नारदजी बोले - हे विधे हे तात हे शिवभक्तोंमें श्रेष्ठ! हे प्राज्ञ ! आपने करुणा करके [भगवान् शिवकी] यह अद्भुत कथा कही, उससे [मेरे मनमें] बहुत प्रीति बढ़ी है। हे विधे जब दिव्य दृष्टिवाला मैं अपने स्थानको चला गया, तब हे तात! क्या हुआ? अब कृपाकर उसे मुझे बतलाइये ॥ 1-2 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने! आपके स्वर्ग चले जानेपर कुछ समय बीतने पर मेनाने हिमालयके पास आकर उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् पुत्रीको प्राणोंसे भी अधिक चाहनेवाली साध्वी गिरिप्रिया मेना वहां बैठकर अपने पति गिरिराजसे विनयपूर्वक कहने लगीं ।। 3-4 ॥
मेना बोलीं- स्त्री स्वभावके कारण मुनिकी बातको मैंने अच्छी तरह नहीं समझा, [मेरी तो यह प्रार्थना है कि] आप कन्याका विवाह किसी सुन्दर वरके साथ कर दीजिये। यह विवाह सर्वथा अपूर्व सुख देनेवाला होना चाहिये। गिरिजाका वर शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और कुलीन होना चाहिये। मेरी पुत्री मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है। वह प्रिया उत्तम वर पाकर जिस प्रकार भी प्रसन्न और सुखी हो सके, वैसा कीजिये, आपको मेरा नमस्कार है। 5-7॥
ब्रह्माजी बोले- ऐसा कहकर अश्रुयुक्त मुखवाली मेना पतिके चरणोंमें गिर पड़ीं, तब बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हिमवान् उन्हें उठाकर यथोचित बात कहने लगे-॥ 8 ॥हिमालय बोले- हे देवि ! हे मेनके! मैं यथार्थ और तत्त्वकी बात बताता हूँ, सुनिये। आप भ्रम छोड़िये। मुनिकी बात कभी झूठ नहीं हो सकती। यदि आपको पुत्रीके प्रति स्नेह है, तो उसे सादर शिक्षा दीजिये कि वह भक्तिपूर्वक सुस्थिर चित्तसे शंकरके लिये तप करें। हे मेनके! यदि शिव प्रसन्न होकर कालीका पाणिग्रहण कर लेते हैं, तो सब शुभ ही होगा और नारदजीका बताया हुआ अमंगल नष्ट हो जायगा। शिवके समीप सारे अमंगल सदा मंगलरूप हो जाते हैं, इसलिये आपको शिवकी प्राप्तिके लिये पुत्रीको तपस्या करनेकी शीघ्र शिक्षा देनी चाहिये ॥ 9-12 ॥
ब्रह्माजी बोले [हे नारद।] हिमवान्की यह बात सुनकर मेना परम प्रसन्न हुईं। वे तपस्यामें रुचिका | उपदेश देनेके लिये पुत्रीके पास गयीं। पुत्रीके सुकुमार शरीरपर दृष्टिपात करके मेनाको बड़ी व्यथा हुई और उनके दोनों नेत्रोंमें शीघ्र ही आँसू भर आये ।। 13-14 ।।
तब गिरिप्रिया मेना पुत्रीको उपदेश न दे सकीं, किंतु माताकी उस चेष्टाको वे पार्वती शीघ्र ही समझ गयीं। तदनन्तर वे सर्वज्ञ परमेश्वरी कालिका देवी माताको बार-बार आश्वासन देकर शीघ्र कहने लगीं ॥। 15-16 ॥
पार्वती बोलीं- हे मातः! हे महाप्राज्ञे! सुनिये, आजकी रात्रिके ब्राह्ममुहूर्तमें मैंने एक स्वप्न देखा है, उसे बताती हूँ, आप कृपा करें। हे मातः ! एक दयालु एवं तपस्वी ब्राह्मणने मुझे शिवके निमित्त उत्तम तपस्या करनेका प्रसन्नतापूर्वक उपदेश दिया है ।। 17-18 ।।
ब्रह्माजी बोले – [ हे नारद!] यह सुनकर मेनकाने वहाँ शीघ्र अपने पतिको बुलाकर पुत्रीके देखे हुए उस स्वप्नको पूर्णरूपसे बताया। तब मेनकासे पुत्रीके स्वप्नको सुनकर गिरिराज बड़े प्रसन्न हुए और वाणीसे पत्नीको | समझाते हुए कहने लगे - ॥ 19-20 ॥
गिरिराज बोले- हे प्रिये मैंने भी रातके अन्तिम प्रहरमें एक स्वप्न देखा है, मैं आदरपूर्वक उसे बताता हूँ, आप प्रेमपूर्वक सुनें। नारदजीके द्वारा बताये गये वरके अंगों [ लक्षणों] को धारण करनेवाले एक | परम तपस्वी प्रसन्नताके साथ तपस्या करनेके लिये मेरे नगरके निकट आये। तब मैं भी अति प्रसन्न होकरअपनी पुत्रीको साथ लेकर वहाँ गया। [ उस समय ] मुझे ज्ञात हुआ कि नारदजीके द्वारा बताये हुए वर भगवान् शम्भु ये ही हैं। मैंने उन तपस्वीकी सेवाके लिये अपनी पुत्रीको उपदेश देकर उनसे भी प्रार्थना की कि वे इसकी सेवा स्वीकार करें, परंतु उस समय उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया। इतनेमें वहाँ सांख्य और वेदान्तके अनुसार बहुत बड़ा विवाद छिड़ गया। | तदनन्तर उनकी आज्ञासे मेरी पुत्री वहीं रह गयी और अपने हृदयमें उन्हींकी कामना रखकर भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करने लगी। हे सुमुखि! मैंने यही स्वप्न देखा था, जिसे तुम्हें बता दिया। अतः हे मेने हे प्रिये ! कुछ समयतक इस स्वप्नके फलकी परीक्षा करनी चाहिये, इस समय यही उचित जान पड़ता है, अब आप इसीको मेरा निश्चित मत समझिये ॥ 21-27॥ ब्रह्माजी बोले- हे मुनीश्वर यह कहकर वे गिरिराज तथा मेना शुद्धचित हो (कुछ कालपर्यन्त ] स्वप्नफलकी प्रतीक्षा करने लगे ॥ 28 ॥
इसके अनन्तर अभी कुछ ही काल बीता था कि सृष्टिकर्ता तथा सज्जनोंको गति देनेवाले परमेश्वर शिवजी सतीके विरहसे अत्यन्त व्याकुल होकर सर्वत्र घूमते हुए गणोंके साथ तप करनेके लिये प्रेमपूर्वक वहाँ आये सतीके प्रेमविरहमें व्याकुल चित्तवाले वे वहीं अपना तप करने लगे। उस समय पार्वती अपनी दो सखियोंके साथ उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनकी सेवामें लगी रहती थीं ॥ 29-31 ॥
[उस समय ] उन आत्मस्वरूप शिवको मोहित करनेके लिये देवताओंके द्वारा भेजे गये कामदेवके बाणोंसे विद्ध होकर भी भगवान् शम्भु विचलित नहीं हुए ॥ 32 ॥
अपनी नेत्राग्निसे कामदेवको जलाकर मेरे वचनका स्मरणकर वे वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ 33 ॥ तत्पश्चात् कुछ समय बीतनेके बाद गिरिजाके अभिमानका नाश करके पुनः उनकी कठोर तपस्यासे प्रसन्न किये गये महेश्वर प्रसन्न हुए ॥ 34 ॥
उसके बाद विष्णुके द्वारा प्रसन्न किये गये रुद्रने लोकाचारका आश्रय लेकर पार्वतीके साथ विवाह किया। उस अवसरपर बहुत मंगल हुआ ॥ 35 ॥पुनः ब्रह्माजी बोले- हे तात! इस प्रकार मैंने संक्षेपमें विभु शंकरका अत्यन्त दिव्य चरित्र [आपसे ] कहा, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 36 ॥