नारदजी बोले - हे विधे हे तात! हे महाभाग ! परमार्थके ज्ञाता आप धन्य हैं, आपकी कृपासे मैंने यह अद्भुत कथा सुनी। जब शिवजी कैलास चले गये, तब सर्वमंगला पार्वतीने क्या किया और वे पुनः कहाँ गयीं? हे महामते। मुझसे कहिये ।। 1-2 ।। ब्रह्माजी बोले- हे तात! हरके अपने स्थान चले जानेके बाद जो कुछ हुआ, उसे प्रेमपूर्वक सुनो, मैं शिवजीका स्मरणकर उसे कह रहा हूँ 3 ॥
पार्वती अपना रूप सार्थककर 'महादेव' शब्दका उच्चारण करती हुई पिताके घर अपनी सखियोंके साथ गर्यो। पार्वतीके आगमनका समाचार सुनते ही मेना तथा हिमालय दिव्य विमानपर चढ़कर हर्षसे विह्वल हो उनकी अगवानीके लिये चले ।। 4-5 उस समय पुरोहित, पुरवासी, अनेक सखियाँ तथा अन्य दूसरे सब सम्बन्धी आये। मैनाक आदि सभी भाई महाप्रसन्न हो 'जय' शब्दका उच्चारण करने लगे ।। 6-7 ।।
चन्दन, अगरु, कस्तूरी, फल तथा वृक्षकी शाखाओंसे युक्त राजमार्गको अपूर्व सजावटसे सम्पन्नकर स्थान-स्थानपर मंगलघट स्थापित कराया गया ॥ 8 ॥ सारा राजमार्ग पुरोहित, ब्राह्मण, ब्रह्मवेत्ता, मुनियों, नर्तकियों एवं बड़े-बड़े गजेन्द्रोंसे खचाखच भर गया ॥ 9 ॥
जगह-जगहपर केलेके खम्भे लगाये गये और चारों ओर पति-पुत्रवती स्त्रियाँ हाथमें दीपक लिये हुए खड़ी हो गयीं। ब्राह्मणोंका समूह मंगलपाठपूर्वक वेदोंका उद्घोष कर रहा था। अनेक प्रकारके वाद्य तथा शंखकी ध्वनि हो रही थी। इसी बीच दुर्गा देवी अपने नगरके समीप आर्यों और प्रवेश करते ही उन्होंने सर्वप्रथम अपने माता-पिताका पुनः दर्शन किया। उन कालीको देखकर माता-पिता हर्षसे विह्वल हो प्रसन्नतासे दौड़ पड़े। पुनः पार्वतीने भी उनको देखकर सखियाँसहित उन्हें प्रणाम किया ll 10 - 13 llमाता-पिताने आशीर्वाद देकर कालीको अपनी गोदमें ले लिया और 'हे वत्से!'- इस प्रकार उच्चारणकर स्नेहसे विह्वल हो रोने लगे ॥ 14 ॥ तदनन्तर इनके अपने सगे-सम्बन्धियोंकी स्त्रियोंने तथा अन्य भाई आदिकी पत्नियोंने भी प्रीतिपूर्वक पार्वतीका दृढ आलिंगन किया और उन्होंने कहा- तुमने कुलको तारनेका कार्य भलीभाँति सम्पन्न किया। तुम्हारे इस सदाचरणसे हम सभी पवित्र हो गयीं ॥ 15-16 ॥
इस प्रकार गिरिजाकी प्रशंसाकर सभी लोगोंने उन्हें प्रणाम किया और चन्दन तथा उत्तम पुष्पोंके द्वारा प्रसन्नतासे उनका पूजन करने लगे ॥ 17 ॥
उसी समय विमानोंमें बैठे हुए देवगण भी आकाशसे फूलोंकी वर्षा करने लगे और पार्वतीको नमस्कारकर स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करने लगे। उसके बाद ब्राह्मण आदि प्रसन्नतापूर्वक अनेक प्रकारकी शोभासे सुसज्जित रथमें पार्वतीको बैठाकर नगरमें ले गये और ब्राह्मण पुरोहित, स्त्रियों तथा सखियोंने बड़े प्रेमके साथ आदरपूर्वक उनको घरमें प्रवेश कराया ।। 18-20 ॥
स्त्रियाँ मंगलाचार करने लगीं और ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। हे मुनीश्वर ! उस समय माता मेनका तथा पिता हिमवान्को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उन्होंने गृहस्थाश्रमको सफल माना और कहा कि कुपुत्रकी अपेक्षा पुत्री ही अच्छी होती है। तदनन्तर वे हिमालय, आप नारदको भी साधुवाद देते हुए प्रशंसा करने लगे ।। 21-22 ॥
पर्वतराज हिमालयने ब्राह्मणों एवं बन्दीजनोंको बहुत-सा धन दिया और ब्राह्मणोंद्वारा मंगलपाठ कराया, बहुत बड़ा उत्सव किया ॥ 23 ॥ हे मुने! इस प्रकार प्रसन्न हुए माता-पिता, भाई तथा सभी सम्बन्धीगण पार्वतीके साथ आँगनमें बैठे ॥ 24 हे तात! तत्पश्चात् हिमालय परम प्रसन्न हो सभी सम्बन्धियोंका प्रेमपूर्वक सम्मानकर गंगास्नानको गये ।। 25 ।।
उसी समय लीला करनेमें तत्पर भक्तवत्सल भगवान् शंकर सुन्दर नाचनेवाले नटका रूप धारणकर मेनकाके समीप पहुँचे। वे बाएँ हाथमें शृंगी, दाहिने हाथमें | डमरू तथा पीठपर गुदड़ी धारण करके रक्तवस्त्र पहनेहुए थे। नृत्य गानमें प्रवीण वे शिवजी मेनाके आँगनमें बड़ी प्रसन्नताके साथ अनेक प्रकारका मनोहर नृत्य एवं गान करने लगे ॥ 26-28 ।।
वे सुन्दर ध्वनिसे शृंगी तथा डमरू बजाने लगे और नाना प्रकारकी मनोहर लीला करने लगे ॥ 29 ॥ उस लीलाको देखनेके लिये सभी नगर निवासी स्त्री-पुरुष, बालक तथा वृद्ध सहसा वहाँ आ गये ॥ 30 ॥
हे मुने! उस मनोहर नृत्यको देखकर एवं गीतको सुनकर सभी लोग तथा मेना भी अत्यन्त मोहित हो गयीं। त्रिशूल आदि चिह्नसे युक्त एवं अत्यन्त मनोहर रूप धारण करनेवाले उस नटको देखकर पार्वती भी उन्हें हृदयसे शंकर जानकर मूच्छित हो गयीं ॥ 31-32 ॥
विभूतिसे विभूषित होने के कारण अत्यन्त मनोहर, अस्थिमालासे समन्वित, त्रिलोचन, देदीप्यमान मुख मण्डलवाले, नागका यज्ञोपवीत धारण किये हुए, गौरवर्ण, दीनबन्धु, दयासागर, सर्वधा मनोहर और वर माँगो' | इस प्रकार कहते हुए उन हृदयस्थ महेश्वरको देखकर पार्वतीने उन्हें प्रणाम किया और मनमें वर माँगा कि आप ही हमारे पति हों ॥ 33-35 ll
इस प्रकार हृदयसे पार्वतीको प्रीतिपूर्वक वर देकर शिवजी अन्तर्धान होकर पुनः भिक्षुकका रूप धारणकर नृत्य करने लगे तब उस नृत्यसे प्रसन्न 1 होकर मेना सोनेके पात्रमें बहुत सारे रत्न रखकर बड़े प्रेमसे उस भिक्षुकको देनेके लिये गयीं, किंतु भिक्षुकने उन्हें स्वीकार नहीं किया और भिक्षामें शिवाको माँगा तथा पुनः नृत्य-गान करने लगे ।। 36-38 ॥
मेना भिक्षुकके वचनको सुनकर विस्मित हो क्रोधसे भर गयीं। वे भिक्षुककी भर्त्सना करने लगीं और उन्होंने उसे बाहर निकालनेकी इच्छा की। इसी समय हिमालय भी गंगाजीसे आ गये और उन्होंने नरकी आकृतिवाले भिक्षुकको आँगनमें स्थित देखा ।। 39-40 ।।
मेनाद्वारा सभी बातोंको जानकर हिमालयको बड़ा क्रोध आया। उन्होंने भिक्षुकको घरसे बाहर निकालनेके लिये अपने सेवकोंको आज्ञा दी।॥ 41 ll
किंतु हे मुनिसत्तम! प्रलयाग्निके समान जलते हुए तेजसे अत्यन्त दुःसह उस भिक्षुकको बाहर निकालने में कोई भी समर्थ नहीं हुआ ॥ 42 ॥हे तात। उस समय अनेक लीलाओं प्रवीण उस भिक्षुकने पर्वतराज हिमालयकी अपना अनन्त प्रभाव दिखाया। हिमालयने देखा कि वह भिक्षुक तत्क्षण किरीट, कुण्डल, पीताम्बर तथा चतुर्भुज ख्य धारणकर विष्णुके स्वरूपमें हो गया है ।। 43-48 ॥ विष्णुपूजाके लिये उन्होंने जो-जो पुष्पादि अर्पण किये थे, वह सभी पूजोपहारकी सामग्री विष्णुरूपभारी इन भिक्षुकके सिर एवं गले में पड़ी हुई उन्होंने देखी ॥ 25 ॥ तत्पश्चात् गिरिराजने देखा कि उस भिक्षुकने रक्तवर्ण होकर वेदोंके सूक्तों उच्चारण करते हुए, चतुर्भुज,
जगत्स्रष्टा ब्रह्माका रूप धारण कर लिया है। ll 46 ॥
पुनः गिरीश्वरने एक क्षण बाद देखा कि वह जगच्चक्षु सूर्यके रूपमें परिवर्तित हो गया। इस प्रकार उन्होंने क्षण-क्षणमें रूप बदलकर कौतुक करते हुए उस भिक्षुकको देखा। हे तात! तत्पश्चात् हिमालयने | देखा कि वह भिक्षुक अद्भुत रूप धारण किये हुए रुद्र हो गया है, जो पार्वतीसहित परम मनोहर अपने तेजसे प्रकाशित हो रहा है ॥। 47-48 ।।
तदनन्तर उन्होंने निराकार, निरंजन, निरुपाधि, निरीह, परम अद्भुत, तेजस्वरूपमें परिवर्तित होते हुए उस भिक्षुकको देखा। इस प्रकार जब हिमालयने उस भिक्षुकके अनेक विस्मयकारक रूप देखे, तब वे आनन्दयुक्त होकर आश्चर्यमें पड़ गये ।। 49-50 ll
उसके बाद पुनः भिक्षुकरूपधारी उन सृष्टिकर्ता शिवजीने हिमालयसे दुर्गाकी याचना की और कुछ नहीं माँगा, किंतु शिवमायासे मोहित होनेके कारण हिमालयने | उसे स्वीकार नहीं किया, भिक्षुकने भी और कुछ ग्रहण नहीं किया और वहीं अन्तर्धान हो गया ॥ 51-52 ॥
तब मेना और शैलराजको ज्ञान हुआ कि प्रभु शंकरजी हम दोनोंको वंचितकर अपने स्थानको चले गये ॥ 53 ॥
इस बातका विचार करके उन दोनोंको दिव्य, सर्वानन्दप्रदायिनी तथा परम मोक्ष देनेवाली परा भक्ति
शिवजीमें उत्पन्न हो गयी ॥ 54 ॥