वायुदेव कहते हैं—महर्षियो ! तदनन्तर पतिव्रता माता पार्वती पतिकी परिक्रमा करके उनके वियोगसे होनेवाले दुःखको किसी तरह रोककर हिमालयपर्वतपर चली गयीं ॥ 1 ॥
उन्होंने पहले सखियोंके साथ जिस स्थानपर तप किया था, उस स्थानसे उनका प्रेम हो गया था। अतः फिर उसीको उन्होंने तपस्याके लिये चुना तदनन्तर माता-पिताके घर जा उनका दर्शन और प्रणाम करके उन्हें सब समाचार बताकर उनकी आज्ञा ले उन्होंने सारे आभूषण उतार दिये और फिर तपोवनमेंजा स्नानके पश्चात् तपस्वीका परमपावन वेष धारण करके अत्यन्त तीव्र एवं परम दुष्कर तपस्या करनेका संकल्प किया। वे मन-ही-मन सदा पतिके चरणार विन्दोंका चिन्तन करती हुई किसी क्षणिक लिंगमें उन्हीं का ध्यान करके पूजनकी बाह्य विधिके अनुसार जंगलके फल-फूल आदि उपकरणोंद्वारा तीनों समय उनका पूजन करती थीं ॥ 2-6 ॥
'भगवान् शंकर ही ब्रह्माका रूप धारण करके | मेरी तपस्याका फल मुझे देंगे।' ऐसा दृढ़ विश्वास रखकर वे प्रतिदिन तपस्यामें लगी रहती थीं। इस तरह तपस्या करते-करते जब बहुत समय बीत गया, तब एक दिन उनके पास कोई बहुत बड़ा व्याघ्र देखागया। वह दुष्टभावसे वहाँ आया था। पार्वतीजीके निकट आते ही उस दुरात्माका शरीर जडवत् हो गया। वह उनके समीप चित्रलिखित-सा दिखायी देने लगा ।। 7-9 ॥
दुष्टभावसे पास आये हुए उस व्याघ्रको देखकर भी देवी पार्वती साधारण नारीकी भाँति स्वभावसे विचलित नहीं हुई। उस व्याघ्रके सारे अंग अकड़ गये थे। वह भूखसे अत्यन्त पीड़ित हो रहा था और यह सोचकर कि 'यही मेरा भोजन है' निरन्तर देवीकी ओर ही देख रहा था। देवीके सामने खड़ा खड़ा वह रातों दिन उनकी उपासना-सी करने लगा । ll 10 - 12 ॥
इधर देवीके हृदयमें सदा यही भाव आता था कि यह व्याघ्र मेरा ही उपासक है, दुष्ट वन-जन्तुओंसे मेरी रक्षा करनेवाला है। यह सोचकर वे उसपर कृपा करने लगीं। उन्हींकी कृपासे उसके तीनों प्रकारके मल तत्काल नष्ट हो गये। फिर तो उस व्याघ्रको सहसा देवीके स्वरूपका बोध हुआ, उसकी भूख मिट गयी और उसके अंगोंकी जडता भी दूर हो गयी। साथ ही उसकी जन्मसिद्ध दुष्टता नष्ट हो गयी और | उसे निरन्तर तृप्ति बनी रहने लगी ।। 13-15 ॥
उस समय उत्कृष्टरूपसे अपनी कृतार्थताका अनुभव करके वह तत्काल भक्त हो गया और उन परमेश्वरीकी सेवा करने लगा। अब वह अन्य दुष्ट जन्तुओं को खदेड़ता हुआ तपोवनमें विचरने लगा। इधर देवीकी तपस्या बढ़ी और तीव्रसे तीव्रतर होती गयी ॥ 16-17/2 ॥
[उसी समय] देवता शुम्भ आदि दैत्योंके दुराग्रहसे दुखी हो ब्रह्माजीकी शरणमें गये। उन्होंने शत्रुपीडनजनित अपने दुःखको उनसे निवेदन किया। शुम्भ और निशुम्भ वरदान पानेके घमंड से देवताओंको जैसे-जैसे दुःख देते थे, वह सब सुनकर ब्रह्माजीको उनपर बड़ी दया आयी। उन्होंने दैत्यवधके लिये भगवान् शंकरके साथ हुई बातचीतका स्मरण करके और अपने प्रयत्नसे देवताओंके दुःखनाशके विषयमें मन-ही-मन सोचते हुए देवताओंके प्रार्थना करनेपर उनके साथ देवीके तपोवनको प्रस्थान किया ।। 18- 21 llवहाँ सुरश्रेष्ठ ब्रह्माने उत्तम तपमें परिनिष्ठित परमेश्वरी पार्वतीको देखा। वे सम्पूर्ण जगत्को प्रतिष्ठा सी जान पड़ती थीं। अपने श्रीहरिके तथा रुद्रदेवके भी जन्मदाता पिता महामहेश्वरकी भार्या आर्या जगन्माता गिरिराजनन्दिनी पार्वतीजीको ब्रह्माजीने प्रणाम किया। देवगणोंके साथ ब्रह्माजीको आया देख देवीने उनके योग्य अर्घ्य देकर स्वागत आदिके द्वारा उनका सत्कार किया। । बदलेमें उनका भी सत्कार और अभिनन्दन करके ब्रद्यानी अनजानकी भाँति देवीकी तपस्याका कारण पूछने लगे ।। 22-25 ॥
ब्रह्माजी बोले- देवि! इस तीव्र तपस्याके द्वारा आप यहाँ किस अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि करना चाहती हैं? तपस्याके सम्पूर्ण फलोंकी सिद्धि तो आपके ही अधीन है जो समस्त लोकोंके स्वामी हैं, उन्हीं परमेश्वरको पतिके रूपमें पाकर आपने तपस्याका सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लिया है। अथवा यह सारा ही क्रियाकलाप आपका लीलाविलास है परंतु आश्चर्यकी बात तो यह है कि आप इतने | दिनोंसे महादेवजीके विरहका कष्ट कैसे सह रही हैं ? ॥ 26- 28 ॥
देवीने कहा- ब्रह्मन् ! जब सृष्टिके आदिकालमें महादेवजीसे आपकी उत्पत्ति सुनी जाती है, तब समस्त प्रजाओंमें प्रथम होनेके कारण आप मेरे ज्येष्ठ पुत्र होते हैं। फिर जब प्रजाकी वृद्धिके लिये आपके | ललाटसे भगवान् शिवका प्रादुर्भाव हुआ, तब आप मेरे पतिके पिता और मेरे श्वशुर होनेके कारण गुरुजनोंकी कोटिमें आ जाते हैं और जब मैं यह सोचती हूँ कि स्वयं मेरे पिता गिरिराज हिमालय आपके पुत्र हैं, तब आप मेरे साक्षात् पितामह लगते हैं। लोकपितामह! इस तरह आप लोकयात्राके विधाता हैं। अन्तः पुरमें पतिके साथ जो वृत्तान्त घटित हुआ है, उसे मैं आपके सामने कैसे कह सकूँगी ? अतः यहाँ बहुत कहने से क्या लाभ? मेरे शरीरमें जो यह कालापन है, इसे सात्त्विक विधिसे त्यागकर मैं गौरवर्णा होना चाहती हूँ ॥ 29-33 ॥ब्रह्माजी बोले- देवि! इतने ही प्रयोजनके लिये आपने ऐसा कठोर तप क्यों किया? क्या इसके लिये आपकी इच्छामात्र ही पर्याप्त नहीं थी ? अथवा यह भी आपकी एक लीला ही है। जगन्मातः ! आपकी लीला भी लोकहितके लिये ही होती है। अतः आप इसके द्वारा मेरे एक अभीष्ट फलकी सिद्धि कीजिये ।। 34-35 ।।
निशुम्भ और शुम्भ नामक दो दैत्य हैं, उनको मैंने वर दे रखा है। इससे उनका घमंड बहुत बढ़ गया है और वे देवताओंको सता रहे हैं। उन दोनोंको आपके ही हाथसे मारे जानेका वरदान प्राप्त हुआ है। अतः अब विलम्ब करनेसे कोई लाभ नहीं। आप क्षणभरके लिये सुस्थिर हो जाइये। आपके द्वारा जो शक्ति रची या छोड़ी जायगी, वही उन दोनोंके लिये मृत्युरूपा हो जायगी ।। 36-37 ।।
ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर गिरिराज कुमारी देवी पार्वती सहसा [अपनी काली] त्वचाके आवरणको उतारकर गौरवर्णा हो गयीं। त्वचाकोष (काली त्वचामय आवरण) रूपसे त्यागी गयी जो उनकी शक्ति थी, उसका नाम 'कौशिकी' हुआ। वह काले मेधके समान कान्तिवाली कृष्णवर्णा कन्या हो गयी ।। 38-39 ।।
देवीकी वह मायामयी शक्ति ही योगनिद्रा और वैष्णवी कहलाती है। उसके आठ बड़ी-बड़ी भुजाएँ थीं उसने उन हाथोंमें शंख, चक्र और त्रिशूल आदि आयुध धारण कर रखे थे। उस देवीके तीन रूप हैं सौम्य, धोर और मिश्र वह तीन नेत्रोंसे युक्त थी। उसने मस्तकपर अर्धचन्द्रका मुकुट धारण कर रखा था। उसे पुरुषका स्पर्श तथा रतिका योग नहीं प्राप्त था और वह [दूसरोंसे] अजेय थी एवं अत्यन्त सुन्दरी थी ।। 40-41 ।।
देवीने अपनी इस सनातन शक्तिको ब्रह्माजीके हाथमें दे दिया। वही दैत्यप्रवर शुम्भ और निशुम्भका वध करनेवाली हुई। उस समय प्रसन्न हुए ब्रह्माजीने उस पराशक्तिको सवारीके लिये एक प्रबल सिंह प्रदान किया, जो उनके साथ ही आया था ॥ 42-43 ॥ उस देवीके रहनेके लिये ब्रह्माजीने विन्ध्य गिरिपर वासस्थान दिया और वहाँ नाना प्रकारके उपचारोंसे उसका पूजन किया। विश्वकर्मा ब्रह्माके द्वारा सम्मानित हुई वह शक्ति अपनी माता गौरीको और ब्रह्माजीको क्रमशः प्रणाम करके अपने ही अंगोंसे उत्पन्न और अपने समान शक्तिशालिनी बहुसंख्यक शक्तियोंको साथ ले दैत्यराज शुम्भ निशुम्भको मारनेके लिये उद्यत होकर विन्ध्यपर्वतको चली गयी ॥ 44-46 ॥
उसने समरांगणमें शुम्भ-निशुम्भके मन तथा शरीरको अपने हाव-भावरूप बाणों तथा [वास्तविक] बाणोंसे छिन्न-भिन्नकर उन दोनों दैत्यराजोंको मार गिराया। उस युद्धका अन्यत्र वर्णन हो चुका है, इसलिये उसकी विस्तृत कथा यहाँ नहीं कही गयी। दूसरे स्थलोंसे उसकी ऊहा कर लेनी चाहिये। अब प्रस्तुत प्रसंगका वर्णन करता हूँ ॥ 47-48 ॥