सनत्कुमारजी बोले- हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ! स्वर्ग सात पितृगण कहे गये हैं, जिनमें चार मूर्तिमान् हैं एवं तीन अमूर्त हैं। वे पितर पूर्वसे ही योगबलके द्वारा सोमको तृप्त करते रहे हैं। देवगण तथा ब्राह्मण उन्हींका यजन करते हैं ॥ 1-2 ॥
इसलिये योगनिष्ठ पितरोंको विशेष रूपसे श्राद्ध | देने चाहिये। इन सभी [सात] पितरोंको चाँदी या चौंदीसे युक्त पात्र तथा स्वधापूर्वक दिया गया श्राद्ध प्रसन्नता प्रदान करता है। जो मनुष्य अग्नि, सोम तथा यमका आप्यायनकर अग्निमें उदगायन करता है अथवा अग्निके अभावमें जलमें उदगायन करके भक्तिसे पितरोंको तृप्त | करता है, उससे सन्तुष्ट हुए पितर उसे भी सन्तुष्ट करते हैं।पितृगण प्रसन्न हो जानेपर उसे पुष्टि, विपुल सन्तति, स्वर्ग, आरोग्यवृद्धि तथा अन्य अभीष्ट भी प्रदान करते हैं ॥ 3-6 ॥
हे मुने! देवकार्यकी अपेक्षा पितृकार्यको विशेष कहा गया है, हे विप्रर्षे! आप पितृभक्त हैं, इसलिये अजर अमर हैं ॥ 7 ॥
हे मुने! योगसे भी वह गति नहीं प्राप्त होती, जो पितृभक्तको प्राप्त होती है, इसलिये हे महामुने ! विशेष रूपसे पितृभक्ति करनी चाहिये ॥ 8 ॥
मार्कण्डेयजी बोले- ऐसा कहकर वे देवेश [सनत्कुमार] मुझे देवताओंके लिये भी दुर्लभ विज्ञानमय दृष्टि देकर शीघ्र ही योगगतिको प्राप्त हो गये ॥ 9 ॥
हे भीष्म ! सुनो * पूर्व समयमें कुछ ब्राह्मण रहते थे, जो भरद्वाजके पुत्र थे । वे योगधर्मका सेवन करते करते दुराचारमें फँस जानेके कारण [स्वर्गसे] भ्रष्ट हो गये। वे वाग्दुष्ट, क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि, खसृम और पितृवर्ती नामवाले थे और अपने नामके अनुसार कार्य भी किया करते थे । ll 10-11 ॥
हे तात! [ दूसरे जन्ममें] वे सभी कौशिकके पुत्र एवं गर्गके शिष्य हुए। पिताके मर जानेपर वे सभी प्रवास (गुरुके आश्रम) में रहने लगे। एक समय उन गुरुकी आज्ञासे दूध देनेवाली तथा बछड़ेसे युक्त कपिला गौको चराते- चराते वे अन्यायमें प्रवृत्त हो गये ॥ 12-13 ॥ हे भारत! मोह तथा मूर्खताके कारण भूखसे व्याकुल उन सभीको मार्गमें उसे मारनेके लिये क्रूर बुद्धि उत्पन्न हुई कवि तथा खसृमने उनसे गौकी माँग की, किंतु उन्होंने नहीं दिया और उन भाइयोंसे उसे बचाने में भी वे दोनों समर्थ नहीं हो सके ॥ 14-15 ll
उनमें जो पितृवर्ती नामक भाई था, वह नित्यश्राद्ध करनेवाला था, पितृभक्तिसे युक्त वह क्रोधपूर्वक उन सभीसे कहने लगा-यदि तुम लोग इसका वध अवश्य करना चाहते ही हो तो पितरोंको उद्देश्यकर ऐसा करो और सावधान होकर उससे पितरोंका श्राद्ध करो ।। 16-17 ।।ऐसा करनेसे यह गौ धर्मको प्राप्त होगी, इसमें संशय नहीं है। धर्मपूर्वक पितरोंका पूजन कर लेनेसे हमलोगोंको [वधजन्य] अधर्म भी नहीं होगा ॥ 18 ॥ हे भारत! उसके ऐसा कहनेपर उन सभीने गौका प्रोक्षण करके उसको मारकर उससे पितरोंका श्राद्ध किया और उसे उपयोगमें ले लिया ॥ 19 ॥
इस प्रकार सभीने गायका उपयोगकर गुरुसे निवेदन किया कि सिंहने गायको मार दिया, अब इस बछड़ेको ग्रहण कीजिये ॥ 20 ॥
सरल स्वभावके कारण ब्राह्मणने भी उस बछड़ेको ग्रहण कर लिया, इस मिथ्या उपचार [ असत्ययुक्त अपकर्म] से उन गोहत्यारोंको पाप लगा ॥ 21 ॥ हे तात! इसके बाद कुछ काल बीत जानेपर वे सातों भाई अपनी आयुके क्षीण होनेपर कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुए ॥ 22 ॥
क्रूरकर्म, हत्या एवं गुरुसे अनार्य व्यवहार करनेके कारण उग्र स्वभाववाले तथा हिंसामें ही रमण करनेवाले वे सभी सातों भाई दशार्ण देशमें किसी बहेलियेके बलवान्,
मनस्वी तथा धर्मप्रवीण सात पुत्र हुए ।। 23-24 ।। उसके अनन्तर अपने धर्ममें निरत वे सभी कालधर्मको प्राप्त होकर दूसरे जन्ममें रम्य कालंजर पर्वतपर [पूर्वकृत कर्मोंके कारण] उद्वेगसे युक्त तथा [जातिस्मरताके कारण] मोहविवर्जित मृगजन्मको प्राप्त होकर वहीं विहार करने लगे ॥ 25 ॥
उस जन्ममें भी वे जातिस्मरताको प्राप्तकर पूर्वकृत कर्मोंके फलका स्मरण करते हुए निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह तथा क्षमाशील हो वनमें विचरण करते थे ॥ 26 ॥
वे सभी वनेचर मृग शुभ कर्मवाले, उत्तम धर्मका आचरण करनेवाले, विधर्म आचरणसे रहित तथा जातिस्मरणकी सिद्धिवाले थे। उन्होंने पूर्वजन्ममें गुरुकुलोंमें जो धर्म सुन रखा था, वे संसारसे निवृत्त होनेके लिये उसीको बुद्धिमें रखते थे॥ 27-28 ॥
उसके अनन्तर उन तपस्वी मृगोंने [बिना यत्नके] प्राप्त आहारको ग्रहण करते हुए वहीं पर्वतके मध्यमें अपने प्राणोंका त्याग कर दिया। हे भारत! हे नृप ! उन पतितकि जो स्थान थे, वे आज भी कालंजरपर्वतपर दिखायी पड़ते हैं। इस शुभकर्मके प्रभावसे वे शुभ तथा अशुभ दोनोंसे मुक्त हो गये। ll 29-30 llपुनः वे सातों मृग परमपुण्य क्षेत्र शरद्वीपमें शुभसे भी शुभ जलवासी चक्रवाक योनिको प्राप्त हुए। वे सहचारी धर्मका त्याग करके मुनियोंकी भाँति धर्मनिरत होकर रहते थे। वे पक्षी निःसंग, निर्मम, शान्त, निर्द्वन्द्व, निष्परिग्रह, निवृत्ति तथा निर्वृत नामवाले थे। वे सभी ब्रह्मचर्यपरायण तथा धर्मनिरत थे। जातिस्मरणवाले तथा अभ्युदयसे युक्त वे सातों पक्षी विकारसे रहित हो सर्वदा एक ही स्थानमें निवास करते थे ॥ 31-34 ॥
उन्होंने ब्राह्मणयोनिमें जो गुरुके प्रति दोषपूर्ण मिथ्या आचार किया था, इस कारण उन्हें पक्षियोनि प्राप्त हुई, किंतु श्राद्ध करनेके कारण उन्हें ज्ञानबल रहा। उन्होंने व्यवस्थित होकर पितरोंको प्रसन्न करनेके निमित्त श्राद्ध किया था, इसलिये उन्होंने क्रमसे उत्कृष्ट गुणोंसे युक्त ज्ञान तथा जातिको प्राप्त किया ।। 35-36 ॥
पूर्वजन्मोंमें गुरुकुलोंमें उन्होंने जो ज्ञान सुना था, वही ज्ञान उनमें बना हुआ था। अतः सबको ज्ञानका अभ्यास करना चाहिये ॥ 37 ॥
[ उस योनिमें] वे पक्षी सुमना, सुवाक्, शुद्ध, पंचम, छिद्रदर्शक, स्वतन्त्र और सुयज्ञ नामवाले हुए ॥ 38 ॥
हे महामुने! वनमें विचरण करनेवाले उन धर्मात्मा पक्षियोंके सामने जो सुन्दर घटना घटी, उसे आप सुनें। नीप देशका बड़ा प्रभावशाली तथा श्रीमान् राजा [विभ्राज] एक समय अन्तःपुरकी स्त्रियोंसे युक्त हो उस वनमें आया ॥ 39-40 ॥
सुखसम्पन्न तथा राज्यशोभायुक्त उस राजाको आया हुआ देखकर स्वतन्त्र नामक उस चक्रवाकने यह इच्छा की ॥ 41 ॥
इस निश्चल तप एवं निरन्तर उपवाससे मैं अत्यन्त शिथिल हो गया हूँ, यदि मेरा कुछ पुण्य, तप, नियम हो तो उसके करने से प्राप्त हुए पूर्ण फलसे मैं इसीके सदृश सम्पूर्ण सौभाग्यका पात्र हो जाऊँ ।। 42-43 ll
मार्कण्डेयजी बोले- उसके बाद दोनों सहचारी चकवोंने कहा कि हम दोनों तुम्हारे राजा होनेपर तुम्हारे प्रिय तथा हितैषी मन्त्री होवें ॥ 44 ॥ तब ऐसा ही हो, ऐसा उनके कहनेसे उस योगात्माकी वैसी ही गति हो गयी, जिससे दोनों चकवोंने मन्त्री होनेके लिये अपनी बात की थी ।। 45 ।।[ तदुपरान्त उन तीनों पक्षियोंसे चौथा पक्षी शुचिवाक् कहने लगा-] योगधर्मको प्राप्त करके भी ऐसा वर चाह रहे हो। तुम कर्मकी बात कह रहे हो अर्थात् कर्मबन्धनमें बँधना चाहते हो तो अब मैं जो कह रहा हूँ, उसे सुनो ॥ 46 ॥
हे तात! तुम श्रेष्ठ काम्पिल्यनगरमें राजा होगे एवं योगसे भ्रष्ट हुए ये दोनों चक्रवाक तुम्हारे मन्त्री होंगे। तदुपरान्त राज्यलोलुप उन पक्षियोंसे जब अन्य पक्षियोंने बोलना बन्द कर दिया, तब वे तीनों अपने चारों सहचरोंसे कहने लगे-'हमपर कृपा कीजिये।' तब उनमेंसे सुमना नामक पक्षी बोला- ॥ 47-48 ।।
तुमलोगों का शाप भी मिट जायगा और तुमलोग पुनः योग प्राप्त करोगे - यह स्वतन्त्र सभी प्राणियोंकी भाषाका जानकार होगा। तुम सभीको पितरोंके प्रसादका पुण्य प्राप्त होगा, क्योंकि गौका प्रोक्षणकर तुमलोगोंने पितरोंके निमित्त श्राद्ध किया है ।। 49-50 ॥
हमलोगोंके ज्ञानका संयोग तुम सभीके योगका निमित्त कैसे बनेगा- इस विषयमें जब तुमलोग किसी पुरुषसे हमलोगोंके द्वारा कहा गया श्लोक सुनोगे, तब तुम्हें योगकी प्राप्ति होगी। इस प्रकार कहकर वह सुमना नामक बुद्धिमान् चक्रवाक चुप हो गया ।। 51-52 ॥
मार्कण्डेयजी बोले- हे तात! हे शन्तनुपुत्र ! मैंने लोककल्याणके निमित्त यह चरित्र आपसे कहा, अब दूसरा क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 53 ॥