नन्दीश्वर बोले- हे सनत्कुमार! अब विभु |परमात्मा शिवजीके परमपवित्र जटिल नामक अवतारको अत्यन्त प्रेमपूर्वक सुनिये ॥ 1 ॥
पूर्व समयमें दक्षकी कन्या सती अपने पितासे अनादर प्राप्तकर उनके यज्ञमें अपना शरीर त्यागकर हिमालयद्वारा मेनाके गर्भसे पार्वती नामसे उत्पन्न हुई ॥ 2 ॥
वे पार्वती अपनी सखियोंसमेत घोर वनमें जाकर शिवको अपना पति बनानेकी इच्छा करती हुई अत्यन्त निर्दोष तप करने लगीं ॥ 3 ॥
तब नाना प्रकारकी लीलामें प्रवीण शिवजीने उनके तपकी भलीभांति परीक्षाके लिये पार्वतीके तपः स्थानपर सप्तर्षियोंको भेजा ॥ 4 ॥
उन मुनियोंने वहाँ जाकर यत्नपूर्वक आदरके साथ उनके तपकी परीक्षा की, किंतु वे सफल नहीं हुए॥ 5 ॥
तब वे पुनः लौटकर शिवजीके पास आये और उनको प्रणामकर आदरपूर्वक सारा वृत्तान्त निवेदन किया तथा उनकी आज्ञा लेकर स्वर्गलोक चले गये ॥ 6 ॥
उन मुनियोंके अपने अपने स्थानको चले जानेपर सुन्दर लीला करनेवाले भगवान् शंकरने पार्वतीके भावकी परीक्षा करनेका विचार किया ॥ 7 ॥
उस समय शिवजीने अपनी इच्छाओंका दमन करनेके कारण साक्षात् ईश्वर ही प्रतीत होनेवाले, तपोनिष्ठ तथा आश्चर्यसम्पन्न, प्रसन्नतासे परिपूर्ण ब्रह्मचारीका स्वरूप धारण किया ॥ 8 ॥
वे भक्तवत्सल सदाशिव शम्भु छत्र दण्डसे युक्त तथा जटाधारी, वृद्ध ब्राह्मणके जैसा उज्ज्वल वेष धारण किये हुए, मनसे हृष्ट तथा अपने तेजसे दीप्त होते हुए अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर गिरिजाके वनमें गये ।। 9-10 ॥यहाँ उन्होंने सखियोंगे घिरी हुई तथा के ऊपर विराजमान, चन्द्रकला के समान शोभित होती हुई और विशुद्ध स्वरूपवाली उन पार्वतीको देखा ॥ 11 ॥
तब ब्रह्मचारीवेषधारी भक्तवत्सल शिवजी उन | देवीको देखकर प्रीतिपूर्वक बड़ी उत्सुकतारी उनके | समीप पहुँचे ।। 12 ।।
तब पार्वतीने भी अद्भुत तेजस्वी, रोमबहुल अंगोवाले, शान्ति प्रकट करते हुए, दण्ड तथा [ मृग) चर्मसे युक्त, कमण्डलु धारण किये हुए उन जटाधारी बूढ़े ब्राह्मणको आया देखकर पूजोपचार सामग्रीसे परम प्रेमपूर्वक उनका पूजन किया और पूजन करनेके | पश्चात् आनन्दपूर्वक सादर उन ब्रहाचारीसे कुशलक्षेम पूछा कि आप ब्रह्मचारीका रूप धारण किये हुए कौन हैं, कहाँसे आये हैं, जो अपने तेजसे इस वनप्रदेशको प्रकाशित कर रहे हैं, हे वेदविदोंगें श्रेष्ठ बताइये ? ।। 13 - 16 ।।
नन्दीश्वर बोले- पार्वतीके इस प्रकार पूछने पर उन ब्रह्मचारी जिने पार्वतीके भावकी परीक्षा करनेकी दृष्टिसे प्रसन्न हो शीघ्रतासे कहा- ॥ 17 ll
ब्रह्मचारी बोले- मैं अपने इच्छानुसार इधर उधर भ्रमण करनेवाला ब्रह्मचारी, द्विज तपस्वी तथा सबको सुख पहुँचानेवाला और दूसरोंका उपकार करनेवाला हूँ, इसमें संशय नहीं ॥ 18 ll
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर वे भक्तवत्सल ब्रह्मचारीरूप शंकर अपना स्वरूप छिपाते हुए पार्वतीके सन्निकट स्थित हो गये ॥ 19 ॥
ब्रह्मचारी बोले- हे महादेवि! मैं तुमसे क्या बताऊँ, कुछ कहने योग्य नहीं है, मुझे जो कि अनर्थकारी और अत्यन्त अशोभनीय कार्य दिखायी पड़ रहा है॥ 20 ॥ तुम्हें समस्त सुखोंकी साधनभूत भोगसामग्री प्राप्त है, किंतु इन सभी प्रकारके भोगोंके रहते हुए भी तुम इस नवीन युवावस्थामें व्यर्थ कष्ट सहती हुई तप कर रही हो ll 21 ॥
तुम कौन हो, किसकी कन्या हो और इस निर्जन वनमें प्रयतात्मा मुनियोंके लिये भी कठिन यह तप क्यों कर रही हो ? ॥ 22 ॥नन्दीश्वर बोले- इस प्रकारकी उनकी बात सुनकर परमेश्वरी पार्वती हँसकर प्रेमपूर्वक उन श्रेष्ठ ब्रह्मचारीसे कहने लगीं- ॥ 23 ॥
पार्वतीजी बोलीं- हे ब्रह्मचारिन्। हे विप्र । हे मुने! आप मेरा सारा वृत्तान्त सुनिये। इस समय मेरा जन्म भारतवर्षमें हिमालयके घरमें हुआ है॥ 24 ll
मैं इसके पूर्व प्रजापति दक्षके घरमें जन्म लेकर सती नामसे शंकरजीकी पत्नी थी। पतिकी निन्दा करनेवाले पिता दक्षके द्वारा किये गये अपमानके कारण मैंने योगके द्वारा अपना शरीर त्याग दिया था ॥ 25 ॥
हे द्विज ! इस जन्म में मैंने अपने पुण्यसे शिवजीको प्राप्त किया था, किंतु वे कामदेवको भस्मकर मुझे त्याग करके चले गये हैं ।। 26 ।।
शिवजीके चले जानेपर दुःखान्वित तथा लज्जित होकर मैं पिताके घरसे निकलकर गुरुके वचनानुसार संयत होकर तप करनेके लिये यहाँ आयी हूँ ॥ 27 ॥
हे ब्रह्मचारिन्। मैने मन-वाणी तथा कर्मसे साक्षात् शिवको पतिरूपमें भलीभाँति वरण किया है। मैं सत्य कहती हूँ, इसमें किंचिन्मात्र भी असत्य नहीं है ॥ 28 ॥ मैं जानती हूँ कि वह मेरे लिये दुर्लभ है और दुर्लभ वस्तुकी प्राप्ति किस प्रकार होगी ? फिर भी मैं अपने मनकी उत्सुकतासे इस समय तपमें प्रवृत्त हूँ ॥ 29 ll
मैं इन्द्रादि प्रमुख देवताओं, विष्णु तथा ब्रह्माको भी छोड़कर केवल पिनाकपाणि भगवान् शिवको वस्तुतः पतिरूपमें प्राप्त करना चाहती हूँ ॥ 30 ॥
नन्दीश्वर बोले- हे मुने! पार्वतीके इस निश्चय युक्त वचनको सुनकर उन जटाधारी रुद्रने हँसते हुए यह वचन कहा ॥ 31 ॥
जटिल बोले- हे हिमाचलपुत्रि ! हे देवि! तुमने इस प्रकारका विचार क्यों किया है, जो कि अन्य देवोंको छोड़कर शिक्के निमित्त अत्यधिक कठोर तप कर रही हो ? ।। 32 ।।
मैं उन रुद्रको जानता हूँ, सुनो, मैं तुमको बता रहा हूँ। ये रुद्र बैलपर सवारी करनेवाले, विकृत मनवाले तथा जटाजूट धारण करनेवाले, सदा अकेले रहनेवाले और विशेषरूपसे विरागी हैं, इसलिये उन स्ट्रमें मन लगाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है ।। 33-34 ।।हे देवि! तुम्हारा और शिवका रूप आदि परस्पर एक दूसरेके विरुद्ध हैं, मुझे तो यह अच्छा नहीं लग रहा है, अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो ॥ 35 ॥
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर ब्रह्मचारी स्वरूपधारी शिवने उनकी परीक्षा करनेके लिये उनके आगे पुनः अनेक प्रकारसे अपनी निन्दा की ॥ 36 ॥
विप्रके उस असह्य वचनको सुनकर देवी पार्वतीको बड़ा क्रोध उत्पन्न हो गया और उन्होंने शिवनिन्दापरायण ब्रह्मचारीसे कहा- अभीतक तो मैंने यही समझा था कि आप कोई महात्मा होंगे, किंतु मैंने इस समय आपको जान लिया, फिर भी अवध्य होनेके कारण आपका वध नहीं कर रही हूँ ।। 37-38 ।।
हे मूद तुम ब्रह्मचारीके स्वरूपमें आये हुए कोई धूर्त हो, तुमने शिवकी निन्दा की है, उससे मुझे महान् क्रोध उत्पन्न हुआ है ।। 39 ।।
तुम शिवसे बहिर्मुख हो, इसलिये शिवको नहीं जानते। मैंने तुम्हारी जो पूजा की, उसके कारण मुझे परिताप हो रहा है ॥ 40 ॥
जो मनुष्य तत्त्वको बिना जाने ही शिवकी निन्दा करता है, उसका जन्मभरका संचित पुण्य नष्ट हो जाता है शिवद्रोहीका स्पर्शकर मनुष्यको प्रायश्चित्त करना चाहिये ।। 41-42 ।।
रे दुष्ट! तुमने कहा कि मैं शंकरको जानता हूँ, किंतु निश्चितरूपसे तुम शिवको नहीं जानते। वास्तवमें वे परमात्मा हैं। रुद्र जैसे तैसे सब कुछ हो सकते हैं; क्योंकि वे मायासे बहुत रूप धारण करनेमें समर्थ हैं। सज्जनोंके प्रिय वे सर्वथा निर्विकार होनेपर भी मेरे मनोरथको पूर्ण करेंगे ll 43-44 ।।
नन्दीश्वर बोले- ऐसा कहकर उन देवी पार्वतीने उन ब्रहाचारीसे [उस ] शिवतत्त्वका वर्णन किया, जिसमें शिव ब्रहाके रूपमें निर्गुण एवं अव्यय कहे जाते हैं ।। 45 ।। देवीके वचनको सुनकर वे ब्राह्मण ब्रह्मचारी ज्यों ही पुनः कुछ कहनेको उद्यत हुए, उसी समय शिवमें संसक्त चित्तवाली तथा शिवनिन्दासे विमुख पार्वतीने अपनी सखी विजयासे शीघ्रतासे कहा- ।। 46-47 ।।गिरिजा बोलीं- हे सखि! बोलनेकी इच्छावाला यह नीच ब्राह्मण अभी भी पुनः शिवकी निन्दा करेगा, अतः प्रयत्नपूर्वक इसे रोको, क्योंकि केवल शिवजीकी निन्दा करनेवालेको ही पाप नहीं लगता, वरन् जो उस निन्दाको सुनता है, इस संसारमें वह भी पापका भागी होता है ।। 48-49 ।।
शिवभक्तोंको चाहिये कि शिवनिन्दकका सर्वथा प्रतिकार कर दे, किंतु यदि वह ब्राह्मण हो तो उसे त्याग देना चाहिये और उस स्थानसे शीघ्र चले जाना चाहिये ॥ 50 ॥
निश्चय ही यह दुष्ट पुनः शिवकी निन्दा करेगा, किंतु ब्राह्मण होनेके कारण यह अवध्य है, अतः इसे छोड़ देना चाहिये और फिर इसे कभी नहीं देखना चाहिये। अब देर मत करो, शीघ्रतासे इस स्थानको त्यागकर हम अन्यत्र चलेंगे, जिससे इस मूर्ख ब्राह्मणके साथ पुनः सम्भाषण न हो सके ।। 51-52 ll
नन्दीश्वर बोले- हे मुने। इस प्रकार कहकर ज्यों ही पार्वतीने जाने हेतु पैर उठाया, त्यों ही साक्षात् शिवजीने स्वयं उनका वस्त्र पकड़ लिया। पार्वती शिवजीके जिस स्वरूपका ध्यान करती थीं, शिवजीने वैसा ही दिव्य स्वरूप धारणकर शिवाको दिखाया और नीचे की ओर मुख की हुई उनसे कहा- ॥ 53-54 ॥
शिवजी बोले- हे शिवे ! तुम मुझे छोड़कर कहाँ जा रही हो, मैं किसी प्रकार तुम्हारा त्याग नहीं करूँगा। हे अनघे। मैंने तुम्हारी परीक्षा कर ली है, तुम मेरी दृढ़ भक्त हो। हे देवि! मैंने तुम्हारे भावको जाननेकी इच्छासे ब्रह्मचारीके स्वरूपमें तुम्हारे पास आकर अनेक प्रकारके वचन कहे ।। 55-56 ॥
हे शिवे! मैं तुम्हारी इस दृढ़ भक्तिसे विशेष प्रसन्न हूँ, अब तुम अपना मनोवांछित वर माँगो, तुम्हारे लिये कोई भी वस्तु [मुझे] अदेय नहीं है ॥ 57 ॥
हे प्रेमनिर्भर तुमने अपनी इस तपस्यासे आजसे मुझे अपना दास बना लिया है। तुम्हारे सौन्दर्यको बिना | देखे मेरा एक-एक क्षण युगके समान बीत रहा है॥ 58 ॥
अब तुम लज्जाको त्यागो; क्योंकि तुम मेरी सनातन पत्नी हो हे प्रिये। आओ, मैं तुम्हारे साथ शीघ्र ही कैलासपर्वतपर चलता हूँ ॥ 59 llदेवेशके इस प्रकार कहनेपर वे पार्वती अत्यन्त प्रसन्न हो उठीं और उनके तप करनेका जो क्लेश था, वह सब दूर हो गया ॥ 60 ॥
उसके बाद शिवके उस दिव्य रूपको देखकर प्रसन्न हुई पार्वतीने लज्जासे नीचेकी ओर मुख कर लिया और वे प्रीतिपूर्वक कहने लगीं- ॥ 61 ॥ शिवा बोलीं- हे देवेश! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं और मेरे ऊपर कृपा करना चाहते हैं तो हे देवेश ! आप मेरे पति हों - ऐसा पार्वतीने शिवसे कहा ॥ 62 ॥
नन्दीश्वर बोले- उसके बाद वे शिवजी विधि विधानसे पाणिग्रहणकर उनके साथ कैलासपर चले गये और उन पार्वतीने उन्हें पतिरूपमें प्राप्तकर देवताओंका कार्य सम्पन्न किया ॥ 63 ॥
हे तात! इस प्रकार मैंने पार्वतीके भावकी परीक्षा लेनेवाले ब्रह्मचारीस्वरूप शिवावतारका वर्णन आपसे किया। मेरे द्वारा कहा गया यह आख्यान पवित्र तथा उत्तम है। जो इसे प्रेमपूर्वक सुनेगा, वह सुखी होकर सद्गति प्राप्त करेगा ।। 64-65 ।।