ब्रह्माजी बोले- उसी समय विश्वकर्माद्वारा विरचित अत्यन्त अद्भुत तथा शाश्वत शोभासे समन्वित एक रथ दिखायी पड़ा। उस रथमें सौ पहिये थे, वह बड़ा विस्तीर्ण और सुन्दर था, उसकी गति मनके समान वेगवाली थी, वह श्रेष्ठ रथ शिवजीके पार्षदोंसे घिरा हुआ था। पार्वतीजीने उसे भेजा था ॥ 1-2 ॥परम ज्ञानी, अनन्त तथा शिवजीके तेजसे उत्पन्न कार्तिकेय दुखी मनसे उस रथपर सवार हो गये॥ 3 ॥
उसी समय बिखरे केशोंवाली कृत्तिकाओंने शोकसे व्याकुल हो कार्तिकेयके पास जाकर शोकोन्मादसे कहना प्रारम्भ किया- ॥ 4 ॥
कृत्तिकाएँ बोलीं- हे कृपासिन्धो! आप हम सबको छोड़कर इस प्रकार निर्दयी होकर जा रहे हैं। पुत्रका धर्म यह नहीं है कि जिन माताओंने पालन पोषण किया, उनका परित्यागकर वह चला जाय ॥ 5 ॥
हमलोगोंने बड़े स्नेहसे तुम्हें बड़ा बनाया, तुम हमारे धर्मपुत्र हो, अब तुम्हीं बताओ कि हम क्या करें, कैसे रहें और कहाँ जायें ? इस प्रकार कहकर वे सभी कृत्तिकाएँ कार्तिकेयको अपने वक्षसे लगाकर पुत्रकी वियोगजन्य व्यथासे मूच्छित हो गयीं। तब कुमारने आध्यात्मिक वचनोंसे उन्हें समझाया। हे मुने! फिर वे उनके तथा पार्षदोंके साथ रथपर आरूढ़ हो गये ।। 6-8 ॥
अत्यधिक सुखदायी मंगलोंको देख तथा सुनकर कुमार कार्तिकेय पार्षदोंके साथ अपने पिताके घर गये ॥ 9 ॥
अपने दाहिनी ओर नन्दिकेश्वरसे युक्त कुमार कार्तिकेय मनके समान वेगवाले रथसे कैलासपर्वतपर अक्षयवटवृक्षके समीप पहुंचे विविध लीलाविशारद शंकरपुत्र कुमार कार्तिकेय उन कृतिकाओं तथा पार्षदोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक वहीं रुके। उसके बाद सभी देवता, ऋषिगण, सिद्ध, चारणोंने ब्रह्मा तथा विष्णुके साथ [शिवजीसे] कार्तिकेयके आनेका समाचार कहा ॥ 10-12 ॥
उस समय शिवजी गंगापुत्र (कार्तिकेय)-को आया हुआ देखकर विष्णु, ब्रह्मा, अन्य देवताओं तथा सुरर्षियोंके साथ प्रसन्नतापूर्वक उनके पास गये ll 13 ॥
उस समय शंख, भेरी आदि अनेक बाजे बजने लगे और आनन्दित हुए देवताओंके वहाँ महान् उत्सव होने लगा। उस समय वीरभद्र आदि सभी शिवगण अनेक तालपर गाना गाते तथा क्रीड़ा करते हुए शिवजीके | पीछे-पीछे चले। स्तुतिपाठक स्तुतिपूर्वक गुणकीर्तन करने लगे और प्रसन्नमन होकर जय-जयकार तथा नमस्कार करने लगे और सरपतवनमें उत्पन्न हुए उस शिवजीके पुत्रको देखनेके लिये चले ll 14-17 ॥पार्वतीने राजमार्गको अनेक मांगलिक द्रव्योंसे अत्यन्त मनोहर बना दिया और पद्मराग आदि मणियोंसे पुरको चारों ओरसे अलंकृत किया। वे पति-पुत्रवाली, | सुहागिन स्त्रियोंके साथ तथा लक्ष्मी आदि तीस देवियोंको आगेकर कार्तिकेयको लेने चल पड़ीं ॥ 18-19 ॥
शिवजीकी आज्ञासे रम्भा आदि दिव्य अप्सराएँ सुन्दर वेशभूषासे सुसज्जित होकर मन्द मन्द हासपूर्वक नृत्य एवं गान करने लगीं। जिन लोगोंने भगवान् शंकरके साथ गंगापुत्र कार्तिकेयको देखा, उन लोगोंको लगा कि सारे जगत्में एक बहुत बड़ा तेज व्याप्त हो रहा है ।। 20-21 ॥
उस तेजसे आवृत, प्रतप्त सुवर्णके समान देदीप्यमान तथा सूर्यके समान तेजस्वी उस बालक कार्तिकेयकी सबने चन्दना की उस बालकके सामने सभी लोग 'नमः' शब्दका उच्चारण करते हुए अपना सिर झुकाकर हर्षोल्लाससे भर गये और बाय तथा दाहिनी ओर उन्हें घेरकर स्थित हो गये ।। 22-23 ॥
[हे नारद!] मैंने, विष्णु एवं इन्द्रादि सभी देवताओंने कुमारको चारों ओरसे घेरकर दण्डवत् प्रणाम किया ।। 24 ll
हे मुने! उसी समय भगवान् शंकर तथा आनन्दसे परिपूर्ण देवी पार्वतीने प्रसन्नतापूर्वक उस महोत्सवमें | आकर अपने पुत्रको देखा ॥ 25 ॥
जगत्के एकमात्र रक्षक, सर्पराजका भूषण धारण किये हुए तथा अपने प्रमथगणोंसे युक्त हो साक्षात् सर्वेश्वर | सदाशिव पराम्बा भवानीके साथ बड़े स्नेहसे उस पुत्रको देखकर गद्गद हो प्रसन्नताको प्राप्त हुए। 26 ॥ उस समय शक्तिको धारण किये हुए कुमार स्कन्दने पार्वती एवं शिवको देखकर शीघ्रतापूर्वक रथसे उतरकर सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ 27 ॥ परमेश्वर भगवान् शिवने प्रसन्नतापूर्वक कुमारका आलिंगन करके प्रेमपूर्वक उनके सिरको सूँघा ॥ 28 ॥
पार्वतीजीने भी आश्चर्यमें पड़कर उस पुत्रको गले लगाया तथा स्नेहाधिक्यके कारण बहते हुए स्तनका दूध उसे पिलाने लगीं। प्रसन्न हो देवताओंने अपनी स्त्रियोंके साथ कुमारकी आरती उतारी, उस समय जय-जयकारकी महान् ध्वनिसे सारा आकाश | मण्डल गूँज उठा ॥ 29-30 ।।अनेक ऋषियोंने वेदोंके उदघोषसे, गायकोंने गीतसे तथा वाद्ययन्त्रोंक बजानेवालोंने वाद्योंसे कुमारका स्वागत किया। कान्तिसे देदीप्यमान अपने उस पुत्रको गोदमें धारणकर पुत्रवानोंमें श्रेष्ठ भवानीपति शंकर साक्षात् शोभासे सम्पन्न हुए ।। 31-32 ।।
इस प्रकार महान् उत्साहसम्पन्न देवताओं तथा अपने
गणोंके साथ परम आनन्दित कुमार कार्तिकेय भगवान्
शिवकी आज्ञासे शिवजीके भवनमें पधारे ॥ 33 ॥ उस समय श्रेष्ठ देवताओं एवं ऋषियोंसे वन्दित तथा उनसे घिरे हुए वे दोनों शिवा-शिव एक साथमें परम शोभित हुए ll 34 ॥
इधर कुमार भी प्रेमसे शिवजीकी गोदमें बैठकर खेलने लगे और उन्होंने उनके कण्ठमें लिपटे हुए वासुकि नागको अपने दोनों हाथोंसे दबाकर पकड़ लिया 35 ॥ लीलासे युक्त कुमार कार्तिकेयको कृपादृष्टिसे देखकर कृपालु भगवान् शंकरने हँसते हुए पार्वतीसे उनकी प्रशंसा की। सर्वव्यापक, जगत्के एकमात्र पालनकर्ता तथा जगत्के एकमात्र स्वामी भगवान् महेश गिरिजाके सहित हर्षित होकर मन्द मन्द हँसते हुए आनन्दसे विभोर हो गये, प्रेमवश गला रैथ गया और वे कुछ भी कह न सके ।। 36-37 ।।
उसके बाद लोकवृत्तान्तको जाननेवाले जगत्पति भगवान् शंकरने प्रसन्न होकर रत्नोंसे जड़े हुए रमणीय सिंहासनपर कुमार कार्तिकेयको बैठाया ॥ 38 ॥
फिर वेदमन्त्रोंके द्वारा पवित्र किये गये समस्त तीर्थोंके जलसे पूर्ण रत्नजटित सौ कलशोंसे उनको प्रसन्नतापूर्वक स्नान कराया। भगवान् विष्णुने उत्तम प्रकारके रत्नोंसे निर्मित किरीट, मुकुट, बाजूबन्द, अपनी वैजयन्ती माला एवं सुदर्शन चक्र उन्हें प्रदान किया। सदाशिवने अपना त्रिशूल, पिनाक धनुष, परशु, शक्ति, पाशुपतास्त्र, बाण, संहारास्त्र एवं परम विद्या कुमारको प्रदान की ।। 39-41 ॥
मुझ ब्रह्माने यज्ञोपवीत, वेद, वेदमाता गायत्री, कमण्डलु, ब्रह्मास्त्र तथा शत्रुनाशिनी विद्या उन्हें प्रदान की ।। 42 ।।
देवराज इन्द्र ने अपना ऐरावत नामक गजेन्द्र तथा वज्र प्रदान किया। जलके स्वामी वरुणदेवने श्वेतच्छत्र, पाश तथा रत्नमाला उन्हें दी ॥ 43 ॥सूर्यने मनकी गति से चलनेवाला उत्तम रथ और महातेजस्वी कवच दिया। यमराजने यमदण्ड तथा चन्द्रमाने अमृतपूर्ण घट प्रदान किया। अग्निने प्रसन्न होकर अपने पुत्रको महाशक्ति प्रदान की। निर्ऋतिने अपना शस्त्र तथा वायुने वायव्यास्त्र प्रदान किया । ll 44-05 ॥
कुबेरने गदा तथा ईश्वरने प्रसन्नता अपना त्रिशूल दिया। इसी प्रकार सभी देवता अनि प्रसन्नतापूर्वक अनेक शस्त्र तथा अनेक प्रकारके उपहार afर्पित किये ॥ 46 ॥
कामदेवने प्रसन्न होकर अपना कामास्त्र, गदा तथा अपनी आकर्षण एवं वशीकरण विद्याएँ परम प्रसन्नतासे उन्हें प्रदान कीं। क्षीरसागरने अमूल्य रख्न तथा विशिष्ट प्रकारका रत्नजटित नूपुर और हिमालयने दिव्य भूषण एवं वस्त्र प्रदान किये। गरुड़ने चित्रवर्हण (मयूर) नामका अपना पुत्र तथा ज्येष्ठ भ्राता अरुणने चरणोंसे युद्ध करनेवाला महाबलवान् ताम्रचूड (मुर्गा) दिया ।। 47-49 ।।
मन्द मुसकानवाली पार्वतीने अत्यन्त प्रसन्नताके साथ अपने पुत्रको परमैश्वर्य एवं चिरंजीवी होनेका वर प्रदान किया। लक्ष्मीने दिव्य सम्पत्ति तथा मनोहर श्रेष्ठ हार प्रदान किया और सावित्रीने बड़े प्रेमसे समस्त सिद्धविद्याएँ प्रदान कीं। हे मुने! इसी प्रकार अन्य जो भी देवियाँ वहाँ आयी थीं, उन्होंने अपनी अपनी प्रिय वस्तुएँ तथा बच्चेका पालना प्रदान किया ॥ 50-52 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! उस समय वहाँ बहुत बड़ा महोत्सव हुआ और सब प्रसन्न हो गये। विशेषकर शिव-पार्वती तो अत्यन्त प्रसन्न हुए। हे मुने! उसी समय महाप्रतापी ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् रुद्रने हँसते हुए प्रसन्नतापूर्वक ब्रह्मादि देवताओंसे कहा- ॥ 53-54 ॥
शिवजी बोले- हे हरे! हे ब्रह्मन्! हे देवगणो! आप सब मेरी बात सुनें। मैं आपलोगोंपर अत्यधिक प्रसन्न हूँ। आपलोग अपने अभीष्ट वर मुझसे माँगिये ॥ 55 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! शिवजीके इस वचनको सुनकर विष्णु आदि सभी देवताओंने प्रसन्नमुख होकर महादेव भगवान् पशुपतिसे कहा- ॥ 56 ॥हे प्रभो! यह तारकासुर कुमारके द्वारा मारा जाय, इसके लिये ही यह सारा उत्तम चरित्र हुआ है ॥ 57 ॥ इसलिये हमलोग उसे मारनेके लिये आज ही प्रस्थान करेंगे। आप हमलोगोंके सुखके लिये इन कुमारको तारकासुरके वधकी आज्ञा प्रदान कीजिये ॥ 58 ॥
देवगणोंके वचनको सुनकर सर्वव्यापी शंकरजीने कृपासे अभिभूत होकर देवगणोंके कल्याणके लिये 'तथास्तु' कहकर अपना पुत्र समर्पित कर दिया ॥ 59 ॥ शिवजीकी आज्ञासे ब्रह्मा, विष्णु जिनमें प्रमुख हैं, ऐसे देवगण मिलकर कार्तिकेयको आगेकर तारकासुरका
वध करनेके लिये उसी समय पर्वतसे चल पड़े ॥ 60 ॥ कैलाससे बाहर निकलकर विष्णुजीकी आज्ञासे विश्वकर्माने पर्वतके निकट ही अत्यन्त सुन्दर नगरकी रचना की ॥ 61 ॥
उस नगरमें विश्वकर्माने अत्यन्त मनोहर, परम अद्भुत
तथा अत्यन्त निर्मल गृह कुमारके लिये निर्मित किया तथा उस गृहमें उत्तम सिंहासनका भी निर्माण किया ॥ 62 ॥ तब परम बुद्धिमान् विष्णुने उस गृहमें नाना प्रकारके मांगलिक कृत्य करवाये और देवताओंके साथ सभी तीर्थोंके जलसे उस सिंहासनपर कार्तिकेयका अभिषेक किया ॥ 63 ॥
फिर कार्तिकेयको सुसज्जितकर [उनको प्रसन्न रखनेकी] समस्त सामग्री वहाँ एकत्रित कर दी तथा उस उपलक्ष्यमें अनेक विधि-विधान तथा उत्सव किये ॥ 64 ॥ हरिने प्रेमसे उनको ब्रह्माण्डका अधिपतित्व प्रदान किया, फिर स्वयं तिलक लगाकर देवगणोंके साथ उनकी पूजा-अर्चना की। उन्होंने सभी देवताओं तथा ऋषियोंके साथ प्रीतिसे कार्तिकेयको प्रणाम किया और सनातन शिवस्वरूप उन कुमारकी विविध स्तोत्रोंसे स्तुति की ॥ 65-66 ॥
ब्रह्माण्डके पालक कार्तिकेय इस प्रकार उत्तम सिंहासनपर बैठकर स्वामित्वको प्राप्तकर अत्यन्त शोभित हुए ॥ 67 ॥