ब्रह्माजी बोले- हे देवर्षे! आपके चले जानेपर प्रसन्नचित्त पार्वतीने शिवजीको तपस्यासे ही साध्य माना और तपस्या करनेका मन बना लिया। तदनन्तर पार्वतीने अपनी जया एवं विजया नामक सखियाँके द्वारा अपनी माता मेना तथा पिता हिमालयसे तप | करनेकी आज्ञा माँगी ॥ 1-2 ॥
उन दोनों सखियोंने सबसे पहले पर्वतराज हिमालयके पास जाकर नम्रतापूर्वक भक्तिभावसे प्रणामकर पूछा- ॥ 3 ॥
सखियाँ बोलीं- हे हिमालय! आपकी पुत्री पार्वती, जो आपसे कुछ कहना चाह रही है, उसे सुनिये। यह आपकी पुत्री अपने शरीर, रूप तथा आपके कुलको [ भगवान् शंकरकी आराधनासे] सफल बनाना चाहती है। वे शंकर तपस्यासे ही साध्य हैं, अन्य उपायसे उनका दर्शन सम्भव नहीं है ।। 4-5 ।।हे गिरिराज! इसलिये आपको इसी समय आज्ञा प्रदान करनी चाहिये, जिससे गिरिजा वनमें जाकर आदरपूर्वक तपस्या करे ।। 6 ।।
ब्रद्याजी बोले- हे मुनिश्रेष्ठ पार्वतीकी सखियोंके द्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर गिरिराज भलीभाँति विचारकर यह कहने लगे - ॥ 7 ॥ हिमालय बोले- मुझे तो यह बात अच्छी लगती है, परंतु यदि पार्वतीकी माताको यह बात अच्छी लगे तो ऐसा ही होना चाहिये। यदि ऐसा हो तो इससे बढ़कर और क्या बात हो सकती है ॥ 8 ॥ यदि पार्वतीकी माताको यह बात रुचिकर लगे, तो इसमें हम तथा हमारा कुल दोनों ही धन्य हो जायँगे। इससे बढ़कर और शुभकारक कौन-सी उत्तम बात होगी ॥ 9 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार दोनों सखियाँ पार्वती के पिताके वचनको सुनकर पार्वतीकी मातासे आज्ञा लेनेके लिये उनके साथ वहाँ गयीं। हे नारद! पार्वतीकी माताके पास जाकर प्रणामकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक उनसे यह वचन कहने लगीं - ॥ 10-11 ॥
सखियाँ बोलीं- हे देवि ! आपको नमस्कार है। हे मातः आप पार्वतीके वचनको सुनें और उसे सुनकर प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करें ।। 12 ।।
आपकी यह पुत्री शिवजीको प्राप्त करने हेतु तपस्या करना चाहती है। इसे तप करनेकी आज्ञा पितासे प्राप्त हो गयी है। अब आपसे पूछ रही है ॥ 13 ॥
हे पतिव्रते। यह [उत्तम पति प्राप्त करनेहेतु] अपने स्वरूपको सफल बनाना चाहती है, अतः यदि आपकी आज्ञा हो, तो यह तपस्या करे ॥ 14 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर इस प्रकार कहकर सखियाँ चुप हो गयीं। मेना [यह बात सुनते ही] खिन्न मनवाली हो गयीं और उन्होंने इस बातको अस्वीकार कर दिया। तब वे पार्वती शिवजीके चरणकमलोंका ध्यानकर हाथ जोड़कर विनम्रचित्त होकर अपनी मातासे स्वयं कहने लगीं- ॥ 15-16 ॥
पार्वती बोलीं- हे मातः! मैं महेश्वरको प्राप्त | करनेके लिये प्रातः काल तपस्याहेतु तपोवन जाना चाहती हूँ, अतः आप मुझे जानेके लिये आज ही आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ 17 ॥ब्रह्माजी बोले- पुत्रीकी यह बात सुनकर मेना दुखी हो गयीं और विकल होकर पुत्रीको अपने पास बुलाकर कहने लगीं- ॥ 18 ॥
मेना बोली- हे शिवे हे पुत्र यदि तुम दुखी हो और तपस्या करना चाहती हो, तो घरमें ही तपस्या करो, हे पार्वति! अब बाहर मत जाओ ॥ 19 ॥
जब मेरे घरमें ही सब देवता, तीर्थ तथा समस्त क्षेत्र विद्यमान हैं, तो तप करनेके लिये तुम अन्यत्र कहाँ जा रही हो ? हे पुत्रि ! तुम हठ मत करो और न तो कहीं बाहर जाओ। तुमने पहले क्या सिद्ध कर लिया और अब क्या सिद्ध करोगी ? हे वत्से! तुम्हारा शरीर कोमल है और तपस्या तो बड़ा कठिन कार्य है। इसलिये तुम यहीं तपस्या करो। कहीं बाहर मत जाओ ll 20-22 ॥
मनोकामनाकी पूर्तिके लिये स्त्रियोंके वन जानेकी बात तो मैंने नहीं सुनी है, इसलिये हे पुत्र तपस्या करनेके लिये वनगमनका विचार मत करो ॥ 23 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार उनकी माताने अनेक प्रकारसे पुत्रीको वन जानेके लिये मना किया, किंतु शंकरजीकी आराधनाके बिना कहीं भी उन पार्वतीको शान्ति नहीं मिली ll 24 ll
मेनाने बार-बार तपस्याके निमित्त वन जानेसे उन्हें रोका, इसी कारणसे शिवाने 'उमा' नाम प्राप्त किया ।। 25 ।।
हे मुने! इसके बाद तपस्याको अनुमति न मिलने से उन शिवाको दुखी जानकर शैलप्रिया मेनाने पार्वतीको तप करनेके लिये आज्ञा प्रदान कर दी ॥ 26 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! माताकी आज्ञा पाकर उत्तम व्रतवाली पार्वतीने शंकरका स्मरण करते मनमें बड़े सुखका अनुभव किया ll 27 ॥
तदनन्तर शिवा माता-पिताको प्रसन्नतापूर्वक प्रणामकर अपनी दोनों सखियोंको साथ लेकर शिवजीका स्मरण करके तपस्या करनेके लिये वनकी ओर चलीं ॥ 28 ॥
उन्होंने अनेक प्रकारके विचारों, प्रिय वस्तुओं तथा नाना प्रकारके वस्त्रोंका परित्यागकर मौंजी, | मेखला बाँधकर सुन्दर वल्कलको धारण कर लियाऔर बहुमूल्य हार उतारकर मृगचर्म धारण कर | लिया। इसके बाद वे तपस्या करनेके लिये गंगावतरण नामक स्थानपर चली गयीं ॥ 29-30 ॥
ध्यान करते हुए शंकरने जहाँ कामदेवको जलाकर भस्म कर दिया था, वही हिमालयका गंगावतरण नामवाला शिखर है। हे तात! काली हिमवत्प्रदेशके शिखरपर स्थित उसी गंगावतरण नामक स्थानपर गर्यो और जगदम्बा पार्वती कालीने उसे शिवजीसे रहित देखा ॥ 31-32 ॥
जहाँ स्थित रहकर शिवजीने अत्यन्त कठिन तप किया था, उस स्थानपर जाकर वे क्षणभरके लिये शिवविरहसे व्याकुल हो उठीं। उस समय वे हा शंकर! इस प्रकार कहकर रोती हुई चिन्ता तथा शोकसे युक्त होकर अत्यन्त दुःखित हो विलाप करने लगीं ।। 33-34 ।।
इसके अनन्तर बहुत समयके बाद हिमालयपुत्री पार्वती धैर्यपूर्वक मोहका त्याग करके नियममें दीक्षित हुई ।। 35 ।।
वे उस महान् उत्तम श्रृंगी तीर्थमें तपस्या करने लगीं। उस स्थानमें गौरीके तपस्या करनेके कारण उसका गौरीशंकर - ऐसा नाम पड़ा ॥ 36 ॥
हे मुने। वहाँ पार्वतीने अपनी तपस्याकी परीक्षाके लिये अनेक प्रकारके पवित्र, सुन्दर तथा फलवान् वृक्ष लगाये। उन सुन्दरीने भूमिशुद्धि और वेदीका निर्माण करके मनके साथ समस्त इन्द्रियोंको रोककर उसी स्थानपर मुनियोंके लिये भी कठिन तपस्या आरम्भ कर दी ।। 37-39 ॥
ये ग्रीष्मकालमें दिन-रात अग्नि प्रज्वलितकर उसके बीचमें बैठकर पंचाग्नि तापती हुई पंचाक्षर महामन्त्रका जप करती थीं ॥ 40 ॥
वे वर्षके समय पत्थरको चट्टानके स्थण्डिलपर सुस्थिर आसन लगाकर बैठी हुई खुले आकाशके नीचे जलकी धारा सहन करतीं और भक्तिमें तत्पर होकर निराहार रहकर वे शीतकालकी रात्रियोंमें निरन्तर शीतल जलमें निवास करतीं ॥ 41-42 ॥
इस प्रकार पंचाक्षर मन्त्रके जपमें रत होकर तप करती हुई ये सम्पूर्ण मनोवांछित फलके दाता शंकरका ध्यान करने लगीं। वे प्रतिदिन अवकाश मिलनेपरअपने द्वारा लगाये गये सुन्दर वृक्षोंको सखियोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक सींचती थीं तथा अतिथिसत्कार भी करती थीं ।। 43-44 ॥
शुद्धचित्तवाली वे पार्वती आँधी, सर्दी, अनेक प्रकारकी वर्षा तथा असह्य धूप बिना कष्ट माने सहन करती थीं ॥ 45 ॥
हे मुने! इस प्रकार उनके ऊपर अनेक प्रकारके दुःख आये, परंतु उन्होंने उनकी कुछ भी परवाह नहीं की। वे केवल शिवमें मन लगाकर वहाँ स्थित थीं ॥ 46 ॥ इस प्रकार तप करती हुई देवीने पहले फलाहारसे, फिर पत्तेके आहारसे क्रमशः अनेक वर्ष बिताये ॥ 47 ॥ तदनन्तर हिमालयपुत्री शिवा देवी पत्ते भी छोड़कर सर्वथा निराहार रहकर तपस्यामें लीन रहने लगीं ।। 48 ।। जब उन हिमालयपुत्री शिवाने पत्ते खाना भी छोड़ दिया, तब वे शिवा देवताओंके द्वारा अपर्णा कही जाने लगीं ॥। 49 ।।
इसके बाद पार्वती भगवान् शिवका ध्यान करके एक पैरपर खड़ी होकर पंचाक्षरमन्त्रका जप करती हुई कठोर तपस्या करने लगीं। उनके अंग चीर और वल्कलसे ढँके थे, वे सिरपर जटाजूटको धारण किये हुए थीं। इस प्रकार शिवजीके चिन्तनमें लगी हुई पार्वतीने तपस्याके द्वारा मुनियोंको भी जीत लिया ॥ 50-51ll इस प्रकार तप करती हुई तथा महेश्वरका चिन्तन करती हुई उन कालीने तीन हजार वर्ष इस तपोवनमें बिता दिये। जहाँपर शंकरजीने साठ हजार वर्षतक तपस्या की थी, उस स्थानपर कुछ क्षण रुककर वे अपने मनमें विचार करने लगीं ॥ 52-53 ॥
हे महादेव! क्या आप तपस्यामें संलग्न हुई मुझे नहीं जानते, जो कि मुझे तपस्यामें लीन हुए इतने वर्ष बीत गये फिर भी आपने मेरी सुधि न ली। लोक एवं वेदमें मुनियोंके द्वारा सदा गान किया जाता है कि भगवान् शंकर सर्वज्ञ, सर्वात्मा तथा सर्वदर्शन हैं ।। 54-55 ll
वे देव समस्त ऐश्वर्यको प्रदान करनेवाले, सब प्रकारके भावोंसे प्राप्त होनेवाले, भक्तोंके मनोरथ सदा पूर्ण करनेवाले तथा सभी प्रकारके कष्टोंको दूर | करनेवाले हैं॥ 56 ॥यदि मैं अपनी सारी कामनाओंका त्यागकर मात्र | नृपध्वज शंकरमें अनुरक्त है, तो वे शंकर मुझपर प्रसन्न हों। यदि मैंने उत्तम भक्तिके साथ विधिपूर्वक नित्य नारदतन्त्रोक्त पंचाक्षर मन्त्रका जप किया है, तो वे शिवजी मेरे ऊपर प्रसन्न हों ।। 57-58 ।।
यदि मैंने विकाररहित होकर भक्तिपूर्वक सर्वेश्वर शिवका यथोक्त चिन्तन किया है, तो वे शंकर [मुझपर] परम प्रसन्न हों ॥ 59 ॥
इस तरह नित्य अपने मनमें सोचती हुई उन्होंने नीचेकी ओर मुख किये एवं जटा- वल्कल धारणकर निर्विकार होकर दीर्घकालतक तप किया ॥ 60 ॥
इस तरह उन्होंने मुनियोंके लिये भी दुष्कर तपस्या की, जिसका स्मरणकर वहाँ सभी पुरुष परम विस्मयमें पड़ गये। उनकी तपस्या देखनेके लिये सभी लोग वहाँ उपस्थित हो गये और अपनेको धन्य मानते हुए एक स्वरसे कहने लगे ।। 61-62 ॥
धर्मवृद्धोंके पास बड़े लोगोंका जाना कल्याणकारी कहा गया है। तपस्यामें कोई प्रमाण नहीं है, विद्वानोंको सदा धर्मका मान करना चाहिये ॥ 63 ॥ इसकी तपस्याको सुनकर तथा देखकर [ ऐसा ज्ञात होता है कि ] अन्य लोग क्या तप कर सकते हैं। संसारमें इसके तपसे बढ़कर कोई तप न तो हुआ है और न होगा। इस प्रकार कहते हुए पार्वतीके तपकी प्रशंसाकर कठोर अंगवाले वे तपस्वी तथा अन्य जन प्रसन्न हो अपने-अपने स्थानोंको चले गये । ll 64-65 ।।
[ ब्रह्माजी बोले- ] हे महर्षे! अब आप जगदम्बा पार्वतीकी तपस्याके अन्य बड़े प्रभावको सुनिये, जो महान् आश्चर्यजनक चरित्र है॥ 66 ॥
पार्वतीके आश्रममें रहनेवाले समस्त जन्तु जो स्वभावसे ही परस्पर विरोधी थे, वे भी उनकी तपस्याके प्रभावसे वैररहित हो गये ॥ 67 ॥
निरन्तर राग आदि दोषसे युक्त रहनेवाले वे सिंह और गौ आदि भी वहाँ उनकी तपस्याको महिमासे परस्पर बाधा नहीं पहुँचाते थे ॥ 68 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! मार्जार, मूषक आदि भी जो स्वभावसे आपसमें वैर करनेवाले हैं, वे भी [एक | दूसरेके प्रति] कभी विकारभाव नहीं रखते थे ॥ 69 ॥हे मुनिसत्तम ! वहाँ फलयुक्त वृक्ष, विविध प्रकारके तृण और विचित्र पुष्प उत्पन्न हो गये ॥ 70 ॥ वह सम्पूर्ण वन उनकी तपस्याकी सिद्धिके रूपमें हो गया और कैलासके समान मालूम पड़ने लगा ॥ 71 ॥