक्तिपरायण होकर सेवाके लिये शंकरके पास जाती थीं। हे तात! महेश्वरके | आदेशसे उनकी आज्ञाका पालन करनेवाले पवित्र नन्दीश्वर आदि कोई भी गण उन्हें रोकते नहीं थे ॥ 31-33 ॥
विशेष विचार करनेपर परस्पर अभिन्न होते हुए भी सांख्य और वेदान्तमतवाले शिवा तथा शिवका संवाद [ सभी के लिये] सदा कल्याणदायक तथा सुखकर कहा गया है। इन्द्रियातीत भगवान् शंकरने गिरिराजके कहने से उनका गौरव मानकर उनकी पुत्रीको अपने पास रहकर सेवा करनेके लिये स्वीकार कर लिया ।। 34-35 ॥
भगवान् शंकरने सखियोंसहित पार्वती से कहा कि तुम नित्य मेरी सेवा करो तथा चली जाओ अथवा निर्भय होकर यहाँ रहो। इस प्रकार कहकर निर्विकार, महायोगी तथा अनेक प्रकारकी लीलाएँ करनेवाले भगवान् शंकरने अपनी सेवाके लिये उन देवीको रख लिया। धैर्यशाली तथा परम तपस्वियोंका यह महान् धैर्य ही है, जो विघ्नकारक वस्तुओंको ग्रहणकर भी विघ्नोंसे विनष्ट नहीं होता है ।। 36-38 ll
हे मुनीश्वर ! तत्पश्चात् गिरिराज अपने सेवकोंके साथ अपने स्थानको चले आये और अपनी प्रियाके साथ मनमें परम आनन्दित हुए ।। 39 ।।
भगवान् शंकर भी आदरपूर्वक ध्यान योगके द्वारा निर्विघ्नं मनसे परमात्माका चिन्तन करने लगे ll 40ll
काली भी प्रतिदिन सखियोंसहित चन्द्रशेखर महादेवकी सेवा करती हुई वहाँ जाने आने लगीं ॥ 41 वे भगवान् शंकरके चरणोंको धोकर उस चरणोदकका पान करती थीं और आगसे [तपाकर] शुद्ध किये हुए वस्त्रसे उनके शरीरको पोंछा करती थीं ll 42 ll
वे नित्यप्रति षोडशोपचारसे विधिवत् भगवान् हरकी पूजाकर बारंबार उन्हें प्रणामकर अपने पिताके घर चली जाती थीं। हे मुनिसत्तम। इस प्रकार ध्यानमें तत्पर भगवान् शंकरकी सेवा करती हुई उन शिवाका बहुत समय व्यतीत हो गया। वे कभी अपनी सखियोंके साथ भगवान् शंकरके आश्रम में तालसे समन्वित | प्रेमवर्धक सुन्दर गान करती थीं ॥ 43 - 45 ॥वे कभी कुशा, पुष्प तथा समिधाएँ स्वयं लाती थीं और सखियोंके साथ आश्रमका सम्मार्जन करती थीं ॥ 46 ॥ वे कभी नियमपूर्वक शंकरजीके आश्रम में | रहकर सकाम भावसे शंकरजीको देखती हुई उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया करती थीं ॥ 47 ॥
भगवान् शिवने अपनी तपस्याके बलसे निःसंग रहनेवाली उस कालीको देखकर पंचतत्त्वके शरीरमें रहनेवाली अपनी पूर्वजन्मको भाव समझ लिया ॥ 48 ll फिर भी शिवजीने मुनियोंको भी मोहित कर देनेवाली तथा महासौन्दर्यकी राशिस्वरूप उन कालीको अपनी पत्नीके रूपमें ग्रहण नहीं किया ll 49 ॥
महादेवजी भगवतीको इस प्रकार जितेन्द्रिय होकर नित्यप्रति अपनी सेवामें संलग्न देखकर दयापूर्वक विचार करने लगे कि जब यह तपस्याका व्रत करेगी, तब अभिमान बीजसे रहित इस कालीको ग्रहण करूँगा ।। 50-51 ॥ ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार विचार करके
बड़ी-बड़ी लीलाएँ करनेवाले महायोगीश्वर भूतेश्वर भगवान् शिव शीघ्र ही ध्यानमें तत्पर हो गये ।। 52 ।। हे मुने! ध्यानमें मग्न उन परमात्मा शंकरके मनमें किसी अन्य चिन्ताका उदय नहीं हुआ ॥ 53 ॥
काली भी उन्हीं परमात्मा शंकरके स्वरूपका चिन्तन करती हुई भक्तिपूर्वक निरन्तर उनकी सेवा | करने लगीं ॥ 54 ॥
भगवान् शिव ध्यानमें स्थित हो पूर्व चिन्ताओंको भूलकर सुस्थित कालीको देखा करते थे, वस्तुतः वे उन्हें देखते हुए भी नहीं देखते थे ॥ 55 ॥
इसी समय महापराक्रमी तारकासुरसे अत्यन्त पीड़ित इन्द्र आदि देवताओं तथा मुनियोंने उन रुद्रके साथ कालीका कामभावसे योग करानेके लिये ब्रह्माजीकी आज्ञासे कामदेवको आदरपूर्वक वहाँ भेजा ।। 56-57 ॥ कामदेवने वहाँ जाकर अपना समस्त उपाय लगाया, परंतु शिव कुछ भी विक्षुब्ध नहीं हुए और उन्होंने उसे भस्म कर दिया ॥ 58 ॥
हे मुने! पार्वतीका भी अभिमान नष्ट हो गया और तत्पश्चात् नारदजीके उपदेशानुसार घोर तपस्या करके उन सतीने शिवको पतिरूपमें प्राप्त किया ॥ 59 ॥इस प्रकार परमेश्वर एवं पार्वती परम प्रसन्न हो गये और परोपकारमें परायण होकर देवकार्यको पूर्ण करने लगे ॥ 60 ॥