ब्रह्माजी बोले- हे नारद! उन मुनियोंके अपने अपने लोक चले जानेपर जगत्स्रष्टा प्रभु शिवने स्वयं पार्वतीके तपकी परीक्षा लेनेकी इच्छा की ॥ 1 ॥
प्रसन्नचित्त से शिवजी परीक्षा के बहाने उन्हें देखनेके | लिये जटाधारीरूप धारणकर पार्वतीके वनमें गये ॥ 2 ॥ उन्होंने प्रसन्न मनसे बूढ़े ब्राह्मणका वेष धारण किया और अपने तेजसे देदीप्यमान हो दण्ड तथा छत्र धारण कर लिया था ॥ 3 ॥
वहाँपर उन्होंने सखियोंसे घिरी हुई उन विशुद्ध पार्वतीको वेदीपर बैठी हुई साक्षात् चन्द्रकलाके समान देखा 4 ॥
तब ब्रह्मचारीका रूप धारण किये हुए वे भक्तवत्सल शिव उन देवीको देखकर प्रेमपूर्वक उनके समीप गये ॥ 5 ॥
उस अपूर्व तेजस्वी ब्राह्मणको आया हुआ देखकर शिवादेवीने सभी प्रकारकी पूजासामग्रीसे उनका पूजन किया। इस प्रकार भलीभाँति पूजा सत्कार करनेके अनन्तर पार्वतीजी प्रसन्नताके साथ उस ब्राह्मणसे आदरपूर्वक कुशल पूछने लगीं- ॥ 6-7 ॥ पार्वती बोलीं- हे ब्राह्मण! ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण किये हुए आप कौन हैं और कहाँसे आये हैं? आप इस वनको प्रकाशित कर रहे हैं। हे वेदवेताओंमें श्रेष्ठ! यह सब मुझसे कहिये ॥ 8 ॥
ब्राह्मण बोले- मैं वृद्ध ब्राह्मणका शरीर धारण किये अपने इच्छानुसार चलनेवाला एक बुद्धिमान् तपस्वी हूँ, मैं दूसरोंको सुख देनेवाला तथा उनका उपकार करनेवाला हूँ, इसमें संशय नहीं है ॥ 9 ॥तुम कौन हो और किसकी कन्या हो, इस निर्जन वनमें अकेली रहकर इतनी कठिन तपस्या क्यों कर रही हो, जो मुनियोंके लिये भी दुष्कर है ॥ 10 ॥
तुम न तो बाला हो, न ही वृद्धा, तुम तो सर्वथा तरुणी जान पड़ती हो। पतिके बिना इस वनमें इतनी कठोर तपस्या क्यों कर रही हो? हे भद्रे ! क्या तुम किसी तपस्वीकी सहचारिणी हो, जो इतनी घोर तपस्यामें निमग्न हो क्या वह तपस्वी तुम्हारा पोषण नहीं करता अथवा तुम्हें छोड़कर अन्यत्र चला गया है ? ।। 11-12 ॥
तुम किसके कुलमें उत्पन्न हुई हो, तुम्हारे पिता कौन हैं तथा तुम्हारा क्या नाम है, यह बताओ, तुम तो सौभाग्य-शालिनी हो, तपस्यामें तुम्हारी आसक्ति तो व्यर्थ ही है ॥ 13 ॥
क्या तुम वेदोंकी जन्मदात्री सावित्री हो या महालक्ष्मी हो अथवा सुन्दर रूप धारण किये हुए सरस्वती हो ! इनमें तुम कौन हो ! मैं अनुमान नहीं कर पा रहा हूँ 14 ॥ पार्वती बोलीं- हे विप्र ! न तो मैं सावित्री हूँ, न महालक्ष्मी और न ही सरस्वती ही हूँ। मैं हिमालयकी पुत्री हूँ और मेरा वर्तमान नाम पार्वती है ।। 15 ।।
पूर्वजन्ममें मैं दक्षकी कन्या थी, उस समय मेरा नाम सती था। मेरे पिताने मेरे पतिकी निन्दा की थी, इसलिये मैंने [योगमार्गका अवलम्बनकर] अपना शरीर त्याग दिया था। मैंने इस जन्ममें भी भाग्यवश शिवजीको ही प्राप्त किया, परंतु वे कामदेवको जलाकर मुझे छोड़कर चले गये। हे विप्र शंकरजीके चले जानेपर में कष्टसे उद्विग्न हो गयी और तपके लिये दृढ़ होकर पिताके घरसे गंगाके तटपर चली आयी ।। 16-18 ॥
बहुत समयतक कठोर तपस्या करनेके बाद भी मेरे प्राणवल्लभ सदाशिव मुझे प्राप्त नहीं हुए, इस कारण मैं अग्निमें प्रवेश करना चाहती थी, किंतु आपको देखकर क्षणमात्रके लिये रुक गयी ॥ 19 ॥ अब आप जाइये शिवजीने मुझे अंगीकार नहीं किया, इसलिये मैं अब अग्निमें प्रवेश करूँगी। मैं जहाँ-जहाँ जन्म लूँगी, वहाँ भी शिवको ही वररूपमें प्राप्त करूँगी ॥ 20 ॥,ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार कहकर पार्वती ब्रह्मचारीद्वारा बारम्बार निषेध करनेपर भी अग्निमें प्रवेश कर गर्यो। पार्वतीके अग्निमें प्रवेश करते ही उनकी तपस्याके प्रभावसे वह अग्नि उसी समय शीघ्र ही चन्दनके समान शीतल हो गयी। क्षणभर अग्निमें रहनेके बाद ज्यों ही वे द्युलोक जानेको उद्यत हुईं, तब [विप्ररूप] शिव हँसते हुए उन सुन्दरांगीसे सहसा पूछने लगे - ॥ 21-23 ॥ द्विज बोले- हे भद्रे ! तुम्हारी यह कैसी तपस्या है? मुझे तो तुम्हारी इस तपस्याका कुछ भी फल नहीं जान पड़ता। इस अग्निने तुम्हारे शरीरको भी नहीं जलाया और तुम्हारा मनोरथ भी प्राप्त नहीं हुआ ॥ 24 ॥
इसलिये हे देवि ! सब प्रकारका आनन्द प्रदान करनेवाले मुझ विप्रवरके सामने तुम अपना मनोरथ ठीकसे कहो, हे देवि! तुम पूर्णरूपसे इस बातको यथाविधि कह दो। [परस्पर बातचीतसे] हमारी तुम्हारी मित्रता हो गयी, अतः तुम्हें इस बातको गोपनीय नहीं रखना चाहिये ।। 25-26 ॥
हे देवि! इसके पश्चात् मैं पूछना चाहता हूँ कि तुम कौन-सा वरदान चाहती हो ? हे देवि! मुझे सारे वरदानका फल तुम्हींमें दिखायी पड़ रहा है ॥ 27 ॥ यह तपस्या यदि तुमने दूसरेके लिये की है, तो वह सारा का सारा तुम्हारा तप व्यर्थ हो गया और तुमने हाथमें रत्नको ले करके उसे खोकर पुनः काँच धारण किया ॥ 28 ॥ इस प्रकारकी अपनी सुन्दरता तुमने व्यर्थ क्यों कर दी ? अनेक प्रकारके वस्त्र त्यागकर तुमने यह मृगचर्म क्यों धारण किया ? इसलिये तुम इस तपस्याका सारा कारण सत्य सत्य बताओ, जिससे कि उसे सुनकर ब्राह्मणों में श्रेष्ठ मैं प्रसन्नता प्राप्त करूँ ॥ 29-30 ॥
ब्रह्माजी बोले- जब इस प्रकार उस ब्राह्मणने पार्वतीसे पूछा, तब उन सुव्रताने अपनी सखीको प्रेरित किया और उसके मुखसे सारा वृत्तान्त कहलवाया ॥ 31 ॥ तदनन्तर उस पार्वतीसे प्रेरित होकर पार्वतीको प्राणोंके समान प्रिय तथा उत्तम व्रतको जाननेवाली विजया नामकी सखी उस ब्रह्मचारीसे कहने लगी- ॥ 32 ॥
सखी बोली- हे साधो ! यदि आप इस पार्वतीका श्रेष्ठ चरित्र एवं इसकी तपस्याका समस्त कारण जानना चाहते हैं, तो मैं उसे कहूँगी, आप सुनें ॥ 33 ॥यह मेरी सखी पर्वतराज हिमालयकी पुत्री है और पार्वती नामसे प्रसिद्ध है। इसकी माता मेनका है ।। 34 ।।
अभीतक इसका विवाह किसीके साथ नहीं हुआ है, यह शिवजीको छोड़कर दूसरेको अपना पति नहीं बनाना चाहती। यह तीन हजार वर्षसे तपस्या कर रही है। हे साधो ! हे द्विजोत्तम! उन्हींके लिये मेरी सखीने ऐसा तप आरम्भ किया है, इसका भी कारण मैं आपसे कहती हूँ आप सुनें। यह पार्वती इन्द्रादि प्रमुख देवताओं एवं ब्रह्मा, विष्णु आदिको छोड़कर केवल पिनाकपाणि शंकरको ही पतिरूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा करती है । ll 35-37 ॥
हे द्विज ! तपस्या प्रारम्भ करनेके पूर्व मेरी सखीने जिन वृक्षोंको लगाया था, उन सबमें फूल, फल आदि आ गये हैं [ अतः प्रतीत होता है कि मेरी सखीके मनोरथ पूर्ण होनेका समय आ गया है ।] ll 38 ॥
यह मेरी सखी नारदजीके उपदेशानुसार अपने रूपको सार्थक करनेके लिये, अपने पिताके कुलको अलंकृत करनेके लिये और कामदेवपर अनुग्रह करनेके लिये महेश्वरके उद्देश्यसे कठिन तप कर रही है, हे तापस! क्या इसका मनोरथ सफल नहीं होगा ? ।। 39-40 ।।
हे द्विजश्रेष्ठ ! आपने मेरी सखीके जिस मनोरथको पूछा था, उसे मैंने प्रीतिपूर्वक कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 41 ॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुने! विजयाकी इस यथार्थ बातको सुनकर वे जटाधारी रुद्र हँसते हुए यह वचन कहने लगे- ॥ 42 ॥
जटिल बोले- सखीके द्वारा जो यह कहा गया है, वह तो परिहास मालूम पड़ता है, यदि यह यथार्थ है, तो देवी अपने मुखसे कहें ॥ 43 ॥
ब्रह्माजी बोले- इस प्रकार जब जटाधारी ब्राह्मणने कहा, तब पार्वतीदेवी अपने मुखसे ही उन ब्राह्मणसे कहने लगीं ॥ 44 ॥