पार्वतीजी बोलीं- मैं तो यही समझती थी कि यह कोई अन्य ही आया है, किंतु अब मैंने सब कुछ जान लिया है। [क्रोध तो बहुत आ रहा है, किंतु ब्रह्मचारी होनेसे] तुम विशेषरूपसे अवध्य हो ॥ 1 ॥
हे देव! आपने जो कहा है, उसे मैंने जान लिया, वह सब मिथ्या है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। यदि आप शिवजीको जानते होते, तो ऐसी विरुद्ध बातें नहीं करते 2 ॥
महेश्वर, जो इस प्रकारका वेष धारण करते हुए देखे जाते हैं, उसका यही कारण है कि वे लीला करनेके लिये ही वैसा वेष धारण करते हैं। आप ब्रह्मचारीका रूप धारणकर मुझे छलना चाहते हैं, इसीलिये कुतर्कसे भरी हुई ऐसी बातें मुझसे कह रहे हैं ॥ 3-4 ll
शंकरके स्वरूपको मैं विशेष रूपसे जानती है, इसलिये विचारकर यथार्थ रूपसे शिवतत्त्व कहती हूँ ॥ 5 ॥
वस्तुतः वे निर्गुण ब्रह्म हैं और कारणवश सगुण हो जाते हैं। जो निर्गुण होकर मायासे सगुणरूप धारण करता है, उसका जन्म किस प्रकारसे सम्भव है ? ॥ 6 ॥
वे सदाशिव सभी विद्याओंके अधिष्ठान हैं, उन पूर्ण परमात्माको विद्यासे क्या प्रयोजन? कल्पके आदिमें उन्हीं सदाशिवने सर्वप्रथम विष्णुको उद्वासरूपसे वेद प्रदान किये थे, उनके समान कौन परम प्रभु है ? ।। 7-8 ।।
जो सबका आदिकारण है, उसकी अवस्थाका प्रमाण कौन कर सकता है। यह प्रकृति तो उन्हींसे उत्पन्न हुई है, फिर उनकी शक्तिका दूसरा कारण क्या हो सकता है ? ।। 9 llजो लोग प्रेमपूर्वक शक्तिके पति उन सदाशिवका भजन करते हैं, उनको शिवजी सदा ही अक्षयरूप तीनों शक्तियाँ (क्रियाशक्ति, इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति) प्रदान करते हैं ॥ 10 ॥
जीव उन्हींके भजनसे निर्भय होकर मृत्युको जीत लेता है, इसलिये त्रिलोकीमें उनका मृत्युंजय नाम प्रसिद्ध है ॥ 11 ॥
उन्होंके पक्षमें रहनेसे विष्णुने विष्णुत्व प्राप्त किया है, ब्रह्माने ब्रह्मत्व तथा देवताओंने देवत्व प्राप्त किया है ॥ 12 ॥
देवताओंमें प्रमुख इन्द्र जब भगवान् शिवके दर्शनार्थ जाते हैं, तब भगवान् शिवके जो द्वारपाल एवं भूत आदि हैं, सादर उनके दण्डोंमें घिसा गया इन्द्रका मुकुट सब प्रकारसे उज्ज्वल हो उठता है। उनके विषयमें बहुत बात करनेसे क्या? वे तो स्वयं प्रभु हैं ॥ 13-14 ॥
उन कल्याणस्वरूप शिवजीकी सेवा करनेसे इस लोकमें क्या नहीं सिद्ध हो जाता है। उन देवके पास किस बातकी कमी है, जो वे सदाशिव मेरी इच्छा करें ।। 15 ।।
जो सात जन्मोंका दरिद्र हो, वह भी यदि शंकरकी सेवा करे, तो उनकी इस सेवासे उसे लोकमें स्थिर रहनेवाली लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है॥ 16 ll
जिन्हें सन्तुष्ट करनेके लिये आठ सिद्धियाँ सदा नीचेकी ओर मुख किये जिनके आगे सदा नृत्य करती हैं, उनसे हित होना कहाँसे दुर्लभ है ? ॥ 17 ॥
यद्यपि समस्त मंगल उन शिवजीकी सेवा नहीं करते अर्थात् वे मंगलवेश धारण नहीं करते, तो भी | उनके स्मरणमात्रसे ही पुरुषका मंगल होता है ॥ 18 ॥
जिनकी पूजाके प्रभावसे निरन्तर समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, उन निर्विकार शंकरमें विकार कहाँसे हो सकता है ? जिसके मुखसे 'शिव' यह मंगल नाम निरन्तर निकलता है, उस पुरुषके दर्शनमात्रसे ही दूसरे प्राणी सदा पवित्र हो जाते हैं ।। 19-20 ॥
[हे ब्रह्मचारिन् !] जैसा आपने कहा है कि चिताकी भस्म अपवित्र होती है, तो देवगण उनके अंगमें शोभित भरम सिरपर नित्य क्यों धारण करते हैं ? 21 ॥जो देव जगत्का कर्ता, भर्ता तथा हर्ता है, गुणोंसे संयुक्त है, निर्गुण तथा शिव है, उसे कोई किस प्रकार जान सकता है ? ब्रह्मस्वरूप परमात्मा शिवजीका रूप सदा निर्गुण है। अतः आपके सदृश शिवद्रोही उन्हें किस प्रकार जान सकते हैं ? ।। 22-23 ll
जो दुराचारी, महापापी, वेद एवं देवतासे विमुख हैं, वे निर्गुणरूपवाले शिक्के तत्त्वको नहीं जान सकते ॥ 24 ॥
जो पुरुष तत्त्वको न जानकर शिवकी निन्दा करता है, उसका जन्मपर्यन्त संचित किया गया पुण्य भस्म हो जाता है। आपने इस समय जो महातेजस्वी शिवकी निन्दा की है और मैंने जो आपकी पूजा की है, इसका पाप मुझे भी लग गया है। शिवजीकी निन्दा करनेवालेको देखकर वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये और शिवद्रोहीको देखते ही प्रायश्चित भी करना चाहिये ।। 25-27 ॥
अरे दुष्ट। तुमने जो कहा कि मैं शिवको जानता हूँ, तुम्हें तो निश्चित रूपसे सनातन शिवजीका कुछ ज्ञान नहीं है। वे रुद्र चाहे किसी भी स्वरूपवाले हों, रूपवान् हों अथवा अरूपी हों, वे सज्जनोंके प्रिय निर्विकारी प्रभु मेरे तो सर्वस्व हैं और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ।। 28-29 ॥
उन महात्मा सदाशिवकी ब्रह्मा, विष्णु भी किसी प्रकार समता नहीं कर सकते, फिर जो सर्वदा कालके अधीन अन्य देवता आदि हैं, वे किस प्रकार उनकी समता कर सकते हैं ? ॥ 30 ॥
इस प्रकार अपनी सत्य बुद्धिसे विचारकर मैं उन शिवकी प्राप्तिहेतु बनमें आकर घोर तपस्या कर रही हूँ॥ 31 ॥
वे ही परमेश्वर, सर्वेश एवं भक्तवत्सल हैं। दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले उन्हींको प्राप्त करनेकी मेरी इच्छा है ॥ 32 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने इस प्रकार वे गिरिराजपुत्री मौन हो गयीं और निर्विकार चित्तसे पुनः शिवजीका ध्यान करने लगीं। तदनन्तर वे ब्राह्मण पार्वतीके इस प्रकारके वचनको सुनकर पुनः ज्यों ही कुछ कहनेको उद्यत हुए. उसी समय शिवजीमें मन लगाये हुए और शिवजीकी निन्दासे पराङ्मुख रहनेवाली पार्वती अपनी विजया नामकी सखीसे शीघ्रतापूर्वक कहने लगीं - ॥ 33-35 ॥पार्वती बोलीं- हे सखि ! बोलनेकी इच्छावाला यह द्विजाधम पुनः शिवकी निन्दा करेगा, अतः इसे प्रयत्न पूर्वक रोको; क्योंकि केवल शिवकी निन्दा करनेवालेको ही पाप नहीं लगता, अपितु जो उनकी निन्दाको सुनता है, वह भी पापका भागी होता है ।। 36-37 ।।
शिवभक्तोंको चाहिये कि वे शिवनिन्दकका वध कर दें। यदि वह ब्राह्मण है, तो उसका त्याग कर देना चाहिये
और उस स्थानसे अन्यत्र चले जाना चाहिये ॥ 38 ॥
यह दुष्ट पुनः शिवजीकी निन्दा करेगा, ब्राह्मण होनेके कारण यह अवध्य है, अतः इसका त्यागकर अन्यत्र चलना चाहिये, जहाँ जानेपर यह पुनः दिखायी न पड़े ॥ 39 ॥
अब इस स्थानको छोड़कर हमलोग अविलम्ब दूसरे स्थानपर चलेंगे, जिससे इस मूर्ख ब्राह्मणसे पुनः सम्भाषण न करना पड़े ॥ 40 ॥
ब्रह्माजी बोले- हे मुने ! इतना कहनेके अनन्तर ज्यों ही पार्वतीने अन्यत्र जानेके लिये अपना पैर उठाया, इतनेमें ब्रह्मचारीस्वरूप साक्षात् शिवजीने पार्वतीको पकड़ लिया। उन शिवने उस समय जैसा पार्वती ध्यान कर रही थीं, उसी प्रकारका अत्यन्त सुन्दर रूप धारणकर उन्हें दर्शन दिया और पुनः नीचेकी ओर मुख की हुई पार्वतीसे वे शिव कहने लगे- ॥ 41-42 ।।
शिवजी बोले- [हे देवि !] तुम मुझे | छोड़कर कहाँ जा रही हो? मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा। मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ, मेरे द्वारा तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ 43 ll
आजसे मैं तुम्हारे तपोंसे तुम्हारा खरीदा हुआ दास हो गया। तुमने अपने सौन्दर्यसे मुझे मोल ले लिया है, तुम्हारे बिना एक क्षण भी युगके समान है ।। 44 ।।
हे गिरिजे! तुम लज्जाका त्याग करो, तुम तो मेरी सनातन पत्नी हो हे महेश्वरि इसे तुम अपनी सदबुद्धिसे स्वयं विचार करो। हे दृढ़ मनवाली! मैंने तुम्हारी अनेक प्रकारसे परीक्षा की, मुझ लोकलीलाका अनुसरण करनेवालेके इस अपराधको क्षमा करो। मैंने तुम्हारी जैसी पतिव्रता सती त्रिलोकमें कहीं नहीं देखी हे शिवे! मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ, तुम अपनी कामना पूर्ण करो ॥ 45 - 47 ॥हे प्रिये ! तुम मेरे पास आओ, तुम मेरी पत्नी हो तथा मैं तुम्हारा वर हूँ, अब मैं तुम्हें अपने साथ लेकर पर्वतोंमें उत्तम अपने घर कैलासको चलूँगा ॥ 48 ॥
ब्रह्माजी बोले- देवदेव शंकरजीके इस प्रकार कहनेपर पार्वतीको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और उन्हें पूर्व समयमें तपस्याके कारण जो दुःख हुआ था, वह तत्क्षण ही दूर हो गया। हे मुनिसत्तम! पार्वतीका सारा श्रम दूर हो गया; क्योंकि फलके प्राप्त हो जानेपर प्राणीका पूर्वमें किया हुआ सारा श्रम नष्ट हो जाता है ।। 49-50 ।।