व्यासजी बोले- श्राद्धदेव सूर्यके वंशके वर्णनको सुनकर मुनिश्रेष्ठ शौनकने सूतजीसे आदरपूर्वक पूछा ॥ 1 ॥शौनकजी बोले- हे सूतजी हे चिरंजीव हे व्यासशिष्य! आपको नमस्कार है, आपने परम दिव्य एवं अति पवित्र कथा सुनायी ॥ 2 ॥
आपने कहा कि श्राद्धके देवता सूर्यदेव हैं, जो उत्तम वंशकी वृद्धि करनेवाले हैं, इस विषयमें मुझे एक सन्देह है, उसे मैं आपके समक्ष कहता हूँ ॥ 3 ॥ विवस्वान् सूर्यदेव श्राद्धदेव क्यों कहे जाते हैं? मेरे इस सन्देहको दूर कीजिये, मैं उसे प्रेमपूर्वक सुनना चाहता हूँ॥4॥
हे प्रभो! आप श्राद्धके माहात्म्य तथा उसके फलको भी कहिये, जिससे पितृगण प्रसन्न होकर अपने वंशजका निरन्तर कल्याण करते हैं ॥ 5 ॥
हे महामते। मैं पितरोंकी श्रेष्ठ उत्पत्तिको सुनना चाहता हूँ, आप इसे कहिये और [मेरे ऊपर] विशेष कृपा कीजिये ॥ 6 ॥
सूतजी बोले- हे शौनक ! मैं उस समस्त पितृसर्गको आपसे प्रेमपूर्वक कह रहा हूँ, जैसा कि भीष्मके पूछने पर मार्कण्डेयने उनसे कहा था और महर्षि सनत्कुमारने बुद्धिमान् मार्कण्डेयसे जो कहा था, उसे मैं आपसे कहूँगा। यह सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है ॥ 7-8 ।।
युधिष्ठिरके पूछनेपर धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्मने शरशय्यापर लेटे हुए जो कहा था, उसे मैं आपसे कह रहा हूँ, सुनिये ॥ 9 ॥
युधिष्ठिरजी बोले [हे पितामह!] पुष्टि चाहनेवाले पुरुषको किस प्रकार पुष्टिकी प्राप्ति होती है और कौन-सा कार्य करनेवाला [मनुष्य] दुखी नहीं होता, इसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ 10 ll
सूतजी बोले- युधिष्ठिरके द्वारा आदरसहित पूछे गये प्रश्नको सुनकर वे धर्मात्मा भीष्म सभीको | सुनाते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहने लगे- ॥ 11 ॥
भीष्म बोले- हे युधिष्ठिर ! जो मनुष्य प्रेमसे करते हैं, उन श्राद्धोंसे निश्चय ही पितरोंकी कृपासे उसका सब कुछ सम्पन्न हो जाता है। श्रेष्ठ फलकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य पिता पितामह और प्रपितामह | इन तीनोंका पिण्डोंसे श्राद्ध सदा करते हैं। हे युधिष्ठिर ! [श्राद्धसे प्रसन्न हुए] पितर धर्म तथा प्रजाकी इच्छा करनेवालेको धर्म तथा सन्तान प्रदान करते हैं और पुष्टि | चाहनेवालेको पुष्टि प्रदान करते हैं ॥ 12-15 ॥युधिष्ठिर बोले - [ हे पितामह!] किन्हींके पितर स्वर्ग में और किन्हींके नरकमें निवास करते हैं और प्राणियोंका कर्मजन्य फल भी नियत कहा जाता है। किये गये वे श्राद्ध पितरोंको किस प्रकार प्राप्त होते हैं और नरकमें स्थित पितर किस प्रकार श्राद्धोंको प्राप्त करनेमें तथा फल देनेमें समर्थ होते हैं? मैंने सुना है कि देवतालोग भी स्वर्गमें पितरोंका यजन करते हैं। मैं यह सब सुनना चाहता हूँ, आप विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ 16 - 18 ॥
भीष्मजी बोले- हे शत्रुमर्दन ! इस विषयमें जैसा मैंने सुना है और परलोकमें गये हुए मेरे पिताने जैसा मुझसे कहा है, उसे आपसे मैं कह रहा हूँ ॥ 19 ॥
किसी समय जब मैं श्राद्धकालमें पिण्डदान देने लगा, तब मेरे पिताने भूमिका भेदनकर अपने हाथमें पिण्डदान ग्रहण करना चाहा। किंतु ऐसी कल्प - विधि नहीं देखी गयी है-ऐसा निश्चय करके [पिताके अनुरोधका] बिना विचार किये मैंने कुशाओंपर ही पिण्डदान किया ll 20-21 ॥
तब मुझसे सन्तुष्ट हुए मेरे पिताने मधुर वाणीमें कहा- हे अनघ ! हे भरतश्रेष्ठ ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम्हारे जैसे धर्मात्मा एवं विद्वान् [पुत्र] से मैं | पुत्रवान् हूँ। हे पुरुषोत्तम! तुमसे जैसी आशा थी, तुमने मुझे तार दिया। मैंने तो [तुम्हारी धर्मनिष्ठाकी ] परीक्षा की थी । ll 22-23 ॥
राजधर्मकी प्रधानतासे राजा जैसा आचरण करता है, प्रजाएँ भी प्रमाण मानकर उसी आचरणका अनुसरण करती हैं ॥ 24 ॥
हे भरतश्रेष्ठ ! हे पुत्र ! तुम सनातन वेदधर्मोको सुनो, तुमने वेदधर्मके प्रमाणानुसार कर्म किया है। अतः तुमसे प्रसन्न होकर प्रेमपूर्वक मैं तुम्हें तीनों लोकोंमें दुर्लभ उत्तम वर देता हूँ, तुम उसे ग्रहण करो ।। 25-26 ॥
तुम जबतक जीवित रहना चाहोगे, तबतक मृत्यु तुमपर प्रभावी नहीं होगी। तुमसे आज्ञा पाकर ही मृत्यु [तुम्हारे ऊपर] प्रभाव डाल सकेगी। अब | इसके अतिरिक्त तुम और जो उत्तम वर चाहते हो, उसे मैं तुम्हें दूँगा हे भरतश्रेष्ठ! तुम्हारे मनमें जो हो, | उसे माँगो ।। 27-28उनके इस प्रकार कहनेपर मैंने हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करके कहा- हे मानद। आपके प्रसन्न होनेसे मैं कृतकृत्य हो गया हूँ। मैं कुछ प्रश्न पूछता हूँ, आप उसका उत्तर दें ॥ 29 ॥ तब उन्होंने मुझसे कहा- तुम जो [जानना ] चाहते हो, उसे पूछो, मैं उसे बताऊँगा। उनके ऐसा कहनेपर मैंने राजासे पूछा, तब वे उसे कहने लगे- ॥ 30 ॥ शान्तनु बोले- हे तात! सुनो, मैं तुम्हारे प्रश्नका उत्तर यथार्थ रूपसे दे रहा हूँ, जैसा कि मैंने मार्कण्डेयसे समस्त पितृकल्प सुना है। हे तात! तुम मुझसे जो पूछते हो, उसीको मैंने महामुनि मार्कण्डेयसे पूछा था, तब उन धर्मवेत्ताने मुझसे कहा- ॥ 31-32 ॥
मार्कण्डेयजी बोले- हे राजन्! सुनो, किसी समय आकाशकी ओर देखते हुए मैंने पर्वतके अन्दरसे आते हुए किसी विशाल विमानको देखा 33 ॥ मैंने उस विमानमें स्थित पर्यंकमें जलते हुए अंगारके समान प्रभावाले, अत्यन्त असामान्य मनोहर तथा प्रज्वलित महातेजके सदृश एक अंगुष्ठमात्र पुरुषको लेटे हुए देखा, जो कि अग्निमें स्थापित अग्निके समान तेजोमय प्रतीत हो रहा था ॥ 34-35 मैंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम करके उन प्रभुसे पूछा - हे विभो ! मैं आपको किस प्रकार जान सकता हूँ ? ॥ 36 ॥
तब उन धर्मात्माने मुझसे कहा- हे मुने! निश्चय ही तुम्हारेमें वह तप नहीं है, जिससे तुम मुझ ब्रह्मपुत्रको जान सको। तुम मुझे सनत्कुमार समझो । तुम्हारा कौन-सा कार्य सम्पन्न करूँ ? ब्रह्माके जो अन्य पुत्र हैं, वे मेरे सात छोटे भाई हैं, जिनके वंश प्रतिष्ठित हैं। हमलोग अपनेमें ही आत्माको स्थिर करके यतिधर्ममें संलग्न रहनेवाले हैं ॥ 37-39 ॥ मैं जैसे उत्पन्न हुआ हूँ, वैसा ही हूँ अतः कुमार इस नामसे प्रसिद्ध हुआ। अतः हे मुने! सनत्कुमार | यह मेरा नाम कहा गया है ॥ 40 ॥
तुमने मेरे दर्शनकी इच्छासे भक्तिपूर्वक तपस्या की है, इसलिये मैंने तुम्हें दर्शन दिया, तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करूँ ? ॥ 41 ॥उनके इस प्रकार कहनेपर मैंने उनसे कहा- हे प्रभो सुनिये, आप पितरोंके आदिसर्गको मुझसे यथार्थ रूपसे कहिये ॥ 42 ॥
मेरे ऐसा कहनेपर उन्होंने कहा- हे तात! सुनो, मैं तुमसे सुखदायक सम्पूर्ण पितृसर्ग यथार्थरूपसे तत्त्वपूर्वक कहता हूँ ॥ 43 ॥
सनत्कुमारजी बोले- पूर्वकालमें ब्रह्माजीने देव गणको उत्पन्न किया और उनसे कहा- तुमलोग मेरा वजन करो, किंतु फलकी आकांक्षा करनेवाले वे उन्हें छोड़कर आत्मयजन करने लगे तब ब्रह्माजीने उन्हें शाप दे दिया- मूढो ! तुमलोगोंका ज्ञान नष्ट हो जायगा। उसके अनन्तर कुछ भी न जानते हुए वे सभी नष्ट ज्ञानवाले देवता सिर झुकाकर उन पितामहसे बोले- हमलोगोंपर कृपा कीजिये ।। 44-459/3 ।।
उनके ऐसा कहनेपर ब्रह्माने इस कर्मका प्रायश्चित्त करनेके लिये यह कहा कि तुमलोग अपने पुत्रोंसे पूछो, तभी ज्ञान प्राप्त होगा ।। 461/2 ॥
. उनके ऐसा कहनेपर नष्ट ज्ञानवाले वे देवता प्रायश्चित्त जाननेके लिये पुत्रोंके पास गये और इस कर्मका प्रायश्चित्त उनसे पूछा। हे अनघ! तब उनका [समाधान करके] पुत्रोंने उनसे कहा- प्राप्त हुए ज्ञानवाले हे पुत्रो आप सभी देवता प्रायश्चित्तके लिये जाइये। तब अभिशप्त वे सभी देवता पुत्रोंकी इच्छासे प्रेरित हो ब्रह्मदेवके पास पुनः जा पहुँचे तथा [ समग्र वृत्तान्त कह सुनाया और] पूछने लगे कि हमारे पुत्रोंने हमें 'पुत्र' कहा है [ इसका क्या रहस्य है ?] ॥ 47-49 ॥
तब ब्रह्माजीने संशययुक्त उन देवताओंसे कहा- हे देवताओ! सुनो, तुमलोग ब्रह्मवादी नहीं हो। अतः तुमलोगोंके उन परम ज्ञानी पुत्रोंने जो कहा- उसे सन्देहका त्याग करके ठीक समझो, वह अन्यथा नहीं है। तुमलोग देवता हो और वे [ज्ञान प्रदान करनेसे] तुम्हारे पितर हैं। अतः सभी कामनाओंको सिद्ध करनेवाले आपलोग प्रसन्नतासे परस्पर एक दूसरेका यजन करें । ll 50-52 ॥
सनत्कुमारजी बोले – हे मुनिश्रेष्ठ ! तब ब्रह्माजी के वचनसे सन्देहरहित हो वे एक- दूसरे पर प्रसन्न होकर | आपसमें सुख देनेवाले हुए ॥ 53 ॥इसके बाद देवगणोंने अपने पुत्रोंसे कहा तुमलोगोंने हमें 'पुत्रकाः ' - ऐसा कहा है, अतः तुमलोग पितर होओगे, इसमें संशय नहीं है ॥ 54 ॥
जो कोई भी पितृश्राद्धमें पितृकर्म करेगा, [ वह निश्चय ही पूर्णमनोरथ होगा ] उसके श्राद्धोंसे तृप्त हुए चन्द्रदेव सभी लोगोंको एवं समुद्र, पर्वत तथा वनसहित चराचरको तृप्त करेंगे। जो मनुष्य पुष्टिकी कामनासे श्राद्ध करेंगे, उससे प्रसन्न हुए पितर उन्हें सदा पुष्टि प्रदान करेंगे। जो लोग श्राद्धमें नाम गोत्रपूर्वक तीन पिण्डदान करेंगे, उनके श्राद्धसे तृप्त हुए तथा सर्वत्र वर्तमान वे पितर तथा प्रपितामह उनकी सभी कामनाओंकी पूर्ति करेंगे ॥ 55-58॥
[ब्रह्माजीने कहा ही था कि] हे देवताओ ! उनका यह कथन सत्य हो। इसलिये हम सभी देवगण तथा पितृगण परस्पर पिता तथा पुत्र हैं। उन पितरोंके भी पिता वे देवगण [ज्ञानोपदेशरूप] धर्मसम्बन्धके कारण पितरोंके पुत्र बने और परस्पर एक- दूसरेके पिता-पुत्रके रूपमें पृथ्वीपर प्रसिद्ध हुए ॥ 59-60॥