प्रतिष्ठित होना तथा शिवद्वारपर स्थित रहना
व्यासजी बोले- हे सर्वज्ञ सनत्कुमार! देवर्षि नारदके स्वर्गलोक चले जानेपर उस दैत्यराजने क्या किया? उसे विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ 1 ॥
सनत्कुमार बोले- उस दैत्यसे कहकर नारदजीके स्वर्गलोक चले जानेपर पार्वतीके रूपके श्रवणसे वह दैत्यराज जलन्धर कामज्वरसे पीड़ित हो गया ॥ 2 ॥
उसके बाद कालके अधीन होनेसे उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी और मोहको प्राप्त हो उसने सैंहिकेय नामक दूतको बुलाया ॥ 3 ॥उसे आया हुआ देखकर कामसे आक्रान्त मनवाला वह सागरपुत्र जलन्धर उसे समझाकर कहने लगा- ॥ 4 ॥
जलन्धर बोला- हे दूतोंमें श्रेष्ठ! हे सभी कार्य सिद्ध करनेवाले! हे महाप्राज्ञ सिंहिकापुत्र! तुम कैलास पर्वतपर जाओ, वहाँपर जटाधारण किये हुए, सर्वांग भस्म लपेटे हुए, परम विरक्त, तपस्वी एवं जितेन्द्रिय शिव नामक योगी रहता है । ll 5-6 ॥
हे दूत ! उस जटाधारी परम विरक्त योगी शंकरके पास जाकर भयरहित मनसे तुम [मेरा सन्देश] इस प्रकार कहना - हे योगिन् ! हे दयासिन्धो ! वनमें निवास करनेवाले और भूत-प्रेत-पिशाचादिसे सेवित आपको स्त्रीरत्नसे क्या प्रयोजन है? हे योगिन् ! जब समस्त भुवनाधिपति मुझ जैसा स्वामी विद्यमान है, तब तुम्हें ऐसा करना उचित नहीं है, अतः तुम | अपना स्त्रीरत्न सभी रत्नोंका सेवन करनेवाले मुझे दे दो ॥ 7-9 ॥
तुम इस बातको जान लो कि सारा चराचर जगत् मेरे अधीन है और त्रिलोकीमें जो-जो उत्तम रत्न हैं, वे सब मेरे अधीन हैं ॥ 10 ॥
मैंने इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा घोड़ा एवं पारिजात वृक्ष बलपूर्वक सहसा छीन लिया |है ॥ 11 ॥
ब्रह्माका हंसयुक्त विमान मेरे आँगनमें विद्यमान है। है, जो रत्नस्वरूप महादिव्य एवं अद्भुत है ॥ 12 ॥
कुबेरके महापद्म आदि दिव्य निधिरत्न तथा सुवर्णकी वर्षा करनेवाला वरुणका छत्र मेरे घरमें है। सर्वदा विकसित कमलोंवाली किंजल्कनी नामक मेरे पिताकी माला तो मेरी ही है और जलाधिपति वरुणका पाश भी मेरे यहाँ ही है। मृत्युकी सर्वश्रेष्ठ शक्ति, जिसका नाम उत्क्रान्तिदा है, उसे भी मैंने मृत्युसे बलपूर्वक छीन लिया है। अग्निदेवने मुझे दिव्य परम पवित्र तथा कभी भी मलिन न होनेवाले दो वस्त्र दिये हैं। इस प्रकार हे योगीन्द्र सभी रत्न मेरे पास शोभित हो रहे हैं। अतः हे जटाधर ! तुम भी मुझे अपना स्त्रीरत्न प्रदान करो ।। 13-16 llसनत्कुमार बोले- उसका यह वचन सुनकर नन्दीने उसे भीतर प्रवेश कराया, तब अद्भुत नेत्रोंवाला वह (सिंहिकापुत्र) राहु विस्मित होकर शिवजीकी सभाकी ओर चला। उसने उस सभामें जाकर अपने तेजसे समस्त अन्धकारको दूर करनेवाले, भस्मका लेप लगाये हुए, महाराजोपचारसे सुशोभित होते हुए, अत्यन्त अद्भुत, दिव्य भूषणोंसे भूषित तथा सर्वांगसुन्दर साक्षात् देवदेव महाप्रभु शिवजीको देखा, उनके तेजसे पराभूत शरीरवाले राहु नामक उस दूतने गर्वसे शिवजीको प्रणाम किया और उनके समीप गया । ll 17- 20 ll
इसके बाद वह सिंहिकापुत्र शिवके आगे बैठकर उनसे कुछ कहनेकी इच्छा करने लगा, तब उनका संकेत पाकर उसने यह वचन कहा- ॥ 21 ॥
राहु बोला- दैत्य एवं सर्पोंसे सदा सेवित तथा तीनों लोकोंके अधिपति जलन्धरका में दूत हूँ और उनके द्वारा भेजे जानेपर आपके पास आया हूँ। वे जलन्धर समुद्रके पुत्र हैं, सभी दैत्योंके स्वामी हैं और अब वे त्रिलोकीके अधिपति हैं, सभीके अधिनायक हैं ।। 22-23 ।।
वे बलवान् दैत्यराज देवगणोंके लिये महाकालके | समान हैं। आप योगीको उद्देश्य करके उन्होंने जो कहा है, उसे श्रवण कीजिये ll 24 ll
हे वृषध्वज महादिव्य प्रभाववाले तथा सभी रत्नोंके स्वामी उन प्रभु दैत्यपतिकी आज्ञाको आप सुनिये ॥ 25॥
श्मशान में निवास करनेवाले, सदा अस्थियोंकी माला धारण करनेवाले तथा दिगम्बर रहनेवाले तुम्हारी भार्या वह शुभ हिमालयपुत्री [पार्वती] कैसे हो सकती है ? ॥ 26 ॥
वह स्त्रीरत्न है और मैं समस्त रत्नोंका अधिपति हूँ, अतः वह मेरे ही योग्य है, भिक्षा माँगकर खानेवाले तुम्हारे योग्य वह नहीं है। तीनों लोक मेरे वशमें हैं, मैं ही यज्ञभागोंको ग्रहण करता हूँ। इस त्रिलोकीमें जो भी रत्न हैं, वे सभी मेरे घरमें हैं। रत्नोंका उपभोग करनेवाले हम हैं, तुम तो दिगम्बर योगी हो, तुम अपना स्त्रीरत्न मुझे प्रदान करो; क्योंकि प्रजाएँ राजाको सुख देनेवाली होती हैं॥ 27-29 ॥सनत्कुमार बोले- अभी राहु अपनी बात कह ही रहा था कि शंकरके भ्रू-मध्यसे वज्रके समान शब्द करता हुआ एक महाभयंकर पुरुष प्रकट हो गया। सिंहके समान उसका मुख था, उसकी जीभ लपलपा रही थी, नेत्रोंसे अग्नि निकल रही थी; ऊर्ध्वकेश तथा सूखे शरीरवाला वह पुरुष दूसरे सिंहके समान जान पड़ता था ॥ 30-31 ॥
विशाल शरीर तथा भुजाओंवाला, ताड़ वृक्षके समान जाँघवाला तथा भयंकर वह पुरुष [प्रकट होते ही] बड़े वेग से शीघ्रता के साथ राहुपर झपट पड़ा ॥ 32 ॥
तब खानेके लिये उसे आता हुआ देखकर भयभीत वह राहु बड़े वेगसे भागने लगा, किंतु सभाके बाहर ही उस पुरुषने उसे पकड़ लिया ॥ 33 ॥
राहु बोला- हे देवदेव! हे महेशान! मुझ शरणागतकी रक्षा कीजिये। आप देवताओं तथा असुरोंसे सदा वन्दनीय, महान् ऐश्वर्य तथा प्रभुतासे सम्पन्न हैं ।। 34 ।।
हे महादेव! हे ईशान आपका यह महाभयंकर सेवक पुरुष मुझ ब्राह्मणको खानेके लिये आया हुआ है ॥ 35 ॥
हे देवेश! हे शरणागतवत्सल ! इस पुरुषसे मेरी रक्षा कीजिये, जिससे यह मुझे खा न सके, आपको बार-बार नमस्कार है ॥ 36 ॥
सनत्कुमार बोले- हे मुने! तब ब्राह्मणकी बात सुनकर दीनों तथा अनाथोंसे प्रेम करनेवाले प्रभु महादेवने अपने उस गणसे कहा- ॥ 37 ॥
महादेवजी बोले- हे गणसत्तम। शरणमें आये हुए राहु नामक ब्राह्मण दूतको छोड़ दो; क्योंकि ऐसे लोग शरणके योग्य, रक्षाके पात्र होते हैं, दण्डके योग्य नहीं होते हैं ॥ 38 ॥
सनत्कुमार बोले- करुणामय हृदयवाले गिरिजापतिके ऐसा कहनेपर उस गणने 'ब्राह्मण' यह शब्द सुनते ही राहुको सहसा छोड़ दिया ॥ 39 ॥ तब राहुको आकाशमें छोड़कर वह पुरुष महादेवजीके पास आकर दीनवाणीमें कहने लगा- ll 40 ॥पुरुष बोला- हे देवदेव! महादेव! हे करुणाकर! हे शंकर! हे शरणागतवत्सल। आपने मेरे भक्ष्यको छुड़ा दिया। हे स्वामिन्! इस समय मुझको भूख कष्ट दे रही है, मैं भूखसे अत्यन्त दुर्बल हो गया हूँ। हे देवेश! हे प्रभो! मेरा क्या भक्ष्य है, उसे मुझे बताइये ।। 41-42 ।।
सनत्कुमार बोले- उस पुरुषका यह वचन सुनकर अद्भुत लीला करनेवाले तथा भक्तोंका कल्याण करनेवाले कौतुकी महाप्रभुने कहा- ॥43॥
महेश्वर बोले- यदि तुम्हें बहुत भूख लगी है। और तुम भूखसे व्याकुल हो रहे हो, तो तुम शीघ्र अपने हाथों एवं पैरोंके मांसका भक्षण करो ।। 44 ।।
सनत्कुमार बोले- इस प्रकार शिवजीके द्वारा आदिष्ट वह पुरुष अपने हाथों तथा पैरोंका मांस भक्षण करने लगा। जब केवल सिरमात्र शेष रह गया, तब सिरमात्र शेष देखकर वे सदाशिव उसपर बहुत प्रसन्न होकर आश्चर्यचकित हो उस भयंकर कर्मवाले पुरुषसे कहने लगे- ॥ 45-46 ।।
शिवजी बोले- हे महागण! मेरी आज्ञाका | पालन करनेवाले तुम धन्य हो, हे सत्तम! मैं तुम्हारे इस कर्मसे अत्यन्त ही प्रसन्न हूँ। आजसे तुम्हारा नाम कीर्तिमुख होगा, तुम महावीर एवं सभी दुष्टोंके लिये भयंकर महागण होकर मेरे द्वारपाल बनो । ll 47-48 ।।
तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो और मेरे भक्तजन मेरी | अर्चनाके समय सदा तुम्हारी भी पूजा करेंगे, जो लोग तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे, वे मुझे प्रिय नहीं होंगे ॥ 49 ॥
सनत्कुमार बोले- शिवजीसे इस प्रकारका वरदान प्राप्तकर वह पुरुष अत्यन्त प्रसन्न हो गया और उसी समयसे वह कीर्तिमुख शिवजीके द्वारपर रहने लगा ॥ 50 ॥
अतः शिवपूजामें उस गणको विशेषरूपसे पूजा करनी चाहिये, जो पहले उसकी पूजा नहीं करते हैं, उनकी पूजा व्यर्थ हो जाती है ॥ 51 ॥