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शिव पुराण (शिव महापुरण)

Shiv Purana (Shiv Mahapurana)

संहिता 2, खंड 3 (पार्वती खण्ड) , अध्याय 28 - Sanhita 2, Khand 3 (पार्वती खण्ड) , Adhyaya 28

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पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना

पार्वतीजी बोलीं- मैं तो यही समझती थी कि यह कोई अन्य ही आया है, किंतु अब मैंने सब कुछ जान लिया है। [क्रोध तो बहुत आ रहा है, किंतु ब्रह्मचारी होनेसे] तुम विशेषरूपसे अवध्य हो ॥ 1 ॥

हे देव! आपने जो कहा है, उसे मैंने जान लिया, वह सब मिथ्या है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। यदि आप शिवजीको जानते होते, तो ऐसी विरुद्ध बातें नहीं करते 2 ॥

महेश्वर, जो इस प्रकारका वेष धारण करते हुए देखे जाते हैं, उसका यही कारण है कि वे लीला करनेके लिये ही वैसा वेष धारण करते हैं। आप ब्रह्मचारीका रूप धारणकर मुझे छलना चाहते हैं, इसीलिये कुतर्कसे भरी हुई ऐसी बातें मुझसे कह रहे हैं ॥ 3-4 ll

शंकरके स्वरूपको मैं विशेष रूपसे जानती है, इसलिये विचारकर यथार्थ रूपसे शिवतत्त्व कहती हूँ ॥ 5 ॥

वस्तुतः वे निर्गुण ब्रह्म हैं और कारणवश सगुण हो जाते हैं। जो निर्गुण होकर मायासे सगुणरूप धारण करता है, उसका जन्म किस प्रकारसे सम्भव है ? ॥ 6 ॥

वे सदाशिव सभी विद्याओंके अधिष्ठान हैं, उन पूर्ण परमात्माको विद्यासे क्या प्रयोजन? कल्पके आदिमें उन्हीं सदाशिवने सर्वप्रथम विष्णुको उद्वासरूपसे वेद प्रदान किये थे, उनके समान कौन परम प्रभु है ? ।। 7-8 ।।

जो सबका आदिकारण है, उसकी अवस्थाका प्रमाण कौन कर सकता है। यह प्रकृति तो उन्हींसे उत्पन्न हुई है, फिर उनकी शक्तिका दूसरा कारण क्या हो सकता है ? ।। 9 llजो लोग प्रेमपूर्वक शक्तिके पति उन सदाशिवका भजन करते हैं, उनको शिवजी सदा ही अक्षयरूप तीनों शक्तियाँ (क्रियाशक्ति, इच्छाशक्ति और ज्ञानशक्ति) प्रदान करते हैं ॥ 10 ॥

जीव उन्हींके भजनसे निर्भय होकर मृत्युको जीत लेता है, इसलिये त्रिलोकीमें उनका मृत्युंजय नाम प्रसिद्ध है ॥ 11 ॥

उन्होंके पक्षमें रहनेसे विष्णुने विष्णुत्व प्राप्त किया है, ब्रह्माने ब्रह्मत्व तथा देवताओंने देवत्व प्राप्त किया है ॥ 12 ॥

देवताओंमें प्रमुख इन्द्र जब भगवान् शिवके दर्शनार्थ जाते हैं, तब भगवान् शिवके जो द्वारपाल एवं भूत आदि हैं, सादर उनके दण्डोंमें घिसा गया इन्द्रका मुकुट सब प्रकारसे उज्ज्वल हो उठता है। उनके विषयमें बहुत बात करनेसे क्या? वे तो स्वयं प्रभु हैं ॥ 13-14 ॥

उन कल्याणस्वरूप शिवजीकी सेवा करनेसे इस लोकमें क्या नहीं सिद्ध हो जाता है। उन देवके पास किस बातकी कमी है, जो वे सदाशिव मेरी इच्छा करें ।। 15 ।।

जो सात जन्मोंका दरिद्र हो, वह भी यदि शंकरकी सेवा करे, तो उनकी इस सेवासे उसे लोकमें स्थिर रहनेवाली लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है॥ 16 ll

जिन्हें सन्तुष्ट करनेके लिये आठ सिद्धियाँ सदा नीचेकी ओर मुख किये जिनके आगे सदा नृत्य करती हैं, उनसे हित होना कहाँसे दुर्लभ है ? ॥ 17 ॥

यद्यपि समस्त मंगल उन शिवजीकी सेवा नहीं करते अर्थात् वे मंगलवेश धारण नहीं करते, तो भी | उनके स्मरणमात्रसे ही पुरुषका मंगल होता है ॥ 18 ॥

जिनकी पूजाके प्रभावसे निरन्तर समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, उन निर्विकार शंकरमें विकार कहाँसे हो सकता है ? जिसके मुखसे 'शिव' यह मंगल नाम निरन्तर निकलता है, उस पुरुषके दर्शनमात्रसे ही दूसरे प्राणी सदा पवित्र हो जाते हैं ।। 19-20 ॥

[हे ब्रह्मचारिन् !] जैसा आपने कहा है कि चिताकी भस्म अपवित्र होती है, तो देवगण उनके अंगमें शोभित भरम सिरपर नित्य क्यों धारण करते हैं ? 21 ॥जो देव जगत्का कर्ता, भर्ता तथा हर्ता है, गुणोंसे संयुक्त है, निर्गुण तथा शिव है, उसे कोई किस प्रकार जान सकता है ? ब्रह्मस्वरूप परमात्मा शिवजीका रूप सदा निर्गुण है। अतः आपके सदृश शिवद्रोही उन्हें किस प्रकार जान सकते हैं ? ।। 22-23 ll

जो दुराचारी, महापापी, वेद एवं देवतासे विमुख हैं, वे निर्गुणरूपवाले शिक्के तत्त्वको नहीं जान सकते ॥ 24 ॥

जो पुरुष तत्त्वको न जानकर शिवकी निन्दा करता है, उसका जन्मपर्यन्त संचित किया गया पुण्य भस्म हो जाता है। आपने इस समय जो महातेजस्वी शिवकी निन्दा की है और मैंने जो आपकी पूजा की है, इसका पाप मुझे भी लग गया है। शिवजीकी निन्दा करनेवालेको देखकर वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये और शिवद्रोहीको देखते ही प्रायश्चित भी करना चाहिये ।। 25-27 ॥

अरे दुष्ट। तुमने जो कहा कि मैं शिवको जानता हूँ, तुम्हें तो निश्चित रूपसे सनातन शिवजीका कुछ ज्ञान नहीं है। वे रुद्र चाहे किसी भी स्वरूपवाले हों, रूपवान् हों अथवा अरूपी हों, वे सज्जनोंके प्रिय निर्विकारी प्रभु मेरे तो सर्वस्व हैं और मुझे अत्यन्त प्रिय हैं ।। 28-29 ॥

उन महात्मा सदाशिवकी ब्रह्मा, विष्णु भी किसी प्रकार समता नहीं कर सकते, फिर जो सर्वदा कालके अधीन अन्य देवता आदि हैं, वे किस प्रकार उनकी समता कर सकते हैं ? ॥ 30 ॥

इस प्रकार अपनी सत्य बुद्धिसे विचारकर मैं उन शिवकी प्राप्तिहेतु बनमें आकर घोर तपस्या कर रही हूँ॥ 31 ॥

वे ही परमेश्वर, सर्वेश एवं भक्तवत्सल हैं। दीनोंपर अनुग्रह करनेवाले उन्हींको प्राप्त करनेकी मेरी इच्छा है ॥ 32 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने इस प्रकार वे गिरिराजपुत्री मौन हो गयीं और निर्विकार चित्तसे पुनः शिवजीका ध्यान करने लगीं। तदनन्तर वे ब्राह्मण पार्वतीके इस प्रकारके वचनको सुनकर पुनः ज्यों ही कुछ कहनेको उद्यत हुए. उसी समय शिवजीमें मन लगाये हुए और शिवजीकी निन्दासे पराङ्मुख रहनेवाली पार्वती अपनी विजया नामकी सखीसे शीघ्रतापूर्वक कहने लगीं - ॥ 33-35 ॥पार्वती बोलीं- हे सखि ! बोलनेकी इच्छावाला यह द्विजाधम पुनः शिवकी निन्दा करेगा, अतः इसे प्रयत्न पूर्वक रोको; क्योंकि केवल शिवकी निन्दा करनेवालेको ही पाप नहीं लगता, अपितु जो उनकी निन्दाको सुनता है, वह भी पापका भागी होता है ।। 36-37 ।।

शिवभक्तोंको चाहिये कि वे शिवनिन्दकका वध कर दें। यदि वह ब्राह्मण है, तो उसका त्याग कर देना चाहिये
और उस स्थानसे अन्यत्र चले जाना चाहिये ॥ 38 ॥
यह दुष्ट पुनः शिवजीकी निन्दा करेगा, ब्राह्मण होनेके कारण यह अवध्य है, अतः इसका त्यागकर अन्यत्र चलना चाहिये, जहाँ जानेपर यह पुनः दिखायी न पड़े ॥ 39 ॥

अब इस स्थानको छोड़कर हमलोग अविलम्ब दूसरे स्थानपर चलेंगे, जिससे इस मूर्ख ब्राह्मणसे पुनः सम्भाषण न करना पड़े ॥ 40 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे मुने ! इतना कहनेके अनन्तर ज्यों ही पार्वतीने अन्यत्र जानेके लिये अपना पैर उठाया, इतनेमें ब्रह्मचारीस्वरूप साक्षात् शिवजीने पार्वतीको पकड़ लिया। उन शिवने उस समय जैसा पार्वती ध्यान कर रही थीं, उसी प्रकारका अत्यन्त सुन्दर रूप धारणकर उन्हें दर्शन दिया और पुनः नीचेकी ओर मुख की हुई पार्वतीसे वे शिव कहने लगे- ॥ 41-42 ।।

शिवजी बोले- [हे देवि !] तुम मुझे | छोड़कर कहाँ जा रही हो? मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा। मैं तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हूँ, मेरे द्वारा तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है ॥ 43 ll

आजसे मैं तुम्हारे तपोंसे तुम्हारा खरीदा हुआ दास हो गया। तुमने अपने सौन्दर्यसे मुझे मोल ले लिया है, तुम्हारे बिना एक क्षण भी युगके समान है ।। 44 ।।

हे गिरिजे! तुम लज्जाका त्याग करो, तुम तो मेरी सनातन पत्नी हो हे महेश्वरि इसे तुम अपनी सदबुद्धिसे स्वयं विचार करो। हे दृढ़ मनवाली! मैंने तुम्हारी अनेक प्रकारसे परीक्षा की, मुझ लोकलीलाका अनुसरण करनेवालेके इस अपराधको क्षमा करो। मैंने तुम्हारी जैसी पतिव्रता सती त्रिलोकमें कहीं नहीं देखी हे शिवे! मैं सर्वथा तुम्हारे अधीन हूँ, तुम अपनी कामना पूर्ण करो ॥ 45 - 47 ॥हे प्रिये ! तुम मेरे पास आओ, तुम मेरी पत्नी हो तथा मैं तुम्हारा वर हूँ, अब मैं तुम्हें अपने साथ लेकर पर्वतोंमें उत्तम अपने घर कैलासको चलूँगा ॥ 48 ॥

ब्रह्माजी बोले- देवदेव शंकरजीके इस प्रकार कहनेपर पार्वतीको बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ और उन्हें पूर्व समयमें तपस्याके कारण जो दुःख हुआ था, वह तत्क्षण ही दूर हो गया। हे मुनिसत्तम! पार्वतीका सारा श्रम दूर हो गया; क्योंकि फलके प्राप्त हो जानेपर प्राणीका पूर्वमें किया हुआ सारा श्रम नष्ट हो जाता है ।। 49-50 ।।

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शिव पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितरोंकी कन्या मेनाके साथ हिमालयके विवाहका वर्णन
  2. [अध्याय 2] पितरोंकी तीन मानसी कन्याओं-मेना, धन्या और कलावतीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त तथा सनकादिद्वारा प्राप्त शाप एवं वरदानका वर्णन
  3. [अध्याय 3] विष्णु आदि देवताओंका हिमालयके पास जाना, उन्हें उमाराधनकी विधि बता स्वयं भी देवी जगदम्बाकी स्तुति करना
  4. [अध्याय 4] उमादेवीका दिव्यरूपमें देवताओंको दर्शन देना और अवतार ग्रहण करनेका आश्वासन देना
  5. [अध्याय 5] मेनाकी तपस्यासे प्रसन्न होकर देवीका उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देकर वरदान देना, मेनासे मैनाकका जन्म
  6. [अध्याय 6] देवी उमाका हिमवान्‌के हृदय तथा मेनाके गर्भमें आना, गर्भस्था देवीका देवताओं द्वारा स्तवन, देवीका दिव्यरूपमें प्रादुर्भाव, माता मेनासे वार्तालाप तथा पुनः नवजात कन्याके रूपमें परिवर्तित होना
  7. [अध्याय 7] पार्वतीका नामकरण तथा उनकी बाललीलाएँ एवं विद्याध्ययन
  8. [अध्याय 8] नारद मुनिका हिमालयके समीप गमन, वहाँ पार्वतीका हाथ देखकर भावी लक्षणोंको बताना, चिन्तित हिमवान्‌को शिवमहिमा बताना तथा शिवसे विवाह करनेका परामर्श देना
  9. [अध्याय 9] पार्वतीके विवाहके सम्बन्धमें मेना और हिमालयका वार्तालाप, पार्वती और हिमालयद्वारा देखे गये अपने स्वप्नका वर्णन
  10. [अध्याय 10] शिवजीके ललाटसे भौमोत्पत्ति
  11. [अध्याय 11] भगवान् शिवका तपस्याके लिये हिमालयपर आगमन, वहाँ पर्वतराज हिमालयसे वार्तालाप
  12. [अध्याय 12] हिमवान्‌का पार्वतीको शिवकी सेवामें रखनेके लिये उनसे आज्ञा मांगना, शिवद्वारा कारण बताते हुए इस प्रस्तावको अस्वीकार कर देना
  13. [अध्याय 13] पार्वती और परमेश्वरका दार्शनिक संवाद, शिवका पार्वतीको अपनी सेवाके लिये आज्ञा देना, पार्वतीका महेश्वरकी सेवामें तत्पर रहना
  14. [अध्याय 14] तारकासुरकी उत्पत्तिके प्रसंगों दितिपुत्र बज्रांगकी कथा, उसकी तपस्या तथा वरप्राप्तिका वर्णन
  15. [अध्याय 15] वरांगीके पुत्र तारकासुरकी उत्पत्ति, तारकासुरकी तपस्या एवं ब्रह्माजीद्वारा उसे वरप्राप्ति, वरदानके प्रभावसे तीनों लोकोंपर उसका अत्याचार
  16. [अध्याय 16] तारकासुरसे उत्पीड़ित देवताओंको ब्रह्माजीद्वारा सान्त्वना प्रदान करना
  17. [अध्याय 17] इन्द्रके स्मरण करनेपर कामदेवका उपस्थित होना, शिवको तपसे विचलित करनेके लिये इन्द्रद्वारा कामदेवको भेजना
  18. [अध्याय 18] कामदेवद्वारा असमयमें वसन्त ऋतुका प्रभाव प्रकट करना, कुछ क्षणके लिये शिवका मोहित होना, पुनः वैराग्य भाव धारण करना
  19. [अध्याय 19] भगवान् शिवकी नेत्रज्वालासे कामदेवका भस्म होना और रतिका विलाप, देवताओं द्वारा रतिको सान्त्वना प्रदान करना और भगवान् शिवसे कामको जीवित करनेकी प्रार्थना करना
  20. [अध्याय 20] शिवकी क्रोधाग्निका वडवारूप धारण और ब्रह्माद्वारा उसे समुद्रको समर्पित करना
  21. [अध्याय 21] कामदेवके भस्म हो जानेपर पार्वतीका अपने घर आगमन, हिमवान् तथा मेनाद्वारा उन्हें धैर्य प्रदान करना, नारदद्वारा पार्वतीको पंचाक्षर मन्त्रका उपदेश
  22. [अध्याय 22] पार्वतीकी तपस्या एवं उसके प्रभावका वर्णन
  23. [अध्याय 23] हिमालय आदिका तपस्यानिरत पार्वतीके पास जाना, पार्वतीका पिता हिमालय आदिको अपने तपके विषयमें दृढ़ निश्चयकी बात बताना, पार्वतीके तपके प्रभावसे त्रैलोक्यका संतप्त होना, सभी देवताओंका भगवान् शंकरके पास जाना
  24. [अध्याय 24] देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान्का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना
  25. [अध्याय 25] भगवान् शंकरकी आज्ञासे सप्तर्षियोंद्वारा पार्वतीके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और वह वृत्तान्त भगवान् शिवको बताकर स्वर्गलोक जाना
  26. [अध्याय 26] पार्वतीकी परीक्षा लेनेके लिये भगवान् शिवका जटाधारी ब्राह्मणका वेष धारणकर पार्वतीके समीप जाना, शिव-पार्वती संवाद
  27. [अध्याय 27] जटाधारी ब्राह्मणद्वारा पार्वतीके समक्ष शिवजीके स्वरूपकी निन्दा करना
  28. [अध्याय 28] पार्वतीद्वारा परमेश्वर शिवकी महत्ता प्रतिपादित करना और रोषपूर्वक जटाधारी ब्राह्मणको फटकारना, शिवका पार्वतीके समक्ष प्रकट होना
  29. [अध्याय 29] शिव और पार्वतीका संवाद, विवाहविषयक पार्वतीके अनुरोधको शिवद्वारा स्वीकार करना
  30. [अध्याय 30] पार्वतीके पिताके घरमें आनेपर महामहोत्सवका होना, महादेवजीका नटरूप धारणकर वहाँ उपस्थित होना तथा अनेक लीलाएँ दिखाना, शिवद्वारा पार्वतीकी याचना, किंतु माता-पिताके द्वारा मना करनेपर अन्तर्धान हो जाना
  31. [अध्याय 31] देवताओंके कहनेपर शिवका ब्राह्मण वेषमें हिमालयके यहाँ जाना और शिवकी निन्दा करना
  32. [अध्याय 32] ब्राह्मण वेषधारी शिवद्वारा शिवस्वरूपकी निन्दा सुनकर मेनाका कोपभवनमें गमन शिवद्वारा सप्तर्षियोंका स्मरण और उन्हें हिमालयके घर भेजना, हिमालयकी शोभाका वर्णन तथा हिमालयद्वारा सप्तर्षियोंका स्वागत
  33. [अध्याय 33] वसिष्ठपत्नी अरुन्धती reद्वारा मेना को समझाना तथा
  34. [अध्याय 34] सप्तर्षियोंद्वारा हिमालयको राजा अनरण्यका आख्यान सुनाकर पार्वतीका विवाह शिवसे करनेकी प्रेरणा देना
  35. [अध्याय 35] धर्मराजद्वारा मुनि पिप्पलादकी भार्या सती पद्माके पातिव्रत्यकी परीक्षा, पद्माद्वारा धर्मराजको शाप प्रदान करना तथा पुनः चारों युगोंमें शापकी व्यवस्था करना, पातिव्रत्यसे प्रसन्न हो धर्मराजद्वारा पद्माको अनेक वर प्रदान करना, महर्षि वसिष्ठद्वारा हिमवान्से पद्माके दृष्टान्तद्वारा अपनी पुत्री शिवको सौंपनेके लिये कहना
  36. [अध्याय 36] सप्तर्षियोंके समझानेपर हिमवान्‌का शिवके साथ अपनी पुत्रीके विवाहका निश्चय करना, सप्तर्षियोंद्वारा शिवके पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बताकर अपने धामको जाना
  37. [अध्याय 37] हिमालयद्वारा विवाहके लिये लग्नपत्रिकाप्रेषण, विवाहकी सामग्रियोंकी तैयारी तथा अनेक पर्वतों एवं नदियोंका दिव्य रूपमें सपरिवार हिमालयके घर आगमन
  38. [अध्याय 38] हिमालयपुरीकी सजावट, विश्वकर्माद्वारा दिव्यमण्डप एवं देवताओंके निवासके लिये दिव्यलोकोंका निर्माण करना
  39. [अध्याय 39] भगवान् शिवका नारदजीके द्वारा सब देवताओंको निमन्त्रण दिलाना, सबका आगमन तथा शिवका मंगलाचार एवं ग्रहपूजन आदि करके कैलाससे बाहर निकलना
  40. [अध्याय 40] शिवबरातकी शोभा भगवान् शिवका बरात लेकर हिमालयपुरीकी ओर प्रस्थान
  41. [अध्याय 41] नारदद्वारा हिमालयगृहमें जाकर विश्वकर्माद्वारा बनाये गये विवाहमण्डपका दर्शनकर मोहित होना और वापस आकर उस विचित्र रचनाका वर्णन करना
  42. [अध्याय 42] हिमालयद्वारा प्रेषित मूर्तिमान् पर्वतों और ब्राह्मणोंद्वारा बरातकी अगवानी, देवताओं और पर्वतोंके मिलापका वर्णन
  43. [अध्याय 43] मेनाद्वारा शिवको देखनेके लिये महलकी छतपर जाना, नारदद्वारा सबका दर्शन कराना, शिवद्वारा अद्भुत लीलाका प्रदर्शन, शिवगणों तथा शिवके भयंकर वेषको देखकर मेनाका मूर्च्छित होना
  44. [अध्याय 44] शिवजीके रूपको देखकर मेनाका विलाप, पार्वती तथा नारद आदि सभीको फटकारना, शिवके साथ कन्याका विवाह न करनेका हठ, विष्णुद्वारा मेनाको समझाना
  45. [अध्याय 45] भगवान् शिवका अपने परम सुन्दर दिव्य रूपको प्रकट करना, मेनाकी प्रसन्नता और क्षमा प्रार्थना तथा पुरवासिनी स्त्रियोंका शिवके रूपका दर्शन करके जन्म और जीवनको सफल मानना
  46. [अध्याय 46] नगरमें बरातियोंका प्रवेश द्वाराचार तथा पार्वतीद्वारा कुलदेवताका पूजन
  47. [अध्याय 47] पाणिग्रहण के लिये हिमालयके घर शिवके गमनोत्सवका वर्णन
  48. [अध्याय 48] शिव-पार्वती विवाहका प्रारम्भ, हिमालयद्वारा शिवके गोत्रके विषयमें प्रश्न होनेपर नारदजीके द्वारा उत्तरके रूपमें शिवमाहात्म्य प्रतिपादित करना, हर्षयुक्त हिमालयद्वारा कन्यादानकर विविध उपहार प्रदान करना
  49. [अध्याय 49] अग्निपरिक्रमा करते समय पार्वतीके पदनखको देखकर ब्रह्माका मोहग्रस्त होना, बालखिल्योंकी उत्पत्ति, शिवका कुपित होना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  50. [अध्याय 50] शिवा शिवके विवाहकृत्यसम्पादनके अनन्तर देवियोंका शिवसे मधुर वार्तालाप
  51. [अध्याय 51] रतिके अनुरोधपर श्रीशंकरका कामदेवको जीवित करना, देवताओंद्वारा शिवस्तुति
  52. [अध्याय 52] हिमालयद्वारा सभी बरातियोंको भोजन कराना, शिवका विश्वकर्माद्वारा निर्मित वासगृहमें शयन करके प्रातःकाल जनवासेमें आगमन
  53. [अध्याय 53] चतुर्थीकर्म, बरातका कई दिनोंतक ठहरना, सप्तर्षियोंके समझानेसे हिमालयका बरातको विदा करनेके लिये राजी होना, मेनाका शिवको अपनी कन्या सौंपना तथा बरातका पुरीके बाहर जाकर ठहरना
  54. [अध्याय 54] मेनाकी इच्छा अनुसार एक ब्राह्मणपत्नीका पार्वतीको पातिव्रतधर्मका उपदेश देना
  55. [अध्याय 55] शिव-पार्वती तथा बरातकी विदाई, भगवान् शिवका समस्त देवताओंको विदा करके कैलासपर रहना और शिव विवाहोपाख्यानके श्रवणकी महिमा